राकेशरेणु भा रत तीसरी दुनिया का संभवतः एकमात्र ऐसा देश हैं जहां पिछले पैंसठ सालों में संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था न केवल अक्षुण्ण है, बल्कि ...
राकेशरेणु
भारत तीसरी दुनिया का संभवतः एकमात्र ऐसा देश हैं जहां पिछले पैंसठ सालों में संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था न केवल अक्षुण्ण है, बल्कि लगातार मजबूत होती जा रही है। और इस लोकतंत्र को मज़बूत बनाने में जितनी गहरी भूमिका वंचित और प्रायः उपेक्षित बहुसंख्यक आबादी की है उतनी शायद नागर समाज (सिविल सोसायटी) की नहीं। जनतंत्र में वह गहरी आस्था के जरिये सत्ता में अपनी भागदारी देखता है। इस तबके में आर्थिक सामाजिक और लैंगिक तीनों दृष्टियों से समाज के सबसे कमजोर वर्ग शामिल है। इसलिये, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के साथ-साथ मीडिया के रूप में जनतंत्र के विभिन्न प्रतिष्ठानों की यह जिम्मेदारी बन जाती है कि विकास और अधिकार संपन्न बनाने की किसी भी कोशिश में इन तबकों को वरीयता दें।
इस परिदृश्य में यह देखना रोचक होगा कि मानवाधिकारों के विचार के प्रसार, पोषण और संवर्धन में हिंदी मीडिया अपनी भूमिका का निर्वहन किस प्रकार कर रही है। मीडिया का मूल चरित्र ही मानवाधिकारों के पैरोकार का है। दुनियाभर में जनतांत्रिक सरकारों की उपस्थिति ने मीडिया को वह अपेक्षित जमीन उपलब्ध कराई है जो मानव अधिकारों के संरक्षण और संवर्धन की, उसकी पैरवी का आधार बन सके।
पश्चिमी मीडिया और सांस के लिये उनसे ऑक्सीजन उधार लेने वाले भारत के कुछ अंग्रेजी अखबारों-पत्रकारों के अरण्यरोदन के बावजूद उपलब्ध आंकड़े गवाह है कि हमारे देश में प्रिंट खासकर हिंदी और भारतीय भाषाओं के समाचार पत्र- पत्रिकाओं के साथ-साथ टेलीविजन सहित समस्त इलक्ट्रोनिक माध्यमों का तेजी से प्रसार हो रहा है। नेशनल रीडरशिप सर्वे, 2006 के अनुसार देश के दस सबसे अधिक प्रसार संख्या वाले समाचार पत्रों में एक भी समाचार पत्र अंग्रेजी का नहीं है। इनमें से सर्वाधिक प्रसार वाले पहले दो समाचार पत्रों सहित पांच अखबार हिंदी के और पांच अन्य भारतीय भाषाओं के हैं। यही सर्वे हमें यह भी बताता है भारत के करीब 21 करोड़ घरों में से 8.9 करोड़ घरों में टेलीविजन सेट हैं और गांवों में करीब 58 प्रतिशत सालाना की गति से इलेक्ट्रोनिक मीडिया का, टीवी का प्रसार बढ़ रहा है। शिक्षा का प्रसार, जो हिंदी और भारतीय भाषाओं में अधिक हो रहा है, के साथ-साथ तकनीक का प्रसार और बहुसंख्यक आबादी के जीवनस्तर में सुधार मीडिया के प्रसार को त्वरा प्रदान कर रहे हैं।
ये सारी बातें मीडिया के प्रभाव क्षेत्र को, और अगर वे मानवाधिकारोें के संवर्धन की दिशा में काम करें तो अधिकार चेतना को सशक्त करने वाली हैं। अपनी बात को हिंदी के इलेक्ट्रोनिक मीडिया तक सीमित करते हुए उल्लेख करना चाहूंगा कि बीते दो दशक में जब से भारत में निजी चैनलों ने काम करना शुरू किया, शुरू से ही उनका स्वामित्व व्यावसायिक घरानों के पास रहा। दरअसल, प्रिंट माध्यम की तुलना में टेलीविजन चैनल के लिये कई गुना अधिक पूंजी की जरूरत होती है। इतना बड़ा पूंजी निवेश करने वाले लोगों का उद्देश्य जाहिर है, समाज सेवा करना नहीं, उससे व्यावसायिक लाभ कमाना और अपने अन्य हित साधना ही रहा है। करीब डेढ़ दशक के निजी समाचार चैनलों के इतिहास में भी यही तत्व रेखाांकित किया जा सकता है। लेकिन पत्रकारिता, चाहे अखबार में की जाए या टेलीविजन में, सीधे-सीधे बाजार में साबुन की टिकिया बेचने जैसा उपक्रम नहीं हो सकती। सामाजिक और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा में, अधिकारों के संघर्ष में उसकी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इस भूमिका के ठीक-ठीक निर्वहन से व्यक्ति और समाज आज़ाद होते हैं, अधिकार संपन्न बनते हैं।
टेलीविजन पर प्रसारित हाल की कुछ खबरों पर निगाह डालें तो इस दिशा में कुछ निष्कर्षों तक पहुंचना आसान होगा। पिछले दिनों भोपाल के एक मुस्लिम युवक और हिंदु युवती ने प्रेम विवाह किया, ंिकंतु इसके लिए उन्हें भागकर मुंबई जाना पड़ा ताकि कट्टरपंथियों की निगाह से बच सकें। अपनी जान-माल की रक्षा के लिये उन्हें मीडिया का सहारा लेना पड़ा। स्वेच्छा से विवाह करने का अधिकार हमें संविधान देता है। धर्म, जाति और वर्ग के आधार पर इसमें बाधा नहीं खड़ी की जा सकती। बावजूद इसके कुछ लोगों ने इस घटना की ऐसी व्याख्या की मानो हिंदुत्व के सामने घोर संकट आ खड़ा हो। समाचार चैनलों पर दिनभर अलग-अलग बाइट्स के साथ और अलग-अलग कोण से इसे दिखाया जाता रहा। इसका सकारात्मक परिणाम यह हुआ कि नवविवाहित दंपति को दर्शकों की सहानुभूति और व्यवस्था का संरक्षण हासिल हुआ। जाति और धर्म से ऊपर उठकर जीवन साथी चुनने के नागरिकों के मौलिक अधिकार को ताकत मिली।
थोड़ा पीछे चले, तो गोधरा और गुजरात दंगों का जैसा शुरूआती कवरेज़ हिंदी समाचार चैनलों ने किया, उस पर काफी कुछ कहा और लिखा जा चुका है। और तो और, राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग तथा सर्वोच्च न्यायालय ने भी उस पर आपत्ति जताई। लेकिन उसी गुजरात में सोहराबुद्दीन दंपत्ति की अमानवीय हत्या के प्रकरण में प्रायः सभी समाचार चैनलों ने वस्तुनिष्ठता बनाए रखी और अपनी दृष्टि को किंचित भी विपथ नहीं होने दिया। कहना न होगा कि जहां कहीं भी मीडिया ने वस्तुनिष्ठ होकर काम किया है, वहां मानवाधिकार और उनके सरोकार मजबूत हुए हैं।
ल्ेकिन टेलीविजन चैनलों की जैसी प्रकृति है, वे अपने को दृश्य से अलग नहीं कर सकते। केवल वाचिक फीड उनके लिये पर्याप्त नहीं; उन्हें विजुअल फीड चाहिए, ढेर सारे चाहिए, बदल-बदल कर चाहिए। यह इस माध्यम की संरचनागत सीमा है। बावजूद इसके चुटकुलों, फिल्मी खबरों, रियलिटी शो और सेलिब्रिटी के चुंबन दृश्यों को समाचार बनाकर पेश करना इसकी मजबूरी क्यों है, ऐसा कौन चाहता है और इनसे किसका भला हो रहा है। यह समझना बहुत कठिन नहीं है।
हाल ही में कुछ दूसरी ऐसी घटनाएं भी घटीं जिनके महज बाइट्स दिखा देने और 'जैसा घटा वैसा' समाचार पेश कर देने भर से आगे उन पर गंभीर चर्चा की दरकार थी।
वड़ोदरा के एम एस विश्वविद्यालय में कला विभाग के छात्रों की कला प्रदर्शनी पर विद्यार्थी परिषद के हमले की खबर, प्रदर्शनी और छात्रों का प़क्ष लेने वाले विभाग प्रमुख की बर्खास्तगी, और दूसरी तरफ, तमिल दैनिक 'दिनाकरन' द्वारा एक सर्वे के प्रकाशन पर हुई तोड़फोड़, जिसमें अखबार के तीन कर्मियों की जान-चली गई- ये दोनों खबरें ऐसी थीं जिनसे मानवाधिकारों के अनेक पहलू जुड़े हैं। अतः केवल समाचार बता देने या फुटेज दिखा देने से आगे इन पर चर्चा और विश्लेषण प्रसारित करने से अभिव्यक्ति के अधिकार, आजीविका के अधिकार और जीवन के अहरणीय अधिकारों की पैरवी होती। प्रायः सभी हिंदी चैनलों ने यह अवसर गंवा दिया। ये कुछ बानगी भर हैं। अनेक ऐसे समाचार प्रसारित होते हैं जो या तो समाचार होते ही नहीं, या जिनपर ठहर कर विमर्श करना जरूरी होता है; लेकिन वह हो नहीं पाता। ऐसा नहीं है कि हिंदी समाचार चैनल या समाचारकर्मी मानवाधिकारों के दायरे से या मानवाधिकार आंदोलनों से जुड़े लोगों और संगठनों से अवगत नहीं । वे अच्छी तरह जानते हैं कि हमारी सामाजिक, राजनीतिक, नागरिक और आर्थिक व्यवस्था के मानवीय लक्ष्य मानवाधिकार ही निर्धारित करते हैं। इसलिये प्रत्येक सार्वजनिक अथवा सामाजिक घटना, शासनतंत्र का कोई भी निर्णय, नीति और कार्यक्रम मानवाधिकारों की कसौटी पर कसा जा सकता है। यह कसौटी ही उसकी वस्तुनिष्ठता का प्रमाण होती है। बावजूद इसके, समाचारों को सनसनीखेज़ बनाकर पेश करने से इतर उनपर ईमानदार चर्चा से बचने की क्या वजह हो सकती है ?
आरंभ में ही मैंने उल्लेख किया था कि आज का मीडिया स्वाधीनता आंदोलन के दौरे के उलट व्यावसायिक घरानों द्वारा नियंत्रित है। खासकर टेलीविजन चैनल के लिये बड़ी पूंजी की दरकार होती है जिस कारण इस क्षेत्र में किसी वैकल्पिक मीडिया की गुंजाइश भी बहुत कम है। बड़ी पूंजी और बड़े विज्ञापन आय से पोषित मीडिया अपने मालिकान और कॉरपोरेट विज्ञानपनदाताओं के हितों की अनदेखी हरगिज़ नहीं करेगी। इसलिये कॉरपोरेट घराने और विज्ञापनदाता यदि चाहते हैं कि रोज़गार का अधिकार और सूचना का अधिकार से जुड़ी खबरें और इन जन अधिकारों के लिये संघर्ष करने वाली शख्सियत अरूणा राय को या आदिवासी विस्थापितों के अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाली मेधा पाटेकर को या पूर्वोत्तर में अर्धसैनिक बलों के दमन के विरूद्ध संघर्ष करने वाली इरोम शर्मिला को न दिखा, शिल्पा शेट्टी का चुंबन, मल्लिका सहरावत की अर्घनग्न तस्वीर तथा रैंप पर कैटवॉक करती मॉडलों के खुलते वस्त्र दिखाए जाए तो उनके सरोकारों का खुलासा स्वतः हो जाता है। यह प्रवृत्ति इस बात का द्योतक है कि व्यवसाय और पूंजी के दबाव में मीडिया, खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया, तेजी से अपने समाज और अधिकार उन्मुख सरोकार खोती जा रही है और उसकी सामाजिक संवेदना कुंद होती जा रही है। छिटपुट उदाहरण छोड़ दें तो यही इसकी केंद्रीय प्रवृत्ति है।
हिंदी मीडिया पर बात करते हुए अगर मीडिया में महिलाओं और दलितों की स्थिति और उपस्थिति पर बात न की जाए तो बात पूरी नहीं होगी। लेकिन, ये दोनों सवाल, स्त्रियों और दलितों के, मीडिया के अंदरूनी जनतंत्र से भी जुड़े हुए हैं। एक मिथ है कि पत्रकारिता में स्त्रियों की अच्छी हिस्सेदारी है, कि वहां लैंगिक भेदभाव नहीं है। लेकिन एक भी बात सच नहीं। सच्चाई यह है कि व्यवहार में स्त्रियां काम और वेतन, दोनों मामलों में भेदभाव का शिकार होती हैं।
इंटरनेशनल वूमंस मीडिया फाउंडेशन द्वारा 2001 में कराए गए एक अध्ययन के अनुसार, मीडिया में कार्यरत महिलाओं का हिस्सा विश्व में 41 प्रतिशत है। लेकिन यूनेस्को के 'ऐन अनफिनिश्ड स्टोरीः जेंडर पैटर्न इन मीडिया एंप्लॉयमेंट' शीर्षक रिपोर्ट के अनुसार एशिया में यह हिस्सा घट कर महज 21 प्रतिशत रह जाता है। भारत में यह हिस्सेदारी तब, यानि 2001में, 12 प्रतिशत थी। अभी पिछले साल के आखिर में सी. एस.डी.एस. और मीडिया स्टडी ग्रुप भारत के राष्ट्रीय मीडिया का एक सर्वे कर बताया गया कि यह हिस्सा अब बढ़कर 17 प्रतिशत हो गया है। इसमें भी सबसे अच्छी स्थिति अंग्रेजी इलक्ट्रोनिक मीडिया की है जहां 32 प्रतिशत महिलाएं हैं जबकि हिंदी मीडिया में उनकी उपस्थिति 17 प्रतिशत के औसत से भी काफी कम है। यह जानना भी रोचक होगा कि ये महिलाएं किन पदों पर काम करती हैं। सी.एस.डी.एस. का सर्वे बताता है कि मीडिया कंपनियों के शीर्ष व्यक्तियों का कुल तीन प्रतिशत ही महिलाएं है। इस पुरूष एकाधिकार के परिणाम छिपे नहीं है। तमाम ऊपरी सदाशयता के बावजूद मीडिया संस्थानों की प्रसारण नीति में व्याप्त पुरूषवादी दृष्टि खुलकर सामने आती रहती है। अखबारों में स्त्रियों की अर्धनग्न तस्वीरें छापने की स्पर्धा है, टेलीविजन चैनल उनसे चार कदम आगे हैं। मैं बहुत उदाहरण नहीं देना चाहता केवल यह कहूंगा कि दृश्यों और विषयों के इनके चयन से औरत को भोग की वस्तु समझने की परंपरागत और आधुनिक, दोनों किस्म की लंपट दृष्टियां मज़बूत होती हैं और बलात्कारों की, मानसिक पृष्ठभूमि तैयार होती है, न केवल तैयार होती है बल्कि बढ़ती जाती है।
बातें कहने को बहुत सारी हैं लेकिन अपनी बात मैं केवल यह करते हुए समाप्त करूँगा कि सही है कि भूमंडलीकरण के इस दौर में मीडिया की भूमिका, उसका भौतिक आकार-प्रकार तेज़ी से बढ़ा है। लेकिन इससे उसे किसी तरह निष्पक्ष, तटस्थ, निर्विकार और मानव अधिकार के सरोकार से लैस नहीं कहा जा सकता। मीडिया का व्यापार और राजनीति बहुत घनिष्ठ रूप से आर्थिक कारोबार और राजनीतिक उठापटक से जुड़े हैं। जबकि जनतंत्र में मीडिया की भूमिका सार्थक तभी हो सकती है जब उसका स्वामित्व और प्रबंधन वास्तव में जनतांत्रिक, पारदर्शी और मानवाधिकारों का संवहन करने वाला हो।
(मानवाधिकार संचयिका, राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग से साभार)
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