डॉ. दीपक आचार्य हमारी सेहत के लिए वे ही वानस्पतिक उत्पाद और खाद्य-पेय सामग्री अनुकूल होती है जो स्थानीय स्तर पर उत्पादित होती हैं। एक...
डॉ. दीपक आचार्य
हमारी सेहत के लिए वे ही वानस्पतिक उत्पाद और खाद्य-पेय सामग्री अनुकूल होती है जो स्थानीय स्तर पर उत्पादित होती हैं। एक स्थान विशेष की आबोहवा, पानी, उत्पाद, सामग्री आदि सब कुछ वहीं के प्राणियों के लिए अनुकूल होते हैं, दूसरे क्षेत्र में रहने वालों के लिए इसका उतना प्रभाव देखने में नहीं आता।
इसी प्रकार दूसरे क्षेत्र का खान-पान, हवा और उत्पाद अन्य क्षेत्र के लिए कारगर नहीं रहते। जिस मिट्टी और हवा-पानी से हम बने हैं उसी की जलवायु हमारे जीवन के लिए सर्वथा अनुकूल होती है।
इस दृष्टि से हर स्थान विशेष का अपना भौगोलिक महत्त्व है और वहाँ की जलवायु और प्रकृति के अनुरूप प्राणियों की दैहिक संरचना और तत्वों के पुनर्भरण का चक्र काम करता है। यही कारण है कि हर क्षेत्र में प्राणियों की कद-काठी, आकार-प्रकार, नाक-नक्श, चाल-चलन और व्यवहार भी पृथक-पृथक होता है। यही नहीं तो स्थान विशेष के मौसम, ऋतु चक्र, वहाँ की वनस्पति और पेड़-पौधे, पहाड़, मैदान और पठार, फसलों, फल-फूल, पत्तों आदि सब कुछ में अन्तर होता ही है।
कुल मिलाकर कहने का मतलब यही है कि हम जहाँ रहते हैं वहीं की वनस्पति और खान-पान की सामग्री हमारे शरीर के अनुकूल होती है। उन्हीं औषधियों का महत्व है जो स्थानीय स्तर पर उत्पन्न हुई होती हैं।
दूसरे क्षेत्रों की सामग्री हमारी जिह्वा के स्वाद को भले ही बढ़ाती रहकर आनंद दे मगर हमारी सेहत के लिए इसका तनिक भी गुणकारी प्रभाव नहीं है बल्कि स्थानीय स्तर पर उत्पादित सामग्री के अलावा जो कुछ भी हम उपयोग में लाते हैं उसका सेहत पर बुरा असर ही पड़ता है।
खान-पान की यह सामग्री चाहे बाहर से डिब्बा बंद होकर आयी हो अथवा अपने क्षेत्र के अलावा से उत्पादित या बन कर आयी हो, यह सिर्फ स्वाद मात्र के लिए हो सकती है, सेहत के लिए इसका कोई उपयोग नहीं है।
हमारा शरीर जहाँ के तत्वों से बना है उन्हीं को स्वीकार करता है। इस स्थिति में कहीं बाहर की खान-पान सामग्री हमारे शरीर में पहुंच जाए तो शरीर इसे विजातीय द्रव्य मानता है और बुरी प्रतिक्रिया देता है।
यह अलग बात है कि तरह-तरह के स्वाद को पाने के फेर में हम दुनिया की सारी चीजें जीभ को स्वाद देकर गले के नीचे उतार लिया करते हैं। बार-बार इस प्रकार की सामग्री आती रहने से शरीर कचरा जमा करने का आदी जरूर हो जाता है लेकिन यह कचरा धीरे-धीरे हमारी सेहत के लिए खतरनाक साबित होता है।
यही कारण है कि आजकल कैंसर, डायबिटिज, हार्ट अटैक और ढेर सारी असाध्य बीमारियां आम होने लगी हैं और हमारा बहुत सारा पैसा इनके ईलाज में खर्च हो जाता है। ये तो वे बीमारियां हैं जो अज्ञात से ज्ञात हो रही हैं वरना आजकल हर इंसान किसी न किसी बीमारी से ग्रस्त है ही। कुछ लोग कम प्रभावित हैं लेकिन जो लोग बाहरी, अनियमित और अहितकर खान-पान कर रहे हैं उन्हें भी बीमारियां जकड़े हुए हैं ही, किन्हीं में अंकुरण अवस्था में हैं, किन्हीं में फलन की तैयारी है और कहीं-कहीं अब पल्लवन-पुष्पने होने ही वाला है।
यह तय मानकर चलना होगा कि ऎसे सारे लोग साध्य से असाध्य बीमारियों के घेरे में आएंगे ही। इस मामले में हम सभी लोग आत्मघाती रवैया अपनाए हुए हैं। भारत से बाहर की सारी खान-पान की वस्तुएं हमारे शरीर के लिए हितकारी नहीं हैं।
खान-पान के बारे में कहा गया है कि हितभुक्, मितभुक् और ऋतभुक्। अर्थात हितकर खाओ, कम खाओ और वही खाओ जो कि सात्विक है। आजकल बीमारियों का मूल कारण ही यह है कि हम खाने-पीने में कोई ध्यान नहीं दे रहे हैं। हमारे देश का अधिकांश पैसा डॉक्टरों और अस्पतालों तथा दवाइयों और जाँचों में भी जा रहा है। बहुत से परिवार इसी वजह से दरिद्र और कर्जदार हो गए हैं और खूब सारे ऎसे हैं जिनकी जिन्दगी नरक ही हो गई है।
इस भयावह स्थिति के बावजूद हम मैगी के इतने अधिक कद्रदान रहे हैं जितने दुनिया में कहीं और नहीं थे। जब सच सामने आया तो आँखें फटी की फटी रह गई। अब पछताए क्या हो। जो होना था सो हो गया। यही स्थिति तकरीबन सारे विदेशी उत्पादों की है जो हमारे लिए अनुकूल नहीं हैं। इनकी जांच हो न हो, मगर विदेशी खान-पान हमारे हित में न रहा है, न रहेगा। पर हमारी भेड़चाल को कौन रोक पाएगा, जो खुद अपनी आयु स्वाहा कर सहर्ष मौत को गले लगाने की दिशा में बढ़ते ही जा रहे हैं।
जीभ के स्वाद का अपना विचित्र मनोविज्ञान है। जो अज्ञात खाद्य या पेय वस्तु हमारी जीभ और शरीर के संपर्क में पहली बार आती है तब शरीर को नई चीज पाने का आनंद प्राप्त होता है। यों भी जो वस्तु कभी-कभार प्राप्त होती है उसके प्रति इंसान की तलब कुछ अधिक ही बनी रहती है।
यही कारण है कि हमारे सामान्य खान-पान के चलते हुए कोई विरोधाभासी खान-पान हमारी जीभ, गले और पेट के संपर्क में जाता है, हमारी नाक द्वारा महसूस किया जाता है, आँखों द्वारा देखा जाता है उसके प्रति हमारा तीव्र आकर्षण जग जाता है क्योंकि वह वस्तु या पेय हमारी प्रकृति या हमारी भौगोलिक सीमाओं से काफी दूर से आती है इसलिए उसके प्रति दिमाग में ऎसी तलब बन जाती है कि वह वस्तु हमें भाने लगती है। इसी तलब को हमेंशा बनाए रखने के लिए विदेशी कंपनियां इसमें अस्वाभाविक कुछ न कुछ विशेष प्रयोग करती रहती हैं। जैसा कि मैगी के मामले में सामने आया है।
यह धंधा ठीक तम्बाकू, गुटखा, बीड़ी-सिगरेट या दूसरी तरह की वस्तुओं की तरह है जिनका सामान्य तौर पर आदमी की जिन्दगी के लिए कोई उपयोग नहीं होता। यही वजह है कि शाकाहारी लोगों के खाने-पीने कुछ लोग ऎसे तत्व मिला डालते हैं जो कि आम तौर पर शाकाहारियों के सामान्य जीवन में प्रयोग में नहीं लाए जाते। इसलिए शाकाहारियों की जीभ को ऎसे स्वाद की तलब पड़ जाया करती है।
यही कारण है कि बार-बार इंसान उस विचित्र प्रकृति के स्वाद को तलाशने के फेर में भटकने लगता है जो स्वाद उसे बहुधा प्राप्त नहीं हो पाता है। विदेशी खाद्य और पेय सामग्री तथा देशी-विदेशी डिब्बाबंद या पैक्ड़ सामग्री के प्रति हम भारतीयों की भेड़चाल का यही एकमात्र कारण है।
अपने क्षेत्र के अलावा की वस्तुएं चर्बी बढ़ाकर मोटापा तो दे सकती हैं, मगर स्फूर्ति, दिमाग, ताकत और ओज तो उन्हीं वस्तुओं से पाया जा सकता है जो हमारे अपने क्षेत्रों में ही उत्पादित होती हैं।
जो जहाँ पैदा होता है वह उसी क्षेत्र विशेष के लिए ही होता है, दूसरे क्षेत्रों के लिए वह स्थूल ही बना रहता है, शरीर के लिए उपयोगी कभी नहीं। जो वस्तुएं हमारे शरीर के लिए किसी काम की नहीं उन सभी को कचरे से अधिक कुछ भी नहीं माना जा सकता। समय आ गया है जब सुधरें और सुधारें वरना यमदूतों के कदम हमारी तरफ बढ़ ही चले हैं।
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- डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
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