-डॉ. गिरीश काशिद -------------------------------------------------------------------------------------- म हाराष्ट्र को प्रगतिशील राज्य कहा...
-डॉ. गिरीश काशिद
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महाराष्ट्र को प्रगतिशील राज्य कहा जाता है क्योंकि यहाँ प्रगतिवादी विचारों का पोषण हुआ है। यहाँ के महापुरूषों के कार्यों ने देश को नई दिशा की ओर अग्रेषित किया है। महाराष्ट्र में प्रगतिवादी मानसिकता और वैचारिकता की रूझान तैयार करने में महात्मा फुले, आगरकर, लोकहितवादी, महर्षि विठ्ठल रामजी शिंदे, राजर्षि शाहू महाराज, संत गाडगेबाबा, डॉ. बाबासाहब आंबेडकर आदि ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। इन्होंने अंधविश्वास उन्मूलन का कार्य भी अपने समाज सुधार कार्य का ही एक हिस्सा माना था। बावजूद हमारी मानसिकता में परिवर्तन नहीं हुआ यह खेद की बात है। इसी कारण स्वातंत्र्योत्तर सुदीर्घ काल के बाद इक्कीसवीं सदी में भी यह समस्या पाई जाती है। इस समस्या जड़ से उखाड़ने हेतु आधुनिक काल में डॉ. नरेंद्र दाभोलकर ने अहं योगदान दिया। उन्होंने अंधविश्वास उन्मूलन के लिए लंबा आंदोलन चलाया। इतना ही नहीं तो विवेकवादी और विज्ञाननिष्ठ समाज के निर्माण हेतु अपना जीवन ही दाँव पर लगाया।
महाराष्ट्र में एक ओर प्रगतिशील विचार पाये जाते हैं तो दूसरी ओर इन विचारों की हत्या करने की हिंसक प्रवृत्ति भी पाई जाती है। सभी समाजसुधारकों को इससे जूझना पड़ा। डॉ. नरेंद्र दाभोलकर और कॉमरेड गोविंद पानसरे की हत्याएँ इस बात को पुनः सामने लाती है। लेकिन व्यक्ति को मारने से विचार नहीं मरता तो वह अधिक प्रसारित होता है। डॉ. नरेंद्र दाभोलकर और उनके विचार काल के आगे थे। उन्हें समझना कुछ विकृत लोगों के बस में नहीं है। वे उनका वैचारिक स्तर पर मुकाबला करने में कमजोर थे। इसी कारण उन्हें उनकी हत्या करना आसान लगा। दाभोलकर जी ने अंधविश्वास विरोधी कानून पारित हो इसलिए लंबा संघर्ष किया। लेकिन महाराष्ट्र सरकार उनके जीते जी यह कानून नहीं बना पाई। अंततः उनकी हत्या के बाद सरकार को जनक्षोभक के आगे 'महाराष्ट्र नरबलि और अन्य अमानुष, अनिष्ट एवं अघोरी प्रथा तथा जादूटोना प्रतिबंधक एवं उन्मूलन अधिनियम-2013' यह विधेयक पारित करना पडा। लेकिन खेद की बात है कि इसके लिए दाभोलकर को शहीद होना पड़ा। दाभोलकर की जिंदगी अंधविश्वास उन्मूलन का आंदोलन बन गई थी। उन्होंने लोगों को सजग बनाने का मानो बीडा उठाया था। वे किसी भी बात पर जड़ से विचार करना महत्त्वपूर्ण मानते थे। और इससे संबद्ध गलतफहमियाँ दूर करना आवश्यक मानते थे। उन्होंने धर्म और जाति को लेकर प्रचलित गलतफहमियों पर प्रहार किया। इसी कारण उन्होंने नवजागरण का कार्य शुरू किया और आजीवन उसे चलाया। डॉ. दाभोलकर एक कृतिशील विचारवंत थे।
डॉ. दाभोलकर का व्यक्तित्व बहुमुखी था। उन्होंने एमबीबीबीएस की पढ़ाई पूरी करने के बाद प्रचलित रूप में डॉक्टर बनने की बजाए सामाजिक बीमारी को दूर करना अपना लक्ष्य बनाया। उनकी कथनी और करनी में अंतर नहीं था। उनके परिवार के सदस्य भी उनके कार्य में सक्रिय योगदान देते आए हैं। सन् 1982 से उन्होंने अंधविश्वास उन्मूलन का कार्य शुरू किया तो सन् 1989 में 'महाराष्ट्र अंधश्रध्दा निर्मूलन समिति' की स्थापना की। उन्होंने इस संगठन को महाराष्ट्र के साथ कर्नाटक और गोवा में भी विस्तारित करने का प्रयास किया। दाभोलकर का अंधविश्वास उन्मूलन का कार्य नियोजनबद्ध था। वे मोर्चे पर प्रत्यक्ष लड़ते थे और इसके विरूध्द जनमानस निर्माण करने का भी प्रयास करते थे। उन्होंने तथाकथित चमत्कारों के पीछे होनेवाली वैज्ञानिक सच्चाइयों को भी उजागर किया। इसके लिए वे अनेक मोर्चों पर संघर्ष करते रहे।
डॉ. दाभोलकर और अंधश्रध्दा निर्मूलन समिति महाराष्ट्र में एक दूसरे के पर्याय रहे हैं। उन्होंने सन् 1989 में समविचारी मित्रों को साथ लेकर इस संगठन की स्थापना की। तब से आजीवन वे इसके सक्रिय कार्यकर्ता रहे। समाज में प्रचलित अनिष्ठ रूढि, प्रथा परंपराओं का विरोध कर स्वस्थ समाज का निर्माण करना उनके कार्य का उद्देश्य था। उन्होंने इस समिति के जरिए अनेक कार्यकर्ताओं की फौज निर्माण की। धार्मिक आधार लेकर जनता का शोषण करनेवाले बुवा-बाबाओं का उन्होंने विरोध किया। इसके लिए उन्होंने विवेकवाद का आधार लेकर वैज्ञानिक दृष्टि से शोषक वर्ग के क्रियाकलापों की छानबीन की। इस संदर्भ में वे धर्म की मीमांसा कर धर्मनिरपेक्षता का अलग दृष्टिकोण भी सामने रखते रहे। उनके कार्य का उद्देश्य विवेकवाद और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रचार-प्रसार रहा। उन्होंने और अंधविश्वास उन्मूलन समिति ने कई भोंदू बाबाओं का भंडाफोड़ किया। वे लंबे अर्से तक साने गुरूजी द्वारा स्थापित 'साधना' साप्ताहिक के संपादक भी रहे।
डॉ. दाभोलकर का व्यक्तित्व और कार्य बहुआयामी था। उन्होंने गणेश विसर्जन के बाद होनेवाला प्रदूषण, दीपावली में पटाखे तोड़ने से होनेवाले प्रदूषण, ज्योतिष विद्या का विरोध, साहित्यिक गतिविधियों का समर्थन, साहित्यकारों को सहयोग, सामाजिक शोध को प्रेरणा और प्रोत्साहन आदि कई क्षेत्रों में कार्य किया। वे किसी भी समस्या का केवल विरोध नहीं करते थे तो उसके लिए विकल्प भी प्रस्तुत करते थे। शिक्षा में प्राथमिक स्तर से वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने के लिए उन्होंने मुहिम चलाई। वे जाति प्रथा को तक अंधविश्वास ही मानते थे। जहाँ-जहाँ आडंबर था वहाँ-वहॉ वे उसकी पोल खोलने का कार्य करते रहे। उनकी प्रवृत्ति सत्यशोधक और चिंतनशील थी और उसे विज्ञान और विवेकवाद का अधिष्ठान था। दाभोलकर पर जयप्रकाश नारायण के 'कुछ बनो' मंत्र का प्रभाव रहा। इसी कारण उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी अंधविश्वास उन्मूलन के व्यापक और चुनौतीपूर्ण कार्य के लिए समर्पित की। उनका जीवन मानो अंधविश्वास आंदोलन का इतिहास बन गया है।
डॉ. नरेंद्र दाभोलकर अंधश्रध्दा निमूर्लन समिति के एक सक्रिय सूत्रधार रहे। उन्होंने अपना जीवन इस कार्य के लिए समर्पित किया था। इस विषय पर व्याख्यान देना, संगोष्ठियों का आयोजन करना, प्रात्यक्षिक करना, लोगों में विज्ञानवादी दृष्टिकोण निर्माण करना, इसके लिए कार्यकर्ताओं की फौज निर्माण करना यह उनके कार्य का सूत्र था। उन्होंने आजीवन विवेकवाद का प्रचार-प्रसार किया। इसके अनुकूल विचारोें को वे अभिव्यक्त करते रहे। इस विषय पर उन्होंने दर्जनभर पुस्तकों का लेखन किया। 'असे कसे झाले भोंदू', 'अंधश्रध्दा विनाशाय' 'अंधश्रध्दाः प्रश्नचिह्न आणि पूर्णविराम', 'भ्रम आणि निरास', 'विचार तर कराल?', 'श्रध्दा-अंधश्रध्दा', 'लढे अंधश्रध्देचे', 'ठरलं...डोळस व्हायचंय', 'विवेकाची पताका घेऊ खांद्यावरी', 'प्रश्न मनाचे', 'तिमिरातूनी तेजाकडे' यह उन्होंने लिखी महत्त्वपूर्ण पुस्तके हैं। इन पुस्तकों से उन्होंने अंधविश्वास की मानसिकता का गहराई से विवेचन किया है। उल्लेखनीय यह कि उनकी पुस्तकों के दर्जनों संस्करण निकल चुके हैं।
उनके द्वारा लिखित पुस्तकों में से 'तिमिरातूनी तेजाकडे' (अंधेरे से प्रकाश की ओर) उनके विचारों को समग्र रूप में अभिव्यक्त करनेवाली मराठी में प्रकाशित एक उल्लेखनीय पुस्तक है । इस पुस्तक का प्रकाशन सन् 2010 में राजहंस प्रकाशन, पुणे के द्वारा हुआ है। यह पुस्तक मराठी भाषा में काफी चर्चित हुई है। इस विषय पर यह पुस्तक 'मील का पत्थर है, इसमें संदेह नहीं। इस मराठी पुस्तक को महाराष्ट्र राज्य के उत्कृष्ट वाड़्मय पुरस्कार तथा डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर पुरस्कार से भी नवाजा गया है। 472 पृष्ठों की यह पुस्तक तीन खंडों में विभाजित है-विचार, आचार और सिध्दांत। यह पुस्तक विवेकवाद और विज्ञानवाद की राह पर चलने का संदेश देती है। यह इस विषय से संबध्द एक परिपूर्ण प्रयास है । अर्थात इसके पीछे डॉ. दाभोलकर की अथक साधना और अनुभव है।
डॉ. दाभोलकर की हत्या होकर डेढ़ साल गुजर गया है। उनकी हत्या करनेवाले अभी तक गिरफ्तार नहीं हुए हैं। डॉक्टर दाभोलकर की हत्या का देश के विविध तबकों से निषेध हुआ। दाभोलकर को जिंदा होते हुए जितनी ख्याति नहीं मिली उतनी ख्याति उनकी हत्या के बाद पूरे देश में मिली। चँूंकि यह इस देश का रिवाज है कि यहाँ व्यक्ति को मरने के बाद बहुत सम्मान मिलता है। लेकिन डॉक्टर दाभोलकर को मिलनेवाला सम्मान उनकी शहादत के कारण है। डॉ. दाभोलकर के विचार अब लोगों को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण लग रहे हैं। और कुछ साल बाद इसका महत्त्व और बढ़ेगा। डॉ. दाभोलकर की हत्या से प्रगतिशील विचारों की काफी क्षति हुई है। डॉक्टर दाभोलकर को लोग बराबर याद करते रहेंगे। क्योंकि दाभोलकर एक व्यक्ति नहीं तो विचार बन चुके थे। इसी कारण उनकी हत्या के बाद महाराष्ट्र में निषेध के दौरान 'हम सब दाभोलकर' यह नारा गूँज उठा। दाभोलकर की हत्या से जिन लोगों को अधिक बेचैन किया उनमें एक है, डॉ. सुनीलकुमार लवटे। डॉ. लवटे एक संवेदनशील इन्सान और रचनात्मक कार्य का समर्थन करनेवाले विद्वान हैं। उन्होंने दाभोलकर जी के साथ कार्य किया है। उनके लेखन को गहराई से समझा है। इसी कारण उन्होंने डॉक्टर दाभोलकर को कोरी श्रध्दांजलि अर्पित करने के बजाय उनके विचारों को विस्तार देने की ठान ली। उन्होंने डॉ. दाभोलकर की अंधविश्वास उन्मूलन पर लिखी 'मील का पत्थर' होनेवाली लेकिन केवल मराठी भाषिक लोगों तक सीमित होनेवाली पुस्तक 'तिमिरातूनी तेजाकडे' को हिंदी भाषा में अनुवाद कर पूरे देश में पहुँचाने का संकल्प किया। इस पुस्तक का आकार और विषय के कारण इस बृहत पुस्तक का तुरंत अनुवाद कर पाना असंभव था। इसलिए उन्होंने अपने तीन छात्रों से इस पुस्तक के तीन खंडों का अनुवाद करवाकर उसका संपादन किया। राजकमल प्रकाशन ने सार्थक उपक्रम के अंतर्गत इस पुस्तक के अनुवाद को तीन भागों में स्वतंत्र रूप में प्रकाशित किया है। डॉ. सुनीलकुमार लवटे, राजकमल प्रकाशन और अनुवादक डॉ. चंदा गिरीश, डॉ.विजय शिंदे और डॉ. प्रकाश कांबले ने डॉ. दाभोलकर के विचारों को पूरे देश में ले जाने को यह जो कार्य किया है उसके पीछे एक सामाजिक सरोकार है।
डॉ. दाभोलकर की 'तिमिरातुनी तेजाकडे' पुस्तक तीन खंडों में विभाजित है। प्रथम भाग अंधविश्वास उन्मूलनः आचार है। इस भाग का हिंदी अनुवाद डॉ. चंदा गिरीश ने किया है। यह मूल पुस्तक के विचार खंड का अनुवाद है। इसमें डॉ. दाभोलकर ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण, विज्ञान की कसौटी पर फलित ज्योतिष, वास्तु (श्रध्दा) शास्त्रः अर्थ और अनर्थ, स्यूडोसाइंस अर्थात छद्मविज्ञान, मन की बीमारियाँः भूतबाधा, देवी सवारना, सम्मोहन, भानमती, बुवाबाजी, अंधश्रध्दा निर्मूलन समिति और हिंदू धर्म विरोध इन उपशीर्षकों में अपने विचार प्रस्तुत किए हैं। उन्होंने इसका विवेचन कई घटना और उदाहरणों के माध्यम से किया है। इस भाग में अंधविश्वास उन्मूलन को लेकर बुनियादी संदर्भों का जिक्र मिलता है। इससे डॉ. दाभोलकर की और समिति की धर्म और धार्मिक व्यवहार के प्रति होनेवाली दृष्टि भी सामने आती है। वे धर्म और श्रध्दा का सम्मान करते हुए इसके अंदर स्थित रूग्ण मान्यताओं को निकाल फेंकने को आगाह करते हैं। धर्म की ओट में किये जानेवाले शोषण को खुलेआम चुनौती देते हैं।
मूल पुस्तक का दूसरा भाग 'आचार' यह 'अंधविश्वास उन्मूलनः आचार' शीर्षक से स्वतंत्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित है। इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद डॉ. प्रकाश कांबले ने किया है। इस भाग में डॉ. दाभोलकर और उनकी अंधश्रध्दा निर्मूलन समिति ने किए कार्य का लेखा-जोखा है। इसमें इक्कीस घटनाओं का अनुभूतिजन्य यथार्थ वर्णित किया है। इसके उपशीर्षकों से ही इसका भाव स्पष्ट होता है। इसके प्रकरण या उपशीर्षक इस प्रकार है-साहबजादी की करनी, कमरअली दरवेश की पुकार!, लंगर का चमत्कार, मीठे बाबा, गुरव बंधु का नेत्रोपचार, भूत से साक्षात्कार, दैवी प्रकोप से दो हाथ, बाबा की करतूत, भगवान गणेश का दुग्धप्राशन, पुरस्कार से इनकार, मदर तेरेसा का संतपद, झाँसी की रानी का पुनर्जन्म, लड़कियों की भानमती, दैववाद की होली, कुलपतियों के नाम खुली चिट्ठी, भ्रामक वास्तुशास्त्र संबंधी घोषणापत्र, शनि-शिंगणापुर, विवके जागरणः वाद संवाद, यह रास्ता अटल है, अंधश्रध्दा निमूर्लन समिति और ब्राह्मणी कर्मकांड, यह सब आता है कहाँं से? । इसमें विविध घटनाओं के आधार पर लोगों का किया जानेवाला शोषण और उसके लिए अंधश्रध्दा निमूर्लन समिति ने किए संघर्ष का विस्तार से विवेचन किया है। अर्थात यह भाग केवल कोरा विवेचन नहीं है तो अंधविश्वास उन्मूलन समिति के कृतिशील संघर्ष का दस्तावेज है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि समाज में होनवाले बुवा, बाबा आदि किस प्रकार अंधविश्वास को बर्करार रखकर लोगों को ठगाने का कार्य करते हैं।
मूल पुस्तक का तीसरा भाग 'सिध्दांत' यह 'अंधविश्वास उन्मूलनः सिध्दांत' इस स्वतंत्र शीर्षक से प्रकाशित है। इसका हिंदी अनुवाद डॉ. विजय शिंदे ने किया है। इसमें अंधविश्वास उन्मूलन की सैध्दांतिक विवेचना है। इसमें डॉ. दाभोलकर ने विवेकवादी चिंतन और आंदोलन के आधार पर अपनी राय व्यक्त की है। इसमें आठ अध्यायों के साथ परिशिष्ट भी दिया है। इसे ईश्वर, धर्म, विश्वास-अंधविश्वास, मेरा आध्यात्मिक आकलन, स्त्रियाँ और अंधविश्वास उन्मूलन, महाराष्ट्र के समाजसुधारक और अंधविश्वास उन्मूलन, धर्मनिरपेक्षता, विवेकवाद इन अध्यायों में सैध्दांतिक पक्ष का विवेचन किया है। इसके अंत में परिशिष्ट दिया है। इस भाग में अंधविश्वास उन्मूलन के विविध आयामों का गहराई से विवचन मिलता है। साथ ही समाज को विवेकनिष्ठ और विज्ञानवादी बनाने के लिए आवश्यक दृष्टिकोण को भी प्रस्तुत किया है।
तीनों पुस्तको में एकरूपता और संगति लाने का कार्य संपादक डॉ. सुनीलकुमार लवटे ने किया है। उन्होंने सुचारू रूप से अनुवाद को संपादित किया है। इससे तीनों पुस्तकों में सूत्रबध्दता आ गई है। मूलतः विवेच्य विषय जटिल है लेकिन उसे अनुवादक और संपादक ने सहज, सरल संप्रेषणीय और पठनीय बनाने का प्रयास किया है। यह तीन भाग एक ही पुस्तक के तीन स्वतंत्र भाग है। इसमें क्रमशः विचार, आचार और सिध्दांत का विस्तार से विवेचन किया है। इन पुस्तकों में अंधविश्वास के तिमिर से प्रकाश की ओर ले जाने की सामर्थ्य है।
डॉ. दाभोलकर की यह पुस्तक इस विषय को समग्रता से अभिव्यक्त करनेवाली एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। इसमें उन्होंने युगों से चली आई मान्यताओं को विवके की कसौटी पर परखा है। समाज को विवेकवादी और विज्ञाननिष्ठ बनाना है तो उसके सामने इस विषय की तार्किक प्रस्तुति आवश्यक है ऐसा डॉ. दाभोलकर को लगता था। इसी कारण इस पुस्तक में उन्होंने अंधविश्वास से संबंद्ध तमाम संदर्भों को सोदाहरण प्रस्तुत कर उसका सैध्दांतिक विवेचन भी प्रस्तुत किया है। वे इसके पीछे होनेवाली मानसिकता और साजिश को भी उजागर करते हैं। यह पुस्तक उनके कार्य और विचारों का दस्तावेज है। उनकी अथक यात्रा का पाथेय है। इसमें अंधविश्वास उन्मूलन के विचार, आचार, और सैध्दांतिक पक्ष का गहराई से विवेचन किया है। अंधविश्वास उन्मूलन से संबद्ध सभी आयामों का गहराई से तात्विक विवेचन प्रस्तुत किया है। इसमें अभिव्यक्त विचार केवल पोथीनिष्ठ न होकर उसे अनुभूतिजन्य यथार्थ की जोड है। इसी कारण यह पुस्तक अंधविश्वास के तिमिर को भेदकर प्रकाश की राह पर ले जाने की मानसिकता तैयार करने की सामर्थ्य रखती है।
लेखक की शैली संवादात्मक है। इसमें विषय को अत्यंत सहज और सरल रूप में प्रस्तुत किया है। जटिल विषय का सहज प्रस्तुतीकरण लेखक की खासियत कहनी होगी। इस पुस्तक से दाभोलकर का अंधविश्वास, विवेकवाद आदि विषय पर होनेवाला अधिकार भी दिखाई देता है। वे एकाध संदर्भ को प्रस्तुत करते हुए अनेक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। वे अपनी भूमिका ठोस आग्रह के साथ प्रस्तुत करते नजर आते हैं। श्रृंखलाबंध्द विवेचन यह उनके लेखन की विशेषता है। वे अपने वैयक्तिक जीवन का चित्रण नहीं करते, न ही उसको गौरवान्वित करते हैं। वे आत्मस्तुति और आत्मप्रौढी से दूर रहना ही पसंद करते हैं। उनका लेखन कोरा उपदेशवादी नहीं है तो उसे प्रत्यक्ष कार्य की जोड़ है। इससे उनकी विधायक कार्य पर होनेवाली श्रध्दा और और संवैधानिक राह से अंधविश्वास उन्मूलन का संघर्ष करने की विचारधारा का भी अनायास परिचय होता है।
इन पुस्तको को पढ़ने पर यह स्पष्ट होता है कि डॉ. दाभोलकर धर्म के विरोधी नहीं थे तो धर्मवाद के विरोधी थे। वे आस्था या श्रध्दा के विरोधी नहीं थे तो अंधश्रध्दा के विरोधी थे। मजबूरीवश आस्था रखनेवालों से तक उन्हें आपत्ति नहीं थी लेकिन दूसरों की मजबूरी का गलत लाभ उठानेवालों से उनका विरोध था। वे मनुष्य को अकर्मण्य बनानेवाली साजिश के विरोधी थे। वे अपनी पुस्तक में समग्रता से विवेकवाद का समर्थन करते हैं। वे भारतीय समाज को स्वस्थ बनाने के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद और विवेकवाद को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। इसके लिए वे भारतीय संविधान का आधार लेते हैं। अपितु संविधान का पालन करने का आवाहन करते हैं। उनके लेखन का उद्देश्य सामाजिक जीवन को स्वस्थ बनाना रहा है। इस पुस्तक की भूमिका में वे कहते हैं, ''प्रस्तुत पुस्तक के पठन-पाठन से यदि समाज एक कदम भी आगे बढ़ेगा, तो मुझे खुशी होगी। वही मेरे लेखन की सार्थकता, कृतार्थता होगी।''
आज हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं। लेकिन अभी हम विज्ञानवादी नहीं बन पाए हैं। समाज में स्वयंघोषित बाबा, बापू स्वामी, भगवान, महाराज, अम्मा आदि की संख्या बढ़ती जा रही है। उनके लाखों की संख्या में अनुयायी होना क्या दर्शाता है? इससे हमारी सामाजिक मानसिकता ही उजागर होती है। आये दिन यह बाबागिरी बढ़ती जा रही है। यह बाबा भाग्यवाद, नियति, दैव आदि का प्रचार कर रहे हैं। इससे व्यक्ति कर्मवादी बनने की अपेक्षा भाग्यवादी बनता जा रहा है। कर्तृत्व से प्रारब्ध बदल सकता है, यह विश्वास तिरोहित हो रहा है। इससे लोग भेड मानसिकता से बाबाओं के आश्रम की ओर जा रहे हैं। इससे बुवाबाजी/बाबागिरी की व्यूहरचना अभेद्य बनती जा रही है। समाज में प्रचलित भ्रष्टाचार, हिंसा, व्यसनाधीनता इसे हवा दे रही है। आम जनता का शोषण हो रहा है। आम लोग विवेकवाद से दूर होकर इसे अपना प्रारब्ध मानकर इससे बचने के लिए उन्हींकी शरण में जा रहे हैं।
मानवी जीवन निरंतर विकास की ओर अग्रेषित होता है। यह विकास विविध आयामों में होता है। मानवी विकास में विज्ञान का योगदान अहं रहा है। भारतीय समाज जीवन आरंभ से ही धर्म से अत्यधिक प्रभावित रहा है। इसने एक ओर मनुष्य को आस्तिक, नैतिक बनाया तो दूसरी ओर दैववादी और भाग्यवादी बनाया। जब यहाँ विज्ञान का प्रचार-प्रसार होने लगा तो यहाँ के धर्मक्रेंद्रित जीवन को हादसे पहुँचने लगे। भारतीय जीवन संक्रमण के दौर से गुजरने लगा। बीसवीं सदी के आरंभ में जो शिक्षा का प्रसार हुआ उसने मानवी जीवन को एक नई दिशा दी। बावजूद इसके हमारे यहाँ एक मानसिक गुलामी पाई जाती है। यह मानसिकता व्यक्ति को अंधेरे की ओर ले जाती है। जनमानस को इस अंधेरे से प्रकाश की ओर ले जाने का कार्य यह पुस्तकें करती है। यह पुस्तकें आधुनिक युग की गीता है ऐसा कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसी कारण इन पुस्तकों के प्रकाशन के दौरान उपराष्ट्रपति मो. हमीद अन्सारी ने कहा कि यह विषय आज भारत में अत्यधिक प्रासंगिक है इसका पाठ्यक्रम में समावेश करना चाहिए। इससे इसका महत्त्व और प्रासंगिकता स्पष्ट होती है।
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1.अंधविश्वास उन्मूलनः विचार (पहला भाग)-डॉ. नरेंद्र दाभोलकर, संपादक-डॉ. सुनीलकुमार लवटे,
अनुवाद-डॉ. चंदा गिरीश, राजकमलप्रकाशन,नई दिल्ली पहला संस्करण 2015, पृष्ठ-174, मूल्यः 150रु
2.अंधविश्वास उन्मूलनः आचार (दूसरा भाग)-डॉ. नरेंद्र दाभोलकर, संपादक-डॉ. सुनीलकुमार लवटे,
अनुवाद-डॉ. प्रकाश कांबले, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
प्रकाशन, पहला संस्करण 2015, पृष्ठ-152, मूल्यः 150रु
3.अंधविश्वास उन्मूलनः सिध्दांत (तीसरा भाग)-डॉ.नरेंद्र दाभोलकर, संपादक-डॉ. सुनीलकुमार लवटे,
अनुवाद-विजय शिंदे, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
पहला संस्करण 2015, पृष्ठ-160, मूल्यः 150रु
डॉ. गिरीश काशिद
अध्यक्ष, हिंदी विभाग,
श्रीमान भाऊसाहेब झाडबुके महाविद्यालय,
बार्शी, जिला-सोलापुर 413401
मोबाईल-09423281750
ई मेल gr.kashid@rediffmail.com
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