- हनुमान मुक्त इस सत्र की कक्षा का पहला दिन था। हिन्दी साहित्य का कालांश था। मैंने छात्रों से अपनी-अपनी पुस्तक ‘‘अंतरा’’ निकलाने को क...
- हनुमान मुक्त
इस सत्र की कक्षा का पहला दिन था। हिन्दी साहित्य का कालांश था। मैंने छात्रों से अपनी-अपनी पुस्तक ‘‘अंतरा’’ निकलाने को कहा। छात्रों ने पुस्तक निकाल ली।
मैं कुछ कहता, उससे पहले ही छात्र पुस्तक के कवर पृष्ठ को निहारने लगे। एक छात्र इससे भी आगे बढ़ गया। वह मुख्य कवर पृष्ठ के स्थान पर सीधे बैक पृष्ठ पर आ गया। उसकी निगाहें बैक पृष्ठ पर अटक गई। उसको ऐसा करते देख मेरे चेहरे पर हल्के से पसीने चूने लगे। बैक कवर पृष्ठ पर ऐसा कुछ लिखा हुआ है, इसको मेरा अवचेतन मस्तिष्क पहले भांप चुका था।
मेरी निगाहें छात्र के चेहरे पर अटक गई। वह उस पृष्ठ को पढ़ने लगा। चेहरे पर अजीब-अजीब रंग आने लगे। मैं समझ गया आज पहले दिन ही अपना भांडा फूटना है। तिल्ली में कितना तेल है, अभी सामने आता है।
मेरी स्थिति बड़ी विचित्र है। शुरू से विज्ञान विषय का छात्र रहा हूँ, गणित में अधिस्नातक हूँ। नौकरी के दौरान वन वीक सीरिज पढ़कर हिन्दी में एम.ए. कर लिया। सरकार को लगा कि मैं हिन्दी विषय का विशेषज्ञ बन गया हूँ। उसने मेरा प्रमोशन कर दिया। प्राध्यापक बना दिया। प्रमोशन लेना जरूरी था, अन्यथा जो वेतन मिल रहा था उसके भी कटने का खतरा था। विज्ञान का विद्यार्थी हिन्दी का प्राध्यापक बन गया। मेरी स्थिति मैं ही जानता था। जैसे-तैसे ‘पास-बुक्स’ से पढ़कर छात्रों के सामने अपनी इज्जत बना रखी थी। काठ की हांडी को बार-बार चढ़ाने की हिमाकत कर रहा था। सोच रहा था दस-पन्द्रह साल निकलने में क्या लगता है, निकल जाएंगे। फिर तो प्रिसिंपल बन ही जाऊंगा, पढ़ाने- लिखाने का खतरा स्वमेव ही टाल जाएगा।
अपने नए प्रमोशन का बाट जोह रहा था। प्राध्यापक बनने के बाद मैं जब भी कक्षा में घुसता, मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना अवश्य करता कि छात्र अपनी पाठ्यपुस्तक का कोई प्रश्न नहीं पूछे, इसके इतर जरूर पूछे जिससे आज का दिन निकल जाए। अधिकतर दो कालांश लेने होते थे। इसलिए प्रार्थना भी दो ही बार करता था। कभी-कभी भुलावा देकर या काम का बहाना बनाकर कक्षा छोड़ देता तो उस दिन प्रार्थना की नागा रह जाती थी।
ईश्वर ने मुझे कभी निराश नहीं किया। मेरी प्रार्थना का प्रतिफल दिया। मैं हमेशा छात्रों को संतुष्ट करने में सफल रहा।
मुझे पढ़ाने का करीब पच्चीस वर्षों का अनुभव है, आज तक कभी किसी छात्र ने पुस्तक के मुख पृष्ठ और बैक पृष्ठ से प्रश्न करना तो दूर, उस पर क्या लिखा है? क्या छपा है? यह तक देखना उचित नहीं समझा। इसी कारण मैंने कभी इस ओर ध्यान भी नहीं दिया।
वैसे भी सत्र के पहले दिन काम के प्रश्न होने की संभावना कम ही रहती है। ऐसे ही प्रश्न आते हैं, जिनका मैं बहुत अच्छी तरह उत्तर दे सकता हूँ। लेकिन आज अनर्थ होने जा रहा था। मैं कक्षा में आने से पहले ईश्वर से प्रार्थना करना भी भूल गया था। पहले ग्रीष्मावकाश था, छुट्टियों में ईश्वर को परेशान करने की आवश्यकता नहीं थी। इसलिए प्रार्थना का अयास खत्म हो गया था।
ईश्वर तो ईश्वर है। सर्वशक्तिमान। उसे शायद यह सब गंवारा नहीं। वह उस छात्र को हिन्दी विषय का ही नहीं, अपितु राजनीति विज्ञान का प्रश्न लेकर खड़ा करने वाला था। छात्र को देख-देख कर मेरे चेहरे पर बारह बज रहे थे।
छात्र अपने स्थान पर खड़ा हो गया। पुस्तक को मेरे पास लाकर बैक पृष्ठ दिखाता हुआ बोला, ‘‘सर, ये पुस्तक के पीछे जो लिखा हुआ है ‘‘संविधान’’ क्या यही हमारे भारत का संविधान है?’’
मैंने पुस्तक को देखा, पुस्तक के पीछे लिखा हुआ था ‘‘भारत का संविधान’’ उसके नीचे अंकित था उद्देशिका, उसके बाद अन्य कुछ।
मैंने कहा, ‘‘यह हमारे भारत का संविधान नहीं है, सिर्फ उद्देशिका है’’
‘‘इसका मतलब क्या होता है सर?’’
‘‘यार इसका मतलब है कि संविधान लागू करने का उद्देश्य क्या है?’’ ‘‘तो क्या है सर, संविधान लागू करने का उद्देश्य?’’ दिखता नहीं है क्या? साफ-साफ मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा है, पढ़ले। ’’
‘‘पढ़ तो लिया, लेकिन समझ में नहीं आ रहा। सर, यह हमारे संविधान का उद्देश्य हो सकता है।’’ ‘‘क्या समझ नहीं आ रहा है?’’ वैसे ही बड़बड़ कर रहा है। चल अपने स्थान पर जाकर खड़ा हो और जोर से पढ़ना शुरू कर दे। छात्र खड़ा हो गया। उसने पढ़ना शुरू किया।
‘’भारत का संविधान। उद्देशिका। हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी, पंथ निरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की क्षमता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता, बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवबर १९४९ ईस्वी (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत् दो हजार छह विक्रमी)’ को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।’’ छात्र चुप हो गया। जो लिखा था, उसने पढ़ दिया।
‘‘अब बताओ सर, यह प्रभुत्व सपन्न समाजवादी, पंथ निरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य का मतलब क्या है?’’
‘‘इतना भी नहीं जानता। कैसे बारहवीं में आ गया। बैठ जा, समय खराब मत कर।’’ मैंने छात्र को धमकाकर अपनी बला टालने का प्रयास किया। शायद छात्र का अबसे पहले भी ऐसे सर से वास्ता पड़ चुका था। वह बोला, ‘‘सर टरकाओ मत, मैं सब समझता हूँ। आप शांति से, जो मैं पूछ रहा हूँ उसका उत्तर दो।’’ छात्र के इस प्रकार सीना जोरी करने से मैं घबरा गया, किन्तु फिर सांल कर बोला, ‘‘बेटे, जैसा आज का भारत तुम देख रहे हो, वह प्रभुत्त्व सपन्न समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य ही है।’’ इसे ऐसा बनाने के लिए स्वतंत्रता के बाद से प्रयास किए जा रहे हैं।
‘‘तो फिर यह समाजवादी पार्टी क्या है?’’
‘‘यार यह एक राजनैतिक पार्टी है।’’
‘‘तो ये असम में, कश्मीर में जो दंगे हो रहे हैं, वे क्या है?’’ ‘‘ये भारत को पंथ निरपेक्ष बनाने के लिए हो रहे है, तुम्हें पता नहीं है। स्वतंत्रता के बाद विभाजन के समय खूब दंगे हुए थे। ये सब पंथनिरपेक्ष बनाने की सीढ़ी है।’’ मैं जैसे-तैसे छात्र को संतुष्ट करने में लगा हुआ था लेकिन छात्र कुछ अधिक ही असंतुष्ट लग रहा था। बोला, ‘‘अच्छा, ये बताओ इसे लोकतंत्रात्मक गणराज्य कैसे बनाया जा रहा है?’’
‘‘प्रत्येक छोटी से लेकर बड़ी संस्था में हर साल, दो साल, पाँच साल में चुनाव करवाकर जनता को जनता में से ही अपना रक्षक या भक्षक चुनने का अधिकार देना लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाना है।’’ मैंने कहा। छात्र और भी कुछ पूछने की फिराक में था, मैं नहीं चाहता था कि वह कुछ पूछे।
मैं अब तक तो जैसे-तैसे उसके प्रश्नों के उत्तर देकर अपना काम चल रहा था लेकिन आगे न्याय, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म, अवसर की समता, गरिमा, राष्ट्र की एकता, अखण्डता, बंधुता आदि का मतलब समझाने की मुझमें हिम्मत नहीं थी।
मैं मन ही मन ईश्वर को याद करने लगा, अपनी भूल के लिए माफी मांगने लगा। आज अपनी इज्जत दांव पर लगी है, इसे बचा ले। तुमने पूर्व में भी द्रौपदी की इज्जत, गज की जान बचाई थी। मैं भी आपका उतना ही बड़ा भक्त हूँ। ईश्वर तो दयालु है, उसे तुरन्त दया आ गई। स्कूल की घड़ी खराब हो गई। चपरासी ने अगले कालांश का घंटा बजा दिया। मेरी जान में जान आ गई।
मैंने उठते ही छात्रों से यह कहते हुए विदा ली, अगली बात कल करेंगे। लेकिन तुम लोग फालतू बातों के स्थान पर कोर्स की बातों पर ज्यादा ध्यान दो। परीक्षा में कोर्स में से प्रश्न पूछे जाएंगे, मुख पृष्ठ या बैक पृष्ठ से नहीं। यह कहते हुए मैं कक्षा से बाहर निकल गया। मैंने चैन की सांस ली।
Hanuman Mukt
93, Kanti Nagar
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