निवेदन फिलिस्तीन एक ऐसे देश का नाम है जिसकी जनता अपने ठौर-ठिकाने के लिये संघर्ष करती रही और कुछ राजनैतिक खेल ऐसे रहे कि फिलिस्तीन को अपने...
निवेदन
फिलिस्तीन एक ऐसे देश का नाम है जिसकी जनता अपने ठौर-ठिकाने के लिये संघर्ष करती रही और कुछ राजनैतिक खेल ऐसे रहे कि फिलिस्तीन को अपने ठौर-ठिकाने से वंचित होना पड़ा। फिलिस्तीनी जनता और यासेर अराफात एक ऐसे पर्याय हैं जिन्होंने देश के लिये कुर्बानियाँ दीं। गाजा पट्टी एक ऐसा मुकाम है जो फिलिस्तीनियों के हक़ से बाहर है और इसी की लड़ाई जनता अपने लिये कर रही है। इजराइल ने अपनी राजनैतिक खेल से फिलिस्तीन को हमेशा शिकस्त दी लेकिन फिलिस्तीन की जनता का हौसला है कि वह निराश हताश नहीं हुई और सतत् अपने वतन के लिये जंग करती रही।
प्रस्तुत कविताएं मातृभूमि की रक्षा और जनता के उत्पीड़न के विरोध का आईना हैं। फिलिस्तीनी भाषा के समस्त कवियों ने जो भी रचा वह संघर्ष की गाथा ही रही है।
श्री ज्ञानरंजन ने हमें यह सामग्री उपलब्ध कराई जिनके हम हृदय से आभारी हैं।
-बृजनारायण शर्मा
फि़लिस्तीनी कविताएँ : सृजनशीलता का आह्वान
फि़लिस्तीनी साहित्य अपनी समग्रता में तथा साथ ही अपने अरबी और मानव-मात्र दोनों आयामों में व्याप्त सुन्दरतम् रचनाओं के कारण आज एक गौरवशाली शीर्ष पर पहुँचने की दहलीज पर है।
यह केवल एक भविष्यवाणी नहीं, अपितु एक ठोस अभिकथन है, क्योंकि फि़लिस्तीन की त्रासदी सभी पुराणैतिहासिक त्रासदियों से कहीं दूर और उससे भी आगे हमारी असम्भाव्यतम कल्पनाओं से बहुत दूर तक जाती है। एक कारण जो इस प्रकार के दृष्टिकोण को प्रमाणित करता है, वह हृदय विदारक अनुभव है, जिसे फि़लिस्तीनियों ने अपने निजी भूमि से बाहर निकाल फेंकने के सभी प्रयत्नों के विरोध में झेला और जिया है। इस अनुभव ने फि़लिस्तीनियों को अपने दैनंदिन अस्तित्व के बहुमुखी ख़तरों ;पीड़ा, ख़ून-खराबा, दुःख, तनाव और स्वाभिमान सभी को सहने हेतु आवश्यक योगयता और सामर्थ्य से सज्जित कर दिया है।
इस सत्य के बावजूद कि अरबी और विशेषतः फि़लिस्तीनी साहित्य ने फि़लिस्तीन की उस त्रासदी के वास्तविक तत्त्व को जो विगत चालीस वर्षों में लगातार गहराती चली गयी है, कभी सचमुच प्रतिबिम्बित नहीं किया है, तथापि इसमें कोई सन्देह नहीं हो सकता कि आज फि़लिस्तीनी-अरबी साहित्य ऐसी समृद्ध, बहुमुखी, बहुविध और समग्र सम्भावनाओं के द्वार पर खड़ा है जहाँ से वह अपने गौरव की ऊँचाइयों को प्राप्त कर सकता है। वास्तव में साहित्य अभिव्यक्ति/लेखन को तभी सशक्त/उन्नतर बनाया जा सकता है, जब उसके निर्माताओं का जीवन स्वयं उन अनुभवों से भरा हो, जो जितने विविध होते हैं, उतने ही परस्पर विरोधी भी, तथा जब तेजी से चलने वाला घटनाक्रम एक ओर तनाव की धार देता है दूसरी ओर साहित्यिक सृजनशीलता को उसकी सबसे गंभीर व ईमानदार अभिव्यक्ति की ओर से जाता है।
साहित्य भी मनुष्य में गहनतम छिपी हुई संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने का एक मार्ग है। जब भी कोई मानवीय अनुभव की किसी सच्चाई को निष्पक्ष रूप से उद्घाटित करता है, तथा भावनाओं एवं संवेदनाओं के संघर्ष को प्रकाश में सामने लाता है, एक नया कलात्मक सृजन जन्म लेता है, जो ज़िन्दगी जितना ही विशाल होती है, और इसी कारण साहित्यिक अभिव्यक्ति के योग्य होती है। परन्तु साहित्यिक कृतियाँ आवश्यक रूप से घटनाओं को उनके वास्तविक देश और काल में प्रतिबिम्बित नहीं करतीं। एक लेखक सामान्यतया, विगत पर चिन्तन के द्वारा, जबकि कोई खतरा उसके मानस और हृदय में स्थायी रूप से लिख गया होता है, यह कार्य सम्पादित करता है। कोई घटना किसी एक प्रतिक्रिया को नहीं बल्कि प्रतिक्रियाओं की एक पूरी शृंखला को उद्वेलित करती है, जिनमें से अधिकांश एक लेखक की आत्मा पर स्थायी प्रभाव छोड़ती हैं।
आत्मा के अन्तस्तत्व तथा चेतना की धारा के साथ इन डुबकियों और संघर्षों आमना-सामना में होकर ही साहित्य अपने शिखर को प्राप्त करता है और समय किसी चमत्कारिक उत्कर्ष व मौलिक कृति के अस्तित्व में आने के पूर्व, जो कलात्मक सृजन की सुर्खियों में गिनी जा सकें, अनुभवों को पचाने व चिन्तन करने का अवकाश देता है।
फि़लिस्तीनी इन्तिफ़ाध इस प्रकार की सृजनशीलता के एक श्रेष्ठ उदाहरण के लिए प्रेरणास्रोत बन सकता है। एक सम्पूर्ण जाति के विद्रोह ने, फि़लिस्तीनी ज़िन्दगी के सभी पक्ष उसका ड्रामा, उसकी दैनिक विजय और उसकी व्यक्तिगत एवं सामूहिक त्रासदियाँ जो किसी हृदय को अछूता नहीं छोड़ती, यह सभी कुछ उद्घाटित कर दिया है।
इन्तिफ़ाध का यह उदाहरण इस सत्य की पुष्टि करता है कि यदि साहित्यिक सृजन को अपनी चोटी पर पहुँचना है, तो उसे निरन्तर वृद्धि के नमूने का अनुकरण करना चाहिए, उसे प्रत्येक क्षण को समय रहते अपने में अन्तर्निष्ठ करना चाहिए और सृजन के दायरे/क्षेत्र/आयाम में विश्लेषण करना चाहिए। त्रासद घटनाओं की इस लम्बी शृंखला के अनुगामी प्रभाव, ख़ून भरे विलगाव तथा वीरता के अतुलनीय कार्य जो विगत पूरे वर्ष अनुभव किए जाते रहे हैं, और जो निश्चय ही भविष्य में भी प्रतिध्वनित/स्पन्दित होते रहेंगे, वे साहित्य निर्माण के लिए एक प्रभावी समय-रेखा का कार्य करेंगे। यह साहित्य को इस अद्वितीय मानवीय अनुभव के बहुविध पक्षों को समझने और इसके अभिप्रायों को एक व्यापक तथा ऐसी प्रबु( कलाकृति के रूप में अभिव्यक्त करने का अवसर देगा, जिसमें मनुष्य जाति के उदात्ततम उद्देश्यों को प्राप्त करने की संभावना रहेगी। इन्तिफ़ाध के अलावा अन्य घटनाओं पर भी विचार किया जाना चाहिए। फि़लिस्तीनी लोगों को लगभग चालीस वर्ष पूर्व आज की त्रासदी के आरम्भ से लेकर और भी बहुत से बड़े संघर्ष को झेलना पड़ा है। इसका अर्थ यह नहीं कि साहित्य विगत घटनाओं को लेकर अँधेरे में खोज करते हुए बहुत अधिक लम्बे समय तक उन्हीं की चर्चा करता रहे तथा एक यथार्थवादी और सार्थक कला-औति के निर्माण का अवसर खो जाने दे। इसके विपरीत कोई भी इसे अस्वीकार नहीं कर सकता कि काल के संदर्भ में साहित्य एक आश्चर्यकारी लय के साथ विकसित हो सकता है। वे महिमान्वित साहित्यिक-कृतियाँ जो बहुत सारे लोगों के जीवन में सबसे अधिक दुःसह और अविस्मरणीय क्षणों में से बहकर निकली हैं, इस कथन के सबसे प्रभावी साक्ष्य हैं। वास्तव में उन सब जातियों/लोगों ने जिन्हें आक्रामक कार्यवाहियों, बलपूर्वक उनकी भूमि पर कब्जा अधिकार करने वाली ताक़तों/शक्तियों तथा अनेक दुःखद मामलों/परीक्षाओं/ संकटों/इम्तिहानों से दीर्घ संघर्ष करना पड़ा है, उन सबने अपने में से ही ऐसे लेखकों को उत्पन्न किया है, जो अपने लोगों के दुःख-दर्द की वह आवाज़ ;प्रवक्ताद्ध बन गए, जो आवाज़ उनकी गद्य की महान रचनाओं में प्रतिध्वनित है, जिनमें से कुछ (कृतियाँ) अमर बनी हुई हैं।
मनुष्य की अन्तर्चेतना/आत्मा कलात्मक क्षमताओं और प्रतिक्रियाओं का जो निश्चित (अपरिवर्तनीय) भी हैं और परिवर्तनशील भी, एक ऐसा अनन्त स्रोत है, जो उन्हें एक ऐसी अद्वितीय कलाकृति में एकमेक कर देता है, जो अपने सृजनात्मक विस्फोटों में उस सब कुछ का लेखा-जोखा कर लेता है, जो बहुत काल तक छिपा रहा गया था।
आज फि़लिस्तीनी साहित्य अपने अस्तित्व के महानतम अनुभव की दहलीज पर खड़ा है। काल के लम्बे अन्तराल में निश्चय ही वह अपनी चोटी पर पहुँचेगा, क्योंकि अब वह हमारे लेखकों को, अपना उत्तरदायित्व यदि यही वह शब्द ;शर्तद्ध है तो, दिखा रहा है, कि वे फि़लिस्तीनी लोगों की दैनिक ज़िन्दगी के उन विशेष अनुभवों का, जो कभी-कभी अविश्वसनीयता की सीमा को स्पर्श करते हैं, उनका लेखा-जोखा रखने का उत्तरदायित्व स्वीकार करें।
किसी ने कुछ समय पहले कहा था, और उसका वह कहना कितना सच/सही था कि इन्तिफ़ाध बिम्बों/छायाओं/और दृश्यों का एक ऐसा विविध भँवर है कि एक लेखक को उसके किनारों का केवल पुनर्संस्कार/पुनर्स्पश करने अन्तर्विरोधों को मिटाने/हटाने और उन्हें कलात्मक-अभिव्यक्ति के उच्चतम रूप व रेखाओं के अनुसार नयी आऔति भर देने की आवश्यकता है और तब इस मौलिक एवं अमूल्य कलात्मक झाँकी को प्रतिम्बित करने वाला कोई उपन्यास, कोई चित्र या कोई कविता उसमें से उत्पन्न होगी। फि़लिस्तीनी लेखकों, कलाकारों की ज़िम्मेदारी आज से दिन कलात्मक-अभिव्यक्ति के लिए उपस्थित अनुभवों, दृश्यों/घटनाओं और बिम्बों/छायाओं के प्रकाश में और भी अधिक भारी हो गई है। क्योंकि वास्तविकता इतने अधिक अवसर प्रदान कर रही है, उनके सामने इसके सिवा कोई विकल्प नहीं है कि वे अपने हाथ में क़लम उठायें या ब्रश?... यही वह आह्वान है... सृजनशीलता का आह्वान।
-ज़ियाद अब्द अल-फ़तह
फि़लिस्तीनी कविताओं का यह संग्रह आपके हाथ में है। समकालीन फि़लिस्तीनी साहित्य हमारे पाठकों को हिन्दी भाषा में उपलब्ध हो सके, इसी उद्देश्य को सामने रखते हुए प्रयास किया गया है। ‘पहल’ से सम्पादक और हिन्दी कथा-साहित्य के जाने-माने हस्ताक्षर श्री ज्ञानरंजन ने इस दिशा में पहलक़दमी की है। ‘पहल’ पत्रिका अर्से से विदेशी साहित्य से हमारे पाठकों का परिचय कराती रही है। हमें पूर्ण आशा है कि यह सत्प्रयास उस कमी को पूरा करने में महत्त्वपूर्ण योगदान देगा जो इस समय अफ्रीका, एशिया, दक्षिण अमरीका आदि के साहित्य को लेकर हमारे देश में पाई जाती है।
आज की फि़लिस्तीनी कविता और कहानी विश्व साहित्य के इतिहास में एक नया मोड़ ला रही है। जो दर्द, मार्मिकता, जो उत्कट जीवन प्रेम हृदय को उद्वेलित करने वाली तूफानी भावनाएँ आज के फि़लिस्तीनी साहित्य में पायी जाती हैं, वैसी शायद ही किसी अन्य देश के साहित्य में पाई जाती रही होंगी। और उसके पीछे वह विकराल अनुभव है जिसमें से फि़लिस्तीन की जनता पिछले चालीस से अधिक वर्षों से गुज़र रही है। फि़लिस्तीन के बारे में सोचते हुए ‘ट्रेज़ेडी’ शब्द बार-बार मन में उभरता है। समूचे क्षेत्र में फि़लिस्तीनी कलाकार और संस्कृतिकर्मी अद्भुत भूमिका निभा रहे हैं।
यह बहस कितनी पुरानी पड़ चुकी है कि कलाकार को सामाजिक-राजनैतिक मसलों से जुड़ना चाहिए या नहीं। इसका जवाब कोई किसी फि़लिस्तीनी कवि के दिल से माँगे, कि यह सवाल, द्विविधा बनकर कभी उसके मन से उठता है या नहीं। फि़लिस्तीनी कौम की अनेक पीढ़ियाँ उन यातनापूर्ण स्थितियों में और उनसे पैदा होने वाले माहौल में साँस ले चुकी है, जिसमें अपमान है, छल-कपट है, उत्पीड़न है, घोर अन्याय है, पर साथ ही साथ आत्म-सम्मान के साथ ज़िन्दा रह पाने का, अपने हक के लिए लड़ने, संघर्ष करने का जुझारूपन भी है, गहरी आशा और आत्मविश्वास भी है।
यह चार दशाब्दियों का संघर्ष एक गौरवगाथा भी बनती है, वैसी ही जैसी वियतनाम की जुझारू जनता के बारे में सुनने में आती थी। ऐसे माहौल में से वैसी ही कविता फूटकर निकलेगी जिसमें उन सभी भावनाओं का समावेश होगा जो उस माहौल में पाई जाती हैं।
‘‘मेरी कविता वह जलता दिया है जिसे मैं एक द्वार से दूसरे द्वार तक ले जा रहा हूँ।’’
न जाने इस संघर्ष का अंत कब होगा। अभी तो उन लोगों को जो अपने देश की भूमि के लिए, अपने हक़ के लिए जूझ रहे हैं, ‘आतंकवादी’ की संज्ञा दी जा रही है और हर तरह से उन्हें बदनाम करने की कोशिश की जा रही है।
इस साहित्य को आप तक पहुँचाने का हमारा अभिप्राय केवल इतना ही है कि आप भी उन लोगों के दिल की धड़कनें सुन सकें, उन भावनाओं को महसूस कर सकें जो इस समय उन फि़लिस्तीनी लेखकों, कलाकारों के दिलों को उद्वेलित कर ही हैं, उस तड़प को महसूस कर सकें जिसमें से उनकी रचनाएँ जन्म ले रही हैं और उस विराट अभियान के साथ भावनात्मक स्तर पर जुड़ सकें जो इस समय फि़लिस्तीनी के संदर्भ में ही नहीं, दुनिया में जगह-जगह सामाजिक न्याय के लिए अन्यायपूर्ण विषमताओं को दूर करने के लिए शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के आधार पर राष्ट्रों के आपसी रिश्तों को कायम कर पाने के लिए चल रहा है।
हम उन सभी मित्रों के, सहकर्मियों के आभारी हैं जिन्होंने इस प्रयास में योग दिया है। 1987 में अफ्रो-एशियाई लेखक संघ (भारत) के तत्वावधान में अफ्रो-एशियाई युवा लेखकों का एक सिम्पोज़ियम दिल्ली में आयोजित किया गया था। उसके प्रबंध के लिए भारत सरकार की ओर से दी गई धनराशि में से ही इस संग्रह के प्रकाशन की व्यवस्था की गई है। भविष्य में भी ऐसे संकलन जुटा पाने के प्रयास किए जाते रहेंगे।
-भीष्म साहनी
सदस्य : अध्यक्ष समिति
अफ्रो-एशियाई लेखक संघ
जिस ज़मीं पर भी खुला मेरे लहू का परचम
लहलहाता है वहाँ अरज़े1 फि़लिस्तीन का अलाम2
तेरे आदा3 ने किया एक फि़लिस्तीं बर्बाद
मेरे ज़ख़्मों ने किये कितने फि़लिस्तीं आबाद
- फ़ैज़
फै़ज़ ने फि़लिस्तीन का दर्द महसूस करने के बाद ही यह लाइनें लिखी होंगी। शायद ही कोई हो, जो फि़लिस्तीन का इतिहास जानने के बाद, उसके साथ हुई ज़्यादती से विचलित न होता हो। जानबूझ कर आँखें बन्द कर ली जायें तो बात अलग है। इतिहास ने सम्भवतः किसी और क़ौम या मुल्क के साथ इतना क्रूर मज़ाक नहीं किया। फि़लिस्तीन का वजूद एक सच्चाई है।
पिछले वर्ष अफ्रो-एशियाई लेखक संघ द्वारा प्रकाशित फि़लिस्तीनी कहानी संगह ‘सुबह’ में कुछ अनुवाद करने का अवसर प्राप्त हुआ था। यह अपनी तरह का अलग अनुभव था। फिर कविता संग्रह का अनुवाद करने की इच्छा हुई। भीष्म साहनी ने कृपापूर्वक मेरे आग्रह को स्वीकार किया। ‘सुबह’ का जिस तरह से सर्वत्र स्वागत हुआ, उससे भी उत्साह बढ़ा।
प्रकाशन पूर्व इन अनुवादों का पाठ जबलपुर, भोपाल, दिल्ली एवं वाराणसी में हुआ। सुधी श्रोताओं में डूबकर इन्हें सुना। एक ही प्रतिक्रिया थी- स्तब्धता। हिन्दी में इस तेवर की और इतनी संख्या में एक साथ फि़लिस्तीनी कविताएँ पहली बार प्रकाशित हो रही हैं। इन कविताओं का अनुवाद करके मुझे गहरी आत्मतुष्टि मिली है।
कविताओं का अंग्रेज़ी पाठ ‘लोटस’ पत्रिका के प्रधान सम्पादक श्री ज़ियाद-अब्द-अल-फ़तह ने उपलब्ध कराया। अधिकांश कविताएँ ‘द ब्रेथ ऑफ द कन्ट्री’ संग्रह में हैं जो 1990 में अफ्रो-एशियाई लेखक संघ द्वारा प्रकाशित किया गया था। कविताएँ अगर आपको अच्छी लगें तो इनका श्रेय मूल कविता और कवियों को है। यदि कुछ अटपटा लगे तो यह निश्चय ही मेरे अनुवाद की अक्षमता है।
मैं सर्वश्री भीष्म साहनी, ज्ञानरंजन और दूधनाथ सिंह के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ जिन्होंने समय-समय पर अपने सुझावों से मुझे उपकृत किया। अफ्रो-एशियाई लेखक संघ का भी कृतज्ञ हूँ जिसने इसके प्रकाशन का दायित्व लिया।
-राधारमण अग्रवाल
हसन ज़कतान
उनकी ज़िन्दगी
पुराने अपने गाँव को
पिता कहो उसे
पुकारो अपने घर को
पिता कहो उसे
बताओ सब कुछ उन्हें
जो देखते हैं अपनी मृत्यु को
अपने सामने घटित होते
वे कभी नहीं मरते
खेमाइस निम्र* की मौत
कितनी बार
तुम तड़ते होगे
कितनी बार उठ गये होंगे
तुम्हारे नन्हें हाथ
आसमान की तरफ
कितने तारे टूटे पड़े होंगे, शर्म से
तुम्हारे चमकदार बालों के आगे
कितने तारे टूटे पड़े होंगे, शर्म से
तुम्हारे चमकदार बालों के आगे
कितनी बार तुमने की होगी कोशिश
कितनी बार थर्राये होंगे तुम्हारे हाथ
ऊपर चढ़ने में
कितनी बार तड़पे होंगे दर्द से
जब जब उठाये होंगे हाथ
कितनी बार अकड़ गया होगा तुम्हारा बदन
दहशत से, एक डरे हुए फूल सा
सीढ़ियों पर चढ़ते-आसमान की तरफ़
कितना ठंडा हो गया होगा तुम्हारा ज़िस्म
घुटन भरी रात में
घर से दूर, हवा में झूलते
शाम, मग़रिब की नमाज़ के बाद
करते हैं वज़ू जिससे
पुराने तालाब का पानी भी है शर्मसार
मौत की आहट से,
तुम्हारी नन्हीं उँगलियों से
शायद इसलिये भी
कि पा लिये तुमने
अपने आँसू
सिसकियों के बीच
मौत उनके लिए नहीं
अल अरब जाने के रास्ते
मुर्दे उठ खड़े होते हैं रात में
उतरते हैं पहाड़ियों से
सदियों पुरानी पगडंडियों से
घरों के पीछे से
अंगूर के बाग़ीचों से
यादों में
मासूम नींदों में
अज़ान में
धूल से अँटे,
ओढ़े कफ़न मौत का
एक के बाद एक
बढ़ते हैं मुर्दे
ढलानों से उतरते
झाड़ झंखाड़ पार करते
उठाते वह सब कुछ
छोड़ गये जो दरिन्दे
माँ के आँसू,
और, जो उँगलियाँ नहीं पोंछ पाईं
चन्द ओस की बूँदें
उठेंगे मुर्दे बार बार
चलेंगे आहिस्ता, धीरे-धीरे
धरती के बोझ से बोझिल
तालाबों और पुराने रास्ते से
सही रास्ते पर
तालाब की ख़मोशी के बीच
मेहराबों के नीचे, खंडहर में,
बैठेंगे मुर्दे
याद नहीं आयेगा कुछ भी
ज़मीन के नीचे बहता दरिया
सुनाई पड़ती है घोड़ों की हिनहिनाहट
मुर्दे देंगे पहरा रात भर
उनके लिए भला रात क्या
निगाहें टिकी हैं उनकी
मकानों पर
दादी माँ
दादी माँ का घर
सजा है चाँद तारे और आयतों से
देहलीज़ पर
खड़े हैं तीन शख़्स
बिना हिले डुले करते इन्तज़ार
न अन्दर आते हैं
न बाहर जाते हैं
कौन है सबसे ख़ूबसूरत तीनों में?
तुम्हीं बताओ न दादी माँ,
एक लम्बी ज़िन्दगी के बाद आयी
मौत के बाद,
अब, कौन है सबसे ख़ूबसूरत तीनों में?
गुज़र गये सत्तर साल
अकेलापन और शांति
छा गये हैं दादी माँ की आत्मा पर
अगर दिख न रहा हो कुछ भी
तो भी, क्यों बंद कर ली जायें आँखें
चमक रही है आले पर
सुरमे की चमकदार शीशी
रक्खा है वहीं कहीं
एक रंग बिरंगा रूमाल
हिलता, करता है सलाम
जब कि तीनों मुर्दे
पसर गये हैं चौखट के पास नींद में
उखड़ रही है
रात की साँस
खुदापरस्त बंदे कर रहे हैं जल्दी
ख़त्म हो चुकी अज़ान
रात बदल जाती है ठिठुरन में
फिर खड़े हैं वे तीनों
दरवाज़े पर
न आते हैं न जाते हैं
पकड़े हैं कफ़न का पल्लू
रोशनी की एक लकीर में
वही है सब कुछ मेरे लिये
रेगिस्तान में
तलाशते कहीं नख़लिस्तान
उतरती है एक फुसफुसाहट
कविता बन, दिल में
देवदूतों की नींद की ख़ातिर
घासों और पत्थर के मेहराबों की ख़ातिर
लहराती, बल खाती घास
करती है प्रार्थना
मेरा वतन की ख़ातिर
मेरा वतन, जो नहीं मारता किसी को यूँ ही
वह ज़मीन
बाँध रक्खा है जिसने मुझे
करती है इशारा
करूँगा देरी अगर, जरा भी मैं
खो जायेगा इशारा
जो बतायेगा रास्ता
और ले जायेगा मुझे
अपने घर तक
अपनी माँ तक
अपने वतन तक
1988 का बसंत
एकदम साफ़ दिन
दिख रहा है खिड़कियों के शीशों के पार
और दिख रहा है अंगूरों का बाग़
सरहद पार
दूर दराज़ की पहाड़ियों का बदन
सहला रहा है सूरज
कबूतर के नर्म पंखों से
खिड़की के शीशों
और सरहद के बीच
फैली है ज़मीन, इस पार से उस पार
पगडंडियाँ, फूल
और आईने की तरह साफ चमकदार पानी
लगता है सब कुछ हल्का
चिड़ियों की तरह उड़ता
ऐसी सुबह
ऐसी धूप में
मक्के की बालियाँ हों हमारी गवाह
सलाम
तुम नहीं बदले
हो बिल्कुल जैसे के तैसे
हुए नहीं चालीस के भी
उम्र की मार
खड़ी है बेबस देहलीज़ पर
एक बाल सफ़ेद नहीं
वर्दी पर ज़रा सी धूल
घावों पर ज़रा सा कालापन
पिघल रहा है सूरज
तुम्हारे बाजुओं पर
शाम के ठीक चार बजे हैं
तुम नहीं बदले ज़रा भी
पुकारते हैं नौजवान तुम्हें
आसरा है, सिफर् तुम्हारा
आराम नहीं बदा
उसी दम, उसी कपड़े में
निकल आते हो
रख देते हो अपना दिल चौखट पर
ताकि हम आ जा सकें बेख़ौफ़
चुन लेते हैं तुम्हारे ज़ख़्मों से फूल
पिघलता हुआ सूरज
महसूस कर सकते हैं हम अपने अन्दर
पचास बरस
तुम जी रहे हो क्या खूब
हर दिल में
हर घर में
हर निकाह में
...हर ज़ख़्म में
सुनाई पड़ती है तुम्हारी आवाज़
गलियों में
सरहद की निगरानी चौकियों तक
माँयें बताती हैं यह सब
अपने बच्चों को हर रात
हम छुपा लेते हैं तुम्हारा घोड़ा
तमाशबीनों से
कस देते हैं चमकदार काठी
सुबह, फिर से
तुम हो बिल्कुल वैसे के वैसे
हम सबसे हसीन बड़े भाई जैसे
हम पहुँचते हैं तुम्हारे पास
बड़े भाई जैसे
हम पहुँचते हैं तुम्हारे पास
बड़ी आस लिए
तुम थाम लेते हो हाथ
सिर्फ थोड़ी सी धूल
लगी है वर्दी पर
पचास साल!
हम हैं यहीं के यहीं
तुम पहुँच गए कहाँ!
सलाम-2
दुआ है
धरती हो उतनी ही पाक
जितना तुम्हारा दिल
उतनी ही दुआओं से लबरेज़
उतनी ही नर्म
मची है हलचल चारों तरफ़
तुम डटे हो अब भी
पूरे फ़ौज-फाटे के साथ
बढ़ चले
एल कोड की पहाड़ियों की तरफ़
ऐलान कर दिया
तुम्हीं हो बादशाह
ताज नहीं है, तो क्या हुआ
तुम्हारे घुँघराले बाल
क्या कम हैं
किसी ताज से
मोईन बिसेसो
काल कोठरी की तीन दीवारें
होती है जब सुबह
मैं लड़ूँगा आख़िरी दम तक
दीवार का
कोई न कोई हिस्सा तो ख़ाली होगा
इस्तेमाल कर सकता हूँ जिसे
काग़ज़ की तरह
गलीं नहीं
उँगलियाँ साबुत हैं और भी
आती है आवाज़
दीवार के पार से
गुपचुप सन्देश
धागों जैसी हमारी नसें
हमारी नसों जैसी पत्थरों की नसें
हमारा ख़ून उबलता है
बेजान पत्थरों की नसों में
रह रह आते हैं सन्देश
दीवार के पार से
फिर बन्द हुई एक कोठरी
फिर मार दिया गया कोई कै़दी
फिर खुलती है एक कोठरी
फिर लाया गया कोई कै़दी
होती है जब दोपहर
रख दिया जाता है मेरे सामने
एक टुकड़ा काग़ज़
एक क़लम
और एक अदद चाभी मेरे घर की
चाहते हैं वे
करूँ काला जिस काग़ज़ के टुकड़े को
वही करता है ख़बरदार
झुकना मत!
तुम्हें क़सम है
अपने घर के एक-एक ईंट की
करती है चाभी ख़बरदार
झुकना मत!
आती है आवाज़
ठकठका रहा है कोई
दीवार के उस पार
कुचले हाथों से किसी तरह
झुकना मत!
बारिश की एक-एक बूँद
काल कोठरी की छत से टकराती
चीख़ती कानों में, करती ख़बरदार
झुकना मत!
सूरज ढलने के बाद
कोई नहीं है मेरे पास
न कोई देख पाता है
न कोई सुन पाता है
इस आदमी की आवाज़
हर रात जब बंद हो जाती है कालकोठरी
पड़ जाते हैं ताले
वह निकल पड़ता है बाहर
मेरे ज़ख़्मों से, लहूलुहान
चहलक़दमी करता है तंग कोठरी में
वह मैं ही हूँ
वह है बिल्कुल मेरे जैसा
जैसा कि मैं कभी था
मेरे बचपन-सा, मेरी जवानी-सा
दरअसल वह है मेरा अकेला सहारा
मेरा इश्क़
वह है एक ख़त
लिखता हूँ जिसे मैं हर रात
वही है काग़ज़, वही है लिफ़ाफ़ा और वही है टिकट
वही है मेरा जहान
वही है मेरा मुल्क़
आज की रात
मैंने देखा उसे फिर से
ज़ख़्मों से निकलते
उदास सदमे से
थका, परेशान
ख़ामोश नापता कोठरी को
एक भी लफ़्ज़ नहीं
फिर की कह रहा था मानों
नहीं देख पाओगे मुझे
कभी भी
अगर कुछ भी लिख दिया
अगर कुछ भी क़ुबूल कर लिया
राशिद हुसैन
लानत है
मैं नहीं देता हक़
अपने वतन के जाँबज़ों को
कि वे रौदें,
घास के एक भी टुकड़े को
मैं नहीं देता हक़
अपनी बहनों को
कि वे उठा लें
और चलायें बन्दूक़
मैं नहीं देता हक़
किसी भी बच्चे को
कि वे करें खिलवाड़,
और छुयें, किसी बम के गोले को
मैं छीन सकता हूँ
किसी से उसका कोई भी हक़
पर ग़ायब हो जाते हैं सारे के सारे उसूल
जब जलती हुई निगाहें
थाम लेती हैं
बगल से गुज़रते हुए
ज़ालिमों के घोड़ों की रासें
मैं नहीं चाहता
दस साल का मासूम बच्चा
बन जाए शहीद
मैं नहीं चाहता
कोई पेड़ छुपा ले बारूद अपने तनों में
मैं नहीं चाहता
मेरे बाग़ीचे के पेड़ों की शाखों से
झूलते हों फाँसी के फंदे
मैं नहीं चाहता
मेरे गुलाब की क्यारी
इस्तेमाल की जाये
फ़ायरिंग स्क्वाड के दरिन्दों द्वारा
मैं न चाहूँ तो...
पर मैं
चाह कर भी नहीं चाह पाता
जब मेरा वतन
जल गया हो मेरे दोस्तों के ज़िस्मों के साथ
जब जल गया हो मेरी ज़िन्दगी का,
सबसे बेहतरीन वक़्त उनके साथ
तब,
मैं कैसे रोक सकता हूँ
अपने गीतों को हथियार बनने से
आँखों में बसा है- येरूशलम
तुम्हारी आँखों का रंग
रंगत है खजूर के पत्ते की
अंगूर के बेलों की
तुम्हारी आँखों का रंग
रंगत है मेरी मुहब्बत की
लहरा रहा है जो प्यारे येरूशल के लिए
क़ीमती है यह रंगत, बेशक़ीमत
तुम्हारी आँखों की रंगत से झाँकता ज़ख़्म
है मेरी कविता की तरह
प्यार जितना गहरा
देशनिकाले जितना लम्बा
तुम्हारी आँखों का रंग
मिलता है मेरे पिता से
लगाये जिन्होंने बहुत से पेड़
और गाते रहे खुशी से
तुम्हारी आँखों का रंग
है उस सिपहसालार जैसा
खड़ा है जो बिना फौज के
तुम्हारी आँखों का रंग
है अत्याचार जैसा
नाक़ाबिले बर्दाश्त
तुम्हारी आँखों का रंग
रंगत है ताज़ा फ़सल की
नये अनाज के दाने सी
तुम्हारी आँखों का रंग
मिलता है मेरी हिम्मत और धीरज से
बिल्कुल मेरी माँ जैसा
मेरे घावों जैसा
मेरी दूरी खड़ी मंज़िल जैसा
तुम्हारी आँखों का रंग
मिलता है कबूतर से
पर,
दरअसल वह है
मेरे लड़ाकू बाज़ जैसा
कमाल नासिर
आख़िरी बात
प्रिय,
अपने पहले बच्चे को
गोद में खिलाते हुए
अगर ख़बर सुनना यह,
मेरा इन्तज़ार करते हुए,
मत रोना
क्यों कि लौटना नहीं होगा मेरा फिर से
जीना तकलीफ़ और मुसीबतों के बीच
कुछ भी नहीं
अगर पुकारता हो अपना वतन
प्रिय,
पढ़ो ये ख़बर, अगर
मेरे साथियों की दहशत भरी आँखों में
ख़ुदा के लिए
उन्हें देना तसल्ली
अपनी दिलकश मुस्कराहट से
गोकि तब्दील हो गयी हैं
मेरी बहारें सर्द जाड़ों में
ताकि बरक़रार रहे तुम्हारी बहारें
उन्हीं बहारों के नाम
लिख देता हूँ
साथियों के सपनों को
हाँ, करता हूँ इसकी वसीयत
खुदा को हाज़िर नाज़िर जान
उन खुदाई नेमतों की क़सम
जो सिखाती है मुहब्बत
हर गुज़रते पल के साथ
वही मुहब्बत
जो छा गई है मेरी आत्मा, मेरे ख़ून में
दोस्तों के लिए
हमवतनों के लिए
मैं मर ही नहीं सकता
जिऊँगा ख़्वाबों में
शान से तने सीनों में
पैदा होऊँगा हमेशा
हर नई बात के साथ
प्रिय,
सुनना यह ख़बर, अगर
और काँप जाओ डर से
पीला पड़ जाये चेहरा, अगर
चाँद की म(म रौशनी में
मत बैठना ख़ामोश
इजाज़त मत देना चाँद की रौशनी को
कि समा जाय तुम्हारी आँखों की चमक में
चाँद की रोशनी
कम कर देगी मेरी जलन को
बताना मेरे बच्चे को
मेरी बेपनाह मुहब्बत की बाबत
बताना उसे
मैंने जी है मुहब्बत
मेरा चाक सीना
बाँट रहा था, सिफर् मुहब्बत
नहीं छोड़ जाऊँगा उसके लिए कुछ भी
सिवा अपने गीतों के एक टुकड़े के
और अपनी बाँसुरी
अगर मातम करे कभी वह
भरे दिल से मेरी क़ब्र पर
कहना उससे
शायद लौटूँ एक दिन
एक पके फल की तलाश में
अब्दुल लतीफ़ अक़्ल
फि़लिस्तीनी मुहब्बत
जब नहीं था मुमकिन
मैं लाया सौग़ातें तुम्हारे लिए
महकता रहा तुम्हारा बदन ख़यालों में
तुम्हारी सूनी आँखों में
पड़े थे कभी मेरे सपने
मुर्दा
मैं चाहता हूँ तुमको अब भी
जब सताती है भूख
सूँघ लेता हूँ तुम्हारी ख़ुशबूदार ज़ुल्फ़े
और पोंछ लेता हूँ आँसू
दर्द और धूल से भरा चेहरा
खिल उठता है
तुम्हारी हथेलियों के बीच आते ही
लगता है मैं
अभी पैदा ही नहीं हुआ
फिर भी बढ़ रहा हूँ उम्र-दर-उम्र
तुम्हारी निगाहों के सामने
सीखता हूँ बहुत कुछ
मेरा वजूद
लेता है शक्ल एक इरादे की
और उड़ जाता है सरहदों के पार
तुम हो मेरा असबाब और नकली पासपोर्ट
हँसता हूँ
बिन पकड़े सरहद पार कर जाने की ख़ुशी में
हँसता हूँ
शान से
क्या पकड़ पायेगी पुलिस कभी हमें?
अगर पकड़ ले
और कुचल डाले मेरी आँखें
फिर भी, न होगा शिकवा या गिला
शर्म धोकर कर देगी मुझे
साफ़ और नर्म
घबराकर, मेरे जुनून और ताक़त से
बंद कर दे मुझे किसी तनहा कोठरी में
लिख दूँगा तुम्हारा नाम
हर काग़ज़ पर
ले जाये अगर
फाँसी के तख़्ते पर
बरसाते कोड़े दनादन
अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़
सोचूँगा फिर भी
हम हैं दो दीवाने
मौत के दरवाज़े पर
तुम्हारा गेहुँआ रंग
है पहले जैसा
मैं और तुम
हैं एक जिस्म, एक जान
कुचल दिया जायेगा जब मेरा सर
ढकेल दिया जायेगा
सीलनन भरे अँधेरे दोज़ख़ में
चाहूँगा तुम्हें भूलना तब
और ज़्यादा चाहते हुए
मोहम्मद-अल-असद
कभी-कभी
कभी-कभी
गीत सुनते सुनते
लगता है गूँज रही हो
अपनी ही आवाज़
कभी-कभी
पलटता है तख़्ता जब,
किसी सत्ता का,
लगता है निकाले जायेंगे मुल्क से
कभी-कभी
सुनाई पड़ती है
चट्टानों से टकराती लहरों की आवाज़
लगता है
समुन्दर कायम है अब भी धरती पर
पर होता है ऐसा
कभी-कभी
सिफर् कभी कभी
ख़्यालों में अक्सर
सुनाई पड़ता है अपना नाम
रेडियो की ख़बरों में
वही निकोसिया/वही कॉफी
पुराने दरवाज़े के पास
खड़े हैं पेड़
और मकान, छोटे गुम्बदों के साथ
टिकाये पीठ पेड़ के तनों से
खड़े हैं कुछ बुजुर्गवार
चुस्कियाँ कॉफी की,
पेड़ों की धनी छाँव तले
वही बेंच
वही बूढ़ा दुकानदार
चिपका टेढ़े किवाड़ों के साथ
वही ख़ामोशी
दुश्वार है समझ पाना इस इत्मीनान को
मैं भी पीना चाहूँगा कॉफ़ी
उन्हीं घने पेड़ों की छाँव तले
चखना चाहूँगा
उसी लाजवाब तुर्की कॉफी का
वक़्त को हराने वाला स्वाद
सफ़ेद पत्थर
बनाते हैं हम
सफ़ेद पत्थर से
घर
औज़ार
और मशालें,
करते हैं हम
शाम की तैयारी
चिड़िया उड़ जाती है
दबाये पत्ती चोंच में
हमारी परछाईं
फैल जाती है
हरियाली की क़ालीन पर
पहाड़ियों के पैरों तले
फिर खिसकने लगती है धीरे धीरे
जब डूबता है हमारा सूरज
सुनसान गलियों में
खाली ढाबों में
ख़ामोशी के साथ
बच्चों के स्कूल के आस पास
समझो, हमारा घर गया
छोड़ देते हैं घर मुँह अँधेरे
बरक़रार रहती है हमारी पाक सफ़ेदी
बच्चे खेलते कापियों, रजिस्टरों से
छोड़ते अपनी नन्हीं उँगलियों के निशान
बच्चे खेलते हैं सुकून से
बारिश में
दोस्त भटक रहे भीड़ में
भीड़ भी चल पड़ेगी अभी
फिर कब देख पायेंगे किसे
शाम उतरती है बच्चों पर
सब कुछ है ख़ामोश
इसका उतरना, इसके रास्ते
मशाल
बना देती है परछाईं
ख़ामोश कर देती है सपनों को
फैल जाती है बच्चों के बिस्तर पर
और तुम्हारा दिल
जीता है अंधेरे में
उतरती है जब रात
देर हो चुकी है बहुत
जाने के लिए
देर हो चुकी है बहुत
रौशनी के लिए
जब दिल गुम हो गया हो
जब पत्थर हो गए हों नर्म
चिड़िया दबा लेती है चोंच में
धूल ओस और आख़िरी पेड़
अतीफ़ जानम
हत्यारे सपनों के शहर के
ऐ, रौशनी वाले दरवाज़े के पहरेदार
ज़ालिम, भगा दिया था तूने मुझे
बच्चा जान कर
चाहा था घुसना जब बरसों पहले
धमकाया, मत आना फिर कभी
शाही मुहर लगे
इजाज़तनामे के बग़ैर
और भी बतायीं तूने बहुत सी वजहें
मसलन, बंद है शहर
मैं आया क्यूँ नंगे पैर
ऊँची हैं दीवारें
लगे हैं शीशों के टुकड़े
अटके हैं जिनमें तमाम
अनजान राहगीरों के लोथड़े
ऐ, रौशनी वाले दरवाज़े के पहरेदार
देख, आया हूँ मैं, फिर से
लाया हूँ साथ
न सिर्फ इजाज़तनामा
बल्कि सारी की सारी शाही मुहरें भी
आया हूँ अपने ख़ून सा बहता हुआ
ऊँचा किये सर, चम्पे के फूला-सा
हो गया हूँ नर्म और
आईने की तरह साफ़, आँसू जैसा
अपने महबूब की आँखों में
घुल गया हूँ
उसकी आँखों के साथ
कलेजे की आग
नींद में है इस वक़्त
जनाब,
यह शहर है इतना ख़ूबसूरत
चमकता हुआ, बुलाता है दूर से
कलियाँ देखती हैं उचक उचक के
हल्की हवा में, झूमती हैं बार-बार
हवा जो आयी शहर के अन्दर से
छूती है मुझे
ख़ून जो बचा था मेरी धमनियों में
नाचता है बार-बार
जनाब,
पूरी कर दी हैं मैंने सारी शर्तें
और खानापूरी
देखिये, यहाँ मेरे दस्तख़त
किये गये हैं मेरी थकी हुई बरौनियों से
कहाँ हैं मेरे पुरखों की अमानत
इस दरवाज़े की चाभियाँ?
मैं दाखिल होना चाहता हूँ फ़ौरन
दरवाज़े के अन्दर
बहते झरने और जलती आग को
सीने से लगाने
जनाब,
जवाब देने लगे हैं घुटने
दरख़्वास्त है, मुझे इजाज़त दें
जनाब,
लगता है मौत पुकार रही है मुझे
निकला जा रहा है दम
शहर घिर गया है क़यामत से
क़यामत की रात का साया
पड़ गया है पूरे ख़ूबसूरत शहर पर
क़यामत की रात
क़हर ढाती
घसीटती उसे
उमेठती बाँहों को
तहा कर रख लेगी उसका जिस्म
अपने लबादे में
ले जायेगी उसे
चबा जायेगी उसे
दूर, बहुत दूर
अब्दुर्रहीम महमूद
शहादत
मैं रख लूँगा अपनी रूह
अपनी हथेली पर
और घुमा के फेंक दूँगा उसे
मौत की आरामगाह में
मेरी ज़िन्दगी को
ख़ुश करना चाहिये दोस्तों को
या मिटा देना चाहिये दुश्मनों को?
ख़ुशनसीब जनम लेते हैं दुनिया में
फूलों को, सपनों को हथियाने के लिए
ज़िन्दगी क्या है
क्या है मक़सद इसका
मैं नहीं चाहूँगा जीना एक भी पल
अगर ताक़तवर न समझें मुझे
मेरे वतन की एक नामुमकिन चारदीवारी
सुनते हों सब मेरी बात, ग़ौर से
गूँजती हो मेरी आवाज़ मेरे बाद
क़सम ख़ुदा की,
ज़िम्मेदार होऊँगा अपनी मौत का मैं ख़ुद ही
बढ़ता हूँ इसकी तरफ़
हिम्मत और जल्दी से
मारा गया है हक़, इसलिए
चाहता हूँ अपने वतन को, इसलिए
तलवारों की झनझनाहट
है सबसे मीठी आवाज़
ख़ून नहीं जगाता कोई दहशत
मुर्दा जिस्म पड़ा हो
किसी वीरान, सूखे रेगिस्तान में
परिंदों के नोंच खाने के लिए
बच रहता है फिर भी, एक हिस्सा
ज़मीन और जन्नत के शेरों के लिए
सिंच गई है ज़मीन, शहीद के ख़ून से
ख़ूनी हवा
सहलाती है शहीद का चेहरा धूल से
चलो, एक मुस्कराहट तो आई होठों पर
इस तरह बेज़ार दुनिया से
बोझिल हो जाती हैं पलकें नींद से
सो जाता हूँ, फिर से, उसी सपने की तलाश में
ख़ुदा गवाह है,
यह मौत होगी वाक़ई एक मर्द की मौत
जो चाहते हैं मरना इस तरह
वे मर ही नहीं सकते किसी और तरह
मैं नहीं पैदा हुआ
उन बदज़ातों की सज़ा भुगतने के लिए
कैसे
कोई कर लेता है
इनकी ज़्यादतियाँ बर्दाश्त
डर से?
शर्म से?
पर, क्या मैं नहीं हूँ ऊपर से नीचे तक
शान ही शान?
घुमा के फेंक दूँगा अपना दिल
सीधा, दुश्मन के चेहरे पर
दिल है मेरा फ़ौलादी, आग का गोला
मेरी तलवार की धार
देख रही है पूरे वतन हो
मेरे हमवतन
क़द्र करते हैं
मेरी हिम्मत की
तौफ़ीक़ ज़ियाद
मेरी आवाज़, मेरी ख़ुशबू, मेरा जिस्म
जहाँ जमी हैं मेरी जड़ें
मैं लौटूँगा वहीं
बस, इन्तज़ार करो मेरा
मैं ज़रूर लौटूँगा
चट्टानों की दरारों में
काँटों में, पत्तियों में
रंगीन तितलियों में
गूँज में, सायों में
जाड़े की सोंधी मिट्टी में
गर्मी की धूल में
मस्त हिरनियों के रास्तों में
चिड़ियों के घोंसलों में
गरजता तूफ़ान दिखायेगा रास्ता
मेरी नसों में धड़कती है
मेरे वतन की अज़ान
पुकारती है हर घड़ी
हाँ, मैं ज़रूर लौटूँगा
फूलो, रखना तब तक बरक़रार
मेरी आवाज़, मेरी ख़ुशबू, मेरा जिस्म
कोई कैसे करे बर्दाश्त
ऐ मेरे वतन
ऐ मेरे घर
ऐ मेरे लुटे ख़ज़ाने
ऐ मेरे ख़ूनी इतिहास
जहाँ दफ़्न हैं मेरे अब्बा
उनके वालिद
उनके भी पुरखे
पहुँच नहीं सकता उन तक
कैसे कर लूँ बर्दाश्त
कैसे कर दूँ माफ़
जकड़ दिया जाऊँ शिकंजे में
फिर भी,
नहीं कर पाऊँगा माफ़
उगलते थे सोना जो खेत
पड़े हैं उजाड़, वीरान आज
पड़ी हैं यहाँ वहाँ
हड्डियाँ पत्थरों के साथ
जूझ रहे हैं अब भी
कुछ मर्दाने
कुछ दीवाने
हौसला है उन दरिन्दों को फाड़ खाने का
ख़ून पी जाने का
कुछ न कहो, कुछ भी नहीं
मक़बरों तक को नहीं बख़्शा
रौंद डाला उन्हें भी बूटों तले
सतह से नीचे
मुझे कुछ भी न बताओ
कुछ भी नहीं
मैं आ गया हूँ उस जगह
जहाँ न पीछे कुछ था
न आगे कुछ होने की गुंजाइश
जहाँ तौला जाता है एक एक लफ़्ज़
साया पीछा करता है साये का
ख़ुदाई हुक्म
बदल जाते हैं सुविधाजनक क़ानून, धर्म में
बंदा नेस्तनाबूद कर देता है ख़ुदा को
बस भी करो,
मुझे कुछ और न बताओ
मैं आया हूँ वहाँ से
जहाँ एक आग सुलगती है सीने में,
तेज़ाब बहता है विद्रोही नसों में,
सड़कें उफनती हैं
बेहिसाब आदमी औरतों से
एक कभी न ख़त्म होने वाला सिलसिला,
जहाँ पेड़ लहरा रहे हैं
वतन के झंडे जैसे
जायेंगे यहाँ से भला कहाँ,
जहाँ हर हादसा
ललकारता है और कुर्बानी के लिए,
जहाँ शिकायत
मानी जाती है कमज़ोरी,
जहाँ के बच्चों, शायरों
और मज़दूरों की आवाज़ें
रौशन करती हैं दिलों को-
जागती हैं आस,
मत बतलाओ मुझे कुछ और
देखी है मैंने ज़िन्दगी भरपूर
जी है मैंने ज़िन्दगी भरपूर
क्या जो दिख रहा है
उसने बनाया बेवकूफ़ मुझे
शायद बूढ़ा हो रहा हूँ
रोओगे तो मरोगे
जल्दी करो
क्योंकि सच यह है
कि जल्दी कुछ भी नहीं बदलता
वक़्त बढ़ता जाता है आगे
धीरे धीरे
हमेशा
अमृत
मर्ज-बिन-उमर के नाम-
तुम्हें मालूम था
कि ये मैं ही था
लौटा बरसों बाद
किसी अजनबी की तरह
यादों के डंक
रोते बिन आँसुओं के
घिसटते कदम
जैसे ढोये हों ग़म की लाश
तुम मुड़ीं मेरी तरफ़
देखा, एक नश्तर सा लगा सीने में
अनमने सलाम किया
कोशिश करने लगीं उठने की
पर सैकड़ों जंजीरों की जकड़न
पकड़े रही तुम्हें, कस कर
तुम्हारी आवाज़ खो गई कहीं
मेरा नाम लेने में
खो गई मेरी भी आवाज़
गूँजती थी जो कभी, झरने सी
कुछ मत कहो
मैंने पी लिया है
दुख का अमृत
मेरी प्यारी, मर्ज-बिन-उमर
नाज़रेथ की लड़कियाँ
कितनी बार,
कितनी बार गुज़र गई है बग़ल से
काली आँखों वाली
नाज़रेथ की ख़ूबसूरत लड़कियाँ
भले घरों जैसे चाल-ढाल वाली
कुछ उठाये बच्चे गोद में
कुछ कुँवारी लड़कियाँ
मानो फूल तैर रहे हों सड़कों पर
कुछ के बच्चे बँधे हैं पीठ पर
नाज़ुक कमर की पट्टी के सहारे
काँख में दबी हैं गेहूँ की बालियाँ
आ रही हैं आवाज़ें
खेतों से, खलिहानों से
शामें गुज़रती हैं
तालाब के किनारे
गाते गीत बाबा आदम के ज़माने के
तुर्की लड़ाई और भगोड़े सैनिकों के बारे में
अफ़सरों की नाइन्साफ़ी के बारे में
कैसे बेच डाले गये बाज़ूबन्द
हथियारों के लिए
और भी न जाने क्या-क्या
न बताओ मुझे कुछ और
अगर ये दरिन्दे वही हैं
चुरा लिया जिन्होंने हमारे वतन को
यक़ीनन,
तब हमारी हिम्मत
चूमेगी आसमान
समीह-अल-कासिम
मेरा वजूद
अगर
तुम्हें पाने के बाद भी
न झूम उठूँ ख़ुशी से मैं
तो, इजाज़त दो
कि ख़ुश रहूँ
तुम्हारे दिये दर्द में
तुम्हारी धुँधली होती तस्वीर
और ख़ामोश पड़े ज़िस्म को
चूमता हूँ
और हो जाता हूँ तुम जैसा
दीवानगी की हद तक
तूफ़ान उठा है वहशत की तरह
तूफ़ान में चक्कर खाता
मैं कौन हूँ
इस तरह का अहसास करने वाला?
फिसलता है पैर
मैं भी,
बैंगनी अँधियारा
ख़ुश हो, उड़ाता है हँसी
तार तार हो गयी
इन पागलपन भरी यादों के लिए
इस सुबह से उस सुबह तक
हम हैं अकेले
तुम और फ़रिश्ते
देते हैं सहारा मेरी हिम्मत को
फिर भी, मैं बिल्कुल अकेला
क्या यही है मुहब्बत?
तुम्हारी गर्दन मेरी बाँहें
गर्मी बदन की
और सरकती रेशमी ज़ुल्फ़ें
जगा देती हैं मुझे
चमेली सी महकती साँस
इबादत जैसी
मैं गड़ा देता हूँ चेहरा तुम्हारे बदन में
भर जाता हूँ आँसुओं से
चिड़ियाँ और तितलियाँ
हों गवाह हमारी ज़िन्दगी की
दरवाज़े और खिड़कियाँ
नीबू के दरख़्त और बाग़
जान जाये सारी दुनिया
कि जी रहे हैं हम, बख़ुदा
दिये हाथ में हाथ
करिश्मा कर दिखाया हमने
लोग मुस्कराते हैं
मेरी बड़बड़ाहट और हँसी पे
शायद हों परेशान
इस तनहा इन्सान के लिए
शायद हों ग़मज़दा
जवानी के इस पागलपन पर
हमें माफ़ कर देना चाहिए उन्हें
देख नहीं पाते वे
मेरा तुम्हारे पास होना
माफ़ कर दो उन्हें, तुम भी
एक शाम से दूसरी शाम तक
रहती हैं हर वक़्त मेरे पास
गोलियाँ नींद की
हर तमाशा है मेरे अन्दर
फिर भी हूँ एकदम तनहा
रहती हो हर वक़्त तुम मेरे दिल में
मेरी रूह में है तुम्हारी ही छाप
है ऐसा ही
जैसे हो तुम, हरदम
जैसे हो तुम, कभी नहीं
यही है इश्क़, यही है इश्क़
ज़करिया मौहम्मद
सिफर् एक बार
सिफर् एक गोली बन्दूक में
ताकि मौत इन्तज़ार कर सके
छुप कर दरवाज़े के पीछे
सिफर् एक फेफड़ा पसलियों के पीछे
ताकि साँस
रौशन कर सके अँधेरे को
सिफर् एक चाभी घर की
ताकि सिवाय भूतों के
कोई दाख़िल न हो सके
सिफर् एक शहर
जागता है दिल में
कसकती है उससे बेदख़ली
सिफर् एक उम्र,
अकेली वही एक उम्र,
दहशत पैदा करती है
वजूद के लिए
वाह!
अगर
चारे के लिए कलियाँ और कोंपलें हों,
अगर
खुरों में जड़ी हों चाँदी की नाल,
अगर
हो काठी सोने की
पर,
पर गले के लिए तो होनी ही चाहिये
चमचमाती ख़ूनी लाल लगाम
वक़्त, चाबुक और घोड़े
मैं ठीक कर देता हूँ
घंटे वाली सुई
फिर, मिनट और सेकण्ड वाले काँटे
हाथ की बेसब्र चाबुक
चीख़ती है
तेज़, तेज़ और तेज़
घोड़े दौड़ पड़ते हैं सरपट
पागलों की तरह
चरागाह
घास का लुभावना,
बहुत ऊँचा होना
नहीं है सच, उतना ही
जितना पानी का बरसना, न बरसना
बादलों का होना, न होना
घास का क्या
हो सकता है पहुँच जाये
तुम्हारी कमर की ऊँचाई तक
पर क्या लुभा लेगी वह
और चरते रहोगे वहीं जीवन भर
मान कर उसे आख़िरी सच
मत चरो, उसी अकेले चरागाह में
दुनिया में और भी बहुत से सच हैं
उस चरागाह के सिवा
फदवा तूकान
रात दिन की दहशत
-अपनी दोस्त रोज़मैरी के लिये
मुर्दे टहलते हैं
अपनी गलियों में
जिन्न, मिल जाते हैं काली दीवारों के साथ
आर पार दिखते हड्डियों के ढाँचे
बहन,
उढ़ा दो कफ़न मुर्दा जिस्मों को
शर्म,
शर्म करो, बहन है मेरी बिना कपड़ों के
पड़ोसी भी हैं बिना कपड़ों के
कुछ नहीं बचा हमारे पास
ढँक पायें शर्म जिससे, अपनी
नंगे पेड़ हिल रहे पागलों की तरह
उड़ गये हैं चिड़ियों के पर, उन पर से
होती है दस्तक दरवाज़े पर, अचानक
सिपाही हैं शायद
मेरी बहन
चक्कर लगाती इधर से उधर
उधर से इधर, जुनून में
सिपाही, और ज़्यादा सिपाही
मैं भी घूमता हूँ इधर उधर
फिर, घूम पड़ता हूँ पीछे
चारदीवारी के पार से
आती है आवाज़
इश्क़ के मारे आशिक़ की आवाज़
महबूबा हो चुकी किसी ग़ैर की
रह गया मैं, एक नामुराद आशिक़
बोलो, कुछ तो बोलो जानेमन
मैं रहा हूँ क़रीबी तुम्हारा
रौशनी तुम्हारी आँखों की
क़सम ख़ुदा,
तुम्हीं हो मेरी आँख और निगाह
महबूबा, डूब जाने दो मुझे
अपनी आँखों की गहराई में
मत ढकेलो परे
तोड़ देते हैं दरवाज़ा
कम्बख़्त सिपाही
या ख़ुदा, रहम कर
जानेमन, उदास हो?
ले लो मेरे दिल का ख़ूनी लाल गुलाब
रख लो इसे अपने दिल में,
धड़कनों के पास
दरवाज़े पर हैं सिपाही, या रब,
छोड़ दिया है ख़ुदा ने भी मेरा साथ
ढँक लो अपना चेहरा
अपनों ने ही
भोंक दिया ख़ंजर पीठ में
क़हर की रात
दरवाज़ा खोल बदज़ात
दरवाज़ा खोल, हरामी की औलाद
लगता है, दुनिया की हर ज़बान में
गाली दे रहे सिपाही
महबूबा मेरी,
जाग उठा हूँ बिना सपनों वाली नींद से
कॉफी पीने से शायद
हो जाये भारीपन ग़ायब
ख़ामोशी
कभी न ख़त्म होने वाली ख़ामोशी
उदासी और गुज़रे दर्द पर डालता हूँ निगाह
कौन सा रास्ता रह गया है चुनने को
ख़ामोशी, सिफर् ख़ामोशी
या ख़ुदा, आख़िर क्यों
एलकोड के अख़बारों में
रोज़ छपती हैं ख़बरें-
‘‘बेथेलहम! खेरबत बेत सकारिया के इलाक़े में किसानों ने कार आसियों की तरफ़ से बढ़ते बुलडोज़रों को देखा है। बताया जाता है कि इन बुलडोज़रों ने खेतों और फ़सलों का भारी नुक़सान किया है।’’
एक शिकायती ख़त जो किसी इब्राहीम अताउल्ला, बमुक़ाम बेत सकारिया, कार आसियों के मग़रिब में, ज़िला बेथेलहम द्वारा, लड़ाई के महकमे को लिखा गया-
मेरे खेतों को हथिया लेने के बाबत
जनाब, आपको इत्तिला हो कि जिस ज़मीन के बारे में आपको लिखा जा रहा है वो हमारे दाना-पानी का अकेला सहारा है। इससे इक्कीस लोगों की परवरिश होती है। इनकी ज़िम्मेदारी पूरी तरह से मेरे ऊपर है। परसों, बुलडोज़रों ने पूरी फ़सल तबाह कर दी जिससे हमारा साल भर का गुज़ारा होता। आपसे भूखे बाल बच्चों के नाम पर दरख़्वास्त है कि, बराये मेहरबानी, मेरी ज़मीन लौटवाने में मदद करें। ज़मीन के एवज़ में मुझे कोई पैसा या दूसरी ज़मीन नहीं चाहिये।
-बक़हीम अताउल्ला
बार-बार
वही बासी ख़बरें
कुछ भी नहीं
जो हो क़ाबिले ग़ौर या नया
फँसता मालूम पड़ता है गला
रेशमी कीड़े,
चूस लोगे तुम
मेरे ख़ून की एक एक बूँद
क्या रह पायेगी ज़िन्दगी भला उसके बाद
या ख़ुदा, क्या हो रहा है
टूटती नहीं ख़ामोशी
घुमाता हूँ रेडियो की सुई
क्या हो रहा है दुनिया-जहान में
अँधा जिन्न,
लीले जा रहा है आदमी पर आदमी
बेलफास्ट भी नहीं है अछूता
सुनहरे फूलों का सर
काट दिया गया हो किसी टाइम बम से
यही है हश्र वियतनाम का
उदासी रोज़ जज़्ब होती है
वियतनाम की मिट्टी में
खाद है नेपाम बमों की
नोंच रहे गि( अधमरे ज़िस्मों को
फैल गये ख़ूनी पंजे
दहशत दे रही मौत का पैग़ाम
किसने फैलायी
ये ख़ौफ़नाक़ दहशत
हमारे जहान में?
किसने उढ़ा दिया है
खौफ़ का कफ़न
ऐ ख़ुदा
मुहब्बत है कहीं बाक़ी
या हो गई फ़ना?
टूटती है ख़ामोशी आख़िर
किसी जानवर की दर्दनाक आवाज़ से
दूर जंगल में
ठहाके लगा रहा है ख़ुदा
तूफ़ानी बादलों की ओट से
ख़ालिद अबू ख़ालिद
सलीब
1.
तुम आये हवा पे सवार
उस जगह से
जहाँ से होती है हवा की शुरुआत
जहाँ से होती है शुरू हर बरसात
तुम आये हवा पे सवार
इस खंडहर शहर के किनारे
रुक जाओ, जहाँ भी हो तुम
आते ही
तुम फेंक देते हो अपना जाल बेफि़क्री से
बेख़बर हालात से
तैरता है जाल बालू के ढूहों पर
मछलियाँ, सिफर् साये हैं मछलियों के
निगाह जाती है जहाँ तक
सलीब ही सलीब
जन्नत से दोज़ख तक
रुक जाओ, जहाँ भी हो तुम
बरसों तक
सलीबों से भरी टोकरी
ढोयी है मैंने
फिर भी,
रुला देता है हर नया चेहरा
रुक जाओ, जहाँ भी हो तुम
जिधर भी घूमो
बंद कर लो निगाहें
दिखाई पड़ेगी फिर भी
दहशत सिफर् दहशत
हमारा वक़्त रह गया है
कोलतार की
एक झील की मानिन्द
जो उतरा सो डूबा
हम डाल दिये गये हैं
किसी प्रेत द्वारा गहरी खदान में
पीस दिये गये हैं धूल में, धूल जैसे
हमारे दिलों की चिन्गारी
दफ़्न कर दी गई है
उसी गहरी काली खदान में
2.
सलाम,
स्वागत है तुम्हारा दोस्त
मेहमान मेरे
जाने न दूँगा तुम्हें कभी भी
तूफ़ान उठा है तुम्हारी अगवानी में
लपेट लेंगे तुम्हें, हज़ारों हज़ार तूफ़ान
तूफ़ान उठा है
तुम्हारे अनगिनत जालों के समुन्दर से
जिसे तुम फेंकते हो और खींच लेते हो
फिर फेंकते हो, फिर खींच लेते हो
इतने फट गये हैं जाल
मरम्मत होगी नामुमकिन
तुम्हें नहीं मिले मोती
तुम्हें नहीं मिले सीप
सलब पे टँगा मैं
देखता हूँ तुम्हारी एक-एक हरकत
बालू के ढेर पर लगा के तम्बू
तुम दौड़ते इधर-उधर
अपने ख़्वाबों के मोतियों की तलाश में
सोचते हो मिलेंगे यहीं कहीं
अफ़सोस है तुम्हारे लिए
अलकतरे के समुन्दर में
मोती भला कहाँ
लौटते हो जब अपना चिथड़ा जाल लिये
उड़ा ले जाता है रेतीला तूफ़ान तुम्हारे तम्बू
मेरी तरह तुम भी
टँग गये सलीब पर
आँखें टिकी हैं क्षितिज पर
गिड़गिड़ाते, पुकारते हर आदमी को
रुको, जहाँ भी हो तुम
यहाँ रहते हैं वे
जो ख़ून पी जायेंगे तुम्हारा
यह टापू भरा है कीड़ों और ग़द्दारों से
यहाँ रुक गया है वक़्त
अरे, ज़रा मुस्कराना
हमारे नग़मों पर
हमारे दिल की धड़कनों पर
हमारी पलकें झपकती हैं जल्दी जल्दी
हमारी चमकदार आँखों में उतर आया ख़ून
बेपनाह सन्नाटा, हवा और पानी के घर तक
काश,
तुम, तुम होते
सिफर् तुम, तुम होते
क्या सुना तुमने
मेरा और दोस्तों का नग़मा?
और देखा मुझे
उखाड़ते उँगलियों के नाख़ून?
मेरी वहशत देखकर
भागे तुम दहशत से
छोड़कर अपना सलीब
रुको, लादो इसे अपनी पीठ पर
फिर दफ़ा हो यहाँ से
फूँक-फूँक कर रखना कदम
रुको, जहाँ भी हो तुम
3.
इसके पहले
कि तुम अलविदा कहो, मेरे दोस्त
इसके पहले
कि तुम भूल जाओ हमारी भूख, मेरे दोस्त
एक प्यारी पुरवैया की ख़ातिर
कहना चाहूँगा, जाओ सिफर् कल तक के लिए
आह, कल है कितना पास
आठ बजे
नौ बजे
दस बजे
दस बजकर दो सेकण्ड
शायद इन्तज़ार कर रहे थे तुम
कि हम कहें कुछ भी
माफ़ करना दोस्त,
मेरी और मेरे दोस्तों की ख़ोमोशी
पैदा होने को होता है कोई जब
होता है सब कुछ ख़ामोश
फिर भी, बँधाता है उम्मीद
अलविदा मेरे दोस्त, अलविदा
छोड़ गये हो अपने पीछे
मायूस ख़तों के पहाड़
और रोशनाई का
काला, गहरा और ख़ौफ़नाक कुआं
फय्याज़िद
गुज़रना उसका शीशे के आर-पार
मानों उलट गया हो
तेल का घड़ा
दूर क्षितिज पर
कुछ हरा सा
कुछ नीला सा
देहलीज़ पर खड़ी वो
काँपती ठंड से
पहने सिफर् एक झीना लिबास
बढ़ायी उसने उसकी जैकेट, उसकी तरफ़
वक़्त आ ही गया प्यार करने का
चन्द लम्हों के बाद
मिलती हैं निगाहें दिलरुबा से
फिसलतीं चारों ओर
निगाहें पड़ गईं हैं सर्द
वक़्त गुज़रने के साथ
फिर भी, कस जाती है बाँहें
फलदार बाग़ान घिर गया हो बाँहों में
हाँ, एक उदास फल
हाँ, एक मायूस फल
हाँ, एक नींद से बोझिल फल
चेहरे खो जाते हैं एक-दूसरे में
लिख देती है पछुआ हवा अपना नाम
दमिश्क़, दमिश्क़, दमिश्क़
चौराहे उमड़ रहे
भरे हैं लबालब
पिछली रात के गुलाबों से
अलविदा, प्रिय
अलविदा, प्रिय
क्षितिज पर फैली सुबह
दमिश्क़ बन कौंधती है यादों में
दमिश्क़ की पहली रात
अंगूर के बेलों सी ऐंठती,
चढ़ती मेहराबों पर, कंगूरों पर
मुस्कुराती छोटे-छोटे होंठों में
सहलाती क़दमों को हौले से
आहिस्ता, दरिया के पानी की तरह
दरिया के किनारे वाली ऊँची खिड़कियों से
या उस तरफ़ जाती
घुमावदार ख़ामोश सीढ़ियों से
दोस्तों की भुतही निगाहों के साये में
गुज़र जायेगी वह
शीशे के आर पार
एक ख़ुशनुमा सुबह की तरह
बीस साल की लड़की
चेहरे से जिसके
टपक रही हो गर्मी
होठों में समा गये हों जिसके
गाँव के ख़ुशनुमा मंज़र
शायद आने वाले
सर्द मौसम की तैय्यारी में
भर देती है हामी
गुज़रती हुई बग़ल से
लगता है
उड़ रहीं हों दो चिड़ियाँ
पंख पसारे, दरिया किनारे
गुज़रते हैं हम
उसी खिड़की के नीचे से, उम्मीद लगाये
नहीं,
नहीं पकड़ पाया कोई अब तक
शाहज़ादी के हाथ से उछाला सेब1
वक़्त गुज़रने के साथ
हुए हम उम्रदराज़
खिड़कियों के नीचे भरी आहें
हुईं बिल्कुल बेअसर
आ धमकी लड़ाई सर पर
दिन गुज़रा, शाम गुज़री
सुबह हो गई इश्क़ के रात की
रात, इकट्ठा करती है ओस
एक प्याले में
प्यार की
एक लम्बी चाहत भरी रात की उम्मीद...
प्यार के मारे
जाते हैं इधर से उधर
इधर से उधर
इन्द्रधनुष की तरह
फिर झाँकता है खिड़की से, दमिश्क़
ग़मज़दा शाहज़ादी सा
टूटे हुए फूलदान सा
यही है वह जो गुज़रा अलस्सुबह उधर से
यही है वह दिखाई मुझे जिसने
पहले पहल लिखी नज़्मों के पन्ने
यही है वह मिलना चाहा जिसने, मुझसे
शाम के धुँधलके में
मुँह लटकाये
क्या था भला मेरे पास उसे देने को
खो गई उसके क़दमों की आहट धीरे-धीरे
यही था वह,
मिलती थी शक्ल जिसकी मेरे भाई से
यही है वह, सुबह वाला दीवाना
खड़ा चुपचाप, चौखट पर
युसुफ़ अब्दुल अज़ीज़
ज़िद
-कौन हो तुम?
-दीवार में धँसी एक कील
या शायद बहुत पुराना कोई बुत
गिर पडूँगा कल
फैल जायेंगी मेरी लपटें
पूरे रेगिस्तान में
बरस-दर-बरस
चाटते रहना मेरे ख़ून को
चीटियों की क़तार बन
गिरूँगा कल मैं जब
छोड़ जाऊँगा अपना ताज
शिकारी कुत्तों के लिए
अपने गीत भेड़ियों के लिए
और, अपनी पाक़ीज़ा औरतों को
धूल में मिलने के लिए
अनिद्रा
नींद हो गई हवा
मेरी आँखों से
गुज़र गये सत्तर साल
खोलता हूँ खिड़की हर रात
फिरती है नज़र गलियों में
ढूँढ़ता हूँ उन चोरों को
जो निगाह लगाये खड़े हैं मेरे घर पे
अब
मेरी तीन बीवियाँ
और बीस बच्चे
इन्तज़ार करते हैं चोर का
मेरे साथ
हर रात
सम्भावनाएँ
कवि ताहिर रियाध के नाम
सपनों के मारे
एक भेड़िये की मानिन्द
टिका दूँगा अपनी कोहनिया
लकड़ी की पट्टी पर
रख दूँगा इस पर
दो सिगरेटें और दो जाम
पुकारूँगा सिसिल!
गोल मुँह वाली वह शै
फिर माँगूगा दो देसी बीयर की बोतलें
उफ़,
बला की इस रात में
सो रही दुनिया
धुँये के बिस्तर पर
एक नंगे लिली के फूल की तरह
ख़ामोशी उतर रही
झीना लिबास पहने
दूर वक़्त की सरहदों से आगे
उड़ा ले जाता है हवा का तेज झोंका
अब, इस वीराने में
गाऊँगा अपने गीत
मैख़ाने की महफिल में
पर, तुम्हारी शुरुआत
कर देगी दीवाना
साक़ी
गुज़रती है इधर से उधर फुर्ती से
जुल्फ़ों से झाँकती हँसी
लुभाती उस फल की ख़ुशबू से
जो मना है छूना एकदम
चाहत रह जाती लरज़ती हमारे हाथों में
वह कमबख़्त सिसिल
गुज़री यकायक बग़ल से
ख़ूबसूरत पिंडलियाँ देखते ही
बुत बन गये सबके सब
छींटा सा पड़ गया हो आबे-हयात का
मनाओ ख़ुशियाँ
करिश्मे होते हैं, यक़ीनन
सबकी सब आग उँडेल दो मेरे अन्दर
पाक हैं पीने वाले
मैं तैरता हूँ ख़ुदाई नेमत के तहत
बाँहें हो गईं शहतूत की शाखें
और पत्थर का एक टुकड़ा
या ख़ुदा!
वह है कोई शायर या पैग़म्बर
मेरा साथी
उसकी पतली बाँहें
पकड़ती हैं एक जाम
चेहरा
तक़रीबन तीस साल के आदमी जैसा
धुँए के ग़ुबार में
शाख से झुका हुआ एक फूल
रात में कै़द
सितारे सुनाते कि़स्से मीठे बचपन के
भुला देना चाहा सब कुछ
रूई जैसे बादलों की भूल-भुलैया में
वह हँसा
पर मैं देख सकता था
ठीक उसकी आँखों के बीच
सलीब पर लटके हज़ारों ईसाओं को
और उसकी पसलियों में
एक नन्हा छेद
याद आता है यही सब
लौटा घर
देर रात
घूम गया सिर
एक बार फिर
देख सकता था मैं
पत्थरों से बना घर
फैला था छितराया
बोरे से गिरे कोयले सा
देख सकता था मैं
रौशनी से नहायीं खिड़कियाँ
लग रही थीं एक बड़ा छेद
बियाबान में
और तो और,
दिख रहे थे फूल
लाँघते चारदीवारी
पंखुड़ियाँ उठाये सिर शान से
घने अँधेरे में
किसी अंधे की फैली उँगलियों की तरह
लग रहा था
सारी की सारी दीवारें
मिलकर हो जायेंगी एक
किसी साजिश के तहत
और झुका देंगी अपना सिर
मेरी तरफ़
घबड़ाहट और डर
जैसे हो गया होऊँ पागल दहशत से
जैसे उभार दिया गया होऊँ
ख़ामोश, पत्थरों में आयतों की तरह
जुटायी हिम्मत
दिमाग़ किया ठिकाने
जलायी एक लौ राख के ढेर में
झटक देता हूँ सिर अजीब तरह से
किसी बदहवास कंगारू जैसा
हाँ, यही है घर मेरा
यहीं गुज़ारी ज़िन्दगी मैंने
मशक़्कत करते
यहीं दिल की राख ने
जान डाली मेरे नग़मों में
यहीं खड़ी की मैंने
मीनारें ख़्वाबों की
जिस पर चढ़ कर
कुरेद सकता था बादलों को
तैर सकता था बादलों में
हाँ, यही है घर मेरा
लगता है उड़ जायेंगी छतें इसकी
किसी पंख फैलाये बाज़ की तरह
और झपट्टा मार कर
बैठ जायेंगी मेरे ऊपर
हाँ, यही है घर मेरा
यही है वह चारदीवारी
इसके पत्थर
हो गये हैं खुरदुरे दाँत की तरह
बंद कर देता हूँ दरवाज़ा
नहीं समझ पा रहा कुछ भी
जब, रात की परछाईं
करती है सियापा मुर्दा जिस्म पर
जब, चलती है हवा
मौत की बदबू लिये,
बस एक क़दम और
थम जाते हैं क़दम
या ख़ुदा!
किस वक़्त को चुना तूने
मेरे दिमाग़ को नाकाम करने के लिए
कितना अजीब लगता है
दो बैल
गुँथे एक दूसरे में
फैला रहे बदबू हवा में
गोबर की
खण्डहर सा घर
मैं दौड़ा कमरों में
भेड़ें, बकरियाँ और गायें
खेलती, सोतीं, क़ालीनों पर
अलसायी बिल्ली कुर्सी पर
घूँसा सा लगा पसलियों में
पसलियाँ रहीं ख़ामोश
चीख़ उठी नस नस
फटने लगे कान के पर्दे
लेटा बिस्तर पर
जोंक घुस गई हो चमड़ी के अंदर
चीख़ा
ख़ामोशी...
एक मोटा कम्बल पड़ गया बदन पर
घूमती, निगाहें ठहरी आईने पर
मुश्किल थी ख़ुद की पहचान
अगर मिलती थी शक्ल मेरी किसी से
तो वह था एक दाढ़ी वाला बकरा
मितली से बेज़ार
दौड़ पड़ा मैं खिड़की की तरफ़
पुराना धुआँ
दो फूल सजे हैं
मेरी मेज़ पर
एक तुम्हारे लिए
दूसरा कौवे के लिए
मैं कभी नहीं रहा
पत्थर किसी बाग़ का
मैं कभी नहीं रहा
तारा आसमान का
मैं कभी नहीं रहा
पंख किसी बादल का
मैं हमेशा रहा
धुएँ जैसी रूह
तमाम ज़िन्दा रूहों से ऊपर
घुस गया तमाम दिलों में, आँखों में
मेरे पास न ज़मीन है न और कुछ
बराबर है
मेरा होना या न होना
मैं रहा हमेशा
बंद फ़व्वारे की चुप्पी सा
एक ढेला
जो टूट जाता है घास के उगते ही
मैं हूँ चश्मदीद गवाह
किसी वीरान, उजड़ी जगह का
छोड़ दो मुझे
बिल्कुल अकेला
बंद कर दो मुझे
किसी किताब की तरह
सजा के रख दिए हैं मैंने
दो फूल मेज़ पर
एक तुम्हारे लिए
दूसरा कौवे के लिए
मोहम्मद अल कै़सी
मेरा हत्यारा चलता है साथ-साथ
मैं चलता हूँ
मेरा हत्यारा पीछा करता है मेरा
साये की तरह
हवा लगती है, नहीं भी
अब क्या बचा है
इन गर्मियों में हमारे लिए
अब क्या बचा है
अंगूर की लताओं में हमारे लिए
लौटे हैं हम अधमरे से
अब क्या बचा है
पेड़ों में हमारे लिए
हम रह गए हैं सिफर् अहसास
जुलाई गई, अगस्त करता है इन्तज़ार
क्या मालूम है सितम्बर को इस बाबत कुछ भी?
वीरान, खण्डर जैसे यातना शिविरों में
इरादा करता है फि़लिस्तीनी
हम ज़िन्दा हैं
अब जायेंगे सरहद पार
बदकि़स्मती, दिलासा दो हमें
दुआ करो
हम बने रहें अपने जैसे
बिना खोये अपनी पहचान
मौत,
कुरेद दो हमें अन्दर तक
एक फि़लिस्तीनी शहीद की माँ
लिख देती है वक़्त की दीवार पर
हम नहीं हैं जानवर
हम जानवर नहीं हैं
तैय्यारी
कहता हूँ,
शुरू किया है यह सब
तो तुम्हीं ख़त्म भी करो यह सब
कहता हूँ हमवतनों से, बार-बार
नहीं डरता मैं, किसी मैदाने जंग से
कोई जंग नहीं कर पाई नेस्तनाबूद मुझे
दिल ने बना दिया बेताज बादशाह
हमवतनों ने भरोसा किया, इस कदर मुझपे
हिला देती है मैदाने जंग से आती आवाज़
और तब्दील कर देता हूँ रात को दिन में
जद्दोजहद थी लम्बी
तुम्हारे लिए मेरा डर, मेरा लगाव
बन गए मेरी मुहब्बत, मेरी मंज़िल
बीत गए कितने बरस
बढ़ती जाती है मुहब्बत इन पहाड़ियों के लिए
भोगता हूँ, पर बाँध रखते हैं ये लगाव
बावज़ूद ज़ंजीरों के
पड़े रेगिस्तान में
बालू के बिस्तर पर
बजती हैं कान में घंटियाँ, बेहिसाब
दौड़ पड़ता हूँ सबसे आगे
भटकने इन पहाड़ियों में
मेरे क़रीबियों ने ही
बेच डालीं ये पहाड़ियाँ
वो भी, कौड़ियों के मोल
यही वह वक़्त था
जब किया इरादा जाने का
तैय्यार हो, आओ चलें
सपनों तक पहुँचने का रास्ता
लम्बा भी है
दूर भी है
सद्र क्या कहते हैं
मैं नहीं लौटा हूँ यहाँ वापस
फिर भी, रहूँगा मौजूद हरदम
परवाह नहीं इस नुक्ताचीं की
परवाह नहीं ख़ंजरों की
या किसी साज़िश की
या किसी बेहूदा बात की
नहीं है परवाह
छुरा भोंके जाने की, ज़ख़्मों की
या किसी से दो-दो हाथ होने की
मैं नहीं लौटा हूँ यहाँ वापस
मेरी निगाहें नहीं तरस रहीं
इस मंज़र को गले लगाने
नहीं झुकता कभी
मजाल किसकी दिखाये राह मुझको
रोता नहीं
हलाक हुए स्कूली बच्चों की ख़ातिर
जाता नहीं कभी कहवाघरों की तरफ़
नहीं भाते खण्डहर
बिदा लेता हूँ जब उनसे
निकलता नहीं बिदाई का एक भी लफ़्ज़
जो कर दे ज़ाहिर मायूसी को
मैं नहीं छोड़ता कोई भी मौक़ा
खैरख़्वाह दिखने का
मैं नहीं बँधा किसी से
उसकी वफ़ादारी के लिए
इस हमेशा रहने वाले सूनेपन में
जो है बिल्कुल अपना
और चुँधिया देता है आँख
इस कदर सख़्त है मेरा जाना
मेरा आराम इस क़दर तक़लीफ़देह
हर समय कुलबुलाता है मेरे अन्दर
छावनी का पागलपन
गूँजती है मेरे अन्दर
अर्रक़ीम की गुफाओं से निकल भागी आवाज़ें
नफ़रत है जिन चीज़ों से मुझे
शायद नहीं खिंच पाऊँगा कभी उनकी तरफ़
नहीं खिंच पाऊँगा उनकी तरफ़ भी कभी
जो सूख जाते हैं वक़्त के थपेड़ों से
एक बार फिर
प्यार का होना या न होना
नहीं बहा पाते दोनों
अपनी रौ में मुझे
नहीं चबाता अपने अल्फाज़ को कभी
बोलता हूँ, पूरे इत्मीनान से
बिना ठहरे, बिना डरे, बिना पछताये
मैं हूँ, हड्डियों के कड़कने
धीमी आवाज़
मेरे पास है, मेरी अपनी
सिफर् एक अदद घड़ी
कह सकते हैं उसे
आगे जाने का एकतरफ़ा रास्ता
जो ले जायेगा मुझे हरियाली की ओर
सुन सकता हूँ हादसों की आहट
फिर भी, इन्कार करता हूँ
नग़मों की छाँव में छुपने से
बेसहारा, जमाता हूँ अपने पैर ज़मीन पर
पीछे-पीछे चलता है मेरा जल्लाद
वाकि़फ़ है मेरे दर्द से
दर्द ही तो है अकेला सहारा
मेरा ख़ून चमकता रहेगा मेरे बाद
सोचो, बन रहा है घर
बाक़ी है सिफर् एक खम्भा, मेरी शक्ल में
मेरे ख़्याल लौटा लाते हैं
और खड़ा कर देते हैं एक बच्चे को मेरे सामने
औरतो! बनाओ कॉफी
कड़क, कड़वी
ले आओ थोड़ा पानी
धुल जाएँ जिससे सारी परेशानियाँ
तैयार हो जाओ मुसीबतो
तैयार हो जाओ परेशानियो
तैयार हो जाओ नाकामियो
कुछ कपड़े, कुछ आहें
छुपा लो अपने अज़ीज आँसुओं को
तैयार कर दो मुझे
इस जुदाई के लिए
फैला दो तमाम पसलियों को राहों में
बस दे दो एक पल की मुहलत
छोड़ दो तनहा
दर-बदर होने के पहले
छोड़ दो मुझे अयूब दरवाज़े के पास
पाँच मिनट, बस सिर्फ पाँच मिनट
शायद धुँधली पड़ जायें यादें
शायद साफ़ हो जायें ज़ेहन से
इन गलियों की तस्वीरें
जो नहीं छोड़तीं पीछा ख़यालों का
शायद तैय्यार कर सकूँ रूह को
मंज़िल के लिए
थोड़े-से असबाब के साथ
कितना लम्बा है रास्ता
मनाओ दिल को
कर सके कूच की तैयारी
तैय्यार करो काग़ज़ात
तैय्यार करो नावें,
अपनी चाहत जितनी लम्बी,
तैय्यार हो लहरो, तैयार हो हवाओ
चन्द लमहों में
समुन्दर कर देगा सीना चाक
चूर कर देगा हमें शीशें की तरह
औरतो, करो तैय्यारी
रास्ते के वास्ते
बुलबुलो, चहको आखिरी बार
सिफर् हमारे लिए
अन्दलूसिया, दिखाना हमें रास्ता
ख़ून से सने हमारे तमग़े
चमकेंगे और रौशन करेंगे रास्तों को
तैय्यार करो बच्चों को
कहीं सो न जायें गफ़लत में
कहीं थका न दें हमें
अन्दलूसिया के रास्ते में
एक भी टुकड़ा नहीं
रोटी का घर में
टिकाए हैं अपना वजूद
चन्द आलुओं से,
दूध के चन्द क़तरों से
देना जरा सहारा
कसना कमरबन्द ठीक से
ऐ मेरे जिस्म के कमज़ोर काठी वाले घोड़े
चलना अन्दलूसिया के रास्ते
सम्भल सम्भल के
मुरीद-अल-बरघौठी
दिल में क्या है?
एक ब्रह्माण्ड
अनेक ग्रह
ग्रहों में धरती
धरती पर महाद्वीप
महाद्वीपों में एशिया
एशिया में फि़लिस्तीन
फि़लिस्तीन में नगर
नगर में सड़कें
सड़कों पर प्रदर्शन
प्रदर्शनकारियों में एक नौजवान
नौजवान के सीने में दिल
दिल में धँसी है
एक अदद गोली
सफ़ाई
कॉफी हाउस का कोना
शायर कर रहा है सफ़ेद पन्ने सियाह
सोचती है बुढ़िया
चिट्ठी लिख रहा है माँ को
माँ ही बची है चिट्ठी लिखने को?
स्साला, लिखता होगा महबूबा को
ख़याल है नौजवान के
वो तो डलाइंग बना लहा है
तुतलाता है बच्चा
ठेके काग़ज़ात के अलावा
हो ही नहीं सकता
काग़ज़ का कोई भी टुकड़ा
व्यापारी की निगाह में
सैलानी के ज़ेहन में
तैरता है एक ख़ूबसूरत पोस्टकार्ड
नहीं, नहीं, जोड़ रहा है
अब बचा कितना कर्ज़
बेचारा क्लर्क
इन सारे ख़यालों को धता बताकर
बढ़ता है धीरे-धीरे
पुलिस इन्सपेक्टर मेज़ की तरफ़
तस्वीर
नीला आकाश
सफ़ेद, मटमैले बादल
लम्बी, ऐंठी, लहाराती सड़कें
सड़कों पर झूमते परचम
लाल नीले पीले हरे और भी बहुतेरे
बेरुत में सुबह हुई
शववाहन रुकता है
सतमंज़िली इमारत के सामने
दो अदद गंदे बुड्ढे
दो अदद गंदी दाढ़ियों समेत
भर रहे खर्राटे शववाहन के अंदर
मज़े से,
कोचवान भरता है लम्बे-लम्बे डग
बेसब्री से
पहली मंज़िल की खिड़की से
झाँकती हैं दो चकाचक वर्दियाँ
उससे ऊपर
पीटे जा रही है लड़की
एक बदरंग फटा क़ालीन
बाँस के टुकड़े से
हर बार ढँक लेती है चेहरा
बाएँ हाथ से
धूल से बचने के लिये
चौथी मंज़िल वाली औरत
सुखा रही है अलगनी पर
बच्चे का सुथन्ना
पाँचवीं मंज़िल वाला बच्चा
उछालता है गेंद छठवीं की तरफ़
कोई नहीं पकड़ता
सातवीं पर औरतें
खड़ी खड़ी बिसूर रही हैं यूँ ही
सहसा पाँचवीं मंज़िल वाला बच्चा
पकड़ लेता है रेलिंग
निगाहें घूमने लगती हैं
गेंद के साथ साथ
गेंद बढ़ती है
शव का इन्तज़ार करते
शववाहन की तरफ़
दो औरतें
एक औरत
जाती है अक्सर
पेरिस में
जवाहरात की दूकानों पर
लगा देती है
शिकायतों के पहाड़
एक औरत
जाती है हर जुमेरात
पाँच क़ब्रिस्तानों में
लड़ने की
रोज़मर्रा की ज़िन्दगी
अमरीका की नींव में है
कोका कोला, चेज़ मैनहटन, जनरल मोटर्स
क्रिस्चियन डायर, मैकडोनल्ड, शेल, डायनास्टी,
हिल्टन वग़ैरह वग़ैरह
अरब मुल्क भी नहीं हैं
बिना किसी नींव के
हमारे पास भी है
केन्टकी के लज़ीज़ भुने मुर्ग़े
आँसू गैस, सरकारी गुर्गे
क्लब, और बहुत से क्लब
जासूसी महकमे वग़ैरह वग़ैरह
अबू सेलमा
मैंने चाहा तुम्हें, और ज़्यादा
जब भी लड़ा हूँ तुम्हारे लिए
बढ़ी है मुहब्बत मेरे दिल में, तुम्हारे लिए
ज़्यादा, और ज़्यादा
भला कौन सी ज़मीन है
महकती होगी जो
मुश्क और लोहबान की ख़ुशबू से
और कौन सी ज़मीन है
महकती होगी जो
दुनिया के सबसे बेहतरीन इत्र से
लड़ता रहा हूँ मैं अपने वतन के लिए
शाखें, अब भी हरी हैं मेरी
ऐ प्यारे वतन फि़लिस्तीन,
उड़ता हूँ आसमान में
सबसे बुलन्द पहाड़ी से भी ऊँचे
बढ़ी है मुहब्बत मेरे दिल में, तुम्हारे लिए
ज़्यादा और ज़्यादा
ऐ प्यारे वतन फि़लिस्तीन,
तुम्हारा नाम ही काफ़ी है
धड़कनें तेज़ करने को
तुम्हारे बदन का ताँबई रंग
मात करता है ख़ूबसूरती को
देखकर तुमको
गूँजते हैं कानों में
पाक रूहों के कलाम
लहरा उठते हैं मेरी आँखों में
तुम्हारी सरहद, तुम्हारे समुन्दर
क्या फूल उठे हैं नीबू इस बार
हमारे आखिरी आँसुओं से
चीड़ पर बैठी चिड़िया
नहीं उड़ पा रही
फिर से, उसी ऊँचाई तक
न सितारे रह गये पहरेदार
कारमेल की पहाड़ियों के
ख़ाली खेत
मनाते हैं सोग, हमारे न रहने का
ख़ाली हैं बाग़ीचे
लाल पड़ गईं, रोती हैं ज़ार ज़ार
अँगूर की पत्तियाँ, हमारे लिए
ऐ प्यारे वतन फि़लिस्तीन,
रोक रक्खो अपने जाँबाज़ों को
शायद देखना बदा हो कुछ और
देशनिकाले से उठ खड़ा होता है एक पक्का इरादा
ढँक लेती है विद्रोह की आग
हर रूह को
नहीं कर पायेगा आदमी जब तक ख़ुद को आज़ाद
नहीं हो पायेगा कभी, अपना वतन आज़ाद
हर के पास है अपनी ज़मीन, अपना घर
अपने वतन ज़ैसा ख़ूनी इतिहास
लड़खड़ाता हूँ
जिस भी रास्ते पर बढ़ता हूँ मैं
मिलती है धूल ही धूल
करने को बदरंग चेहरा
पर, उतरता है पंख लगाये
जब कभी भी तुम्हारा नाम, कानों में
घुल जाता है शहद सा
तुम्हारे नाम का एक एक हफर्
मेरी कविता
बोती है बीज प्यार का
हर शरणार्थी शिविर में
जल उठती है एक मशाल
रौंदी हुई, दरबदर ज़मीन पर
फि़लिस्तीन नहीं होगा
इससे ज़्यादा ख़ूबसूरत, पाक और क़ीमती
जब भी लड़ा हूँ तुम्हारे लिए
बढ़ी है मुहब्बत मेरे दिल में, तुम्हारे लिए
ज़्यादा, और ज़्यादा
हसन-अल-बाउहायरी
वतन की साँस
नींद की आँखों में
लगा देती है रात
अपनी मुहर
गूँजती है हवाओं में
गुपचुप, रहस्य भरे गीतों की कड़ियाँ
दूर, पहाड़ी से भी दूर
क्षितिज से
टकरातीं हैं
इन ख़ामोश गीतों की कड़ियाँ
क़यामत की इस रात
झटकती है निराशा को
मनहूस रात के अँधेरे में
पूछती है बहन से
दुलार से
दीदी,
लिली की महक का राज़ क्या है?
आँख से गिरते आँसू
खो जाते हैं वक़्त के गालों पर
जवाब मौज़ूद है
दूर कहीं ख़यालों की ज़ुबान में
ख़याल लौटते हैं, छूते हैं झाड़ी को
बहना,
लिली की ख़ुशबू ही है
हमारे वतन की साँस
--
(ऊपर का चित्र - सोनम सिकरवार की कलाकृति)
COMMENTS