डॉ0 अमरनाथ 'अमर' स्वामी विवेकानंद ने कहा था- ''मैं मंदिर में जाकर पूजा करूँगा, मस्जिद में जाकर नमाज पढूँगा और घुटने टेकूँ...
डॉ0 अमरनाथ 'अमर'
स्वामी विवेकानंद ने कहा था- ''मैं मंदिर में जाकर पूजा करूँगा, मस्जिद में जाकर नमाज पढूँगा और घुटने टेकूँगा, गुरूद्वारा में जाकर शीश नवाऊँगा और गिरिजा घर में जाकर अर्चना करूँगा....... और मैं इतना ही नहीं करूँगा, भविष्य में जो नए धर्म आएँगे, उनके स्वागत के लिए भी तैयार रहूँगा।'' इन पंक्तियों में विश्व बंधुत्व, सद्भाव और मानवाधिकार की बात प्रकट होती है।
वस्तुतः भारतीय जीवन, परम्परा, जीवन शैली और संस्कृति में मानवाधिकार का पुट प्राचीन काल से रहा है, स्वामी विवकानंद ने उसी कड़ी को सम्यक दृष्टि प्रदान की। ''तमसो मा ज्योतिर्गमय, बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय, सत्यम-शिवम् सुंदरम के अर्थ भी इसी मानवाधिकार के प्रतीक हैं। दरअसल एक इंसान इंसान की तरह जी सके, उसके मौलिक अधिकार सुरक्षित रहें, आपस में सद्भाव और भाईचारा हो तो हम कहते हैं कि यहाँ मानवाधिकार अक्षुण्ण है। परिवार समाज और राष्ट्र में अपने अधिकारों की लड़ाई भी आरम्भ से होती रही है कई बार मानवाधिकार की रक्षा के लिए और कई बार इसके उल्लंघन के लिए। विश्व युद्धों की त्रासदी ने पूरे विश्व में मानवाधिकार आयोग के गठन की प्रेरणा दी। लेकिन भारत, मानवाधिकार के मामले में विश्व के अन्य देशों से काफी उदार रहा है। सहिष्णुता और सद्भाव इसकी प्रवृत्ति में आरम्भ से रहे हैं।
आज संविधान और कानून हमारे मानवाधिकार के रक्षक हैं, आयोग की आज के संदर्भ में अपनी विशिष्टता और प्रासंगिकता है। लेकिन आजादी से पूर्व भी जब राजतंत्र था और आक्रमणकारी शासन था, उसे छोड़ दे तब भी मानवाधिकार का पक्ष हमारी परम्परा में गहराई से रहा है। पूरे विश्व में पहला लोकतंत्र वैशाली (बिहार) में ही था। प्राचीन भारत का यह ऐतिहासिक पन्ना स्वर्णाक्षरों में अंकित है जहाँ मानवाधिकार का पक्ष बल था।
वस्तुतः भारतीय संस्कृति में मानवाधिकार पूरे अस्तित्व के साथ रहा हैं क्योंकि हमारी परम्परा ही ''वसुधैव कुटुम्बकम्'' की रही है। रामायण काल में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं। श्रीराम ने शबरी के जूठे बेर खाए! (कारण कोई मजबूरी ? नहीं;) के रूप में एक पिछड़ी जाति को दिया गया प्रेम और सम्मान दरअसल राम ने जातपात, छुआछूत का भेद मिटाकर इंसानियत को महत्व दिया। तभी तो वो सरयू नदी पार करने के वक्त 'केवट' को गले लगाते हैं और उन्हें पूरा सम्मान देते हैं।
महाभारत काल में तो सम्पूर्ण गाथा ही मानवाधिकार पर आधारित है। मानवाधिकार की रक्षा ही सम्पूर्ण महाभारत का कारण बना। द्रोपदी का अपमान पूरे नारी समाज और मानवता का अपमान था। कौरवों ने तो राज्य के बदले पाँच गांव तक देने से मना कर दिया था। अधिकारों से किसी को वंचित कर देना भी तो मानवाधिकार का ही हनन है। वहाँ कृष्ण ने उसी मानवाधिकार की रक्षा की। आज भी भारतीय नारी को परिवार, समाज, धर्म, शास्त्र, साहित्य और कर्तव्य में ऊँचा स्थान मिला हुआ है। संविधान और कानून भी उसे पुरूष के समान अधिकार प्रदान करता है। वह पूजनीय है, उसमें काली की शक्ति है, सरस्वती का ज्ञान है, राधा का स्नेह है, सीता का संस्कार है, द्रोपदी का अभिमान है कल्पना चावला और लक्ष्मी बाई का गर्व है। उसके साथ सहित्य कला, संगीत और संस्कृति है, लोगों की नजरों में सम्मान है। लेकिन नारी के इस सम्मान पर जब जब कुठाराघात हुआ हैं मानवाधिकार आयोग उनकी रक्षा में आगे आया है। इसमें दो राय नहीं कि आज आधुनिकता जरूरी है पर वह मर्यादित हो। परिधान में परिवर्तन स्वाभाविक है लेकिन उसमें लज्जा का गुण हो। चाल में तेजी हो लेकिन चलन अनुशसित और संस्कारित हो। व्यवहार में कुशलता हो, ज्ञान में निपुणता हो, जीवन में स्वावलंबन हो, तभी भारतीय नारी की तस्वीर में उज्वलता बनी रह सकेगी। तभी मानवाधिकार भी अक्षुण्ण रह सकेगा।
इतिहास के पृष्ठों को पलट कर देखें तो स्पष्ट होता है कि चाणक्य ने मानवाधिकार की रक्षा के लिए नंदवंश का नाश किया। मानवाधिकार की रक्षा के लिए ही उन्होंने चन्द्रगुप्त को सामान्य से उठाकर अखण्ड भारत का सम्राट बनाया। ऐसी उत्कृष्ट परम्परा तो सिर्फ भारत में ही दिखाई पड़ती है।
तुलसी के रामचरित मानस का समय भारत में अकबर के शासन का काल था अकबर का ''दीन-ए-इलाही'' सभी धर्मों के मान-सम्मान का समन्वित आधार था। और जब सभी धर्म एक दूसरे का सम्मान करते हैं तब मानवता पुष्ट होती है; मानवाधिकार तब स्वतः अपना आधार पा लेता है।
इससे भी पूर्व लगभग साढ़े पांच सौ वर्ष पूर्व कबीर ने अंधविश्वास, धर्मांधता, छुआ-छूत, सामाजिक विद्रूपता और मानसिक पिछड़ेपन पर जम कर प्रहार किया। इसके पीछे भी मानवता और जन कल्याण की ही बात मुखरित होती है। कबीर ने संसार की चिंता की। उन्होने चेतना और जागृति की बात की। मानवाधिकार का उनसे बड़ा पुरोधा और कौन होगा ? कबीर के साथ-साथ रहीम, तुलसी, नानक, मीरा, बुद्ध, महावीर, गांधी सबने इसी मानवता की बात की। सभी धर्मों ने भी प्रेम भाईचारा और विश्वबंधुत्व की बात की है। सिक्खों के दसवें गुरू गोविंद सिंह ने ''गुरूग्रंथ साहब'' को गुरू की पदवी दी। मानवाधिकार का यह वह पक्ष था जहां जाति धर्म वर्ग से ऊपर उठकर समाज के हर तबके के लोगों और गुरूओं की वाणी को उन्होंने इस ग्रंथ में रखा। ग्रंथ को गुरू का मान देना, इंसानी जीवन में रोशनी को निमंत्रण देने जैसा है।
ऐसी परम्पराएं हिंदुस्तान को विश्व में सांस्कृतिक विरासत वाले देश की पदवी प्रदान करता है। हिंदुस्तान में साधु-संतो, फकीरों, बाबाओं ने अपनी संत वाणी से इंसानी जीवन को मुख्य बनाने का प्रयास किया है। अनेकों मंदिरों मस्जिदों और मजारों पर सभी धर्म और वर्ग के लोग अपने कष्ट निवारण हेतु-नतमस्तक होते हैं। यह साझी विरासत मानवाधिकार की रक्षा करने में सहायक सिद्ध होती है। ईद में सेवइयों की मिठास, दीवाली पर दीपों की रोशनी, क्रिसमस में मोमबत्तियों से छनछन कर असंख्य किरणों की छटा, गुरू पर्व में सजीधजी रोशनी इंसानी जीवन में प्रेम, भाईचारा और सद्भाव का पैगाम देकर मानवाधिकार की पुष्टि करती है। ''अतिथि देवो भवः'' की परम्परा भी मानवाधिकार का आधार रही है। निश्चित ही आज भूमंडलीकरण और विश्वग्राम की परिकल्पना के बीच भी हम अन्य देशों की तुलना में कहीं ज्यादा मानवतावादी है। इंसान तो इंसान हमारे देश में तो प्रकृति, नदियों, घाटियों, झरनों, पहाड़ों, झीलों जानवरों और कीट-पतंगों तक की रक्षा की बात पुष्ट होती है प्रारंभ से ही भारतीय जनमानस मानवतावादी रहा है। यही परम्परा मानवाधिकारों की रक्षक है। यही परंपरा भविष्य को भी सुरक्षित और सार्थक बनाएगी, इसमें कोई शक नहीं। रेडियो और टेलीविजन भी मानवाधिकार का प्रबल सहचर हैं इसमें भी कोई दो राय नहीं।
(मानवाधिकार संचयिका, राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग से साभार)
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