- डॉ. दीपक आचार्य बहुद्देशीय प्रतिस्पर्धा और तेज रफ्तार भरे इस युग में दूसरी सारी बातों से कहीं अधिक जरूरी है जिन्दगी को आसान बनाना। हम ...
- डॉ. दीपक आचार्य
बहुद्देशीय प्रतिस्पर्धा और तेज रफ्तार भरे इस युग में दूसरी सारी बातों से कहीं अधिक जरूरी है जिन्दगी को आसान बनाना। हम सभी का जीवन खूब सारी जटिलताओं और घुमावदार रास्तों से होकर गुजरने वाला बना हुआ होने से जिन्दगी का काफी कुछ समय निरर्थक भी बना हुआ है और बरबाद भी हो रहा है।
जीवन का हर पहलू अब ऎसा हो गया है कि हमारे पास ज्यादा समय न बचा हुआ है, न समय देने की मूर्खता हमें करनी ही चाहिए। वह समय बीत गया जब हम छोटी-छोटी बातों के लिए लम्बी गलियां तय करते थे और मामूली कामों के लिए चक्कर काटने की विवशता थी।
आधुनिक संचार क्रांति और तीव्र विकास की सोच ने हमारी सारी पुरानी अवधारणाओं को बदल कर रख दिया है। अब कार्य संस्कृति में बदलाव आने लगा है जिसमें कोई सा कार्य हो जल्दी और आसानी से पूरा हो सके, इस दिशा में पूरी सहजता के साथ काम करने को प्रोत्साहित किया जा रहा है।
हर कोई इस सुखद परिवर्तन को स्वीकारने और पसंद करने भी लगा है लेकिन खूब सारे लोग आज भी ऎसे हैं जो दकियानूसी सोच रखते हैं या फिर काम अटकाने अथवा अपनी अहमियत जताने पर ज्यादा ध्यान देने लगे हैं। कुछ सनकी लोग तो ऎसे हैं जो आज भी अपने आपको अधिनायकवादी सोच के पुरोधा मानते हुए अपनी सनक पर कायम हैं।
इन सारे हालातों को देखते हुए यह जमाने की मांग है कि अब संचार, संपर्क और कार्य संस्कृति को अधिकतम स्तर तक सहज और इतना आसान बनाया जाए कि हर कोई संतुष्ट भी रहे और कार्य में सफलता का सुकून भी पाता रहे।
इसके लिए यह जरूरी है कि हम सभी उन सारे कामों और रास्तों को त्यागने की हिम्मत दिखाएं जो घुमावदार, अटकाने-उलझाने वाले और पेचीदा हैं। अब वो समय बीत गया जब किसी भी काम के लिए बोझिल औपचारिकताओं को निभाना हमारी विवशता थी और इस मामले में हम सारे के सारे लोग लकीर के फकीर ही बने हुए थे।
आज हर कोई चाहता है कि कम से कम समय में काम हो जाए, जवाब मिल जाए और वह भी इस स्तर का कि हमें आत्मिक संतुष्टि भी हो जाए और दुबारा चक्कर काटने की विवशता भी सामने न आए। इसके लिए नए और पुरानों, तरक्की पसंदों और यथास्थितिवादियों सभी को आगे आना होगा तभी समय की रफ्तार के साथ चलते हुए हम तरक्की का आनंद पा सकते हैं।
हममें से शायद ही कोई ऎसा आदमी या परिवार होगा जिसके पास फोन या मोबाइल की सुविधा न हो। इसके बावजूद हम कोई सा काम सामने आ जाने पर फोन या मोबाइल से संपर्क साधने की बजाय यात्रा करना और समय गँवाना अधिक पसंद करते हैं। हम न भी करें तब भी खूब सारे लोग ऎसे हैं जो टेलीफोनिक बातचीत से ही काम बताना या निपटाना अपना अपमान समझते हैं और संबंधित की व्यक्तिशः भौतिक मौजूदगी के हामी होते हैं। वस्तुतः ये ही वे लोग हैं जो सनकी किस्म के हैं और संचार की सुविधा होते हुए भी सामने वाले लोगों की प्रत्यक्ष उपस्थिति चाहते हैं।
इस मामले में खूब सारे बड़े लोगों को गिना जा सकता है जो कि खुद तो एयरकण्डीशण्ड चैम्बर में आरामदायी व्हीलचेयर में विराजमान होते हैं और दूसरे लोगों को उन चर्चाओं या कामों के लिए अपने पास बुलाते हैं जो काम वे फोन या मोबाइल पर अच्छी तरह निर्देशित कर सकते हैं। इन्हें दूसरों की पीड़ाओं से कोई मतलब नहीं होता। चाहे कितनी ही भीषण गर्मी, कड़ाके की सर्दी हो या मूसलाधार बारिश, ये लोगों को अपने पास बुलाये बिना नहीं रहते, भले ही कोई तुच्छ सा काम ही क्यों न हो। यह संवेदनहीनता शोषण की पराकाष्ठा से कम नहीं मानी जा सकती। असल में इसी किस्म के लोग समाज के उन शोषकों में आते हैं जिन्हें अपने बारे में यह भ्रम हो गया है कि वे समाज और लोगों को चलाने और उनका मनचाहा शोषण करने के लिए ही पैदा हुए हैं।
हम सभी को चाहिए कि जरूरत के वक्त फोन और मोबाइल का प्रयोग करें और अपनी बात संबंधितों तक पहुँचाएं। मिनट-दो मिनट की बात के लिए दूसरों को अपने पास बुलाने का कष्ट न करें न औरों को दें। खूब लोग ऎसे हैं जो हमेशा उन बातों और कामों के लिए भी लोगों की भौतिक उपस्थिति अपने सामने चाहते हैं जिन्हें फोन पर कहा जा सकता है।
हर क्षेत्र में कई सारे बड़े लोगों के बारे में अक्सर यह सुना भी जाता है कि वे लोग इसी प्रकार लोगों को तंग करने के आदी हैं। जो बात फोन पर कह सकते हैं, उसके लिए भी बार-बार अपने पास बुलाने की बुरी आदत पाले हुए हैं। इस प्रकार के शोषकों से काफी सारे लोग त्रस्त रहा करते हुए इन लोगों पर बददुआओं की बारिश करते रहते हैं।
इसी प्रकार जो हमारे पास आए, उसका सबसे बड़ा भला हम यही कर सकते हैं कि उसे उसके काम के बारे में पूछें, उचित मार्गदर्शन दें और संबंधित का पता बताकर सीधे और सरल मार्ग के बारे में समझा दें। और अधिक भला करना चाहें तो उसे संबंधित के पास ले जाकर उसके कामों को जल्दी एवं आसानी से पूर्ण कराने में यथोचित मदद दें।
इस बात को हमेशा अपने मन से निकाल दें कि किसी भी काम के लिए अपने पास आने वाले लोगों को तंग करने, काम अटकाए-लटकाए रखने और चक्कर कटवाने से हमारी प्रतिष्ठा बढ़ती है। सच तो यह है कि हर बार असफल पर होकर जाने वाला इंसान हमें सौ-सौ गालियाँ बकता हुआ, हजार-हजार बददुआएं देता हुआ लौटता है और ईश्वर से सच्चे मन से यही प्रार्थना करता है कि इन लोगों को वापस ऊपर बुला ले।
अपने आपमें सुधार लाएं, अपनी जिन्दगी भी सहज बनाएं और दूसरों को भी मस्ती के साथ जीने का आनंद प्रदान करें, इसी में अपनी भी भलाई और जमाने की भी। ‘जिओ और जीने दो’ का सिद्धान्त अपनाएँ वरना शोषितों और परेशान लोगों की बददुआओं ने रंग दिखाना आरंभ कर दिया तो फिर कुत्ते की मौत मरने से कोई नहीं बचा पाएगा।
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- डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
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