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संदर्भः- विश्व स्वास्थ्य संगठन की पहल
प्रमोद भार्गव
भारत की गुलामी और उससे मुक्ति के बाद शायद यह पहला अवसर है,जब पश्चिमी जगत के ज्ञान की खिड़की पूरब के ज्ञान से खुलने जा रही है। वह भी ज्ञान के ऐसे क्षेत्र में जिसे केवल और केवल अंग्रेजी में ही संभव माना जाता रहा है। जी हां,चिकित्सा क्षेत्र की अंतरराष्ट्रीय मानक संस्था 'विश्व स्वास्थ्य संगठन' अब स्वास्थ्य को लाभ पहुंचाने वाले लोक कल्याणकारी कार्यक्रमों से लेकर चिकित्सा शिक्षा में भी योग के पाठ शामिल करने जा रहा है। इसी दौरान भारत की राष्ट्रीय शैक्षण्कि अनुसंधान परिषद् और केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा मंडल ने शालेय शिक्षा में योग को अनिवार्य पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाकर प्रशंसनीय शुरूआत कर दी है।
एक समय था,जब भारत अथवा पूर्वी देशों से जो भी ज्ञान यूरोपीय या पश्चिमी देशों में पहुंचता था,तो इन देशों की ईसाइयत पर संकट के बादल मंडराने लगते थे। लेकिन योग की स्फूर्ति और स्वास्थ्य से जुड़ी महिमा ने इस जड़ता को तोड़ दिया है। यही वजह रही कि 47 मुस्लिम देशों समेत एशिया और यूरोप के 177 देशों ने संयुक्त राष्ट्र के आह्वान पर योग दिवस के अवसर 21 जून को धर्म,जाति और संप्रदाय से ऊपर उठकर संपूर्ण मनोयोग से योगाभ्यास किया। इतना व्यापक प्रायोगिक समर्थन मिलने के बावजूद कथित वामपंथी योग को 'कुत्ते की अंगड़ाई' से जोड़कर भारत के इस राष्ट्रीय गौरव की खिल्ली उड़ाई है।
डब्लूएचओ वैज्ञानिक प्रमाण के साथ योग के अद्वितीय,विराट व यथार्थ ज्ञान को वैश्विक स्वास्थ्य देखभाल कार्यक्रमों में शामिल कर रहा है। इस मकसद पूर्ति के लिए उसने भारत सहित विश्व भर में अपने सहयोगी केंद्रों के साथ मिलकर काम भी शुरू कर दिया है। संयुक्त राष्ट्र संघ में डब्लूएचओ दफ्तर की कार्यकारी निदेशक नाता मेनाब्दे ने कहा है कि 'स्वास्थ्य समस्याओं की रोकथाम और उन्हें काबू में लेने के दृष्टिकोण से योग को समग्र रूप में लेने की जरूरत है।' उन्होंने आगे कहा कि 'इस प्राचीन वैदिक शिक्षा के उपहार का अध्ययन कर इसे वैज्ञानिक प्रमाणों के साथ चिकित्सा पाठ्यक्रम में जोड़ा जाएगा। इसके पहले इसकी विधाओं और पद्धतियों का भारतीय योग एवं चिकित्सा विशेषज्ञों के साथ बैठकर मानकीकरण किया जाएगा'। हालांकि उन्होंने यह भी कहा है कि 'योगाभ्यास का चिकित्सा शिक्षा की कसौटी पर मानकीकरण करना एक चुनौती भरा काम है,लेकिन इसे पूरा कर किया जाएगा।' दरअसल योग को चिकित्सा शिक्षा से जोड़ना इसलिए जरूरी हो गया है,क्योंकि बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन के चलते स्वास्थ्य संबंधी जो चुनौतियां सामने आ रही हैं,उनसे निपटने का मानव-जाति के समक्ष एक ही उपाय है,योग।
चिकित्सा शिक्षा में योग को शामिल करने की पहल इसलिए अनूठी है,क्योंकि बीसवीं शताब्दी में आधुनिक चिकित्सा विज्ञान मसलन एलोपैथी ने शरीर की देखभाल व उसके उपचार के ज्ञान का एकदम नया शास्त्र,विज्ञान सम्मत तकनीकी परख के शास्त्र के साथ रच दिया। इसमें मानव-शरीर के प्रत्येक अंग-प्रत्यंगों की समग्र जानकारी देने के साथ शल्य-क्रिया की भी अद्भुत पद्धति शामिल थी। इस पद्धति द्वारा किए इलाज से तत्काल लाभ मिलता था और कई महामारियों पर पूर्व किए उपचार के चलते इन महामारियों पर नियंत्रण की दृष्टि से एलोपैथी की अहम् भूमिका रही है। इसी चिकित्सा की देन है कि मानव जाति की न केवल औसत आयु में वृद्धि हुई,बल्कि दुनिया की आबादी भी बढ़ती चली गई। नतीजतन आबादी पर नियंत्रण के लिए भी परिवार नियोजन के उपायों को अपनाना पड़ा। एलोपैथी का विस्तार इसलिए भी हुआ,क्योंकि जिन ब्रिटेन और अमेरिका जैसे यूरोपीय देशों में इस चिकित्सा तकनीक का आविष्कार हुआ था,उनके साम्राज्य का विस्तार दुनिया के ज्यादातर देशों में था। इस नाते ब्रिटेन को तो यह तमगा भी हासिल था कि इस देश का तो कभी सूरज ही अस्त नहीं होता। साम्राज्यवादी शक्तियां अपने राज्य विस्तार के साथ-साथ न केवल पराजित देश की शासन व्यवस्था का मान-मर्दन करती हैं,बल्कि संस्कृति और शिक्षा को नष्ट-भ्रष्ट करने के साथ-साथ उस देश के ज्ञान के समस्त स्रोतों पर भी अतिक्रमण करने का काम भी करती हैं। इन विपरीत हालातों में ज्ञान के विनाश का बड़े स्तर पर किसी देश को नुकसान उठाना पड़ा है तो वह भारत है। क्योंकि भारत की जो ज्ञान परंपरा संस्कृत साहित्य के अध्ययन व अध्यापन से आश्रित थी,उस संस्कृत और संस्कृत ग्रंथों को चालाक मैकाले ने धर्म और कर्मकांड से जोड़कर उनके अध्ययन पर ही विराम लगा दिया था।
अब इस तिरष्कृत कर दिए ज्ञान की खिड़की खुलना इसलिए महत्पूर्ण है,क्योंकि वे देश भी इसी ज्ञान की रोशनी से योग दिवस के अवसर पर रोशन हुए हैं,जिन्होंने इस ज्ञान को नकारने व नष्ट करने में भारत की परतंत्रता के दौरान तानाशाही बर्ताव किया था। लेकिन अब दुनिया के चिकित्सा विज्ञान विशेषज्ञों द्वारा इस प्राचीन भारतीय विद्या और इसके प्रयोग के महत्व को स्वीकार करना,इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने कितनी गहरी और स्वंय के द्वारा प्रयोग कर की जाने वाली स्थाई महत्व की चिकित्सा प्रणाली विकसित कर ली थी। इस पद्धति की विलक्षणता यह भी है कि इसके इस्तेमाल में न तो दवा-दारू की जरूरत पड़ती है और न ही चिकित्सक अथवा जांच संबंधी तकनीकी यंत्रों की ? हमारे दूरदर्शी मनीषियों ने मानव शरीर एवं श्वास की क्रिया-प्रक्रिया का अध्ययन किया। उसे कब,कैसे,कहां और कितना नियंत्रित किया जाए तो तन और मन को कितना लाभ होगा,यह सुनिश्चित किया। साफ है,सांस और उसकी गति के बीच तालमेल के दीर्घकालिक अभ्यास से ऋषियों की जो अंतदृष्टि विकसित हुई,उसने अनेक योग-सूत्रों की रचना की। इन सूत्रों का संकलन 'पतंजलि योग सूत्र' में संकलित हैं,जो अब चिकित्सा विज्ञान के पाठ बनेंगे।
बाबा रामदेव द्वारा योग को आम-फहम किए जाने के बाद चिकित्साशास्त्री मानने लगे हैं कि औद्योगिक विकास और जलवायु परिवर्तन की देन तनाव से संबद्ध बीमारियों से छुटकारा योगासन,ध्यान और प्राणायाम से मिल सकता है। क्योंकि योग ही मस्तिष्क और शरीर,विचार और कार्य तथा संयम और पालन के बीच एकता स्थापित कर सकता है। विद्यार्थियों के लिए योग इसलिए लाभदायी है,क्योंकि यह मन और चित्त की चंचलता को स्थिर करता है। यही स्थिरता पाठ या ज्ञान को लंबे समय तक स्मृति में बनाए रखने का काम करती है। लिहाजा तनाव से मुक्ति और स्मृति में वृद्धि के लिए योग बेहद अहम् है। तनावजन्य बीमारियों में मधुमेह,रक्तचाप,अवसाद,घबराहट,थकान,हृदय धमनी प्रणाली और शरीर की प्रतिरोधात्मक क्षमता को प्रभावित करने वाली बीमारियां शामिल हैं। पीठ,गर्दन,पेट से लेकर अस्थि रोगों को भी योग लाभ पहुंचाता है। इन बीमारियों पर योग से उपचार के अध्ययन चिकित्सा विज्ञानियों द्वारा प्रमाणित किए जा चुके हैं। रोग-मापक यंत्रों की कसौटी पर योग के परीक्षण खरे उतरे हैं। यही वजह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ और विश्व स्वास्थ्य संगठन के संयुक्त प्रयासों से अब योग चिकित्साशास्त़्र के पाठ्यक्रम में शामिल होने जा रहा है।
प्रमोद भार्गव
लेखक/पत्रकार
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लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है।
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