- डॉ. दीपक आचार्य इस परंपरागत थीम को अब बदलने की जरूरत है कि पुरस्कार, सम्मान और अभिनंदनों से औरों को प्रेरणा प्राप्त होती है तथा जिन्ह...
- डॉ. दीपक आचार्य
इस परंपरागत थीम को अब बदलने की जरूरत है कि पुरस्कार, सम्मान और अभिनंदनों से औरों को प्रेरणा प्राप्त होती है तथा जिन्हें पुरस्कृत किया जाता है वे दूगुने जोश से काम करते हैं।
हाल के वर्षों में लोक जीवन जिस विचित्र मानसिकता के दौर से गुजर रहा है उसमें अब इन पारितोषिकों और सम्मानों का कोई खास असर सामने नहीं आ पा रहा है बल्कि हो यह रहा है कि जिन्हें ये पुरस्कार, सम्मान और अभिनंदन मिल जाया करते हैं या मिलते ही रहते हैं उनकी दौड़ सिर्फ सम्मान और पुरस्कार पाने तक की सीमित होकर रह जाती है, फिर वे भविष्य में और अधिक निखार लाने या समाज और देश के लिए अपनी सेवामें में बहुगुणित वृद्धि करने जैसे कोई काम नहीं करते।
कुछ सेवाव्रती लोग अपवाद हो सकते हैं लेकिन प्रायःतर देखा यही गया है कि लोगों का लक्ष्य सेवा, परोपकार और देश के लिए कुछ करने की बजाय पुरस्कार और सम्मान पा लेने तक ही सीमित रह गया है।
बहुत सारे लोग ऎसे देखने सुनने को मिल ही जाएंगे जिनके बारे में यह पता चलता है कि सम्मान और पारितोषिक पाकर पहले जितना भी काम नहीं करते बल्कि और अधिक शिथिल हो गए हैं जैसे कि जीवन का लक्ष्य ही पूरा हो गया हो।
दूसरी ओर जिस तरह पुरस्कारों, सम्मानों, अभिनंदनों में व्यक्तिवाद, व्यक्तिपूजा, भाई-भतीजावाद, पक्षपात और मूल्यांकन दृष्टि के अभाव का दौर बढ़ता जा रहा है, पुरस्कार और सम्मान मांग कर लिए जाने की प्रथा है, हमें अपनी ओर से नाम चलाना पड़ता है, दस्तावेज पेश करने होते हैं जैसे कि कहीं से कोई पेंशन या छात्रवृत्ति पाने की तमन्ना हो, और फिर सच वही माना जाएगा जो पेश किया गया है, हकीकत चाहे कुछ भी क्यों न हो।
पहले किसी श्रेष्ठीजन को पुरस्कार और सम्मान मिलता था तो लोग उसकी तहे दिल से तारीफ भी करते, सामाजिक व क्षेत्रीय स्तर पर प्रफुल्लित भाव से गौरव महसूस करते हुए अपनी ओर से सम्मान करते और पुरस्कारदाताओं को अपनी ओर से धन्यवाद भी अदा करते थे।
अब पुरस्कारदाताओं का कोई आभार नहीं मानता, बल्कि पुरस्कार और सम्मान पाने वालों को बधाई भी दी जाती है तो सिर्फ इसलिए कि कहीं बुरा न मान जाए। अंदर से तो कैसे भाव उफनते हैें, कहना ठीक नहीं होगा।
कई मौके तो ऎसे आते हैं जब पुरस्कार पाने वाला भी अपने पर गौरव नहीं कर सकता बल्कि उसके भीतर ही भीतर आत्मग्लानि के भावों का अंकुरण होता रहता है जो उसके दोहरे चरित्र को ही परिपुष्ट करता रहता है।
हाँ इतना जरूर है कि अब पुरस्कृत और सम्मानित लोग पूरी तरह आत्ममुग्धावस्था में जीते हुए अपने आपको लोकमान्य मान लेने का भ्रम जरूर पाल लिया करते हैं। यदि पुरस्कृतों और सम्मानितों के जीवन में पुरस्कार के बाद आए सकारात्मक बदलाव को देखा जाए तब भी शून्य ही सामने आएगा और दूसरी तरफ सम्मानितों और पुरस्कार प्राप्त लोगों की वजह से दूसरे लोगों और समाज में प्रेरणा संचार की बात की जाए तब भी बाबाजी का ठल्लू ही दिखाई देगा।
इन हालातों में पुरस्कारों और सम्मानों से सामाजिक और वैयक्तिक बदलाव आने तथा प्रेरणा संवहन की पुरानी सारी बातें इस युग के अनुकूल नहीं रही। आजकल बिरलों और उन लोगों को छोड़ दिया जाए जिनका चयन समाज या शीर्षस्थ विशेषज्ञ करते हैं, तो दूसरे सारे लोगों का लक्ष्य समाज को कुछ देना, अपने कर्मयोग को आदर्श स्वरूप प्रदान करना और देश के लिए जीने-मरने और कुछ करने से कहीं अधिक लक्ष्य हो गया है पुरस्कारों और सम्मानों को पाना तथा जिन्दगी भर एक के बाद एक पुरस्कार या सम्मान पाने की जुगत में निरन्तर भिड़े रहना।
खूब सारे लोग ऎसे मिल जाएंगे जो पूरी जिन्दगी किसी न किसी पुरस्कार और सम्मान को पाने के लिए पाक-नापाक समझौते करते रहते हैं, जाने कैसे-कैसे सूत्र तलाश कर समीकरण बिठाते हैं और जोरों की छलांग लगा कर आगे आ ही जाते हैं।
इन लोगों के लिए सम्मान और पुरस्कार पाना ही जिन्दगी है और सिर्फ इसी एकमेव लक्ष्य को लेकर वे अपने आपको दुनिया में आया हुआ मानते हैं। इनमें भी खूब सारे ऎसे हैं जो पुरस्कार और सम्मान पा लेने के बाद कौड़ी के काम के नहीं रहते, बल्कि बाद में इनकी छवि धूमिल हो जाती है।
इसके साथ ही सामाजिक विषमताओं और विद्रोह का एक बहुत बड़ा कारण यह भी महसूस किया जाता है कि अपात्रों को पुरस्कृत और सम्मानित करने के बाद उन्हीं के नक्शेकदम पर चलने को कहा जाता है।
जो लोग पुरस्कृत और सम्मानित हो चुके लोगों के श्वेत-श्याम व्यक्तित्व, कारनामों और हरकतों आदि तमाम पक्षों के जानकार हैं, वे इनसे किसी भी प्रकार की प्रेरणा कैसे प्राप्त कर सकते हैं और इनसे प्रेरणा पाने का क्या तुक है, यह वर्तमान युग का सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न बनकर हम सभी के सामने है और साफ-साफ जवाब भी मांग रहा है।
हर क्षेत्र में गुणवत्ता लाने, सुधारने और समाज तथा देश के लिए व्यक्ति-व्यक्ति को उपयोगी बनाने के लिए हम सभी को गंभीरता से यह सोचना होगा कि किसी को पुरस्कार और सम्मान से कुछ भी बदलाव नहीं होने वाला। कुछ लोगों पर ही ध्यान केन्दि्रत क्यों रखें, सभी को श्रेष्ठ कर्मयोग की मुख्य धारा में लाने के प्रयास क्यों न किए जाएं।
हमारे परिवार में एक बच्चा अच्छा काम करे और दूसरे दो-चार बच्चे बिगड़ैल निकल जाएं तब अच्छे बच्चे को बार-बार पुरस्कार और सम्मान देकर उसे प्रोत्साहित करते रहने से बिगडैल बच्चों में कोई सुधार आने की उम्मीद मूर्खता होगी। इसके लिए तो बिगड़ैल बच्चों को समझाईश भी करनी पड़ेगी और न मानें तो कठोर से कठोर दण्ड देना भी जरूरी है तभी परिवार की साख बनी रह सकती है।
आज समाज सुधार, व्यवस्थाओं में बदलाव और देश की तरक्की में सबसे बड़े बाधक तत्व वे लोग हैं जो निकम्मे, शिथिल, बेईमान, चोर-उचक्के, डकैत, भ्रष्ट और नालायक हैं तथा जिन्होंने अपने दायरों से कहीं आगे बढ़कर व्यवस्थाओं को अनधिकृत रूप से अपने हाथ में ले रखा है। और हर तरह से मजे कर रहे हैं वो अलग। कोई पूछने वाला नहीं है इन्हें।
इन बिगड़ैल, स्वेच्छाचारी और पूरी उन्मुक्तता से हर प्रकार की व्यवस्थाओं को बिगाड़ रहे लोगों के साथ सख्ती से पेश आने और उन्हें हर प्रकार से दण्डित कर सुधारने या बाहर करने की जरूरत है। मछली द्वारा सारे तालाब को गंदा करने की बातें भी इस युग में बेमानी हो चली हैं, अब तो हर तालाब में गंदी मछलियों, माछलों, गैण्डों, मगरों, अजगरों और दरियाई घोड़ों का बाहुल्य है जो तालाब की अस्मिता को ही नष्ट-भ्रष्ट करने पर तुले हुए हैं।
हमारा देश इन्हीं दुर्भाग्यशालियों और बिगड़ैलों के कारण पिछड़ा हुआ है। समय आ गया है जब हमें नालायकों और व्यवस्थाओं में विष वमन करने वाले आवारा किस्म के लोगों को ठिकाने लगाने का काम सर्वोच्च प्राथमिकता से करना होगा, तभी सामाजिक और राष्ट्रीय बदलाव की उम्मीद की जा सकती है। भारतमाता को प्रसन्न करने और मातृभूमि का ऋण चुकाने की इससे बढ़िया और कोई साधना या भक्ति नहीं है।
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- डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
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