लंबोधरन पिल्लै . बी कॉयमबत्तूर करपगम विश्वविद्यालय में प्रोफ.(डा.) के.पी.पद्मवती अम्मा के मार्गदर्शन में पी.एच.डी. केलिए शोधरत लंबोधर...
लंबोधरन पिल्लै. बी
कॉयमबत्तूर करपगम विश्वविद्यालय में
प्रोफ.(डा.) के.पी.पद्मवती अम्मा के
मार्गदर्शन में पी.एच.डी. केलिए शोधरत
लंबोधरन पिल्लै.बी का जन्म 20 मई 1965 को कोट्टारकरा, कोल्लम, केरल में हुआ।
पिता- कृष्ण पिल्लै एवं माता- भगीरथि अम्मा । शिक्षा: एम.ए. हिन्दी, एम.फिल एवं करपगम विश्वविद्यालय (कोयम्बटूर) से पी.एच.डी (शोधरत)। पत्नि : श्रीलेखा नायर , पुत्र घनश्याम नायर, पुत्री नक्षत्रा नायर । सम्प्रति: प्रोफसर (हिंदी), एम.ए.एस. कालेज, मलप्पुरम, केरल।
ई मेल: blpillai987@gmail.com
‘उपन्यास सम्राट’ प्रेमचन्द आधुनिक भारतीय साहित्य के ध्रुव तारा है । उनके कथा पात्र और पात्रों के संदेश जहाँ जहाँ व्याप्त है वहाँ वहाँ रचयिता की यश फैले है । उनके कालातीत उपन्यासों की संख्या बारह है । ये उपन्यास उनके अमरत्व का बखान करते है । प्रेमचन्द सचमुच बहुआयामी कलाकार है । ‘प्रेमा’, ‘प्रतिज्ञा’, ‘सेवासदन’, ‘प्रेमाश्रम’ और ‘वरदान’ प्रेमचन्द के आरंभ कालीन उपन्यास है ।
प्रेमा
प्रेमचन्द मूल रूप में उर्दू के लेखक थे । इसलिए उन्होंने अपनी आरंभ काल में पहले उर्दू में उपन्यास लिखते थे और बाद में हिन्दी में रूपांतर करता था । उनका पहला उर्दू उपन्यास “असरारे मुआबिद उर्फ देवस्थान रहस्य” है । यह 8 अक्तूबर 1903 से 1 फरवरी 1905 तक ‘आवाज़-ए-खल्क’ नामक उर्दू साप्ताहिक में धारावाहिक के रूप में प्रकाशित किया था । यह अपूर्ण रचना होने के कारण बाद में उन्होंने इसे परिमार्जित कर 1906 में “हमखुर्मा ओ हम सवाब” नाम से प्रकाशित किया । फिर उन्होंने इसे हिन्दी में रूपांतरित कर 1907 में “प्रेमा” नाम से प्रकाशित किया । “प्रेमा” प्रेमचन्द का हिन्दी का पहला उपन्यास माना जाता है ।
“प्रेमा” उपन्यास का नायक अमृतराज विधवा का विवाह करता है । जब प्रेमचन्द अपने प्रथम विवाह की असफलता से दुःखी थे तब उन्होंने विवेच्य उपन्यास की रचना शुरु कर दी थी । वास्तव में थोड़े दिनों के बाद उन्होंने बाल विधवा शिवरानी देवी को पत्नी बनाया। लगता है कि “प्रेमा” का कथानक प्रेमचन्द के वैयक्तिक जीवन का एक ऊँचा पहलू है । संभवतः उपन्यासकार ने तत्कालीन जीवन यातनाओं एवं व्यक्तिगत परिस्थितियों को “प्रेमा” के रूप में परिवर्तित कर दिया है । यह तो सच है कि अपने जीवन की एक घटना को उन्होंने अपने प्रथम उपन्यास की कथा वस्तु बनाकर मूर्त रूप प्रदान कर दिया । “प्रेमा” और “प्रतिज्ञा” अलग अलग उपन्यास होकर भी दोनों की कथानक में अंतर नहीं होता है, केवल पात्रों के नाम में ही थोड़ा अंतर होता है । इसलिए पूरा कथानक “प्रतिज्ञा” में दिया जायेगा ।
“प्रेमा” उपन्यास लिखते समय प्रेमचन्द आर्य समाज के आदर्शों से आकर्षित थे । आर्य समाज में विधवा विवाह का बड़ा प्रचलन था । उपन्यास में उन्होंने विधवा विवाह की समस्या को ज़ोर से काबिल कर दिया है । उपन्यास का महत्वपूर्ण चरित्र अमृतराज है । अमृतराज आर्य समाज विश्वासी तथा परिवर्तनवादी है । विधवा को जीवन सहचरी बनाने का उनका निर्णय सराहनीय है ।
प्रतिज्ञा
“प्रतिज्ञा” प्रेमचन्द का आरंभ काल का आदर्शवादी उपन्यास है । विद्वान इसे उनके तीन लघु उपन्यास की कोटि में स्थान देते है । इस उपन्यास की रचना सन् 1905-6 में हुई थी। यह जनवरी 1927 से नवंबर 1927 तक “चाँद” पत्रिका में धारावाहिक रूप में प्रकाशित किया था । वस्तुतः इसे “प्रेमा” उपन्यास के परिवर्तित रूप समझते है । इसलिए इसकी कथानक “प्रेमा” से भिन्न नहीं होता । विधवाओं के पुनर्विवाह पर आधारित यह उपन्यास प्रेमचन्द का सामाजिक मनोभाव स्पष्ट कर देता है ।
अठारहवीं-उन्नीसवीं शती में उत्तर भारत में आर्य समाज का प्रचलन जोरों पर था । आर्य समाज में विधवा विवाह को बड़ा प्रोत्साहन मिला था । वैसे आर्य समाज ने छूआ-छूत का खुलकर विरोध करता था । प्रेमचन्द ने आर्य समाज आदर्शों से प्रभावित होकर, सुधारवादी दृष्टिकोण प्रकट करते हुए “प्रतिज्ञा” उपन्यास की रचना की है ।
“प्रतिज्ञा” उपन्यास का नायक अमृतराय और नायिका उसकी साली प्रेमा है । अमृतराय ने पहले शपथ रखा था कि विधवा से विवाह करेंगे । दाननाथ अमृत का परम मित्र है । दोनों एक साथ प्रेमा से प्रेम करते है । इस बीच प्रेमा की बड़ी बहन की मृत्यु होती है । तब प्रेमा अमृतराय को पति बनाना चाहती है । आर्य समाज के आदर्शों पर प्रभावित अमृतराय काशी के आर्य मंदिर में जाकर समाज नेता अमरनाथ के भाषण सुनते है । इसके बाद उनके मन में परिवर्तन होता है । वह विवाह से अतृप्त होकर समाज सुधार की ओर मुड़ जाता है । अमृतराय ने गाँव में एक विधवाश्रम खोल दिया और अपना जीवन विधवाओं की भलाई के लिए समर्पित किया । विवाह से वंचित प्रेमा दुःखी एवं विवश हो जाती है । उसकी शादी दाननाथ से संपन्न होती है । प्रेमा के पड़ोसिन पूर्णा विधवा जीवन बिता रही है । कमलाप्रसाद प्रेमा के भाई है और सुमित्रा उनकी पत्नी । वासना विकृतियों में डूब गया कमलाप्रसाद पड़ोसिन पूर्णा पर बलात्कार करने को तैयार होते है । अपनी रक्षा के वास्ते पूर्णा कुर्सी से कमला प्रसाद को मारकर भाग जाती है । अमृतराय ने पूर्णा को बचाकर अपने विधवाश्रम पर अभय देता है । इस प्रकार वह विधवाओं की रक्षा करने की ‘प्रतिज्ञा’ पूरा कर देता है । कथानक तत्कालीन समाज में स्त्रियों पर होने वाली क्रूरताओं पर आधारित है ।
“प्रतिज्ञा” उपन्यास के कथानक में जीवन की वैविध्य पायी जाती है । वे बताना चाहता है कि कोई स्त्री स्वयं विधवा नहीं बन जाती । प्रेमचन्द की लेखनी विधवा पर समाज की क्रूरता आंकने में सक्षम है । प्रेमचन्द शिक्षित है । उन्हें अपराधी कमलाप्रसाद के अनुकूल रहना असंभव है । लगता है कि अमृतराय का आदर्श प्रेमचन्द का अपना आदर्श है।
सेवासदन
“सेवासदन” उपन्यास का प्रकाशन सन् 1917 में हुआ था । यह प्रेमचन्द ने 1916 में उर्दू में “बाज़ार-ए-हुस्न” नाम से लिखा था । एक वर्ष बाद हिन्दी में रूपांतरित कर “सेवासदन” नाम से प्रकाशित किया । यह उपन्यास प्रेमचन्द का पहला यथार्थवादी उपन्यास माना जाता है । “सेवासदन” के प्रकाशन के बाद प्रेमचन्द को उपन्यासकार की अच्छा ख्याति मिली है । अथवा “सेवासदन” के द्वारा उन्होंने हिन्दी में उपन्यासकार का हस्ताक्षर डाला है । प्रत्यक्ष रूप में देखें तो इसकी कथा वेश्या जीवन से संबंधित है । मगर उसके भीतर समाज सुधार की भावना भी परिलक्षित है । इसमें उन्होंने मध्य वर्ग के जीवन से संबंधित अनेक मामलों का अनुपम आविष्कार और उनका सुझाव भी दिया है ।
“प्रेम” और “प्रतिज्ञा” में प्रेमचन्द ने नारियों के प्रति जिस स्नेहपूर्ण व्यवहार दिखाया है, उस स्नेह एवं उदारता “सेवासदन” में भी होता है । उन्होंने अपने पहले उपन्यासों में दहेज प्रथा, विधवा की दयनीय स्थिति एवं उन पर समाज का बुरा व्यवहार आदि विषयों की चर्चा की है । वही विषय “सेवासदन” में भी उभर कर आता है । कुछ लोग समझते थे कि “सेवासदन” की मूल समस्या वेश्यावृत्ति है । वास्तव में इसकी मुख्य समस्या वेश्यावृत्ति नहीं है । प्रेमचन्द ने सुमन की समस्या को व्यक्तिगत विषय न बनाकर सामाजिक विषय के रूप में बदल दिया है- यह है मूल समस्या । वे समझाते है कि सुमन सीधे वेश्यावृत्ति की ओर नहीं मुड़ती, चारों तरफ की सामाजिक परिस्थितियाँ उसे इस वृत्ति को स्वीकार करने में मज़बूर कर देती है ।
पुलिस दारोगा कृष्णचन्द्र सज्जन एवं जनप्रिय अफसर है । अधिकांश पुलिस अधिकारी रिश्वत माँगकर आडंबरपूर्ण जीवन बिताते समय कृष्णचन्द्र रिश्वत नहीं लेते थे और दूसरों को रिश्वत लेने से रोकते भी थे । उनके वेतन से पत्नी गंगाजली, पहली बेटी सुमन तथा दूसरी बेटी शांता जीती है । सुमन सुंदर, सुशील और सुशिक्षित लड़की है । वह सबसे बढ़कर जीना चाहती थी । जब सुमन विवाह योग्य बन गयी तो दहेज की समस्य कृष्णचन्द्र को झकझोर कर देती । वे एक मुकदमे में फँसे महंत रामदास से तीन हज़ार रुपये रिश्वत माँगने का बाध्य हो जाता है । वे रंगे हाथों पकड़े जाते है और चार वर्ष का कैद मिल जाता है । परिणाम स्वरूप गंगाजली, सुमन और शांता के साथ बनारस में अपने भाई के घर पर अभय पाती है । सुमन का विवाह रुक जाता है । दहेज के बिना उनका विवाह गजाधर पांडे से संपन्न होता है । आयु में ही नहीं स्वभाव में भी पति और पत्नी में बड़ा अंतर था । इस वक्त सुमन की माँ मर जाती है । गजाधर ने सुमन को अच्छा खाना और कपड़ा नहीं देता है । पत्नी की सारी सुख-सुविधाओं से वंचित सुमन स्नेह के लिए तरसती है । दोनों के वैवाहिक जीवन का ताल-मेल टूट जाता है । एक दिन गजाधर ने निर्दयता के साथ सुमन को घर से निष्कासित कर देता है ।
पति से उपेक्षित सुमन वकील पद्मसिंह के घर पर जाकर अभय मांगती है । किंतु अभय नहीं मिलती है । गाँव की वेश्या भोली ने सुमन को अभय देती है । गजाधर साधु का जीवन ग्रहण करता है । सदनसिंह एक सुंदर एवं बलिष्ठ युवक है जो अपने गाँव से बनारस में आकर अपने चाचा पद्मसिंह के यहाँ रहकर पढ़ता है । उनका ध्यान सुमन पर पड़ता है । साल गुज़रते रहे । समाज सुधारक विट्ठलदास सुमन को भोली के यहाँ से छुडाने का प्रयत्न करता है । तर्क-वितर्क के पश्चात उसने वेश्यालय छोड़कर समाज सुधारकों के विधवा आश्रम पर रहने की निश्चय किया । इसी बीच चार साल का दंड पूरा कर सुमन के पिताजी कृष्णचन्द्र जेल छूट कर आता है । सदन से शांता का विवाह तय कर लेता, किंतु अपवाद के डर से सदन हट जाता है । आगे सदन और सुमन के संपर्क जारी होती है । अपनी बेटियों के असफल जीवन पर दुःखी होकर कृष्णचन्द्र घर छोड़ते है । रास्ते में वह एक साधु से मिल जाता जो सुमन के पति गजाधर थे । गजाधर गजानन्द नाम ले लिया था । पारिवारिक जीवन की विफलता के कारण वे पहले साधु बन चुके थे । कृष्णचन्द्र ने गजाधर के साथ रात काटने का निश्चय किया किंतु रात में चुपके उठकर पास की गंगा नदी में कूद कर आत्महत्या कर दी ।
गंगा के तट पर रहने वाला सदन मल्लाहों का नेता बन जाता है । उसने दो-चार नावें भी खरीद ली । सदन शांता को पत्नी के रूप में स्वीकार कर नदी तट की झोंपड़ी पर रहना शुरू किया । सुमन भी इस झोंपड़ी में रहती है । आगे दुःखी सुमन झोंपड़ी से निकलती है । रास्ते में एक साधु से मिला, उन्हें मालूम न था कि वह साधु गजाधर है । इस समय पद्मसिंह के सहायता से साधु एक आश्रम बनाकर निराश्रित युवतियों के संरक्षण करते थे । सुमन इस सेवासदन (आश्रम) से जुड़ कर सेवारत हो जाती है ।
“सेवासदन” के द्वारा प्रेमचन्द यह सवाल उठाता है कि नारी वेश्या होने की कारण क्या है । इसका समाधान भी उन्होंने दिया है । हमारे यहाँ की नारी की अधःपतन की मूल कारण हमारे समाज है । पत्नी के रूप में सुमन की जो स्थान है, वेश्या के रूप में सुमन को उससे बड़ी स्थान होती है । उनके पास समाज की उच्च वर्ग के लोग आते-जाते है । पत्नी के स्थान पर सुमन को मिलने से ज्यादा सुख और चयन वेश्या भोली को मिलती है ।
“सेवासदन” की मुख्य कथा गजाधर और सुमन से संबंधित है तो गौण कथा सदन सिंह और शांता से संबंधित कथा है । गजाधर का कथा का अंत साधु का जीवन वरण करने पर पड़ता है । सुमन सबसे अधिक ध्यान आकर्षित कथापात्र है । उनकी जीवन कथा की अंत सेवाश्रम (सेवासदन) में होती है ।
“सेवासदन” में प्रेमचन्द दिखाता है कि हमारी सामाजिक कुरीतियाँ स्त्रियों के जीवन को विवश करती है । इसकी मुख्य समस्या मध्य वर्गीय लोगों की आडंबर प्रियता से संबंधित है । प्रेमचन्द यह बताना चाहता है कि मनुष्य को जीने के लिए धन द्वारा प्राप्त सुख के समान मन द्वारा प्राप्त सुख भी चाहिए । मन एवं धन के संयोग से जीवन सुख-संपन्न हो जाता है ।
प्रेमाश्रम
“प्रेमाश्रम” का प्रकाशन 1922 में हुआ था । इससे पहले यह उपन्यास “गेशए-आफ़ियत” नाम से उर्दू में प्रकाशित किया था । इस उपन्यास का घटना स्थल बनारस से बारह मील दूर का लखनपुर नामक गाँव है । “प्रेमाश्रम” में तीन पीढ़ी के जमींदारी व्यवस्था का चित्रण हुआ है । पहला लाला जयशंकर की पीढ़ी, दूसरा ज्ञानशंकर की पीढ़ी और तीसरा मायाशंकर की पीढ़ी है । असमियों से बंधुत्व भावना दिखाने वाला जयशंकर में थोड़ी प्रजा वत्सलता मौजूद है । ज्ञानशंकर क्रूर तथा किसानों के ऊपर भारी से भारी अपराध-अन्याय करने वाला है । मायाशंकर जमींदार परिवार में जन्मे पर भी किसानों से तादाम्य करने वाला मानवोचित गुण संपन्न एक आदर्श जमींदार है । “प्रेमाश्रम” में ग्रामीण किसानों के जीवन-संघर्षों को कथानक बनाया है । जैसे जीवन सुख-दुःख सम्मिश्रित है वैसे प्रेमचन्द किसानों के चित्रण करते समय उसमें जमींदारों के चित्रण को भी स्थान देते है । उनकी दृष्टि में किसानों के दयनीय जीवन चित्रित करने के लिए जमींदारों की क्रूरता आंकना आवश्यक है ।
प्रभाशंकर जटाशंकर का भाई है । दोनों औरंगाबाद में रहते है । बड़े भाई जटाशंकर की मृत्यु के बाद प्रभाशंकर जमींदार का काम उठा लेता है । जटाशंकर का पुत्र ज्ञानशंकर चाचा प्रभाशंकर के स्वभाव को पसंद नहीं करते है । गिरिधर ज्ञानशंकर का चपरासी है । ज्ञानशंकर जटाशंकर के बरसी के अवसर घी लेने के लिए गिरिधर को लखनपुर गाँव की ओर भेजता है। बनारस का मजिस्ट्रेट ज्वालासिंह और ज्ञानशंकर सहपाठी है । ज्वालासिंह के अदालत में प्रभाशंकर का पुत्र उदयशंकर के नाम पर एक मुकदमा है । ज्ञानशंकर मजिस्ट्रेट से निवेदन करते है कि उदयशंकर को कठोर दंड दिया जाये । किंतु वह दंड से बच गये ।
बनारस में भयंकर बाढ़ आयी, सारा गाँव पानी में डूब गया । अमेरिका से कृषि शास्त्र में शिक्षा प्राप्त प्रेमशंकर तुरंत आकर किसानों को सहायता देता है । दो-तीन महीनों के भीतर किसानों ने पूर्व स्थिति प्राप्त की । प्रेमशंकर लखनपुर में किसानों के बीच रहने लगे । गाँव वालों ने मिलकर हाजीपुर में उन्हें एक मकान बना देता है । समाज सुधारकों का यह संकेत ‘प्रेमाश्रम’ नाम से जाने लगा । गौसखाँ गाँव का एक जमींदार है । उसने एक दिन मनोहर की पत्नी विलासी को गालियाँ दी । इस पर रुष्ट होकर मनोहर का पुत्र बलराज ने छिपकर गौस का गला काट कर दिया और गाँव से अप्रत्यक्ष हो गये । क्रुद्ध पुलीस किसानों को डराना शुरू किया और मुकदमा ले लिया । किसानों के मुकदमा सेशन कोर्ट में पहुंच गया । मनोहर में भारी दुःख एवं निराशा पैदा होती कि उसने गाँव के सारे किसानों को संकट पर डाल दिया । परिणाम स्वरूप उसने आत्महत्या कर ली । मुकदमे का फैसला किसानों के प्रतिकूल था । लंबी सज़ा सुनायी गयी और किसानों को जेल में डाला दिया । इस बीच ज्ञानशंकर के स्वभाव में बड़ा परिवर्तन होता है । दुःख-पश्चाताप में डूब कर वे गंगा में कूद कर आत्महत्या कर दी ।
ज्ञानशंकर का चरित्र परंपरागत रीति से परिवर्तित जमींदारी प्रथा की ओर संकेत करता है । संसार बदला तो जमींदार की क्रूरता का रूप भी बदला । ज्ञानशंकर पापी, स्वार्थी, धन लोभी, निर्दय, धोखेबाज, असंस्कृत और असभ्य है । वह सरकार अधिकारियों से मिलकर किसानों का शोषण करता है । अपने ससुर और साली पर अन्याय करने में उन्हें कोई हिचक नहीं है । अपने भाई का वध कर संपत्ति पर अधिकार जमाना चाहने वाला ज्ञानशंकर अमानवीय है । उनमें जमींदारी प्रथा का सारा अन्याय और अनीतियाँ झलकती है । विदेश से कृषि विज्ञान प्राप्त प्रेमशंकर को किसानों के परम मित्र और अगुआ के रूप में उपस्थित कर दिया है । उनके व्यक्तित्व साफ-सुधरा है । प्रेमचन्द ने उनका चरित्र किसानों के सहायक के रूप में आंका है । चरित्र चित्रण से ज्ञात होता है कि ज्ञानशंकर जमींदारी प्रणाली का आधुनिक चेहरा है । लगता है प्रेमशंकर प्रेमचन्द का प्रिय है ज्ञानशंकर अप्रिय ।
प्रेमशंकर और प्रेमचन्द में ‘प्रेम’ है दोनों आदर्शनिष्ठ है । उपन्यास में प्रेमशंकर का स्थान ज्ञानशंकर के पीछे निर्धारित है । पाठकों के मन में यह शंका पैदा होती है कि अनेक मानवीय गुणों से संपन्न प्रेमशंकर को क्यों अमानवीय ज्ञानशंकर के पीछे खड़ा दिया । वास्तव में “प्रेमाश्रम” का एकमात्र आदर्शवादी पात्र प्रेमशंकर ही है । उनका चरित्र एक महत्वाकांक्षी के स्तर पर विद्यमान है । उनके मन में आरंभ से स्वदेश और किसानों के प्रति अपार प्यार है। उनमें साम्यवादी भावना परिलक्षित है । इसलिए गाँव पर बाढ़ पड़ते समय वे अमेरिका से लौटते और अपनी तन और धन किसानों की पुनर्गठन के लिए खर्च कर देता है । वह दूसरों के लिए अपनी ज़मीन तक छोड़ देता है । जब लक्ष्मणपुर पर हलचल उठा तब प्रेमशंकर भी पकड़ा गया । प्रभाशंकर उनकी जेल मुक्ति की आयोजना की, वह सहमत नहीं होता, किसानों के साथ कारावास की सज़ा भोगता है । प्रेमशंकर ने अपने शत्रुओं को भी मित्र समझकर उसकी भलाई के लिए परिश्रम किया । जब लोगों ने डॉ. इरफान अली की हत्या के लिए उन पर आक्रमण की तब उन्होंने लोगों की पकड़ से उन्हें बचा दिया । मनुष्य स्नेही, निस्वार्थ, सच्चरित्रवान, किसान-मित्र और परोपकारी प्रेमशंकर का चरित्र उत्तरोत्तर विकसित हो कर उपन्यास के अंत में एक अनुकरणीय महापुरुष का रूप धारण कर लेता है ।
“प्रेमाश्रम” उपन्यास में प्रेमचन्द ने भारतीय किसान की निर्धनता को मुख्य विषय बनाया है । यहाँ भी नहीं अपनी संघर्ष पूर्ण समस्या प्रधान रचनाओं में उन्होंने साफ कह दिया है कि किसानों के जन्मागत मामला अर्थाभाव है । ऋण किसान वर्ग का अभिशाप है । “प्रेमाश्रम” की रचना की वेला में ‘चौरीचौरा’ आंदोलन की मजबूत आवाज़ प्रेमचन्द के कानों में गूँज रही थी । आंदोलन पर जागरूक होकर भी किसान परास्त थे । कलम के उस्ताद की आंखों के आगे भारतीय ग्रामीणों की दयनीय स्थिति भली भांति झलकती थी । प्रेमचन्द के समान दरिद्र किसानों के रुदन देखा दूसरा साहित्यकार नहीं है । प्रेमचन्द का विश्वास है कि धनाभाव सभी प्रकार की विपत्ति का मूलभूत कारण है तो धनाधिक्य हर बुराई की जड़ है । पर्याप्त धन के सिवा जीवन नरक तुल्य बन सकता है । प्रेमचन्द निर्धन थे । उन्हें पैसा की कीमत खूब मालूम थी । इस कारण से “प्रेमाश्रम” में ही नहीं अपनी संपूर्ण कृतियों और जीवन में प्रेमचन्द निर्धन के पक्षपाति बन कर रहे थे ।
“प्रेमाश्रम” को हिन्दी का पहला राजनैतिक उपन्यास कहते है । यहाँ प्रेमचन्द तत्कालीन राजनीति का जीता-जागता रूप अंकित करने में विजयी हुए । इसकी किसान पात्र विदेशी हुकूमत और स्वदेशी जमींदार-साहूकार को एक साथ सामना करता है । अपने साहित्य जीवन के आरंभ काल में प्रेमचन्द ने अधिकांशतः कथानक को आश्रमों से जोड़ दिया था । “प्रेमाश्रम” का गठन भी इससे मुक्त नहीं है । कुछ आलोचकों की दावा है कि इसका अंत आश्रम पर दिखाकर प्रेमचन्द आश्रम स्थापित करने का मजबूत कर देता है । असल में उनका उद्देश्य निराश्रितों को एक अवलंब स्थान दिखाना तथा मानव सेवा के मानक रूप दिखाने में केंद्रित है ।
“प्रेमाश्रम” में प्रेमचन्द ने जीवन को विभिन्न दृष्टि से देखकर उसका संपूर्ण वर्णन किया है । डॉ. इन्द्रनाथ मदान के मत में- “यह भारतीय साहित्य में पहला उपन्यास है, जो ग्राम्य-जीवन और उसकी आधारभूत समस्याओं का वर्णन करता है । प्रेमचन्द भारतीय साहित्य में नवीन ढंग के कथा-साहित्य की सृष्टि करने वाले अग्रदूत थे । इसलिए “प्रेमाश्रम” भारतीय कथा-साहित्य के इतिहास की युग-सूचक कृति कही जा सकती है ।”(1) संक्षेप में कह सकते है कि निःसंशय “प्रेमाश्रम” एक महत्वपूर्ण उपन्यास है ।
1.प्रेमचन्द : एक विवेचन, डॉ. इन्द्रनाथ मदान, पृष्ठ-74.
वरदान
ग्रामीण जीवन अभावों की ओर दृष्टि डालने वाला “वरदान ” प्रेमचन्द का एक सामाजिक उपन्यास है जिनका प्रकाशन 1922 में हुआ था । यह मध्य वर्गीय जीवन से संबंधित उपन्यास है । इसमें प्रेम तथा बेमेल विवाह की चर्चा करते हुए उपन्यासकार ने समस्या का समाधान भी प्रस्तुत कर दिया है । “वरदान” प्रेमचन्द की कुशाग्र लेखन निपुणता, नैसर्गिक पात्र-सृष्टि, संतुलित वार्तालाप आदि रेखांकित करने वाला उपन्यास है ।
मुंशी शालीग्राम के मृत्यु के पश्चात उनकी पत्नी सुवामा और बेटा प्रतापचन्द्र का जीवन भारी संकट में पड़ गये । क्यों कि जीवन-यापन के लिए शालीग्राम ने इधर-उधर से बड़ी रकम ऋण ले ली थी । अभिमानी सुवामा अपनी संपत्ति बेचकर ऋण अदा करती है । जब उनकी जीवन आर्थिक संकट पर पड़ी तब उसने रहने वाली घर के आधा हिस्सा संज्जीवलाल को किराये पर दे दिया ।
वज्ररानी संज्जीवलाल की बेटी है । अपने घर के दूसरे भाग पर रहने वाली वज्ररानी से सुवामा के बेटा प्रतापचन्द्र को प्रेम होता है । किंतु संज्जीवलाल ने वज्ररानी के विवाह कमज़ोर मस्तिष्क रखने वाले कमलाचरण से करा देता है । इसमें प्रतापचन्द्र को दुःख एवं निराशा होती है । विवाह के उपरांत कमलाचरण शिक्षा के लिए प्रयाग की ओर गये । वह पहले ही
एक आवारा लड़का था । वे वहाँ एक युवती को बलात्कार करके पुलिस के डर से वहाँ से भाग जाता है । रेल गाड़ी में चढ़कर गाँव की ओर लौटते समय टिकट चेकर को देखकर पुलिस समझा जाता है और डरकर तेज़ी से चलने वाली गाड़ी से बाहर की ओर कूदता है तथा घायल होकर मर जाता है ।
पति की असमय मृत्यु से वज्ररानी की आशाएँ आशंका के रूप में परिवर्तित जाती है । दुःख एवं अकेलापन उसे साहित्य की ओर ले जाता है । वह अपना दुःख, कविता के रूप में लिख देती है । इधर प्रतापचन्द्र के मन में एक बड़ा संघर्ष पैदा होता है । भौतिक जीवन से विरक्त होकर वह आध्यात्मिक मार्ग को स्वीकार करता है । वह अपने संन्यास जीवन के चक्कर में बाहर के लोगों के संपर्क पर आते है । उनकी कीर्ति गाँव के बाहर भी फैल जाती है। एक बार वज्ररानी अपनी सखी माधवी को संन्यासी प्रतापचन्द्र से मिलने के लिए भेजती है । माधवी के मन में उनके प्रति प्रेम पैदा होता, वे उसे अपने पति के स्थान पर प्रतिष्ठित कर सुखी जीवन बिताने का सपना देखती है । प्रतापचन्द्र काशी में लौटते तो माधवी अपना आग्रह व्यक्त करती है । उसका मनोभाव जानकर प्रताप ने संन्यास जीवन छोड़ कर उसे पाने को चाहता है । किंतु माधवी संन्यास जीवन छोड़ने से उसे रोकती है । वास्तव में उसका प्यार वासना पूर्ण न था । उनकी समझ में प्रताप एक समाज सेवक होने के कारण समाज की भलाई के लिए संन्यासी बन कर रह जायें । यह विचार प्रबल होते समय उसने अपने प्रेम का मोह छोड़कर संन्यासिनी बन जाती और उनके साथ मिलकर समाज सेवा में तल्लीन हो जाता है।
प्रेमचन्द के दृष्टि में ऋण ग्रामीणों के जीवन के खलनायक है । सुवामा और प्रतापचन्द्र ऋण पर डूबते समय कथागति विकसित होती है । किराये पर रहने के कारण प्रताप और वज्रयानी की विवाह संपन्न नहीं होती । अंत में अनिच्छित विवाह चलती तो विधि उनकी प्रतिकूल बनती । विभिन्न कारणों से संन्यास मार्ग चुन लिया प्रताप और वज्रयानी आश्रम पर मिल सकती है । निरंतर प्रवाहित जलधारा की जैसी इसकी कथानक चलती है । नायक प्रतापचन्द्र का चरित्र उपन्यास के शुरू से समापन तक लालित्य, भव्य, सच्चरित्र, समाज सेवक और आदर्श निष्ठ के रूप में चित्रित किया है । वज्रयानी के चरित्र में कोई कमी नहीं होती । निष्कर्ष रूप में कह सकते कि एक साधारण पारिवारिक कथा असाधारणत्व के बिना प्रस्तुत करने में प्रेमचन्द विजयी हुए ।
लंबोधरन पिल्लै. बी
कॉयमबत्तूर करपगम विश्वविद्यालय में
प्रोफ.(डा.) के.पी.पद्मवती अम्मा के
मार्गदर्शन में पी.एच.डी. केलिए शोधरत
Written by: Lembodharan Pillai. B, Research scholar, under the Guidance of Prof.(Dr.) K.P.Padmavathi Amma, Karpagam University, Coimbatore,
Tamil nadu, South India.
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संपर्क:
लंबोधरन पिल्लै.बी
Associate Professor in Hindi
Majlis Arts and Science college, Puramannur
Puramannur (po) ,Malappuram (District )
Kerala ( state ) , India - 676552 ( PIN)
Phone : +919745986532,+919846203569
email :blpillai987@gmail.com
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