डा0 कुमुद शर्मा वि श्व भर में 'लेखक के अंत' की घोषणाओं के साथ-साथ 'मनुष्य के अंत' की घोषणाएं भी हो चुकी हैं। मिशेल फूको की ...
डा0 कुमुद शर्मा
विश्व भर में 'लेखक के अंत' की घोषणाओं के साथ-साथ 'मनुष्य के अंत' की घोषणाएं भी हो चुकी हैं। मिशेल फूको की सोच है कि ' समुद्र के किनारे बनाए गए चेहरे की तरह मनुष्य का निशान मिट जायेगा। लुई आल्थ्युजर भी कह चुके हैं कि 'मानव प्राणी में विश्वास एक घोर ज्ञान-मीमांसीय अनर्थकारी और बुर्जुआ विचारधारा का एक मिथक है।' अपने-अपने बौद्धिक आग्रहों और विमर्शों में इस तरह मानववाद की आलोचनाओं के बावजूद मनुष्य की गरिमा का सवाल, उसकी स्वाधीनता का सवाल उसकी सुरक्षा का सवाल मौजूदा सदी के बड़े सवाल हैं।
आज मनुष्य के चारों और व्यापक हलचल है, शोरगुल है। हाईटेक संचार-माध्यमों की साम्राज्यवादी, वर्चस्ववादी आधुनिकता का प्रचार-प्रसार है। इन सबके बीच मनुष्य का मनुष्य पर से भरोसा उठ गया है। व्यवस्था से भरोसा उठ गया है। राजनीति का तन्त्रिका तंत्र आम आदमी की अस्मिता को कुचल रहा है। संदेह, भय, असुरक्षा, दबाव और तनाव के चलते व्यक्ति भावात्मक स्तर पर ही नहीं शारीरिक रूप से भी असुरक्षित होता चला जा रहा है। व्यापार, राजनीति, अर्थव्यवस्था और वैश्विक मामलों में संघर्ष की स्थितियाँ बन रही हैं।
प्रेमचंद ने कभी कहा था कि 'साहित्य राजनीति के पीछे चलने वाली चीज नहीं हैं, जो उससे आगे चलने वाला एडवांस गार्ड है वह विद्रोह का नाम है जो मनुष्य के हृदय में अन्याय, अनीति और कुरीति से पैदा होता है।' इन पंक्तियों को आगे बढ़ाते हुए कहा जा सकता है कि अन्याय, अनीति, और कुरीति के प्रति विद्रोह का जन्म तभी होता है जब मनुष्य अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो, सचेत हो।
मानव अधिकारों के मूल में नैसार्गिक न्याय (Natural Justice) का दर्शन काम करता है। अरस्तु और सेंट एक्वीनास ने 'प्रकृति को मनुष्य की उच्चतम संभावनाओं' का नाम देते हुए कहा है कि मनुष्य पूर्णता की ओर आकर्षित होता है और उसके अंदर अपने को संपूर्ण रूप से विकसित करने की संभावनाएं होती है; और यदि इन संभावनाओं को कृत्रिम रूप से न रोका जाए तो निश्चित रूप से मनुष्य अपने गंतव्य तक पहुंचेगा।
इस नैसर्गिक न्याय या नैसर्गिक विधान के विरूद्ध कभी हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक संरचनाएँ तो कभी राजनैतिक दुरभिः संधियाँ मनुष्य की उच्चतम संभावनाओं के रास्ते में अवरोध पैदा करके उसकी पूर्णता को बाधित करती हैं। वर्चस्व की मानसिकता, स्वार्थपरता या अन्य कारणों से व्यक्ति के मौलिक अधिकारों, उसके लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन किया जाता है। यहीं से भूमिका बनती है न्याय युद्ध की। मानवाधिकार एक तरह से न्याय युद्ध ही है अन्याय के विरूद्ध न्याय का बिगुल। इसका एजेंडा है बेहतर जीवन स्तर के लिए आवश्यक संसाधनों तक मनुष्य की पहुँच हो, स्वस्थ और गरिमापूर्ण जीवन जीने की स्थितियाँ हो, 'स्व' की पहचान के साथ जीने का ऐसा अधिकार हो जहाँ मानवीय योग्यताओं और मानवीय सामर्थ्य का विकास हो सके।
आज हम जिस Humanistic Sociology मानववादी या मानवतावादी समाज शास्त्र की बात करते हैं वह मानव अधिकारों के निहितार्थ को लेकर ही आगे बढ़ता है।
केन प्लेयर ने मानवीय समाजशास्त्र के चार बिंदु गिनाए हैं :-
(1) मानवीय समाजशास्त्र मानवीय व्यक्तिपरकता तथा रचनात्मकता को पर्याप्त महत्व देता है और यह प्रदर्शित करता है कि व्यक्ति किस प्रकार सामाजिक अवरोधों का सामना करते हैं, सक्रिय रूप से सामजिक विश्वों का निर्माण करते हैं।
(2) यह मूर्त मानवीय अनुभवों जैसे वार्तालाप, भावनाओं, क्रियाओं को सामाजिक तथा विशेषतः आर्थिक संगठनों के माध्यम से अध्ययन करते हैं।
(3) यह उन अनुभवों के साथ स्वाभाविक घनिष्ठ संबंधों को प्रकट करते हैं।
(4) अंत में यह समाजशास्त्रियों के नैतिक और राजनैतिक दायित्वों के प्रति आत्म जागरूकता पैदा करता है ताकि वे एक ऐसी सामाजिक संरचना के निर्माण की ओर अग्रसर हों जिसमें न्यूनतम शोषण, दमन और अन्याय हो।
इस तरह मानववादी समाजशास्त्र इस बात पर विचार-विमर्श की प्रक्रिया चलाने में विश्वास करता है जिससे समाज में परिवर्तन का रास्ता साफ हो सके। जो मानव की गरिमा, उसकी स्वाधीनता और सृजनात्मक क्षमता की रक्षा कर सके।
मानववादी समाज - शास्त्र से साहित्य जुड़ता है। मानववादी समाजशास्त्र से जुड़ा साहित्य मानवाधिकारों के संरक्षण की चेतना जगाता है।
आधुनिक साहित्य के परिदृश्य के मनुष्य की पहचान, गरिमापूर्ण जीवन जीने की आकांक्षा और उसकी मांग बराबर बनी हुई है। नया कवि इसी मांग को मुखरित करत है- 'मैं आदमी बनकर जीना चाहता हूँ/न कि एक क्रम संख्या/और जो कुछ चाहता हूँ कल नहीं/आज पीना चाहता हूँ।'
सामाजिक न्याय या नैसर्गिक न्याय का सूत्र पकड़कर शताब्दियों से पद दलित, शोषित, मजदूर, किसान और स्त्री के दुख दर्द को अभिव्यक्त करनेवाले साहित्य में मानव अधिकारों की चेतना के स्वर दिखाई देते हैं। साहित्यकार की चेतना ऐसे दबावों के प्रति झुकना नहीं चाहती जो मानवाधिकारों का हनन करते हों। जो मनुष्य को उसके मूलभूत अधिकारों और आवश्यकताओं से वंचित करते हों। इसलिए वह आक्रोशात्मक मुद्रा में कहता है- 'हर नंगे आदमी को/ शंकर बना दूँगा/हर अंगुली को त्रिशूल।'
लोकतंत्र की चर्चा हमें गर्व से भर देती है। हर अच्छा साहित्यकार लोकतांत्रिक मूल्यों के हनन के प्रति सचेत होता है। लोकतंत्र को समाज की अखिरी जड़ो तक पहुँचाने वाली सबसे निचली इकाई पंचायत है। इसलिए पंचाचत और गांव समाज हमेशा से ही साहित्य की रचनाधर्मिता का महत्पूर्ण हिस्सा रहे हैं।
पंचायती राज्य संस्थाएं स्थानीय स्तर पर आज भी ग्रामीण क्षेत्र की महत्वपूर्ण इकाइयाँ हैं। ग्राम गणतंत्र, लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण सहभागी लोकतंत्र जैसी सैद्धान्तिक अवधारणाएँ पंचायती राज दर्शन के साथ स्थापित की जाती रही हैं। वर्ष 1992 में हुए 73 वें संविधान संशोधन में एक नए पंचायती राज अधिनियम की शुरूआत हुई। नए पंचायती राज के अनुभवो ने के गांव समाज में कौन-सी और कितनी जागृति पैदा की ? आज हिन्दुस्तानी गांव समाज किस बुनियाद पर खड़ा है ? सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक मसलों और गांव वालों की सोच का दायरा क्या है ? इन सब सवालों ने हमारे साहित्यकारों को बेचैन किया है, उन्हें आंदोलित किया है। इसी उद्वेलन ने उन्हें गांव की पृष्ठभूमि में लाकर साहित्य सृजन के लिए विवश किया। प्रेमचंद, फणीश्वरनाथ रेणु, मार्कण्डेय ऐसे ही रचनाकार हैं।
साहित्य, मानवाधिकार और पंचायत विषय पर सोच-विचार की प्रक्रिया में सबसे पहले कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की चर्चित कहानी 'पंच परमेश्वर' की याद आती है और याद आते हैं उसके दो प्रमुख पात्र जुम्मन शेख और अलगू' चौधरी। यह कहानी दो भिन्न सम्प्रदायों के मित्रों की घनिष्ठ मित्रता की पृष्ठभूमि में रची गयी है।
पंच परमेश्वर कहानी में जुम्मन की खाला एक फरियाद लेकर पंचों के समक्ष प्रस्तुत होकर रहती है :- 'मुझे न पेट की रोटी मिलती है, न तन का कपड़ा, बेबस बेवा हूँ। कचहरी दरबार नहीं कर सकती। तुम्हारे सिवा और किसको अपना दुख सुनाऊँ ? तुम लोग जो राह निकाल दो उसी पर चलू।' खाला की ये पंक्तियाँ सामाजिक ढाँचे में न्याय स्थल के रूप में पंचाचत की परिकल्पना को परिभाषित करती हैं। न्याय के लिए, अपने अधिकार के लिए, सम्मानपूर्वक जीवन जीने के लिए खाला पंचायत बिठाती है। और इस कहानी में यहीं पर मानवाधिकारों की नींव बनती है। पंच की कुर्सी पर विराजमान जुम्मन के घनिष्ठ मित्र अलगू चौधरी मित्रता को ताख पर रखकर न्याय के पक्षधर की भूमिका में जुम्मन के खिलाफ फैसला सुनाते हैं। क्योंकि 'पंच का न कोई मित्र होता है और न कोई दुश्मन।' जुम्मन की पंचायत के लगभग एक महीने बाद ही एक विवाद में अलगू चौधरी को पंचायत बुलाती पड़ती है। सरपंच के पद पर जुम्मन विराजमान हैं। अलगू भयभीत है। मगर पंच के स्थान पर बैठते ही जुम्मन का दायित्व बोध जगता है- 'मैं इस वक्त न्याय और धर्म के सर्वोच्च आसन पर बैठा हूँ। उन्होंने बैर भाव भुलाकर फैसला अलगू के पक्ष में किया क्योंकि 'पंच की जुबान में खुदा बोलता है।' प्रेमचंद की अन्य रचनाओं में हल्कू, घीसू, माधव, होरी, धनिया, सिलिया जैसे पात्रों के चरित्रांकन में मानवाधिकारों की मूल चेतना ही काम कर रही है। फणीश्वरनाथ रेणु के कथा साहित्य में बिहार के ग्रामांचल की प्रामाणिक तस्वीरों में पंचायत के क्रियाकलापों की वास्तविकताएँ उजागर हुई है। इन तस्वीरों में ऐसे पात्रों की कमी नहीं है जो मानवाधिकारों की चेतना से ऊर्जावान हैं।
प्रेमचंद की 'पंच परमेश्वर' कहानी के बाद इसी शीर्षक से रांगेय राघव की कहानी प्रकाशित हुई। प्रेमचंद की कहानी पंचायत प्रणाली की निष्पक्ष न्याय प्रणाली की कहानी हैं, तो रांगेय राघव की 'पंच परमेश्वर' पंचायत प्रणाली की विसंगतियों को चित्रित करती है। यह कहानी इस बात का संकेत है कि पंच भी भ्रष्ट और निकृष्ट वासनाओं में लिप्त हो सकते हैं। जो ठर्रे की बोतल के बदले अपना ईमान बेच सकते हैं। इस कहानी की प्रस्तुत पंक्तियाँ पंचायत प्रणाली में आयी भ्रष्टता का उत्कृष्ट नमूना है- चौधरी पंच ने कन्हाई के घर में प्रवेश किया। कन्हाई ने इधर-उधर की बातें की फिर उठाकर भीतर से एक चीज लाया। चौधरी ने देखा। हंसकर कहा- अरे इसका क्या होगा ?
किंतु कन्हाई ने कहा-तो बात ही क्या है दादा ? कौन पराए हो। और खोल दी ठर्रे की बोतल। अब तो चौधरी ने कुल्हड़ मुँह से लगाते हुए कहा दादा लड़ाई है जे। कौन मंहगा नही हो गया ? मैं नहीं हुआ ? कि तुम नहीं हुए ? अब तो मौत का इतना खरचा है जितना जिंदगी का।
दोनों ही पर हल्का नशा चढ़ चुका था और अब खोपड़ी में घोड़े की सी टाप लगने ही वाली थी। ठर्रे की महक में कन्हाई ने कहा- दादा तुम्हारा ही भरोसा है, चौधरी ने झूमते हुए कहा- अरे काहे की फिकर है तुझे ?
बीसवीं शताब्दी के अंतिम और इक्कीसवीं सदी के शुरूआती दौरे की हिंदी कहानी की परिदृश्य में ऐसी अनेक कहानियाँ हैं जो पंचायत के साथ-साथ नए पंचायती राज की दशा और दिशा के ऐसे यथार्थ को चित्रित करती हैं जो एक किस्म की मानवीयता की मांग पैदा करता है। पंचायती राज के सिद्धांत, विचार, दर्शन, संविधान तथा राज्य सरकारों द्वारा बनाए नए कानूनों और नियमों के बीच गहरी विसंगति है। आदर्श समझी जाने वाली ग्राम पंचायतों में जन-सहभागिता का स्तर न्यून है। आज ये पंचायते एक व्यक्ति या ग्राम प्रधान का अंग बनकर रह गयी हैं।
ग्राम पंचायतों की स्थिति एक सरकारी विभाग जैसी हो गयी है। महिला आरक्षण और अनुसूचित जाति एवं जनजाति के प्रतिनिधि के आरक्षण संबंधी मसले गांव में बेचैनी पैदा कर रहे हैं। गांव पंचायतें भ्रष्टाचार का केंद्र बन गयी हैं। आज गांव समाज में जातीय स्तर पर, वर्गीय स्तर पर, संबंधों के स्तर पर, सामाजिक संरचना के स्तर पर, जो जटिलताएं हैं हिंदी के रचनाकार अपने कथा-साहित्य के पटल पर उन सब का साक्षात्कार करा रहे हैं।
लिंग, जाति, वर्ग आदि के संदर्भ में मनुष्य की गरिमा और संघर्ष को लेकर पंचायत के इर्द-गिर्द रचनाकारों ने कथा का ताना-बाना बुना है। इनमें रमणिका गुप्ता की 'दाग दिया सच; भवानी सिंह की 'एक एक कदम; विद्यासागर नौटियाल की 'फट जा पंचधार, सुभाष चंद्र कुशवाहा की 'हाकिम सराय का आखिरी आदमी', कमर मेवाड़ी की फैसला तथा रजत रानी 'मीनू' की 'फरमान' कहानी की जिक्र किया जा सकता है। विद्यासागर नौटियाल की कहानी 'पंचधार' भी पंचायत प्रणाली की विवेकपूर्ण प्रक्रिया पर प्रश्न चिन्ह लगाती है। यह कहानी दलित स्त्री के संदर्भ में मानवाधिकारों की मांग करती है। इस कहानी में कोल्टा स्त्री रक्खी की जिंदगी की मार्मिक दास्तान है। पंचायत के फरमान पर घर-गांव से बाहर कर दी गयी रक्खी जीवन के अखिरी दिनों में अपना हलफनामा भारत सरकार के एक हाकिम के पास भेजती है- मेरे पास वस्त्र के नाम पर सिर्फ ये चीथड़े है; जो मेरे तन पर हैं ये फट गए हैं और फटते जा रहे हैं। रहने के लिए ये खुली गुफा है। हजारों वर्षों से हमारी पीढ़ी की दो बालिश्त जमीन की तलाश जारी है............ खाने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है, कुछ भी नहीं।' यह दलित स्त्री कामना करती हैं पंचधार फट जाए।
आज दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पंचायतों द्वारा भिन्न प्रांतीय तथा अन्तजातीय प्रेम युगलों की हत्याएं मानव अधिकारों के हनन की दर्दनाक कहानियों का परिणाम हैं। इन हत्याओं ने मीडिया के साथ-साथ हिंदी के रचनाकारों को भी आहत और आंदोलित किया है। रमणिका गुप्ता की 'दवा दिया सच' ऐसी ही प्रेम कहानी है। जिसमें गांव पंचायत द्वारा प्रेमी युगल पर हिंसा के ताण्डव का मार्मिक चित्रण हैं। प्रेमी युगल की सामाजिक वर्जनाओं के चलते बलि चढ़ा दी गयी। महावीर-मालती के प्रेम प्रसंग की खबर जब गांव में उड़ी तो मालती के पिता की चेतावनी गूंजी 'मालती का घर से निकलना बंद कर दो। फिर दोनों को साथ देखा तो जिंदा गाड़ देंगे जमीन में।' दोनों के संदर्भ में पंचायत बुलाई गयी। फैसला परम्परा के ठेकेदारों ने किया जलती हुई लुकाटी ली, मालती की साड़ी खींच नंगा कर उसकी जांघों में दाग दिया, दाग दी मालती को कोख, औरत का सच।
गांव समाज के वंचित वर्ग में महिलाएं भी शामिल हैं। महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए राजनीतिक सत्ता में उनकी भागीदारी के लिए आरक्षण के माध्यम से रास्ता बनाया गया। संसद द्वारा वर्ष 1992 में पारित संविधान का 73 वाँ और 74 वाँ बिल भारतीय महिलाओं के लिए क्रांतिकारी घटना थी। इस नए पंचायती राज अधिनियम में बुनियादी स्तर पर देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं को सुदृढ़ आधार सौंपते हुए महिलाओं को मुख्यधारा में लाने का महत्वपूर्ण काम किया। लेकिन पति, परिवार, सवर्ण, दबंग और संपन्न लोगों के वर्चस्व के चलते पंचायत के निर्णय में महिलाओं की भागीदारी न के बराबर ही रही। कई राज्यों में महिला सरपंच की जगह पुरूष होने के नाते सचिव स्वयं को अधिक महत्वपूर्ण समझता है। वह महिला सरपंच को भ्रम में डालकर गलत काम करवा लेता। उल्टे-सीधे काम की जांच पर फसती है महिला सरपंच। मध्य प्रदेश के बैतूल जिले के एक गांव की सरपंच ने प्रशासनिक भ्रष्टाचार तथा प्रशासन में असहयोगपूर्ण रवैये के कारण आत्मदाह कर लिया। इसी परिप्रेक्ष्य में भवानी सिंह की कहानी 'एक-एक कदम' सरपंच महिलाओं में अधिकारों के संरक्षण की कहानी है।
दलित महिला बसंती के सशक्तिकरण की यह कहानी इस बात की गवाही दे रही है कि किस तरह दलित महिलाएं विपरीत परिस्थितियों से टकराते हुए जूझते हुए पितृसत्ता और जाति आधारित संरचनात्मक ढांचे की वर्चस्ववादी मानसिकता के खिलाफ लड़ रही हैं।
साम्प्रदायिक राजनैतिक कारणों से गांव समाज में आ रहे बिखराव को सुभाष चंद्र कुशवाहा की कहानी 'हाकिम सराय का आखिरी आदमी' व्यंजित करती है। भारतीय गांव समाज के अंतर्विरोधों और विसंगतियों के चलते मानवीयता के खत्म हो जाने की पीड़ा इस कहानी में देखी जा सकती है।
वर्षों से गांव वालों को न्याय की दुहाई देती आ रही पंचायतें किस तरह अमानवीय और गैरकानूनी निर्णय देकर मानवाधिकारों का हनन कर रही हैं इसका उदाहरण ही रजत रानी 'मीनू' की कहानी 'फरमान'। चौधरी की भैंस खो जाने पर चरवाहे कर्मवीर को पंचायत द्वारा 'सजा-ए-मौत का फरमान' पंचायत की निरंकुशता की कहानी दर्ज वाला करता है।
इस तरह हिंदी के रचनाकार गांव समाज को अपनी कथात्मक परिधि में समेटकर गांव समाज की पंचायतों में मानवीय सरोकारों, संवेदनशीलता और निष्पक्ष न्याय की लौ को बचाए रखना चाहते हैं। वह गांव समाज की अन्तर्धारा में लिंग, जाति, वर्ग, सम्प्रदाय से संबंधित जहरीले कीटाणुओं को खत्म करके मानव अधिकारों के संरक्षण की भूमिका में बदलाव की तत्परता लाना चाहते हैं।
साहित्य निरंतर जटिल होती जा रही संरचना में खोये हुए मनुष्यत्व की तथा मनुष्यता की पुनर्रचना के लिए प्रयत्नशील दिखाई देता है। जहाँ मानवीयता की खोज का प्रयत्न भी है और मानवतावाद की अवरोधक शक्तियों से जूझने का हौसला और संकल्प भी। साहित्य के सार्थक हस्तक्षेप वहीं है जहाँ व्यक्ति और व्यवस्था तंत्र की अमानवीयता के बीच टकराहत की आवाजें साफ सुनाई देती हैं, जहाँ मानव विशिष्टता को नया आयाम देने की छटपटाहट है। मानवाधिकारों के संरक्षण की चेष्टा ही साहित्य को सार्थक बनाती है।
(मानवाधिकार संचयिका, राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग से साभार)
बहुत बढ़िया लेख। एक अच्छी दृष्टि और भरपूर संदर्भों के माध्यम से ज्ञान को समृद्ध करने वाला लेख।
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