योग कोई धर्म नहीं-‘साधना’ है

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21 जून अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर विशेष.. . रूबी गरचा ० भारतीय पृष्ठभूमि अनादिकाल से योग की धरती रही है रोग-प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि क...

21 जून अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर विशेष...

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रूबी गरचा


० भारतीय पृष्ठभूमि अनादिकाल से योग की धरती रही है
रोग-प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि कर शरीर को स्वस्थ एवं सात्विक विचारों की प्रेरणा प्रदान करने में योग की मुद्राओं ने अपना महत्व सिद्ध किया है। पूरी दुनिया के साथ धार्मिक और सांस्कृतिक सहिष्णुता वाले हिन्दुस्तान में भी विकृतियों ने बीमारियों को आमंत्रण देना शुरू कर दिया है। जैसे-जैसे लोगों ने अपनी संस्कृति का विलोप करना शुरू किया वैसे-वैसे शारीरिक व्याधियों ने भी बढ़-चढ़कर अपना आक्रमण हमारे मन मस्तिष्क पर कर दिखाया है। भारतवर्ष ने वैदिककाल से ही योग के महत्व को परख लिया था। हिन्दु संस्कृति में प्रातः ईश्वर की पूजा र्आर उसकी प्रकिकया भी योग के आसनों से जुड़ी रही है। रीढ़ की हड्डी को सीधे मुद्रा में रखते हुए पद्मासन की स्थिति में माला जपना और ईश वंदना योग का ही रूप है। देव चरणों में लेटकर शाष्टांग प्रणाम करना भी पूरे शरीर को लंबवत कर आराम पहुंचाने की मुद्रा ही माना जाता रहा है। प्राणायाम से लेकर मयूरासन और पद्मासन की योग मुद्राओं ने चिकित्सा जगत को भी इसे स्वीकार करने विवश कर दिया है


प्राण शक्ति और एकाग्रता का समावेश ही योग है
वास्तव में योग समर्पण है, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को तिलांजलि देना भी योग ही है। योग जीवन की सीढ़ी है, यह ऊपर उठने का उत्तम और सरल मार्ग है। हम पूजा-पाठ की खास पद्धति को योग से जोड़कर देखते है, किंतु वास्तव में वह एक व्यायाम है, शरीर को स्वस्थ रखने का तरीका है। उन्हें हम शारीरिक इंन्द्रियों के व्यायाम से जोड़कर देख सकते है, किंतु कदापि उन्हें योग की क्रिया नहीं माना जा सकता है। कारण यह कि उन मुद्राओं से हमारी आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। आत्मा पर प्रभाव डालने के लिए जरूरी है कि हमारे मन का सोचने का तरीका बदल जाए। हम मांगने की प्रवृत्ति का त्याग कर देने वाली वृत्ति का अपने जीवन में संचरण करें। प्राणशक्ति और मानसिक एकाग्रता का संयुक्त समावेश योग का रूप धारण करती है। शरीर व मन की शक्तियों की वासना और तृष्णा में उलझने न देना ही वास्तविक योग है। योग शास्त्र में साधकों को नियम पालन द्वारा शारीरिक व मानसिक संयम अपनाने की बात कही गई है। योग व तप की मानसिक शारीरिक साधना से शक्ति का उद्मव होता है, किंतु यदि यह शक्ति अर्जन काल में सुरक्षित न की गई तो बारूद के ढेर की तरह जलकर नष्ट हो जाती है। साधनाकाल में सात्विक आहार-विहार, ब्रम्हचर्य, मौन, एकांत, सेवन, परिमार्जित दिनचर्या, मनन-चिंतन का ही विशेष महत्व है, जो केवल और केवल योग के प्रति समर्पण से ही संभव है।


श्वांस से बदल सकती है मन की दशा
हमारे मन की बिगड़ी मनोदशा केवल हमारे लिए ही हानिकारक नहीं होती वरन् उससे सामाजिक विकृति भी फैलने लगती है। इसे हम खतरे की बड़ी घण्टी मान सकते है। इस दशा से गुजर रहा युवक यह नहीं समझ पाता है कि उससे बाहर कैसे निकला जाए? कारण यह कि उक्त विकृति की दशा में एकाग्रता का नाश हो जाता है, मन अशांत व बेचैन रहता है। ऐसी दशा में हमें योग हीर छुटकारा दिला सकता है। हमारे शरीर का सबसे गहरा संबंध हमारी श्वांस से होता है। यदि हम योग क्रिया से अपनी श्वांस को बदलने की कला सीख लें तो मन की दशा पर आसानी से विजय प्राप्त की जा सकती है। योग कहता है कि ऐसी स्थिति में गहरी सांसे छोड़नी चाहिए। तत्पश्चात निःश्वास रहकर फिर गहरी सांसे लें। इस प्रक्रिया को थोड़ी देर तक करते रहने से हमारी मनोदशा में आशातित सुधार दिखाई पड़ने लगता है। कहने का तात्पर्य यह कि बिगड़ी मनोदशा वाले व्यक्ति को स्वयं स्वाध्याय से नाता जोड़ लेना चाहिए।


सत्यानंद आश्रम निःस्वार्थ सेवा का संकल्प निभा रहा
राजनांदगांव नगर से रायपुर मार्ग पर जीई रोड के किनारे लगभग 6 एकड़ के परिसर में स्थापित एवं संचालित सत्यानंद योगाश्रम की स्थापना स्वयं स्वामी सत्यानंद सरस्वती जी के कर कमलों से सन् 1970 में की गई थी। इस आश्रम में स्वामी योगेश्वरानंद सरस्वती जी ने प्रथम योग आचार्य के रूप में अपनी सेवाएं दी। उनके बाद स्वामी विद्यानंद सरस्वती, स्वामी संयम सरस्वती आदि ने भी अपनी योग शक्ति का प्रचूर मात्रा में जरूरतमंदों को रसास्वादन कराया। 45 वर्ष पुराने इस योग विद्यालय में वर्तमान में स्वामी स्वयंभूनाथ सरस्वती आचार्य के रूप में योग की बारीकियों से सुबह-शाम लोगों को लाभान्वित कर रहे है। श्री सत्यानंद योग आश्रम में आज भी लगभग 50 लोग सुबह शाम योग का अभ्यास कर रहे है। स्वामी स्वयंभूनाथ ने मुंगेर में रहकर योग विद्या ग्रहण की और अब कई वर्षों से इसी आश्रम रहते हुए उन्होंने अनेक व्याधियों से पीड़ितों को मुक्त कराया है। स्वामी जी रोज सुबह शाम गंभीर रोग से बीमार लोगों के लिए दोपहर बाद अपना प्रशिक्षण शुरू कर मानवीय सेवा के अग्रदूत बन रहे है। यहां यह विशेष उल्लेखनीय है कि योग को अपनी आजीविका बनाने वाले लोगों से दूर तथा प्रचार-प्रसार से अपना नाता न रखने वाले स्वामी स्वयंभूनाथ ने केवल मानव सेवा को लक्ष्य कर अपना मिशन शुरू कर रखा है। उनसे योग की शिक्षा ग्रहण करने वालों का मानना है कि वे वास्तव में योग के पारंगत गुरू है, साथ ही समर्पण भाव ही उनकी संपत्ति है।


योग में स्वामी शिवानंद जी का वैश्विक योगदान है प्राणवायु
आज हम विश्व भर में जिस योग के रूप को देख पा रहे है वह वास्तव में स्वामी शिवानंद जी की देन माना जा सकता है। शिवानंद जी ऋषिकेश में रहा करते थे और योग के प्रति लोगों में जनजागृति लाना ही उनका उद्देश्य था। स्वामी शिवानंद जी ने योग को योगियों, सन्यासियों एवं उनके परिवार से निकलकर जन सामान्य तक पहुंचाया। उन्होंने लोगों से कहा कि योग महज सन्यासियों एवं उनकी पीढ़ियों के लिए ही नहीं वरन् मानवीय समाज के लिए जन्मा है। उन्होंने आम लोगों को इस विद्या का लाभ बताते हुए जब प्रशिक्षित करना शुरू किया तो योग के अन्य जानकारों और स्वामियों ने उनकी कटु आलोचना तक करने से खुद को नहीं रोका, किंतु स्वामी शिवानंद जी ने अपना मिशन जारी रखा और आज वही मिशन मानव सेवा का संकल्प सूत्र बनकर सामने आ रहा है। स्वामी शिवानंद वास्तव में योगी नहीं थे। वे एक एमबीबीएस डाक्टर थे। उन्होंने अपने चिकित्सकीय पेशे में इस तथ्य का पता लगाया कि वास्तव में योग क्या है और यह कैसे कार्य करता है। जब उन्हें योग का वास्तविक महत्व चिकित्सा जगत से जुड़ा हुआ महसूस हुआ तब उन्होंने इसे आध्यात्म से जोड़कर अध्ययन किया और फिर योग के विश्व गुरू बनकर पूरे संसार में इस विद्या का प्रचार-प्रसार शुरू कर दिया। स्वामी शिवानंद जी के अपनी चिकित्सा सेवा का शुभारंभ मलेशिया से किया था। गृहस्थ जीवन में व्यस्त लोगों को योग की शिक्षा देने पर उनकी आलोचना का असर उन पर तनिक भी नहीं हुआ।


45 वर्षों से प्रज्जवलित है योग की अखंड ज्योत
राजनांदगांव के सत्यानंद योगाश्रम अपने स्थापना के समय से ही अपने संकल्प को मजबूती देना शुरू कर दिया था। स्वामी सत्यानंद जी इस प्रज्जवलित की गई योग की अखंड ज्योत लगातार आश्रम में अपने स्वामियों के संकल्प को मजबूती देती आ रही है। योग साधना शिविर के रूप में उपयोग में आ रहे एक सभाग में उक्त ज्योत के दर्शन मात्र से मन मंदिर में यसोग की ज्वाला अपनी दैदिव्यमान रोशनी का संचार करने लगती है। मन की शांति की प्रतीक उक्त अखँड ज्योत के विषय में सभी योग शिष्यों ने यही उद्गार व्यक्त किये कि इस ज्वाला में कहीं न कहीं स्वामी सत्यानंद जी के योग के प्रति समर्पण की ताकत विद्यमान है। इन्हीं सारे कारणों का फल है कि वर्तमान में आचार्य के रूप में स्वामी स्वयंभूनाथ सरस्वती की अगुवाई में प्रत्येक एकादशी, पूर्णिमा एवं शनिवार के दिन संध्या काल में हवन आदि का आयोजन किया जाता है। स्वामी स्यंभूनाथ का मानना है कि योग कोई चिकित्सा पद्धति नहीं है, किंतु रोगों को दूर करने में कारगर सहयोग संभव हो पाता है। उन्होेंने यह भी कहा कि योग की क्रियाएं विशेष रूप से सर्एनक्ष और माईग्रेन में पीड़ितों कोकाफी लाभ पहुंचाता है। आगामी 21 जून को वैश्विक योग दिवस के अवसर पर सुबह एवं शाम दो चरणों में अलग अलग योग विद्याओं का प्रदर्शन कर उसके लाभ से लोगों को अवगत कराया जाएगा। स्वामी स्वयंभू नाथ जी ने बताया कि 22 जून को सुबह सूर्य नमस्कार, ताड़ासन, तीर्थक ताड़ासन, करि, क्रासन, पवन मुक्तासन भाग एक, नाड़ी शोधन प्राणायाम एवं भ्रामती प्राणायाम का विशेष प्रशिक्षण होगा। इसी तरह संध्याकाल में त्राटक एवं ध्यान का अभ्यास कराया जाएगा।

                                        रूबी गरचा
                                    सचिव-सत्यानंद योग विद्यालय
                                    जीई रोड, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)

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रचनाकार: योग कोई धर्म नहीं-‘साधना’ है
योग कोई धर्म नहीं-‘साधना’ है
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