अपने ढंग का अनूठा, यह साक्षात्कार कई बरस पहले, 1986 में, टेलीविज़न के लिए रिकॉर्ड किया गया था। कुछ तकनीकी कारणों से इसे प्रसारित नहीं किया जा...
अपने ढंग का अनूठा, यह साक्षात्कार कई बरस पहले, 1986 में, टेलीविज़न के लिए रिकॉर्ड किया गया था। कुछ तकनीकी कारणों से इसे प्रसारित नहीं किया जा सका। प्रसिद्ध फिल्म निर्माता फ़राज चौधन ने, इस साक्षात्कार के लिए, कवि महमूद दरवेश की कविताओं के अंशों को, शीर्षकों को और उनके लेख इत्यादि को अपने प्रश्नों का आधार बनाया। कवि दरवेश के लिए इन पर टिप्पणी, सफाई और विश्लेषण एक चुनौती बन गया। यह उनकी रचना और ज़िन्दगी पर एक सम्पूर्ण दस्तावेज़ है।
मैं आया हूँ
एक दूर दराज के, भुला दिए गए गाँव से
बिना नाम की गलियों वाले गाँव से
जहाँ के आदमी काम करते हैं
खेतों में, खदानों में
यह बिल्कुल सच है। मैं एक ऐसे गाँव से ताअल्लुक़ रखता हूँ जो बहुत छोटा है, दूर के एक इलाक़े में बसा हुआ। इसकी गलियों के कोई नाम नहीं हैं। सच तो यह है कि, गाँव का भी कोई नाम नहीं है। यह गैलीली के आसपास है। यहाँ केबाशिन्दे, खेत-खलिहान और खदानों में काम करते हैं। यह कविता ग़ौर करोः मैं एक अरब हूँ कोई पच्चीस बरस पहले, 1961 में, लिखी गई थी। मैं इस्रायल के गृह-विभाग में अपने परिचय-पत्र के लिए दरख़्वास्त देने गया था। जब उन्होंने पूछा कि मैं कहाँ से आया हूँ, तो मैंने यही जवाब दिया।
मेरे दादा रहे एक किसान
किसी सम्बोधन, किसी समृद्धि से अनजान
सिखाया मुझे गर्व से माथा ऊँचा करना
पढ़ने-लिखने से भी पहले
मैं किसान परिवार से आया। हमारी रोटी-रोजी ज़मीन पर निर्भर थी। हमारा वजूद और इज़्ज़त इसी से थी। यह भी सही है कि कुरान शरीफ ही हमारी अकेली किताब थी। पर हमारे दादा ने, अपने चलते, हमारे दिलों में इज़्ज़त और गर्व करने का अहसास कूट-कूट कर भर दिया था।
हमारे पुरखों के अंगूर के बाग़,
जोतते रहे जो ज़मीन वे ता-उम्र,
चुरा ली गईं वे सबकी सब
ये लाइनें उसी कविता का हिस्सा हैं। इस बात की ताईद करती हैं कि हमारी ज़मीन, जिससे हमारा वजूद है, हड़प ली गई हैं।
मेरे दादा रहे एक किसान
मेरे दादा ज़मीन के मालिक रहे, ज़मीन उनकी धरोहर रही या यूँ कहूँ कि वे ख़ुद एक ज़मीन थे। मेरे दिल में उनके लिए हमेशा एक ख़ास जगह रही। वे भी मुझे ज़्यादा चाहते थे। उन्होंने ही मेरी पढ़ाई-लिखाई का ज़िम्मा लिया। कहना मुश्किल है कि ज़मीन से उनका कितना लगाव था। वह ज़मीन का ही एक हिस्सा थे। उन्होंने अपनी ज़मीन को अपने जिस्म का एक हिस्सा माना। हमेशा ज़मीन को किसी लबादे की तरह अपने ऊपर डाले रहे। जब उनकी ज़मीन हथिया ली गई और उसके चारों और काँटेदार बाड़ लगा दी गई, तब दादा बाड़ पकड़ कर खड़े रहे। यह सदमा उनकेलिए बहुत बड़ा था। वह बर्दाश्त न कर पाये। वे वहीं पर गिर गए और उसी वक़्त उनका दम निकल गया।
अगर मरना पड़े फाकों से
फिर भी, नहीं कर पाएगा मजबूर कोई भी
ज़मीन बेचने के लिए मुझे
वाक़ई ऐसा ही हुआ। उन्होंने (इस्रायलियों ने) ज़मीन खरीदने की पेशकश की। पर अपनी आत्मा यानी ज़मीन को बेचने के बजाय भिखमंगों की तरह भूखों मरना ज़्यादा पसन्द करते। ग़ौर तलब है, ज़मीन ही उनका दिल, उनकी आत्मा थी। यह बात हर फि़लिस्तीनी पर लागू होती है। यह ज़मीन सिफर् मिट्टी नहीं, हमारी पहचान है। यह ज़मीन हमारी सोच और हमारे हौसले से जुड़ी है। कोई ताअज़्जुब नहीं कि यह बात पूरे फि़लिस्तीनी साहित्य का आधार है और यही बात झगड़े की जड़ में है। मेरी कविता, जिसका ज़िक्र मैंने पहले किया, ग़ौर करोः मैं अरब हूँ, का एक दिलचस्प वाक़या है। जैसा कि मैंने बताया था, मैं अपने परिचय-पत्र के लिए दरख़्वास्त देने गया था। क्लर्क ने, जो एक जिओनिस्ट था, फार्म भरा। क़द, बालों का रंग, चेहरे की ख़ास पहचान वगैरह। जब राष्ट्रीयता वाला कॉलम आया तो मैंने कहा कि ‘‘मैं अरब हूँ।’’ क्लर्क सकते में आ गया। उसने अपनीबात दोहरायी-इस बार उसने हब्रू भाषा में पूछा। मैंने बेझिझक कहा, ‘‘हाँ यह ठीक है, लिख दीजिए मैं एक अरब हूँ।’’ लौटते वक़्त इस वाक़ये की तरफ बार-बार मेरा ध्यान जाता रहा। उस वक़्त मुझे इसका कोई क़यास नहीं था कि यह बात आगे चलकर एक चुनौती और कविता की शक़्ल अख़्तियार कर लेगी।
नाज़रेथ में एक बार एक मुशायरे में कुछ कविताएँ पढ़ीं और आखीर में ग़ौर करोः मैं एक अरब हूँ पढ़ी। एक नज़्म की तरह से नहीं बल्कि एक विरोध प्रकट करने वाले मंत्र की तरह से। जनता ने इसे कई बार सुना। बस तब से, जब भी, जहाँ भी मैं जाता हूँ जनता इसे बार-बार सुनना चाहती है। गोकि इस कविता को मैं एक सामूहिक मत की अभिव्यक्ति मानता हूँ, बजाय अपनी व्यक्तिगत अभिव्यक्ति के। हालाँकि, इस अभिव्यक्ति के सीमित दायरे की वजह से मैं इस कविता के बार-बार पाठ करने के आग्रह से बचने की पुरजोर कोशिश करता हूँ। पर, चूँकि इस बात ने लोगों के दिमाग़ में इस क़दर घर कर लिया है कि मुझे नाकामयाबी ही मिलती है। यह कविता लोगों की जाग़ीर बन गई इसलिए उनकी ज़िद के आगे मुझे झुकना ही पड़ता है।
मैंने पहली बार कविताएँ अपने प्राइमरी स्कूल में पढ़ी थीं।
क्या मैंने वाक़ई ऐसा कहा था? सच तो यह है कि मैं बचपन से ही कविताएँ लिखने लगा था। शायद मेरा मतलब यह रहा हो। पर यह अब बिल्कुल याद नहीं है कि मैं उन्हें कहाँ पढ़ता था।
यह बात आपने ‘एक आम ग़म की डायरी’ में वही है। मिलीटरी गवर्नर के स्वागत समारोह वाले मौक़े पर।
हाँ, ख़ूब यादि दिलाया आपने। मैं प्राइमरी स्कूल में था, वहाँ ‘इस्रायल राज्य’ समारोह मानने की तैयारियाँ हो रही थीं। मिलिटरी गवर्नर को बुलाया गया था। यह बात क़ाबिले ग़ौर है कि यह समारोह मिलिटरी शासन के हुक़्त के तहत ही हो रहा है। मुझसे कविता पढ़ने के लिए कहा गया। मैंने वह कविता पढ़ी जिसमें फि़लिस्तीनी मक़सद और इस्रायली दमन का ज़िक्र था। मैंने पहली बार दबाव महसूस किया। यह आगे आने वाली धमकियों की शुरूआत थी। मुझे ख़ामोशी और कविता के बीच चुनाव करना था। यक़ीनन मैंने दूसरी चीज़ चुनी। वह भी पूरी ज़िम्मेदारी के साथ। बस उसी वक़्त से ख़ामोशी और शांति से किनारा हो गया। मेरे लिए कविता कोई खिलवाड़ नहीं, बल्कि एक महँगा और ख़तरनाक़ जुआ।
क्या यह सही नहीं है कि आपकी कविताओं की वजह से आपके वालिद पर मुसीबतें आयीं। यहाँ तक कि उनकी रोजी भी ख़तरे में पड़ गई?
मैंने जब कविता से दिल लगाया, तब मुझे आने वाले ख़तरों का अहसास था। सिर्फ़ राजनीतिक ही नहीं, बल्कि सबसे बड़ा तो वह ख़तरा जो मेरी कविता के प्रति पूर्ण समर्पण से मेरे पूरे भविष्य, अनुभव को प्रभावित करने वाला था। मैं यह तो नहीं कह सकता किमैं इन सबसे उबर कर बहुत ऊँचे पहुँच गया हूँ पर इसकी तसल्ली ज़रूर है कि मैं जुटा हुआ हूँ, अपनी ज़िन्दगी की इस यात्रा में मैं आगे बढ़ते सबके साथ हूँ।
‘इस्रायली समाज’ एक ऐसा ‘प्रेतग्रस्त’ घोड़ा है जो आँख पर पट्टी बाँधे कूदता है और समझता है कि उसे कोई काबू नहीं कर पाएगा। आपका क्या ख़याल है?
बिल्कुल दुरुस्त फरमाया आपने। इस्रायल की सोच एकतरफ़ा है। जिओनिस्ट हौसलों को, उनकी सारी ताक़तों को सिफर् एक ताक़तवर मिलिटरी जामा पहना दिया गया है। यक़ीनन वे ताक़तवर हैं और इस वक़्त मैं इस बहस में कत्तई न पड़ना चाहूँगा कि वे ताक़तवर कैसे बने। हमारा घर चुराने के 38 सालों के बाद भी यहूदी ख़ुश नहीं हैं। दुनियाँ को शक़ की निगाह से देखते हैं। बल्कि वे अपनी इस्रायली पहचान से ीाी बहुत इत्मीनान नहीं रखते। टैंक और बख़्तरबंद गाड़ियों से कभी भी रूहानी या तहज़ीब की कोई समस्या नहीं सुलझी। वे ऐसी लड़ाई में मुब्तिला हैं जिसे वे किसी हालत में बजा करार नहीं दे पा रहे हैं। किसी दूसरे को नेस्तनाबूद कर देने के अकेले इरादे के बल पर कोई कब तक ख़ुद ज़िन्दा रह सकता है? उनकी जीत किसी खास वजह से हुई। वे वजहें बदल भी सकती हैं। फिर क्या होगा? ऐसी सड़क छाप सोच कभी भी जीत में तब्दील नहीं हो सकती। उनके इरादे सफल नहीं होंगे पर इसके लिए अरब लोगों को हालात अपनी तरफ़ करने होंगे।
फि़लिस्तीनी जन्म और मृत्यु
फि़लिस्तीनी आवाज़ें
यह मेरी कविता फि़लिस्तीनी मुहब्बत में हैं जिसे मैंने 1964 में लिखा था। यह कविता इसलिये महत्त्वपूर्ण है कि इसमें पहली बार ‘फि़लिस्तीनी’ शब्द का प्रयोग इतनी शिद्दत के साथ किया जो इस्रायली चंगुल में है। यह शब्द हमारे व्यक्तित्व, हमारे वजूद को दर्शाता है। मेरा अपना ख़याल है कि यह कविता हमारे कभी न मरने वाले व्यक्तित्व और वजूद को वख़ूबी पेश करती है।
क्या नहीं थे हम, जून के पहले,
छोटे-छोटे कबूतरों की तरह
नहीं कम हो पायी थी हमारी मुहब्बत
ज़ंज़ीरों के वज़न से
जून 1967 में लगा घाव, वाक़ई हम अरबों के दिल में इतने गहरे लगा है कि इसे भरने में काफ़ी वक़्त लगेगा। लगता है जैसे हमें झाँसा देकर, किसी ख़ूबसूरत सपने का लालच दिखा कर, नींद में सुला दिया गया हो। जब जागे तो सब कुछ चूर-चूर था। मैं वह रात कभी नहीं भूल सकता। मैं हैफ़ा में था। मेरे यहूदी पड़ोसी दरख़्वास्त कर रहे थे कि हम अरबों से उनकी हिफाज़त करें। दूसरे दिन पाँसा पलट गया। वे जीते, हम हारे। इसीलिये मैं 1967 की हार को उतना ही बड़ा हादसा मानता हूँ जितना कि 1948 वाले हादसे को।
मैंने सीख लिये हैं तमाम शब्द
मैंने कर लिये हैं उनके हिज्जे
मैंने झींट दिये शब्द
फिर से बना लिया सिफर् एक शब्द ‘‘अपना वतन’’ (Home Land)
अगर मेरी कविताओं को ध्यान से परखा जाये तो उसमें एक ही कशिश देखने को मिलेगी और वह है शब्दीं से अपने लिये अपना घर, अपना वतन बनाने की ख्वाहिश। यही मेरी कमज़ोरी भी है और ताक़त भी। मैं चीज़ों को इस रूप से नहीं देखना चाहता था, खैर। मैं उन शब्दों के जाल से बेशक़ निकल सकता हूँ जहाँ कोई नैतिक मूल्य न हों। अक़्सर मैंने शब्दों से एक आध्यात्मिक घर (वतन) बनाना चाहा है ख़ुद के लिये, अपने हमवतनों के लिये। सिर्फ शब्दों से। कविता द्वारा सच्चाई की एक नई शक़्ल उभरती है।
‘अपना घर’ या ‘अपना वतन’ वाक़ई क्या है? किसी और ने इस बात को इतनी गहराई से नहीं उठाया जितना कि आपने।
‘अपने घर’ की बात जब मैं करता हूँ तो मेरा मतलब बिल्कुल सीधा और साफ़ है। यह वह जगह है, जहाँ आदमी पैदा होता है और रहता है। लेकिन हमारे मामले में, यह सीधी और साफ़ सी बात बहुत बहादुरी की दरकार रखती है। तमाम क़त्लेआम जो एक के बाद एक हो रहे हैं उनसे मुक़ाबिला करने की भी बात उठती है। दरअस्ल, हमारे लिये इस सीधी और साफ़ बात तक पहुँचने का मतलब है आग से गुज़रना। कुछ मामलों में, या वतन का मतलब सिर्फर् ज़मीन से नहीं होता। हमारे लिये इसका मतलब सारी रूहानी ताक़त को लगाना है ताकि हम नेस्तनाबूद होने से बच सकें। अपनी पहचान, अपना इतिहास बरक़रार रख सकें। और तब, ‘होमलैण्ड’ का मतलब सिर्फर् ‘ज़मीन’ से ज़्यादा बड़ा हो जाता है। इसका सीधा मतलब ‘आज़ादी’ से है। हम फि़लिस्तीनीयों के लिये, चाहे जहाँ, जैसे भी रह रहे हों, हमारे ज़िन्दा रहने के हक़ से जुड़ जाता है। ज़िन्दा रहने का यह हक़, एक इन्सान की तरह, हमें ‘अपने वतन’ की तरफ आगे बढ़ाता है। ‘अपने वतन’ का अर्थ काफी सीधा सादा हो सकता है पर उस मंज़िल तक पहुँचने के लिये हमें यक़ीनन इम्तिहान से गुज़रना होगा।
हर मुल्क एक आईना है/आईने पत्थर होते हैं/आख़िर हम इस मुश्किल राह पर क्यों चलें?
यह लाइनें ‘होमलैण्ड’ के साधारण अर्थ से बहुत गहराई में जाती हैं। वहाँ तक जहाँ से आईने में अक़्त दिखना बंद हो जाता है। बिना ‘अपने वतन’ के आईने के हम साधारण आईने में अपनी शक़्ल, अपनी आत्मा और अपनी पहचान कभी नहीं देख सकते। दरअस्ल, इस लम्बी जद्दोजहद का मतलब ही ‘अपने वतन’ रूपी आईने को हासिल करना है। अपने इस हाल में हम न तो अपना वजूद साबित कर सकते हैं और न ही औरों के साथ रिश्ते क़ायम कर सकते हैं। या तो हम ‘अपना घर’ बनायें या अपने अंदर ही एक ‘घर’ की तलाश करें।
कहा मेरे अब्बा ने एक दिन
जिसका कोई घर नहीं है इस ज़मीन पर
क़ब्र उसकी होगी भला कहाँ
फि़लिस्तीनी ज़िन्दगी का यह एक बड़ा विरोधाभास है। यह हमारी लम्बी लड़ाई में बार-बार सामने आता है। हमारे सामने हमारा अपना कहने को कोई घर तो है ही नहीं बल्कि दफ़नाने के लिए दो गज ज़मीन के एक टुकड़े को हम अपना क़ब्रिस्तान कह सकें? यह बताता है कि हमारे वजूद की जद्दो ज़हद की क्या सीमा है।
बेरुत है हमारी आँख का तारा
पर मुर्दनी है इसकी सीमाओं पर
दिल पर छा गया है यह
दुनिया में डूबते हुए एक
मृगतृष्ण, एक छलावा जैसा
बेरुत एक कोशिश थी आज़ादी और जम्हूरियत (प्रजातंत्र) की तरफ़। अफ़सोस, कुछ हाथ न लगा। सब कुछ डूब गया। समस्या का अंदाज़ लगाना मुश्किल है।
लिखते हैं हम बेरुत से तुम्हें
सिफर् यह पूछने के लिए
किसने जकड़ रक्खा है किसे?
यह लाइनें मैंने प्रसि( कवि मोईने बिसोसे के साथ लिखीं थीं। यह कविता एक ख़त की शक़्ल में है जो एक इस्रायली सैनिक को और तमाम उन लोगों को सम्बोधित है जिन्होंने बेरुत पर हमला किया। इसमें, उस सैनिक के सामने, उसकी ज़िन्दगी के विरोधाभास को सामने रखने की कोशिश की है। वह एक टैंक में पैदा हुआ, वहीं पढ़ा, वहीं बढ़ा, वहीं शादी हुई और वहीं मरता है। उससे ज़्यादा तो हम ही अपने को आज़ाद कह सकते हैं। कम-से-कम हम एक आस में तो जी रहे हैं। हमारे सामने हमारा एक इतिहास, एक तहज़ीब है। उस बेचारे के पास तो न कोई कल था, न कोई आज है और न कोई कल होगा। उसके पास सिर्फर् एक लोहे की बख़्त बंद गाड़ी है। इस क़ैद के आगे हमें अपनी मंज़िल बहुत बड़ी मालूम होती है।
साबरा का रास्ता।
जाता है मुर्दा जिस्मों के ऊपर से
साबरा हमारे दौर, हमारे वक़्त का
सबसे बड़ा मक़सद है
साबरा हमारे वक़्त के सबसे बड़े क़त्लेआम का नाम है। यह नाम ख़ून का दूसरा नाम बन गया है। साबरा महज़ एक इत्तिफाक़ नहीं था या गलती से इस्रायल और उसके अरबी पिट्ठुओं द्वारा किया गया कोई छोटे-मोटा हादसा था। करके ज़िस्मानी तौर पर भी नेस्तानाबूद करने की एक गहरी साजिश। सबसे ख़ौफ़नाक़ है कि जब जब ऐसे हादसे होते हैं मीडिया इसे इतिहास का छोटा-मोटा हादसा मानकर इसे नज़रअंदाज करने की कोशिश करता है। पर किसी यहूदी के साथ कुछ भी होने पर हायतौबा मचा देते हैं। फि़लिस्तीनीयों द्वारा जितना बर्दाश्त किया गया है साबरा उस लम्बी फेहरिस्त में सिफर् एक नाम है। अंतर्राष्ट्रीय मत, ज़्यादातर ऐसे अक़्सर होने वाले क़त्लेआम पर ख़ामोशी अख़्तियार करना बेहतर समझता है। मेरा अपना मानना है कि अंतर्राष्ट्रीय समझ जब तक कि फि़लिस्तीनीयों को पूरी आज़ादी और उनको एक मुल्क़ नहीं देते, उनकी ‘बुरा मत देखो-बुरामत सुनो’ की नीति को जानबूझ से ऊपर, जानबूझकर नासमझ बने रहने की कोशिश और सोचे-समझे क़त्लेआम की भी ख़ामोश सहमति माना जाना चाहिये। इसे नासमझी से ऊपर, जानबूझकर नासमझ बने रहने की कोशिश और सोचे-समझे क़त्लेआम की भी ख़ामोश सहमति माना जाना चाहिये। मीडिया का भी फर्ज़ बनता है कि वह ऐसा माहौल अपनी ताक़त से पैदा करे जहाँ हर किसी को अपने मुल्क़ में, अपने घर में रहने का बुनियादी हक़ हासिल हो सके।
मैं फिर रहा हूँ मारा मारा
दरबदर
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