आइये ज्ञान-ज्ञान खेलें। फेस-बुक ने इस नये खेल को जन्म दिया है। फेस-बुक खोलते ही ,आपके स्वागत में कुछ ज्ञानी, अपनी बात का मजमा लगाये मिलते...
आइये ज्ञान-ज्ञान खेलें।
फेस-बुक ने इस नये खेल को जन्म दिया है।
फेस-बुक खोलते ही ,आपके स्वागत में कुछ ज्ञानी, अपनी बात का मजमा लगाये मिलते हैं।
ये स्वयंभू-प्रबुद्ध लोग हर विषय में प्रवीण होने का आपको अहसास करवाते हैं।
अगर बात अदब-साहित्य की होवे तो ,यूँ लगता है ,सारा ज्ञान इनके खोपड़े में घुसा बैठा है। छंद के महारथी ,अलंकार के रचेता ,रस के ज्ञाता ,व्यंग, कहानी, कविता के पुरोधा पुरुष के रूप में ये अपनी प्रशस्ति करवाने के लिए ,देहात नुमा शहर में खासे जाने जाते हैं।
हमने इनको इतना गंभीर मनन-चिन्तन, स्कूल के दिनों में करते कभी नहीं देखा। उन दिनों मार्केट में छाये रहने वाले, साल्व्ड पेपर ,गुटका और गेस पेपर जैसी चीज ये , थर्ड डिवीजन आने लायक पढ़ लिया करते थे।
ये लोग फेस्बुकीय परिचर्चा कुछ यूँ उछालते हैं ,’मलेशिया में सरकारी नौकरी उसी को मिलती है, जो सरकारी स्कूलों में पढ़े होते हैं। इस गंभीर मुद्दे पर कमेन्ट यूँ आता है ,१.सरकार को सुझाव भेजा जाए ,२.यही होना चाहिए, आम जन को रहत मिलेगी। ३.क्या हम सीखेंगे इनसे ...?४इस विषय में सोचने के पहले स्कूलों का स्तर देखिये ,और दफ्तरों की जरूरत के बारे में सोचिये ..?
इस चर्चा में मूल भावना जो है, कि कैसे प्राइवेट-पब्लिक स्कूल से निकलने वाले छात्रों से, जो जाब-ओपरचूनिटी छीनने में माहिर हो जाते हैं, सरकारी स्कूल के बच्चो को समकक्ष लाया जावे ...?
एक भाई साब, ने ‘गांधी और अंडा’ विषय को परोसा है ,एक राष्ट्रीय अंडा उत्पादन निगम के विज्ञापन में आव्हान है ‘सन्डे हो या मंडे रोज खाओ अंडे’ इसके साथ ये संदेश भी लिखा है कि महात्मा गांधी ने कहा है कि अंडा शाकाहारी पदार्थ है।
अंडे के फंडे पर किसी ने क्लीयरकट कमेन्ट अभी तक पास नहीं किया है। आपकी नजर में अंडे खाना ,अंडे बनाना ,या अंडे पाना कोई अपराधिक गतिविधियों का हिस्सा नहीं है तो किस्सा यहीं समाप्त मान के बंद करें।
एक भाई जान ने अपनी समस्या जाहिर की है कि वे नान हिंदू हैं,सोमनाथ मंदिर प्रवेश चाहते हैं .....। वे कहते हैं कि डेमोक्रेटिक इलेक्टेड सरकार की अगुवाई में यह आगे किस विवाद को जन्म देने वाला है ...वे जानते हैं ....?
हाँ भाई वे अच्छे से जानते हैं ,नान हिन्दू प्रवेश प्रतिबंध का मकसद भी कमोबेश यही हो सकता है। वरना २१व़ी सदी में सोलहवीं सदी की मान्यता का क्या काम ...?
वोट का इजाफा कैसे हो ,हिन्दू ध्रुवीकरण कैसे किया जावे यही मानसिकता दिख रही है अभी।
एक शख्श तफरी के मूड में, गोवा पहुंच फरमाते हैं ,यहाँ के एक मंत्री ने कहा था कि ‘लड़कियों के कपड़े रेप के लिए आमंत्रित करते हैं’। वहीं के पर्यटन मंत्री गेगरेप आरोपियों को नादाँ करार दे रखा है। पर्यटन की दृष्टि से रेप का होना अवश्यमभावी की हद तक मानने में वे नहीं हिचकिचाते ।
इसमें चर्चा व्यक्तिगत अघात और बचाव का रुख भी अख्तियार कर लेती है। संघी लेखक के प्रवक्ता भाई जी कहते हैं ,उनने जितना लिखा है उतना तो किसी ने पढ़ा भी न होगा। इस पर दूसरा प्रबुद्ध तिलमिलाता है ,भाई माना , बहुत से लेखक हैं जिन्होंने बहुत लिखा है क्या सभी ने सब कुछ पढ़ रखा है ...?अरे बुरा मत मानना सर , ...लिखने को मस्तराम ने भी बहुत लिखा है ...क्या उतना भी लोगों ने पढ़ा होगा ... या पढ़ा है ...क्यों कि वो भी एक विषय का ज्ञान देता है। क्या अधिक लिखना ही ग्यानी होने की प्रमाणिकता है ....?
वे लगभग डपटते हुए पक्ष रखते हैं यहाँ ,अश्लील साहित्य लिखने वालो की बात नहीं हो रही है। ऐसी तुलना नहीं की जाती। हम जीवन उपयोगी और ललित साहित्य पर चर्चा कर रहे हैं।
मैंने हमेशा उन्हें इसी भूमिका में मशगूल पाया है ,वे ललित साहित्य और इसकी चर्चा के लिए कहीं भी उपलब्ध पाए जाते हैं। साहित्य का ‘होल्डाल’ लिए फिरते हैं सुविधा जहाँ जैसी दिखी अपनी लगा-बिछा लिए।
वे फेसबुक में , अपने को ‘तमस –ज्ञाता’ उद्घोषित करते हैं ,वे कहते हैं मैंने ‘तमस’ पढ़ा है,इस पर बने धारावाहिकों को भी देखा है कृति और धारावाहिक अच्छी हैं, पर बहुत अच्छे हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता।
‘तमस’ का नाम इसलिए हो गया क्योंकि एक तो इस पर धारावाहिक बन गया और दूसरा यह साम्प्रदायिकता और विभाजन पर लिखा गया है। उनका मन्तव्य है कि “विशेषकर प्रगतिशील आन्दोलन के दौर में दंगे साम्प्रदायिकता और विभाजन पर कविता-कहानी करने से, जल्दी चर्चा में आने की संभावना लेखकों को दिखी होगी”।
प्रबुद्ध जी, अपनी हांक के लोहा मनवाने की सोचते हैं। उन्होंने काल परिस्थितियों का मनन नहीं किया। क्या उस जमाने के लेखकों की ऐसी छुद्र मानसिकता रही होगी....?
ये ओछी हरकत, जल्दी चर्चा में आने की बात, आज के लेखकों में भले आम हो गई हो परन्तु उधर ,जब लिखने को लाईट नहीं था हवा नहीं थी ,ऐ सी नहीं चलते थे ,कायदे से कलम दवात पेपर मय्यसर नहीं होते थे ........तब सृजन के पल कैसे हुआ करते थे ,अपने प्रबुद्ध ने कभी सोचा ....?
इनके ‘पासंग’ लिख के बताएं ,,,,कल को ये, कलम के सिपाही प्रेमचंद पर भी आक्षेप न लगा दें कि गाय,बैल गोबर के सिवा दिया क्या है ....?
भाई। समीक्षा लिखने का मन बहुत कुलबुलाये तो ,हम जैसे नव-रचनाधर्मी को पकड़ो। जो कहोगे माना करेंगे, बड़े लेखकों को फिलहाल बक्श दो।
फेस-बुक में आप ट्रेलर ही दिखा सकते हो ,मन की व्यथा उंढेलना हो तो ‘तमस’ दुबारा पढ़ देखो भाई।
सुशील यादव
२०२ शालिग्राम ,श्रीम सृष्ठी
संनफार्मा रोड वडोदरा
9408807420
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