डॉ.चन्द्रकुमार जैन क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि आज ज्यादातर भारतीयों के पास मोबाइल फोन तो हैं लेकिन घर में शौचालय नहीं है। यह लोगों क...
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि आज ज्यादातर भारतीयों के पास मोबाइल फोन तो हैं लेकिन घर में शौचालय नहीं है। यह लोगों की स्वच्छता के प्रति जागरूकता की कमी और उसके प्रति समाज के दृष्टिकोण का मुकम्मल बयान है। लोग सफाई की बातें जरूर करते हैं, लेकिन जब अपनी जिम्मेदारी का सवाल खड़ा होता है, तब मुंह मोड़ लेने में ही भलाई समझते हैं। यही कारण है शायद कि गांधीजी ने अपने बचपन में ही भारतीयों में स्वच्छता के प्रति उदासीनता की कमी को महसूस कर लिया था।
गांघीजी ने किसी भी सभ्य और विकसित मानव समाज के लिए स्वच्छता के उच्च मानदंड की आवश्यकता को समझा। उनमें यह समझ पश्चिमी समाज में उनके पारंपरिक मेलजोल और अनुभव से विकसित हुई। अपने दक्षिण अफ्रीका के दिनों से लेकर भारत तक वह अपने पूरे जीवन काल में निरंतर बिना थके स्वच्छता के प्रति लोगों को जागरूक करते रहे। गांधीजी के लिए स्वच्छता एक बहुत ही महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दा था। 1895 में जब ब्रिटिश सरकार ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों और एशियाई व्यापारियों से उनके स्थानों को गंदा रखने के आधार पर भेदभाव किया था, तब से लेकर अपनी हत्या के एक दिन पहले 20 जनवरी 1948 तक गांधीजी लगातार सफाई रखने पर जोर देते रहे।
तत्व भूल गए
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गुजरात विद्यापीठ,अहमदाबाद के कुलपति तथा प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक सुदर्शन अयंगार ठीक कहते हैं कि भारत में स्वच्छता परिदृश्य अभी भी निराशाजनक है। हमने गांधी को एक बार फिर विफल कर दिया है। गांधीजी ने समाज शास्त्र को समझा और स्वच्छता के महत्व को समझा। पारंपरिक तौर पर सदियों से सफाई के काम में लगे लोगों को गरिमा प्रदान करने की कोशिश की। आजादी के बाद से हमने उनके अभियान को योजनाओं में बदल दिया। योजना को लक्ष्यों, ढांचों और संख्याओं तक सीमित कर दिया गया। हमने मौलिक ढांचे और प्रणाली से तंत्र पर तो ध्यान दिया और उसे मजबूत भी किया लेकिन हम तत्व को भूल गए जो व्यक्ति में मूल्य स्थापित करता है।
बापू की सीख
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गौरतलब है कि भारत में गांधीजी ने गांव की स्वच्छता के संदर्भ में सार्वजनिक रूप से पहला भाषण 14 फरवरी 1916 में मिशनरी सम्मेलन के दौरान दिया था। उन्होंने वहां कहा था - देशी भाषाओं के माध्यम से शिक्षा की सभी शाखाओं में जो निर्देश दिए गए हैं, मैं स्पष्ट कहूंगा कि उन्हें आश्चर्यजनक रूप से समूह कहा जा सकता है। गांव की स्वच्छता के सवाल को बहुत पहले हल कर लिया जाना चाहिए था। गांधीजी ने स्कूली और उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों में स्वच्छता को तुरंत शामिल करने की आवश्यकता पर जोर दिया था। 20 मार्च 1916 को गुरुकुल कांगड़ी में दिए गए भाषण में उन्होंने कहा था - गुरुकुल के बच्चों के लिए स्वच्छता और सफाई के नियमों के ज्ञान के साथ ही उनका पालन करना भी प्रशिक्षण का एक अभिन्न हिस्सा होना चाहिए। इन अदम्य स्वच्छता निरीक्षकों ने हमें लगातार चेतावनी दी कि स्वच्छता के संबंध में सब कुछ ठीक नहीं है। मुझे लग रहा है कि स्वच्छता पर आगन्तुकों के लिए वार्षिक व्यावहारिक सबक देने के सुनहरे मौके को हमने खो दिया।
यात्रीगण कृपया...
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स्मरणीय है कि गांधीजी ने रेलवे के तीसरे श्रेणी के डिब्बे में बैठकर देशभर में व्यापक दौरे किए थे। वह भारतीय रेलवे के तीसरे श्रेणी के डिब्बे की गंदगी से स्तब्ध और भयभीत थे। उन्होंने समाचार पत्रों को लिखे पत्र के माध्यम से इस ओर सबका ध्यान आकृष्ट किया था। 25 सितंबर 1917 को लिखे अपने पत्र में उन्होंने लिखा - इस तरह की संकट की स्थिति में तो यात्री परिवहन को बंद कर देना चाहिए लेकिन जिस तरह की गंदगी और स्थिति इन डिब्बों में है उसे जारी नहीं रहने दिया जा सकता क्योंकि वह हमारे स्वास्थ्य और नैतिकता को प्रभावित करती है। निश्चित तौर पर तीसरी श्रेणी के यात्री को जीवन की बुनियादी जरूरतें हासिल करने का अधिकार तो है ही। तीसरे दर्जे के यात्री की उपेक्षा कर हम लाखों लोगों को व्यवस्था, स्वच्छता, शालीन जीवन की शिक्षा देने, सादगी और स्वच्छता की आदतें विकसित करने का बेहतरीन मौका गवां रहे हैं।
भारतीय रेलवे में आज भी गंदगी आलम एक बड़ी चुनौती है। रेलवे के डिब्बों को और शौचालय साफ रखने के लिए श्रमिकों और कर्मचारियों को तो रखा जाता है जहां तक स्वच्छता और सफाई से संबंधित प्रश्न है हम भारतीय यात्रियों को इस बारे में कोई शर्म महसूस नहीं होती। शौचालयों का सही तरीके से इस्तेमाल नहीं किया जाता। यहां तक कि वातानुकूलित डिब्बों में यात्रा करने वाले पढ़े लिखे लोग भी अपने बच्चों को शौचालय सीट का इस्तेमाल नहीं करवा कर उन्हें बाहर ही शौच करवाते हैं। डिब्बों में कूड़ा फैलना तो आम बात है। मुझे लगता है कि रेलवे के यात्रीगण कृपया धयान दें वाली उद्घोषणा में लगातार सफाई के सन्देश को कव्हर करना चाहिए।
मुमकिन है
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इधर अभिनेता आमिर खान ने ठीक ही कहा कि स्वच्छ भारत अभियान के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है,बशर्ते नगरपालिकाएं एवं नागरिक इसके क्रियान्वयन में सक्रिय भागीदारी करें। ठोस एवं द्रव्य कचरा प्रबंधन के आसान तरीकों को इलाके की साफ-सफाई में मददगार करार देते हुए आमिर ने घरों में फलों एवं सब्जियों से पैदा हुए कचरों के निपटारे के लिए जांची-परखी पुरानी विधियों के बारे में बताया। आमिर ने कहा यदि नगरपालिकाओं एवं नागरिकों द्वारा ठोस एवं द्रव्य कचरा प्रबंधन के आसान तौर-तरीके अपनाए जाएं तो गैस और उर्जा पैदा की जा सकती है। हमें मैदानों में कचरा नहीं फेंकना चाहिए क्योंकि जब काले रंग का द्रव्यरूपी पदार्थ जमीन में समाता है तो यह काफी नुकसानदेह होता है।
बनेगी बात
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बहरहाल इन उद्गारों पर गौर करें तो आप पाएंगे कि साफ़-सफाई के मुद्दे को अब वास्तव में गंभीरता से लेने का वक्त आ गया है। वैसे, छोटे-बड़े शहरों में इस अभियान का असर तो दिखने लगा है। लोग अब कचरे को लेकर अपनी सोच का कचरा साफ़ करते दीख रहे हैं। कभी अपने घर के सामने या पड़ोसी के द्वार पर घर का कचरा फेंक आने से गुरेज़ न करने वाले भी आहिस्ता-आहिस्ता ही सही,अपनी आदत बदलने के मूड में पेश आ रहे हैं। ऐसा पहले देखने में नहीं आता था। इससे भला कौन इंकार कर सकता है कि लोग जाग तो रहे हैं। लेकिन, साझा जिम्मेदारी के गहरे अहसास के बगैर बात नहीं बनेगी।
याद रहे -
मंज़रेतस्वीर दर्देदिल मिटा सकता नहीं
आईना पानी तो रखता है पिला सकता नहीं
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
लेखक शासकीय दिग्विजय महाविद्यालय
राजनांदगांव,छत्तीसगढ़ में प्राध्यापक हैं।
संपर्क - मो. 9301054300
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