प्रो0 अरूणेश 'नीरन' प्र त्यक्ष लोकतंत्र पर आधारित हमारी शासन प्रणाली के इस नये प्रयोग ने लोकतांत्रिक ढ़ग से तानाशाही चलाने वाले शासक...
प्रो0 अरूणेश 'नीरन'
प्रत्यक्ष लोकतंत्र पर आधारित हमारी शासन प्रणाली के इस नये प्रयोग ने लोकतांत्रिक ढ़ग से तानाशाही चलाने वाले शासक वर्ग को सावधान तो किया ही है नागरिकों को अपार अवसर भी दिया है। कोई भी व्यवस्था रही हो - राजशाही, तानाशाही, लोकशाही -सबने जनता को शासित मान कर अपने किसी भी कृत्य के बारे में उसे जानने का अधिकार नहीं दिया है। हमारे यहाँ भी अंग्रेजों ने सन् 1923 में जो गोपनीयता कानून बनाया वह भारत गणतंत्र में भी लागू रहा। क्योंकि यही कानून था जो लोकतंत्र में भी शासन व्यवस्था को राजा की तरह व्यवहार करने की खुली छूट दे रहा था। पूंजी, पार्टी, पावर ने लोकसेवक को लोकतांत्रिक राजा बना दिया। इस तंत्र ने पांच साल में एक वोट ओर देने अधिकार देकर हमारे मानवाधिकारों का लगातार हनन किया और गोपनीयता कानून की ओट में बचते रहें।
हर सत्ता संवाद से बचती है। इसीलिए वह संवाद की स्थिति बनने ही नहीं देना चाहती। साहित्य संवाद करता है इसलिए सत्ता को बंदूक से उतना भय नहीं होता जितना संस्कृतिकर्मी से होता है। क्योंकि बंदूक एक स्थूल चीज है और उसका मुकाबला बंदूक से किया जा सकता है लेकिन संस्कृति की धारा सूक्ष्म होती है, वह चेतना की तहों में फैल जाती है ओर खून में मिलकर उसके साथ दौड़ने लगती है। जब लेखक शब्दों से जुड़ता है तो शब्द संस्कृति का हिस्सा बन जाते हैं। जब लेखक लिखता है या गायक गाता है या नर्तक अभिनय, गति, ताल, लय, पर थिरकता है :- तो वह उन शब्दों को उनकी ताकत की गहराई को दिखाता है। शासन तंत्र शब्दों को भी फूलों की माला की तरह पहनता है फिर उसे सूखने के लिए सभा की सेज पर छोड़ कर चला जाता है।
सत्ता समाज की रक्षा के लिए है और संस्कृति समाज का पोषण करती है। संस्कृति एक पौधा है जिसे बचाने के लिए सत्ता बाड़ है। लेकिन जब बाड़ ही पौधे को खाने लगे, बजाये उसे घेर कर उसकी रक्षा करने के, तो क्या होगा तब सत्ता के इस कुरूप पक्ष से साहित्य की लोक धारा लड़ती है। राजाओं, मठों और सम्प्रदायों में रहने वाले कवि-कलाकार यदि सत्ता का विरोध न करके, उनकी प्रशस्ति गाकर, इष्टदेवों और मार्गों से जुड़कर कुछ जीवन मूल्यों और जीवन रस का सृजन कर शास्त्रीय बने रहे और उनके द्वारा पोषित रहे, तो लोकधारा के कवि कलाकार सत्ता का विरोध और उसके अन्यायी और अत्याचारी शासन का विरोध कर दंडित होते रहे, मृत्युदंड पाते रहे। राजस्थान के खपाल कलाकार इसके उदाहरण हैं।
आज न मठ हैं, न सम्प्रदाय, न राजा/आज लोकशाही है। लोकतांत्रिक राजाओं ने सत्ता को पूरी तरह भ्रष्ट बना दिया है और अपना विश्वास खो दिया है। मंहगाई, अशिक्षा, अंधविश्वास, जातिवाद, साम्प्रदायिकता यह सब इस देश में अपने आप नहीं टिकी हैं, इन्हें सत्ता ने टिका रखा हैं। क्योंकि यह सब मनुष्य को असुरक्षित रखते हैं। सत्ता चाहती है कि इस देश का आम आदमी अपने को असुरक्षित समझता रहे और वह सुरक्षा के नाम पर अपना हित साधती रहे। इसी रहे। इसी तरह बाड़ पौधे को खाती है।
यह विडंबना ही है कि अखबार, जो गोपनीयता की आड़ में मानवाधिकारों और जीवन मूल्यों पर आक्रमण करने वाली सत्ता के चरित्र का एक छोटा अंश सामने लाते हैं और जनता के सामने उनके छद्म को खोलते हैं तो सत्ता डर जाती है। अतीत में लोकशाही के द्वारा तमिलनाडु, उड़ीसा और बिहार में लाये गये प्रेस विधेयक इसके उदाहरण हैं। अभिव्यक्ति की आजादी भी क्यों सत्ता की स्वीकार नहीं।
गोपनीयता की ओर में मनुष्यता को गुमराह करने वाली राजनीतिक शक्तियों की वितक्त्ता साहित्य गहराई से महसूस करता है और उन मुखौटों को उतारता है, जिन्हें लगा कर देश युद्ध, हिंसा, विध्वंस का नाटक खेलते और मनुष्य की आजादी का अपहरण करते हैं। सत्ता अपने नागरिकों को वही सूचनाएं देती है जिससे उसका खेल चलता रहे। साहित्य सूचना के भीतर की सूचना देता है। सूचना के भीतर की सूचना सामान्य नागरिक की बेधक दशा-दिशा का आइना होती है और सत्ता तंत्र के ढोंग की तार-तार कर देती है। इसीलिए सभी प्रकार की सत्ताएँ इससे डरती हैं।
फिलहाल स्थिति यह है कि ब्रिटिश इंडिया के जमाने में सत्ता का जो दुर्ग बना था। उसी में प्रजातांत्रिक व्यवस्था के द्वारा चुने गये लोग भी निवास करते हैं और शासक-वर्ग के चरित्र को बदलने की जगह उन्होने अपना चरित्र बदल लिया हैं जब तक प्रजातंत्र है, यह बेशुमार भीड़-भाड़ और दुर्ग के भीतर जाने की आस है- तब तक ढर्रा बदल जायेगा, यह कहना मुश्किल है। मुश्किल इसीलिए भी है कि सत्ता के इस दुर्ग को तोड़ने का संकल्प लेकर जो लोग आते हैं, वे भी अंदर बुला लिए जाते हैं और तब वे नरम पड़कर यथास्थिति में अंग बन जाते हैं। वामपंथियों से लेकर मध्यममार्गियों और दक्षिणपंथियों तक सभी इस दुर्ग के भीतर हैं। उनका आपसी संघर्ष-सारा इंट्रा-एलीट संघर्ष है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि स्वाधीनता के बाद भारत में राजनीतिक चेतना का बेहद विकास हुआ है। भले ही इस चेतना का अर्थ हो- 'लूट सके तो लूट'। लूट चेतना के रूप में ही सही, राजनैतिक जागृति हमारे यहाँ खूब फैली है। सन् 1946 की तुलना में कहीं ज्यादा बड़ी आबादी आज राज्य के जहाज को संचालित कर रही है। पंचायत्तों, सरकारी समितियों, चुनावी मशीनों, ट्रेड-युनियनों, सरकारी नौकरियों से अक्षरशः करोड़ों लोग जुड़े हैं। यह व्यवस्था तभी टूटेगी, जब भीड़ के दबाव से उसका टिकना असंभव हो जाए। इसी दबाव के कारण सूचना के अधिकार का अधिनियम बन और लागू हो पाया है। यह लोकतांत्रिक राजा के अंत का आरम्भ है।
साहित्य यह कार्य बहुत पहले से करता आ रहा है। अब सरकार सूचना दे रही है। अपने नागरिकों को/साहित्य सरकार को सूचना देता रहा है। सन् 1914 में पटना के हीरा डोम ने महावीर प्रसाद द्विवेदी को एक कविता भेजी थी, 'अछूत की शिकायते, 'सरस्वती' में प्रकाशित इस भोजपुरी कविता ने संतों द्वारा आरम्भ किये गये दलित विमर्श की परम्परा को आगे बढ़ाया। मानवाधिकारों से वंचित हीरा डोम का यह प्रतिरोध उस धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था से था जिसमें मनुष्य से उसके जीने का अधिकार छीन लिया। वे आस्था पुरूष से शिकायत करते हैं :-
हडवा मसुइया के देहिया हड् हमनी के
ओकरे के देहिया वभनओ के बानी
ओकरा के घर-घर पुनवा होखत बाजे
सारे इलकवा भइलें जजमानी।
हमनी के इनरा के निगिचे न जाइले जां
पाके में से भार-भार पियतानी पानी
पनही से पीट-पीट हाथ-गोड़ तार देले
हमनी के एतनी काहे के हलकानी।
एक दलित चीत्कार कर सूचना दे रहा था उस समाज को जिसने यह व्यवस्था बनायी, उस तंत्र को, जो उसे इस व्यवस्था को मुक्त नहीं करा सका, और उस ईश्वर को, जिसके नाम पर समाज और तंत्र ने इसे मजबूत बनाया।
साहित्य सामाजिक व्यवस्था को जांचता है, इसमें प्रश्नचिन्ह लगाता है। उसकी जड़ता, उसकी गतिहीनता, उसकी निर्ममता और उसकी विसंगति मनुष्य की कितना तोड़ रहे हैं, यह अनुभव उसी समाज से बंटाना चाहता है, जिसमें यह व्यवस्था है। राजनीतिक व्यवस्था के उस छल को, जो वह भाषा के जरिये करती है या उस सूचना को, जो शब्दमात्र होती हैं - शब्द के अर्थ, उसकी संवेदना और उसकी संभावना से रहित- साहित्य, शब्द को उसके पूरे अर्थ और संभावना के साथ तथा सूचना को उसके भीतर की सूचना के साथ उपस्थित कर देता है। इसलिए सत्ताएं साहित्य से डरती रही हैं।
लेकिन समाज के लिए व्यवस्था जरूरी है। उसकी गति के लिए भी आवश्यक है। इस व्यवस्था को मानकर चलना होता है। व्यवस्था के लिए ही राज्य है और उसकी राजनीति है। साहित्य सामाजिक, राजनीतिक ही नहीं, उन सारी व्यवस्थाओं को जांचता है जो मनुष्य के सरोकार से जुड़ी हैं साहित्य प्रश्न खड़े करता है, उसकी जड़ता, गतिहीनता, उसकी निर्ममता और उसकी विसंगतियाँ मनुष्य को कितना तोड़ रही हैं यह अनुभव उसी समाज से बंटाना चाहता है, जिसमें यह व्यवस्था है। व्यवस्था के भीतर पिसते मनुष्य की चीख को सूचना वह व्यवस्था को, और संविधान, विधान, फरमान को भीतर की सूचना मनुष्य को देता है। लेकिन यह भी स्पष्ट है कि सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था को बदलने का काम साहित्य नहीं करता, वह केवल बदलाव के लिए मन में उद्देश्य पैदा करता है। जब व्यवस्था में जड़ता आने लगती है, स्वैच्छारिता आने लगती है, परस्पर-अवलंबी भाव चुकने लगता है, समाज का मंगल इसका लक्ष्य न रह कर यह अपने लिए स्वयं लक्ष्य होने लगती हैं तब इसे धर्म छेड़ता है, दर्शन छेड़ता हैं और साहित्य छेड़ता है। व्यवस्था प्रश्नों से घिर कर संदिग्ध हो जाती है।
साहित्य की सृष्टि न व्यक्ति में होती है, न समाज में होती है। साहित्य व्यवस्था में जन्म ही नहीं लेता वह जन्म लेता है चित्त की विचित्र अव्यवस्था में, जिसमें, सारी व्यवस्था एक घूमने वाले रंगमंच की तरह घूमती रहती है। साहित्य की सृष्टि केवल समाज की व्यवस्था पर प्रश्न नहीं करती, वह व्यक्ति द्वारा स्वीकृत या गृहीत व्यवस्था पर भी प्रश्न करती है और उत्तर भी पाना चाहती है तो समाज के लिए नहीं, समाज को समोये हुए अपने व्यक्ति के लिए।
व्यवस्था और लोक में विश्वास होता है तभी देश उन्नति करता है। वह समाज सृजन करता है। व्यवस्था को राजनीति संचालित करती है। राजनीति के लिए नीति और सिद्धांत महत्वपूर्ण हैं। इन्ही नीतियों और सिद्धांतों के आधार पर राजनीति को लोक का विश्वास प्राप्त होता है। जब तक राजनीति लोक के विश्वास के प्रति सचेत रहती है तब तक व्यवस्था लोक- कल्याणकारी रहती है। आज लोक विश्वासघात का शिकार हो रहा है और राजनीति विकृता। यह विकृति किसी एक दल या एक व्यक्ति के साथ नहीं है। धीरे-धीरे इसने अपने को इतना व्यापक बना लिया है कि सभी का कुल गोत्र एक हो गया है। अब राजनीति पर विश्वास करने का लोक के पास कोई कारण नजर नहीं आता। राजनीतिज्ञों को ही नीतियों और सिद्धांतों पर भरोसा नहीं रह गया है। वे खुद ही संशय में काम कर रहे हैं। जब भी संशय घेरता है, सकारात्मकता नष्ट होती है। साहित्य इस सकारात्मकता को बचाता है। सूचना के अधिकार का अधिनियम भी इसी सकारात्मकता को बचाने का एक प्रभावी प्रयास है।
(मानवाधिकार संचयिका, राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग से साभार)
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