डॉ. दीपक आचार्य ज्यादातर लोगों में आजकल अपना कुछ भी दम-खम नहीं रहा। वे औरों के बलबूते ही अपने आपको जैसे-तैसे जिन्दा रखे हुए हैं। इंसा...
डॉ. दीपक आचार्य
ज्यादातर लोगों में आजकल अपना कुछ भी दम-खम नहीं रहा। वे औरों के बलबूते ही अपने आपको जैसे-तैसे जिन्दा रखे हुए हैं। इंसान के लिए सर्वाधिक शर्मनाक बात इससे अधिक और क्या होगी कि वह औरों के सहारे पर जिन्दा होने का भ्रम पाले हुए रहता है।
हमारे पूर्वजों ने जिस शौर्य-पराक्रम और सेवा-परोपकार के कर्मों के सहारे अपने वजूद को दिग-दिगन्त तक फैलाया था, उन्हीं के हम कैसे वंशज हैं जो अपनी रगों में बह रहे उस खून को भी भूल गए हैं जो वैश्विक माहौल को अपने इशारे से नचा सकने में समर्थ था और जिसने सदियों का इतिहास रचा है।
पता नहीं लोग अपने आपको क्यों भुलाते जा रहे हैं। बहुत से लोग हैं जो समाज-जीवन के किसी भी क्षेत्र में हों, भटक रहे हों या कहीं काम कर रहे हों, पार्क में घूम रहे हों या किसी धर्म स्थल में, अथवा सड़कों पर ही दौड़ क्यों न लगा रहे हों।
दिन और रात इन लोगों के तार उन लोगों से अदृश्य रूप से बंधे होते हैं जिनके वे कहे जाते हैं अथवा ये लोग जिनको अपना मानते हैं। यानि की खुद कुछ भी नहीं हैं, औरों के ही कहे जाते हैं।
खूब सारे लोगों के बारे में आमतौर पर कहा ही जाता है कि ये उनके बूते नाच रहे हैं अथवा उछलकूद कर रहे हैं, उनके दम पर इन्होंने औरों की नाक में दम कर रखा है। वहीं ये लोग खुद भी बड़े ही गर्व के साथ दूसरों के दम पर कूदते हुए अपने आपको धन्य और सौभाग्यशाली मानते हैं।
दूसरों के दम पर कूदना चाहे इन लोगों के लिए प्रतिष्ठा का द्योतक हो लेकिन इंसानियत के लिए यह स्थितियां अच्छी नहीं कही जा सकती। भगवान ने पूर्णता देकर इंसान को धरती पर भेजा हुआ होता है और यहाँ आकर हम लोग दूसरों के सहारे अपनी जिन्दगी की बैलगाड़ी दौड़ाने लगते हैं, यह ईश्वर का सरासर अपमान ही कहा जा सकता है।
हममें से अधिकांश लोग किसी काम-धाम से कहीं जाते हैं अथवा रौब झाड़ने के मौके आते हैं वहाँ दूसरों के दम-खम और उनके नाम का पावन स्मरण कर अपने आपको बहुत कुछ मनवा लिया करते हैं। और जब कहीं किसी कारण से फंस जाते हैं तब भी औरों का नाम ले लेकर रौब झाड़ने लगते हैं।
जीवन में जिस क्षण हम अपनी शक्तियों को भुला कर दूसरों के बलबूते कुछ प्राप्त करने, संरक्षित महसूस करने या कि बचाव करा लेने का प्रयास करते हैं, वह क्षण हमारे स्वाभिमान और इंसानियत के लिए मृत्यु का क्षण ही होता है।
हममें से खूब सारे लोग तो रोजाना औरों के भरोसे जीवनयापन करते हुए समय काटते रहते हैं और जिन्दगी की गाड़ी को दूसरों के धक्कों के सहारे आगे से आगे खिंचते चले जाते हैं। आज कोई और धक्का दे रहा है, कल कोई और आ जाएगा।
एक बार जब भिखारियों और निर्लज्जों की तरह दूसरों से भीख मांगकर आगे बढ़ते रहने का चलन शुरू हो जाता है तब वह मरते दम तक बना रहता है। इस स्थिति में औरों के दम पर कूदने वाले लोगों की आत्मा ही मर जाती है और इन लोगों को लगता है कि जिन्दगी मिली ही है तो जैसे-तैसे आगे बढ़ानी ही है, फिर खुद को भुला कर परायों के सहारे ही जीना है तो काहे का स्वाभिमान और काहे के संस्कार।
जो कुछ करना है वह पाने के लिए करना है और इसमें जो कुछ संस्कार, मर्यादाएं और सीमाएं आड़े आती हैं वे हमारे लिए बेकार हैं। हमें अपने कामों से मतलब है और जिन्दगी की गाड़ी को धक्के दे देकर मुकाम तक ले जाने की जरूरत है।
आजकल जेट रफ्तार के जमाने में भी आदमियों का बहुत बड़ा वर्ग किसी धक्का गाड़ी की ही तरह होकर रह गया है जहाँ धक्का लगवाने वाले भी प्रेम से धक्का लगवा रहे हैं और धक्के लगाने वालों की भी कहीं कोई कमी नहीं है।
सारे के सारे लोग फ्री स्टाईल अपना चुके हैं जहाँ एक-दूसरे की वाह वाही करते हुए सभी को आगे चलते चले जाना है। दमदार लोगों के नहीं रहने का सबसे बड़ा फायदा उन लोगों को हो रहा है जो किसी न किसी की दुम लगाए घूम रहे हैं।
किसम-किसम की दुमें बाजारों में हैं। जिसे जो पसंद आए लगा लेता है, जी भर जाए तब दुम को उतार फेंक कर दूसरी दुम लगा लेता है। कभी बहुत ज्यादा ही कुछ हो जाए तो अपनी दुम किसी और को ट्रांसफर ही कर देता है।
इन दिनों दुमों का धंधा बहुत ज्यादा चल निकला है। पता नहीं ऎसा क्या हो गया है कि बिना दुम के आदमी में दम ही नहीं आ पा रहा। हर दुम किसी रिमोट कंट्रोल की तरह ही हो गई है।
दुम का मनोविज्ञान भी बड़ा ही अजीब हो चला है। जहाँ दाल न गले वहाँ दुम ढीली और पस्त होकर लटक जाती है और जहाँ मनमानी और मनचाही करने के अवसर हों वहाँ एकदम कड़क होकर धारदार तीखे हथियार के रूप में सामने आ जाती है।
जहाँ सारी अनुकूलताएं हों वहाँ दुम हिला-हिला कर आत्मिक प्रसन्नता का इज़हार अपने आप में सब कुछ बयाँ कर देता है। आखिर कब तक हम परायी दुमों पर इतराते-इठलाते फिरेंगे, कुछ समझ में नहीं आता।
हर आदमी को भगवान ने अकेले के दम पर बहुत कुछ कर देने का माद्दा दिया है लेकिन हम लोग अपने भीतर समाहित शक्तियों से या तो अपरिचित हैं अथवा सब कुछ जानते-बूझते हुए भी आत्महीनता के दौर से गुजरने को विवश हैं।
वर्तमान युग की सबसे बड़ी समस्या यही है। जब तक हम इस हीन भाव को त्यागने के लिए तैयार नहीं होंगे तब तक हमें परायी दुमों से दम तलाशने की मजबूरी बनी रहेगी। खुद की पहचान बनाएं और अपने भीतर वह ज़ज़्बा पैदा करें कि दुनिया को कुछ दे सकें। वरना हमारा आना और यों ही चले जाना व्यर्थ ही है।
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- डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
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(ऊपर का चित्र - जगदीश बगोरा की कलाकृति)
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