दो स्तों, देश में हर साल होने वाली शादियों एवं सामाजिक समारोहों की रौनक आपने जरूर देखी होगी, हो सकता कि ऐसी शादी एवं सामाजिक समारोह में आप म...
दोस्तों, देश में हर साल होने वाली शादियों एवं सामाजिक समारोहों की रौनक आपने जरूर देखी होगी, हो सकता कि ऐसी शादी एवं सामाजिक समारोह में आप मेहमान बनकर जरूर गये होंगे, और वहां के नजारों ने आपके मन और मस्तिष्क को झकझोर के रख दिया होगा। जी हां में बात कर रहा हूं आज के परिवेश में होती उन शादी समारोहों की जिसमें आपके बुलावे का कार्ड तो व्यक्तिगत पहुंचाया गया था, और शादी समारोह में आने हेतु आपसे विशेष आग्रह भी किया था, परन्तु शादी में पहुंचते ही आपकी गिनती उन तमाम लोगों में होने लगी जो शादी में तो आते हैं पर अपना फर्ज निभा कर चले जाते हैं।
यानी आयाराम और गयाराम हो जाते हैं। जिसका कारण साफ है कि ऐसे समारोहों में मेहमानों की संख्या अनुमान से ज्यादा होती है। जिसमें विशेष व्हीआईपी मेहमानों को भी बुलाया जाता है और उनके सामने आपका अस्तित्व बौना समझकर आपके तरफ ध्यान नहीं दिया जाता है। वर्तमान परिवेश की शादियों में महंगे कार्ड का दस्तूर आम होने के साथ-साथ खाना खाने का तरीका भी आधुनिक शैली का हो गया है। अर्थात् खड़े होकर खाना खाने का दस्तूर फैशन बन चुका है। शादी पार्टियों निजी समारोहों में विलुप्त होती बैठाकर खाना खिलाने की भारतीय संस्कृति अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। एक तरफ शादियों में ज्यादा भीड़ इकठ्ठा करने का जुनून आम होने के साथ-साथ छप्पन प्रकार के भोग का इन्तजामात करना भी आज का शोख बन चुका है। महंगाई की मार भी इस दस्तूर के सामने ओझल होती दिखाई दे रही है।
प्राचीन काल में शादियों में बुलाने के तौर-तरीके कुछ अलग हुआ करते थे, जिसमें सुपारी देना, पीले चावल निमंत्रण के तौर पर पहुंचाना, और कागज में बुलावा लिखकर हल्दी लगाकर निमंत्रण देने के तरीके प्रचलित हुआ करते थे, परन्तु वर्तमान परिवेश में हजारों रूपये के महंगे कार्ड छपवाना आज का दस्तूर बन चुका है। एक आदमी तीन से चार शादियों में अपनी दस्तक देकर समारोह में उपस्थिति की रस्म अदा कर रहे हैं। क्या भारतीय संस्कृति में बैठाकर खिलाने का दस्तूर अब पूरी तरह से विलुप्त हो चुका है? या फिर तमाम भीड़ इकठ्ठा करने की चाह में बैठाकर खिलाने की संस्कृति ने अपने आप दम तोड़ दिया है? बदलते परिवेश ने भारतीय संस्कृति पर जो कुठाराघात किया है, इससे बच पाना सभ्य समाज के लिए संभव नहीं है। एक तरफ अगर ग्रामीण परिवेश की शादियों पर नजर डाली जाय तो निश्चित रूप से आपको गांव के बड़े बुजुर्ग पंगत में खाना खाते आज भी नजर आ सकते हैं,जिसमें भारतीय संस्कृति की झलक आज भी ओझल नहीं होती है।
परन्तु शहरी सभ्यता में बफर की भीड़ में गुम होते हमारे बुजुर्ग आधुनिकता का पूरी तरह से शिकार हो चुके हैं। जिनकी ओर सभ्य समाज का ध्यान कतई नहीं है। क्या भारतीय परिवेश में शुरू हुए इस बुफे के खाने के अध्याय का अंत कभी होगा? या फिर इसी तरह हमारी पीड़ी दर पीड़ी आधुनिकता की चकाचौंध में हमारी प्राचीन सभ्यता का गला घोंटती रहेगी। तमाम तरह के सवाल अपने आप जन्म तो लेते हैं पर इन सवालों को नजरअन्दाज करने वालों की देश में कमी नहीं है। बैठाकर खाना खिलाने की विलुप्त होती भारतीय संस्कृति चिन्ता का विषय तो है ही पर समाधान के विषय क्यों नहीं है। ये अब समझ के परे है। भारतीय संस्कृति में गिद्ध भोजन करने और कराने की कला कहां से आई इसका भी जवाब किसी के पास नहीं है। क्या संसाधनों की भीड़ ने भारतीय परिवेश पर अपना कब्जा जमा लिया है? या फिर मानव समाज पूर्ण रूप से आलसी एवं अपंग हो चुका है? बैठाकर खाने और खिलाने की सामर्थ्य एवं शक्ति उसकी पूरी तरह से क्षीण हो चुकी है? इन सवालों के भी जवाब सभ्य समाज के पास नहीं है।
बुफे के संसाधनों की एक ऐसी बस्ती जो आम आदमी से दूर होती जा रही। जिसकी धुन्ध में नजदीकी रिश्ते भी अब धुंधले पढ़ चुके हैं। शादी समारोह में बैठाकर खिलाने की संस्कृति भारतीय समाज के संस्कारों का आईना हुआ करता था। परन्तु वर्तमान परिवेश की महंगी शादियों में घर के सभी मेहमान आयाराम और गयाराम होते दिखाई दे रहें। आखिर कब तक इस नई परंपरा को हम जागृत करते रहेंगे, और अपने बुजुर्गों की उस बस्ती से दूर होते रहेंगे, जिसमें भारतीय संस्कृति की छाया नजर आती थी। बडे-बडे संस्कारों की बस्ती जगमग होती रोशनी की चकाचौंध में पूर्ण रूप से विलुप्त होने की कगार में आ चुकी है। प्राचीन समय में मेहमानों की उस भीड़ की रौनक शादी समारोह वाले घर को रोशन कर देती थी, पांच से दस दिन तक घर में होते गीत मंगल कार्यक्रम मोहल्ले की हर रात को जगा देते थे, परन्तु वर्तमान समय में शादी समारोह घर की चौखट के सामने कम ही होते दिखाई दे रहे हैं, मैरिज होम, मैरिज गार्डन, महंगे होटलों में होने वाली शादियों में करोडों रूपये खर्च करने की परंपरा के वाहक कोई और नहीं है बल्कि इस परंपरा के वाहक हम और आप ही हैं।
जो अपनी झूठी शान को महज छः धण्टे के लिए सभ्य समाज के सामने इस तरह से पेश करने की कोशिश करते हैं मानो इस धरती पर हमारे जैसा खर्चीला बड़ा आदमी और कोई नहीं है। क्षणिक सुख की किंवदंतियों को भूलकर एक नई किंवदंती का निर्माण करने की नकल हम में कहां से आई इसका भी जवाब सभ्य समाज के पास नहीं है। क्या भारतीय संस्कृति में रिश्तों की परंपरा इस गिद्ध भोजन का भयावह रूप धारण कर चुकी है, जिसके विषय में सभ्य समाज की अवधारणा चाहे कुछ भी हो, पर इसे बंद करने की सामर्थ्य और बोलने शक्ति शायद किसी के पास नहीं है। वर्तमान परिवेश की शादियों समारोहों में नजदीकी मेहमानों की आवभगत आखिर कब तक इस गिद्ध भोजन से कलंकित होती रहेगी। एक तरफ सभ्य समाज सामाजिक कुरीतियों को जड़ से खत्म करने की योजना में लगा हुआ है, और दूसरी तरफ आधुनिकता की इस गिद्ध भोजन की पद्धति चिंता का विषय बन चुकी है।
बैठकर भोजन करने की संस्कृति भारत की प्राचीन संस्कृति है, जिसे बचाना सामाजिक संगठनों का काम नहीं है, बल्कि भारत में रह रहे हर भारतवासी का भी है। निजी एवं सामाजिक आयोजनों की बात की जाय तो कई सामाजिक संगठन इन आयोजनों में मेहमानों की संख्या नियत करने एवं बर्बाद होते खाने को बचाने पर भी जोर दे रहे हैं। पर मानवता के झूठे अहम ने ऐसी आवाजों को अभी दवा के रखा है। वर्तमान परिवेश की शादी पार्टियों में बर्बाद होते खाने के आंकडे तो कुछ भी नहीं है, पर चिंता और चर्चाओं के बाजार से ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि लगभग 20 से 25 प्रतिशत तक खाना ऐसे निजी एवं सामाजिक समारोह में बर्बाद हो जाता है। तब ऐसे कार्यक्रमों में मेहमानों की संख्या नियत करने पर जोर देना भी समय की मांग बन चुका है। साथ ही बर्बाद होते खाने को भी बचाने की पहल सभ्य समाज को करनी ही होगी। जिस देश में 160 लाख टन अनाज सड़ जाता हो, और लगभग 22 करोड़ लोग भूखे सोने को मजबूर हों, और हर साल हजारों लोग भूख से मरने का शिकार हो रहे हों, वहां ऐसे निजी एवं सामाजिक आयोजनों में खाना खाने की बर्बादी को काबू कर लाखों का पेट भरा भी जा सकता है। और विलुप्त होती खाना खाने की भारतीय संस्कृति को भी बचाया जा सकता है।
कुमार अनिल पारा,
दशकों विदेश में रहते मैं आज वृद्धावस्था के उस मोड़ पर आ खड़ा हूँ जहाँ निष्क्रिय वर्तमान कम, अतीत की यादें अधिकतर मेरे मानसिक संतुलन को बनाए हुए हैं। और, तिस पर अतीत में केवल व्यक्तिगत अथवा पारिवारिक ही नहीं बल्कि अतीत द्वारा सनातन धर्म में संस्कारों की पकड़ मुझ बूढ़े भारतीय पंजाबी को फिर से जीवन के उद्देश्य को समझ पाने को लालायित कर रही है। कुमार अनिल पारा जी की रचना, “बैठाकर खाना खिलाने की विलुप्त होती भारतीय संस्कृति !” पाठकों को जीवन के उद्देश्य से न भटकने की चेतावनी है। उन्हें मेरा साधुवाद।
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