वीणा सिन्हा की कविताएँ वीणा सिन्हा की इन कविताओं से गुज़रें तो प्रतीत होता है कि वीणा आज की नारी की पीड़ा, उसके दुःख-दर्द-दैन्य और प्रेम-व...
वीणा सिन्हा की कविताएँ
वीणा सिन्हा की इन कविताओं से गुज़रें तो प्रतीत होता है कि वीणा आज की नारी की पीड़ा, उसके दुःख-दर्द-दैन्य और प्रेम-वात्सल्य को इतनी गहरी द्वन्द्वात्मकता के साथ प्रस्तुत करती हैं कि आज के बहाने स्त्री का ऐतिहासिक क्रम-रूप प्रस्तुत हो जाता है, युगों से चली आ रही समाज व्यवस्था में स्त्री की पीड़ा प्रकट हो जाती है। आज जन्म से पूर्व भ्रूण रूप में या जन्म के बाद बालिकाओं के साथ जो बर्ताव है- वीणा ने गहरे अवसाद के साथ, एक चिकित्सक के मानवीय सरोकार के चलते उसकी अभिव्यक्ति की है जिसमें क्रूर स्थितियों के दबाव में असहाय आम आदमी की लाचारगी प्रकट होती है। कविताएँ सीधी सरल हैं- यही इनका शिल्प भी है जिसमें किसी अतिरिक्त शिल्प की निर्मिति का सर्वथा लोप है। आज जिस तरह स्त्री लेखन के नाम पर जो इकहरा जीवन प्रस्तुत किया जा रहा है-वीणा सिन्हा की कविताएँ उनके बरक्स स्त्री की निगाह से लिखी रचनाओं का साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं जिनमें न किसी छद्म वैचारिकता का आग्रह है और न किसी ठस वाद का आतंक। है तो सिर्फ़ सीधा सच्चा जीवन जिसमें विचार की यात्रा प्रारंभ होती है।
वीणा सिन्हा चिकित्सक हैं। जय प्रकाश शासकीय अस्पताल, भोपाल में सीएमओ के पद पर पदस्थ हैं। कविताओं के साथ वीणा ने कहानियाँ और कई उपन्यास लिखे हैं जिनकी भारी प्रशंसा भी हुई है। आप कई पुरस्कारों से भी सम्मानित हैं। आपने अंग्रेज़ी में भी उपन्यास लिखे हैं जो शीघ्रप्रकाश्य हैं।
आग से निकलकर माँ तैरेगी नदी की तलहटी में
1.
आग जला देती है सबकुछ
पवित्र वस्त्र नीली त्वचा
गलते माँस के रेशे
पीला पड़ता रक्त प्रवाह
अस्थियाँ चुपचाप टूटती हैं
माँ तैरती थी तिलक वाड़ी के कुएँ में
फिर बहती रही जीवन दायिनी नदी की तरह
हमेशा सोचती रही दूसरों की भूख और प्यास के बारे में।
कोई हिलाता है रुका हुआ पालना
गालों को थपथपाती हथेलियाँ
पोंछती हैं आसुओं की लक़ीरें।
बीच फाग में गिर गया है पानी
कहीं गिरे हैं ओले भी
आग से निकलकर माँ तैरेगी
नदी की तलहटी में
देखेगी शायद नर्मदा में दीपोत्सव।
भले ही जला देती है आग सबकुछ
फिर भी बचे रहते हैं माँ के सपने
2.
आग की लपटों के बीच
हिलता है तुम्हारा चेहरा
उसे छूना मुमकिन नहीं है
धुएँ के बिस्तर पर किस तरह
लेटी रही चुपचाप
जबकि बग़ैर नींद के बीत गये थे बीसियों बरस
पल भर को डूब जाती है धरती अंधेरे में।
आकाश में दूर तक नाचते हैं अग्निकण
एक साथ चीखते हैं कौए
बच्चा करवट बदलता है बुरे सपने के बाद
अम्बा झरी में चुपचाप सिसकते हैं पीपल के पत्ते।
शाखों से टपकता है अमलतास
कोई मीठा कि़स्सा दूध रोटी जैसा
नरम नरम घी-भात-सा
बादलों के बीच फैलती हैं उसकी बाँहें।
जल गया है सब
बची कुछ गर्म राख़ और अस्थियों के भुरभुरे टुकड़े
धुँधली नहीं होतीं यादें बीतते वक़्त के साथ
क्योंकि मेरी बेटी मेरी उंगली थाम लेती है माँ।
3.
किसी नेक बख्त चेहरे पर
फबती होंगी तुम्हारी आँखें
ज़िन्दगी का सफ़र बदस्तूर जारी है
कोलार नदी में डुबकी लगाती है
आग खाने वाली चिड़िया।
गुड़हल के फूल शोखतरीन हैं
तुम अब भी देखती होगी
बहार का मौसम कलियों से लदी बेल,
हरे होते हुए पत्तों के गुच्छे
जल भरे बादल और नीला आकाश
नंगे सिर चलता हुआ हुजूम है
जहाँ से हट गया है नदी का पानी
वहाँ मछलियाँ छटपटा रही हैं।
कच्चा रेशम बार बार टूटता है
ज़मीन के भीतर गए हुए लोग
नदी के भीतर छोड़ने लगते हैं
पाँवों के निशान
4.
वह भूरी आँखों वाली औरत
ज़िन्दगी की क़ैद से देखती थी
उस पार फैला अंतरिक्ष
मानों एक हाथ की दूरी पर हो सातवाँ नक्षत्र
पाँवों से छूटती नहीं काली मिट्टी
लाल हंडिया से उठता है धुआँ कंडे का
और पानी की जगह गिरती है आग
आसान नहीं है किसी को
पुराने कपड़े उतार नया कमख़्वाब पहनते देखना
गंधक के पीले फूलों पर ओस नहीं ठहरती
काग़ज़ से मढ़ी हुई लालटेन घूमती है हवा में
छोटी नदियाँ मुड़ती हैं बड़ी नदियों में
कहीं तो होगा चश्म-ए-खिज्र
नवें आसमान के अलावा
उसके पास था महीन सूत
डालती थी कपड़े की बुनाई में बाना
पेड़ों के ऊपरी हिस्से में
गुँथी हुई आकाश बेल लगातार झूलती है
पहाड़ों से टकराती हैं हवाएँ
जंगलों में राह भूल जाती है रोशनी
एक साथ रोते हैं गलियों में यतीम बच्चे
फड़फड़ाती है पिंजरे में क़ैद चिड़िया
ज़िन्दगी तक आना और
फिर लौट-लौट जाना
मन्नतों और मुरादों की गांठें बांधना
किसे पता है।
जादू के मकान में रखी
उस तख्ती के बारे में
जिस पर ज़िन्दगी के तिलिस्म
का तोड़ लिखा है।
5.
किसी का नौ दरवाज़ों वाली कोठरी से बाहर निकलना
दरअसल हद से गुज़रना है
जो घटना है आँखों के सामने
उसे उसी तरह समझ लेना मुश्किल है
उससे सरल है किसी से सुनी बात
ज्यों की त्यों दोहरा देना।
फरिश्ते आसमानों के हुकुम सुनाते हैं
ऐलान करते हैं आरामगाहों का
हवा में टंगा हुआ है सलीब
उठे हुए हैं हाथ कि हर दुआ कबूल हो जाए
ख़ून का सिलसिला टूटता नहीं है
हमारे बाद हमारे बच्चे हैं
आदमी के भीतर बहता है झरना
इसीलिए कुछ रिश्तों में पेंच नहीं होते हैं।
एक हांडी रात भर पकती है
पवित्र ग्रंथ का पाठ ख़त्म नहीं होता एक रात में
आग ही आग है
जलते हैं लकड़ी के दोनों सिरे।
कोई घुमाता है उसे चक्र की तरह
ये तो रीमिया है
कीड़े को पाँवों से डोरे की तरह
खींच कर निकालते-निकालते
तैरने लगे कोई खारे पानी की नदी में
मरने के ठीक पहले नीला पड़ता जाए चेहरा
अचानक बरसने लगे बादल
पलभर में सारे दर्द मिट जाएँ
कहीं देखा था सौ पाँखुरियों वाला
प्रदीप्त सुनहरा फूल
अचानक गुम हो गया है।
6.
दरबार चौक और थामेल के बीच
ठहरा हुआ वक़्त उसके हाथों में
हिरण्यवर्ण महाविहार में नहीं खिला कोई फूल
जिस आँख में पानी न हो
उसे नहीं दिखती बागमती
न ही दिखता है आर्यघाट
आठ चेहरेवाले शिवलिंग पर
उड़ेलता है कोई चुल्लू भर पानी
बच्चे के गले में पड़ी मन्नतों वाली हँसली टूटती है
पाँवों के नीचे बह जाती है
पिघली हुई आग
आसमान के चक्कर काटती चील
नीचे उतरती है तेज़ी से
बहुत शोर है पहाड़ की तराई में
देखते रहे हैं उम्र भर चाँद
एक चाँद यह भी सूखी घास पर
सिर पटकता हुआ।
कोई बता गया कि मलकूत में
रहा करते हैं फरिश्ते
पर बिना कुछ देखे कैसे
पहुँचा जा सकता है बात की तह तक।
अब उस वक़्त को आज़ाद कर दो
जो तुम्हारी मुठ्ठी में क़ैद था माँ!
7.
वक़्ते मौत तक उम्मीदें
कि कुछ रिश्ते बचे रहेंगे
रात को पीठ देते ही
आसमानों से उतरती दिखती है धूप
पहाड़ों के रास्ते
यक़ीनन कोई निगहबान है
जिसने भर दी है कुछ
आँखों में ऐसी मलाहत कि
देखने वालों के दिल में लहरा उठे
मोहब्बत का दरिया
जिसे चाहे वह बख्श देता है
आसमान और ज़मीन के
ख़जानों की कुंजियाँ
सात आसमानों के बीच
टांग देता है सूरज का चिराग़
धूप में इस कदर चमकती है रेत
कि प्यासा उसे पानी समझकर
भागता चला जाता है।
यह तो नसीहत ही है
सारे जहान के लिए
कि जब भी देखो
चौथे आसमान में चाँद
तभी कह दो कि
सिवा मोहब्बत के कोई दीन कुबूल नहीं है।
आसमान में उड़ता है अजदहा
1.
कई बार नज़रों के सामने होते हुए भी
नज़र नहीं आती जन्नत
फिर भी यह कहा जा सकता है
कि गुज़र गया है कोई हवाओं से
और खोल गया है जुबां की गिरह
सुबह से घुटनों के बल खड़े लोग
शायद सुनते भी होंगे हवाओं में
उड़ता नाम और देखते होंगे
रोशन लक़ीरें
जो कुछ हमारे दर्मियान है
उसे जानने के लिये चाहिए
निहायत पाक और साफ़ रोशनी
पर यहाँ न तो आवाज़ है न रोशनी
जलाई जाती है अजीम आग
जिसकी तपिश में जल जाते हैं
हवा में परवाज करते परिंदे
कतार बांध कर जा रहे हैं लोग
उनके हाथ बंधे हैं गर्दनों से
आतिशी लिबास पहने हुए है एक शख्स
कोई चीख कर कहता है कि
फना होने वाली है यहाँ की हर चीज़
आग भूनेगी इस कदर
कि ओठ सिकुड़ कर सिर तक चला जाये
कुछ भी कहो मुर्दे सुनाए नहीं सुनते।
आसमान में उड़ता है अजदहा
यारब अजीब हाल है
सजदे में झुके हुए हैं सर
करते हैं फरियाद
वे नहीं सुनना चाहते
अब तक सुनी आवाज़ों में
सबसे खौफनाक आवाज़
जो आख़िरी साँस के साथ
आदमी के सीने से निकलती है।
2.
ज़न्नती ज़न्नत में दाखिल होंगे
हस्बे मर्जी परिन्द खायेंगे
देखेंगे हूरों की गर्दनों में सजे
याकूती हारों का नूर
और थामेंगे उनके मोती जैसे चेहरे
जिन्हें न तो टटोला था हवा ने
न ही छुआ था धूप ने
बेशक लदे होंगे मीठे फलों से
फुनगियों तक दरख़्त।
भला कौन बतायेगा इस तरह
कि जो भी उगता है ज़मीन से वह
ज्यों का त्यों लौट जाता है
ज़मीन में
कुछ उन लोगों के बयान जो
गुज़रे हैं हमसे पहले
जिनमें कायम है कायनात
और उन पर असर भी नहीं होता
गुज़रते वक़्त का
गुनाहों को धो देने वाली किताबें उतरती हैं।
जिस तरह पानी धो डालता है मैल
वैसे ही वे धोती हैं गुनाह
क्या यह सच है मेरे मौला
कि गुनहगार गुनाह करते जायें
और खुलते जायें
ज़न्नत के दरवाज़े उनके लिए भी।
बेटियाँ सोखती हैं माँओं के आँसू
सड़कों पर भागती मौत
दरवाज़े पर दस्तक देती है
खोलता है कोई आकाश के झरोखे
पृथ्वी के छोर से सुनाई देती नहीं
लगातार रोने की ध्वनि
यह सच है पत्थर तराश कर
बनाये गये हैं बुत
पर वे अचानक झपकाते हैं आँखें
जब अपनी बेटियों के जन्मने पर
हम गाने लगते हैं विलाप गीत
परमेश्वर के पहाड़ पर
पलीश्तियों की चौकी
उतरता है नबियों का दल
डफ, सितार और बांसुरी लिए
हर चौराहे पर बनी हैं वेदियाँ
गूंजती हैं मंत्र ध्वनियाँ।
किससे पूछा जाए यहाँ कि
कौन उठा सकता है पृथ्वी के इस पार से कोहरा
बंधे हुए हैं हाथ
और पाँवों में खनकती हैं बेड़ियाँ
दिया जला कर खाट के नीचे रखा है
जिसकी कोख से चलती है दुनिया
भला कैसे निर्वंश कहलायेगा
उसका पिता
नामिब का रेतीला फैलाव
मिलता है समुद्र की ठंडी धार से
जिस जगह
वहाँ उछलती है हज़ारों सील मछलियाँ
मानों पीना चाहती हों रेत का ताप
जैसे बेटियाँ
सोखती हैं माँओं के आँसू
और कुनबों का श्राप
सबसे छोटी चूड़ियाँ
बिना लपट का काला धुंआ
बड़ा गहरा है
किससे पूछें कि बीजों की ख़ातिर
किसने बनाये बिछौने
बेटियों का होना इस कदर
नागवार है लोगों को
कि ढूँढना पड़ती हैं बेटियाँ
धुंआ ही नहीं सन्नाटा भी है
आवाज़ नहीं है पायल की
बरसों से नहीं बिक रही हैं
सबसे छोटी चूड़ियाँ
लगता है कभी भी जलने लगेंगे
धरती, जंगल, दरिया
और पहाड़
फैलती जायेगी बिना धुँए वाली
अजीम आग
कब्रों से बाहर आयेंगे लोग
कौन सी नियामत झुठला दी जाएँ
शायद फट पड़े आसमान और
झरने लगें गुलाब के फूलों-सी बेटियों
कोई घसीटता है बेटियों को
पीठ के पीछे से लाकर
मिला देता है पाँव पेशानी से
हम मर जायें और हड्डियाँ
मिट्टी हो जायें
इससे पूरा नहीं होता फर्ज
पूछ लें आसमानों से
कि किस तरह घर में जन्मी हैं बेटियाँ
और कह दें हवाओं से कि
पहुँचा आयें हमारी दुआएँ उन तक
जुल्म और तारीकी से भरी हुई है दुनिया
धुआँ बाहर नहीं निकलता
और भीतर नहीं आती रोशनी
हमारी हदों में क्या हम सुन पायेंगे
उनकी खनकती हँसी?
जिस वक़्त उजाले नहीं होते हामिला
बेटियों के चेहरे थे
उतरे थे फरिश्ते आसमान से
कोई लड़की हो सकती है अल्लाह की अता
पर हर बेटी नहीं होती हजरत मरियम
जिसे ज़माने भर की औरतों में से चुन लेता है रब
और जो बढ़ती है एक दिन में साल भर की उम्र जितना
नसीब होते हैं उसे बेफसल मेवे
और नहीं पिलाया जाता उन्हें
औरत का दूध
जिसमें बाईं ओर उगता चाँद
और दाहिनी ओर होता है सूरज
वैसे तो हर लड़की अपने ज़माने
की औरतों में होती है
किसी न किसी लम्हे में
सबसे अज्मल और अफजल
फिर भी उनके हामिला होने पर
न कोई करता है सज्दे
न बन्दगी
न कोई गढ़ता है मिट्टी का परिंद
न ही फूँकता है जान कि वे
उड़ जाये आसमान में
अजीबतर परिन्द है चमगादड़
वह हँसती है
दाँत रखती है
अण्डे नहीं बच्चे जनती है
और उन्हें पिलाती भी है
अपनी छातियों से दूध
किसी अँधेरे में
भले ही कोई जानता जाये दिलों की बातें
पर फरिश्ते बुलाये नहीं आते
जिस वक़्त उजाले नहीं होते हामिला बेटियों के चेहरे थे।
ज़िन्दगी में डूबना चाहती थीं बेटियाँ
देखिए वे लड़कियाँ अभी ताज़ा हैं
हिरनी सी उमंग है उनमें
और निखरी हैं चांदनी सी
वे एच आई वी निगेटिव हैं।
उनके अपने फिसलते है ढलान पर
उन्हें मिलेंगे एक हज़ार डालर
समंदर में भर जाएगी रेत
उजाड़ हो जायेंगे गाँव के खेत
कुछ दिन तो चल जाएंगी लड़कियाँ ब्राथेल
खूब नाचेंगी
समेटेंगी दोनों हाथों से बख्शीश
शैतान बिल्ली बैठी है रोशनदान में।
लड़कियाँ देखेंगी रंगीनियाँ
उनका मतलब समझने के पहले
वक़्त उड़ा पाए उनकी यादों में
नदी का संगीत और )तुओं की महक
इसके पहले ही उनकी जाँघों पर
बहने लगता है जलता हुआ
दही जैसा स्राव
लड़कियों का नाम कुछ भी रहा हो
तेज़ बुखार में एक बार लेट जाए
तो फेक दी जाती हैं लत्ते सी
फिर नहीं चूमता कोई तपते ओठों को
वे जानती हैं अब पिघलेगा
साँचे में ढला उनका मोम जैसा तन
ज़िन्दगी में डूबना चाहती थीं बेटियाँ
वे कहते हैं डिस्पोजेबल पीपुल्स
कोई छाँह नहीं उनके जख्मों के लिए
तुम्हारे साथ थिरकेंगे ख़ून से
लथपथ बारह सौ क़दम
बेटी, सजाना है तुमको
तरुण टहलियानी के
जड़ाऊ डिजाइनर लहंगे से
तो ख़त्म करना होगा
छः सौ बेटियों को
जो जानती नहीं पूरी तरह
हमारी दुनिया के बारे में
बस चुपचाप हिलती डुलती हैं
माँ की कोख में
तेरा लहंगा ख़ूबसूरत होगा
हीरे मोतियों और सूर्यकांत मणियों से सजा
तुम नाचो,
तुम्हारे साथ थिरकेंगे
ख़ून से लथपथ बारह सौ क़दम
तुम गाओ
तुम्हारे स्वर में घुलेंगे छः सौ सुर
बस तुम रोना मत
तुम्हारे साथ रोने लगेंगी
छः सौ बेटियाँ।
डूब जायेगी धरती और
हमारी दुनिया आँसुओं के दरिया में।
हमारी तिजोरियों में ख़ून के
कलदार दरवाज़े खुले रहेंगे
दाइयों के पास क्यों जाते हैं आप
वे आपकी बेटियों को नमक चटाएंगी
मुँह में रूई ठूस देंगी
कहो रख दें बच्ची के
सीने पर खाट का पाँव
डुबो दें दूध में
क्या भरोसा दबा दें मुँह
और आपको दिखने लगें ऐंठते पाँव
आप हैं
शैम्बल्स आपके लिए नहीं
सदन के कसाईबाड़ों को ना कहिए
डॉ. टेम्बल ग्रांडिन ख़्याल रखती हैं
पशुओं के मृत्यु पूर्व स्ट्रेस का
उनकी मनःस्थिति का
और बना भी दिए हैं
लम्बे घुमावदार रास्ते
जिन पर जानवर पीछे खड़े
साथियों को आख़िरी दम तक देख सकते हैं।
कैटल होल्डिंग पेन्स में
उजली आँखों वाले
पशुशावक
उनका मिमियाना माँएँ सुनती नहीं हैं
न वे जानती हैं कि अब कटने वाला है उनके बच्चों का सिर
बाज़ारों में डिब्बा बंद गोश
बोतल बंद ख़ून
और झोलियों में सिक्के
हमारे दरवाज़ों पर क़तारें
पेट में छुपी लड़कियों को
ढूँढ़ती हैं भूखी नज़रों से
माँएँ, दादियाँ और नानियाँ
जब तक कोख में बेटियाँ हैं
और बेटियों से नफरत है माँओं को
हमारी तिजोरियों में ख़ून के कलदार
और दरवाज़े खुले रहेंगे
आपकी ख़ातिर
आसमानों में बेटियों का ठिकाना
आदमी बनायेगा कुतुब मीनार
खेलेगा मल्लखंम
भांजेगा अखाड़ों में नये पैतरे
काम चला लेगा सोडोमी से
आगे एक अंधा कुआं
असह्य दुर्गंध से भरा
वहाँ वीर्य की बूंदों से
नहीं गढ़े जायेंगे भविष्य
न ही बनायेगा कोई
ताजमहल
बग़ैर बेटियों के दुनिया में
स्वांग भरेंगे लड़के और पूछेंगे
आसमानों से बेटियों का ठिकाना
क्या हैं निशानियाँ बेटियों की
न खिलखिलाहटें न लोरियाँ
न ही वृंदावन में जुगल किशोर की
राह तकती हैं गोपियाँ
भूल गये हैं उबटन की गंध
चूल्हों में जलती है आग
आग पर जलतीं रोटियाँ
और रोटियों का धुआँ
क्या है निशानियाँ बेटियों की
जगह जगह से चटखी रातें
धूल भरी आंधियाँ
जिन के साये में सोते थे चैन से
वे साये नहीं हैं
ओस में उठायें यमुना जल तो
ख़ून से सन जाते हैं हाथ
बिना बाती के दियों से कब तक
उतारी जाये आरती
जो जा चुकी हमारी दुनिया से
उन्हें कौन लायेगा वापस
कौन सा पैगाम पढ़ते ही
सुनते ही लौट आयें बेटियाँ।
शायद लौट आए माँ प्रसव गंध में सनी हुई
लौट कर नहीं आती साँस
पिता देखते हैं उस दिशा में
जहाँ से बिछुड़ी थी माँ
खो गई थी दो जन्मों के बीच कैसे
अंतराल में
माँ के साथ ही है धरती आग हवा और पानी
परिवार के बीच संधियों को
सफ़ाई से जोड़ती उसकी और
लम्बी फेहरिस्त है उसके दिए शब्दों की
और उनका कोई विकल्प भी नहीं है
वर्तमान से अतीत में जाना और
बार बार वापस लौटना
माँ के शरीर पर घाव है
जिनकी गहराई उसकी आँखों में
पढ़ी जा सकती है
झाँकती हैं कहीं-कहीं हड्डियाँ
जिन पर लिपटी है दर्द की पूरी इबारत
अंतिम बार हिला था माँ का आँचल
जिसने हमेशा टोका था
धूल भरी गर्म आंधियों को
माँ के सीने में अब नहीं धड़कता
ख़ून फेकने वाला पम्प
नासापुटों में भरी है
उसके दूधों की मोहिनी महक
और कानों में गूँजती है उसकी आवाज़
संगीत की तरह
शायद लौट आये माँ
प्रसव गंध में सनी हुई
नई काया के साथ
वापस धरती पर
या कौन जाने वहीं बस जाए
फरिश्तों के साथ
रोशनी फैलाते हुए
दुनिया से ग़ायब होकर कहाँ मिलोगी बेटियों!
हमारी पकड़ से बचती रहना
हमारी पकड़ में पाप है।
तुम छटपटाओ
दम तोड़ दो
बच जाओ तो
हम पहना सकते हैं
तुम्हारे नन्हें पाँवों में
लोहे के जूते
सूखे ओठों पर
जीभ फेरती
देखती हो।
माँ के दूध की धार
दुखांत कथा की नायिकाओ
पी क्यों नहीं जातीं
समुन्द्र का जल
सोती होगी
तुम्हारे गर्भ में
अनागत सभ्यताएँ
कैसे लपटों में जलता है देशकाल
हमने ज्वालामुखियों के मुहानों
में सिर डाल दिए हैं
इस दुनिया से ग़ायब
होकर फिर कहाँ मिलोगी
बेटियो?
हम काम नहीं आए अपनी बेटियों के
सपनों का क्या मतलब है
सोनागाछी में
सड़कें गीली हैं
रात में उनका रंग दिखता भी नहीं
हवाएँ उभारती हैं नया बादल
चर्चगेट के आसमान में
मुर्दा शहर की छतों पर
बादलों का सुबकना
सख़्त अजाब है
हमने सुना तो था
पर माना नहीं
जब आग में पकने लगीं खालें
रास्ता भी नहीं?
यह कैसा फ़ज्ल है
सोने के कंगन और मोतियों से सजे
हमारे जिस्मों पर रेशमी कमख़्वाब हैं
और हम काम नहीं आये
अपनी बेटियों के
यहाँ कोई मादा अब बच्चे नहीं देगी
बेशक बनाए जाएँगे जोड़े
यह आसान है
कोई पानी मीठा हो या खारा
पर उनसे निकाली जाती है
बढ़िया मछलियाँ
दरिया से होते हुए मछलियाँ
चली जाती हैं समंदर में
तिजारत में आठ सौ परसेंट मुनाफा
मछलियाँ पानी में ही उछलती हैं
ऊपर वाले मेहरबान तो
दिन घटते जाते हैं लगातार
और रात सरेशाम गहरी हो आती है
झड़ने से बचे जो पत्ते
कब तक टिके रहेंगे डालों पर
उन्हें आँखें कैसे कहें
मिदान तहरिर में बहुत शोर है
कौन रोया तूतनखामन
कहना मुश्किल है
उतार दिए जायें सोने के जूते
मुकुट और सोने का मुखौटा
क्या तब भी हाथ रखेगी रानी
फराओं के कंधे पर
किसे पता होता है कि जिस जगह
खड़े हैं आप वहां
इतिहास रचा जा रहा है
इतिहास में शामिल होने का
मतलब है
खौफनाक मौसम को करीब से देखना
तूफानों की आवाज़ सुनना सहरा के साथ-साथ
हवाओं का मिज़ाज बदलते देखना
हवाएँ भला किसका हुक्म मानती हैं
दिल करे तो उकेर लाती हैं
समदंर की तलहटी से जवाहर
अल्मा अता के सब्ज ख़्वाब
फरिश्ते बेकार नहीं उतरते धरती पर
औरतों को सौंपे जाते हैं
उनके गर्भाशय
जिन पर ताले लगे हैं
चाबियाँ या तो मिलेंगी
धरती की तहों में
या कि दरख़्तों की फुनगियों पर
नील के पानी में आग बसती है
बाँस की टोकरियों में बहते हैं बच्चे
औरतें चेहरों से नकाब नहीं उठातीं
उन्हें आँखें कैसे कहें
जिनसे दिखता नहीं है।
अंधेरा उलीचतीं बेटियाँ
बात उनकी है
जिनका सफर अँधेरों से शुरू होता है
ये लगातार जागती हैं
दिन में जगाता है सूरज
सपनों की खोजवन्ती लेकर
वे लगातार तैरती हैं नींद की नदी में
सपनों का प्रकाश फूटता है
उनकी देह से
और गूंजती हैं सैकड़ों घंटियाँ
पीले और लाल फूलों से ढँकी
शाखों पर
खिलखिलता है बसंत
जो कभी बीतता नहीं है
उनकी फैली पुतलियों पर
प्रार्थनाएँ हैं प्रखर धूप की
हरी फुनगी की
और वे लगातार उलीचती हैं
अंधेरे हमारी दुनिया से
उनकी आँखों से गिरती हैं
लाख-लाख धाराएँ
मानों धो डालेंगी अंधेरे
और उजियार देंगी हर दहलीज
माँ की शगुन दृष्टि
1.
ठहरो, अभी माँ उसे चूम रही है
बेटी की मुँदी पलकों पर
अटकी है माँ की शगुन दृष्टि
छलकती है दूध की नदी
घुलने लगती है चाँदनी
हवाएँ पूछती हैं मौसम का मिज़ाज
ज़िन्दगी का काफिला
रोशनी के बुर्ज तक
नहीं पहुँचता बग़ैर दुआओं के।
2.
मेरी बेटी
तेरी ख़ातिर रची है दुनिया
जहाँ आसमान में
बादलों के संग इन्द्रधनुष नाचते हैं
धरती की कोख में छुपे हैं अनगिनत रंग
सूखे बीजों में भी
गुनगुनाती है फूलों की गंध
चाहो तो परिंदों से पूछ लो
इस धरती के हर रिश्ते पर
तुम्हारा हक़ है बिटिया।
3.
देखो मेरी बेटी का चेहरा
किसी पवित्र ग्रंथ से भी पवित्र
उसके क़दमों से धरती की बरकत
हवायें गुनगुनाएंगी अब
पंछियों के गुमशुदा गीत
और पूछेंगी सबसे
बेटी वाले घरों का पता।
4.
बेटियों के बहाने
लहराता है दरिया हमारे भीतर
इन्हें वे ही समझते हैं
जिन्होंने ओढ़ी है उम्र भर
रिश्तों की चादर
आओ देखो मुझे मेरी माँ की आँखों से
रेगिस्तान में भी उफन पड़े
हरा समंदर।
5.
तकलीफदेह वक़्त में भी
पूरे इत्मीनान से
बग़ैर खोए अपनी पहचान
बेटी बनी रहती है अपने ही जैसी
नर्मदा के घाट पर
जब क्षितिज था कुछ हरा कुछ नीला
उसी वक़्त लहरों से
लड़ते हुए
वह याद दिलाती रही कि
समुद्र क़ायम है धरती पर
और ढल भी जाये सूरज
तो सूरज, सूरज ही रहता है
बेटी रख देती है धूप हमारी चौखट पर
ताकि दूर तक रास्ते पर रोशनी
जागती रहे
और नज़र आता रहे सब कुछ
एकदम साफ़
वह प्रार्थना करती है
ताकि बनी रहे वक़्त को हराने की हिम्मत
हरियाती रहे धरती
और मिट सके दुनिया के
चेहरे से उदासी
6.
वह गुज़रती है जिस ओर से
रंग उसे घेर लेते हैं
लक़ीरों को दुलरा कर वह
फैला देती है सफे़द काग़ज़ पर
और अगले ही पल
वे लक़ीरें
रंगबिरंगी तितलियों की तरह
मँडराने लगती हैं।
जब भी गुमसुम होते हैं लम्हें
वह खोल देती है खिड़कियाँ
फिर चले आते हैं
पंछी, दरख़्त, बाग़, दरिया
और आसमान अपने आप
एक करिश्में की तरह
पृथ्वी के छोर से सुनाई पड़ती है
मंगल ध्वनियाँ
जब भी हँस देती है बेटी
बौरी
बड़वारा के ट्रक अड्डे पर
रूखी लटें चबाती
दबे पाँव लंगड़ाती, मचकती, आती है बौरी
चुभलाती है सूखी रोटी
सुड़कती है चाय
और फिक्क से हँसती है जवान होती बौरी
चिचियाती खाट पर पथरीली ज़मीन पर
ट्रक की सीटों पर लोहे के पट्टों पर
टायर के बिस्तर पर
रात-रात पौरुष की आग में बरती है बौरी
भीदती है
छीदती है
बिलखती है
फिर छूट कर फिक्क से हँसती है बौरी
दर्द से चीखती जार-जार रोती
तड़प कर खींचती है
कोख से मरे हुए बच्चे को
लोटती हुई बौरी
थाली में लाश सजा आँवले को चूसती
ख़ून भरी पीक
हमारे मुँह पर सरेआम थूकती है बौरी
नहीं बन पाई है लड़कियों के स्कूल जाने वाली राह
1.
आँखें मूंद लेती हैं पर्वतों की ऊँची चोटियाँ
काबुल की सड़कों पर गूँजती हैं
पीठ और पैरों पर कोड़े खाती
दो सौ पच्चीस औरतों की दर्दनाक चीख़ें
उन्हें कौन रोकेगा भला
उनके पास बंदूक है ताक़त है
विजय का पर्व है वे बना सकते हैं
हेरात में फ्रीडम गार्डन
जहाँ आज़ादी है उन्हें
औरतों को बकरियों की तरह घसीटने की
वहीं कहीं मारी जाती हैं
नादियाँ अंजुमन कालीन के
बदले कविताएँ बुनने के जुर्म में
खिड़कियों पर लटके हैं काले परदे
सूरज नहीं देख सकता
उनकी कलाई की बैंगनी चूड़ियाँ
न ही हवाएँ सुन सकती हैं
उनकी सुनहरी हँसी
पच्चीस बरसों की लड़ाई के बदनुमा दागों से
भरी हुई जेल की
दीवारों के भीतर
ज़िन्दगी अब भी बदतर है
कोई रास्ता नहीं है
सिवाय चट्टानों को पार करने के
औरतों के हिस्से की कोठरी है
अंधेरे कारीडोर में बूंद-बूंद टपकता है पानी
पेशाब की तीखी गंध के बीच
उन्होंने मुस्कुराना सीखा है
धकधकाता है पुराना जनरेटर
जलते बुझते बल्ब से फूटता है
नारंगी प्रकाश वर्तुल जो
चटकी दीवारों पर ढालता है विऔत परछाइयाँ
कोई बना लेगा नया शहर
गढ़ लेगा नई इमारतें
पर कौन बचायेगा सात बरस की सामिया को
बलात्कारी पिता के कुकर्मों का
हिसाब चुकाने से
अभी नहीं आया पहाड़ की तलहटी में
जूड़ा के फूल खिलने का मौसम
क्योंकि बन नहीं पाई है लड़कियों
के स्कूल तक जाने वाली राह
और पहाड़ों की चोटी पर
अभी भी चमक रही है बफर्
2.
जो मारे जा चुके हैं सुबह
कंधार या कुंदुस में
उनकी रूहें रात गये
भटकती हैं मजारे शरीफ के खण्डहरों में
भले ख़त्म हो जाए क़लम की स्याही
बाक़ी इबारत यहाँ
इंसानी ख़ून से पूरी की जा सकती है
सोने का वक़्त अभी
मुकर्रर नहीं हुआ
अंधेरों में गूंजते हैं
डेजी कटर के धमाके और
झुलसी हुई धरती की कराहें
बुरका ओढ़ा देने से
छुपाई नहीं जा सकती
सताई गई भूखी औरतों की चिल्लाहटें
वे बता सकती हैं कि
किस तरह उसने अपनी
औलाद के जिस्मानी टुकड़ों में
ख़ुद का ख़ून बहते देखा है
बेशक वे भूल गई हैं
जवानी में गाये हुए गीतों को
पर वे बता सकती हैं
कि सामने पड़ी लाशों के ढेर में
उसके मर्द का हाथ कौन-सा है
धरती से आसमान की ओर लपकती है
धारदार आग
मरते हुए सैनिक की आँखों से नहीं हटते
जिस्म से जुदा हिना से सजी हथेलियाँ और
एकटक निहारते मुर्दा बच्चे
हम देख पायें या न देख पायें
आसमान सब देखता है
और धरती सब समझती है
एक बात तय है
चाँद पर चलने के लिए जरूरी है
नदियों को बहते हुए देखना
पहाड़ों पर सूरज को चढ़ते उतरते देखना
बर्फ़ को पिघल कर बूंद-बूंद टपकते देखना
जंगली फूलों के बीच बच्चों को खिलते हुए देखना
और सन्नाटें के बीच
एक ताज़ा बच्चे को
पहली बार रोते हुए देखना
जरूरी है चाँद पर
चलने से पहले
3.
मालालाई वाट के चौराहे पर
अब नहीं दिखाई पड़ता कोई ऊँचा
अखरोट का दरख़त
आँखों में किटकिटाती है
एकदम महीन धूल
वजीर अकबर ख़ान में चीनी रेस्त्राँ
किसी ने जन्नत का रास्ता
काबुल से होते हुए चुना था
तजुर्बा धूप का हो पानी का हो
या एकदम ठंडी हवा का
धरती की छाती पर उगने वाले
हर बूटे से होकर वह छूता है
बंद दरवाजों के पार दूर कहीं
बीबी मातो और काबुल नदी की
पतली धार के किनारे
खेलते अधनंगे बच्चे
भेड़ों के झुण्ड, कुत्तों की लड़ाइयाँ और पतंगबाजी
रूबाब बजता है अभी भी मेरे भीतर
तुम पढ़ सकते हो
ओठों पर लिखा हर एक हिज्जा
रख सकते हो अपनी सांसें
ताकि जब जी चाहे तब
उसे दोहरा सकूँ तुम्हारे साथ
4.
मौसम खुश रहे या उदास
फूलों को खिलना पड़ता है
भले ही बरसों से न गिना गया हो
इंसानों को उस मुल्क में
पटी पड़ी हो ज़मीन बारूदी सुरंगों से
सियाह सिरों वाली बिना चेहरे की औरत
आहिस्ता आहिस्ता चलती जा रही हो
किसी घर में या कि क़ब्र में
क़ब्र के भीतर भी बदहवास हैं मुर्दे
अक्सर डोलती है धरती
फूलों की बातें सुनना फिर उनसे
अपने दिल की कहना
बीच बसंत में अचानक हो जाए बारिश
फूलों के बगीचे में बिखर जाए पुदीने की गंध
मुर्दे सिर उठाते हैं और टकराते हैं अंधेरों से
बच्चों को चाहिए थी ज़िन्दगी
चित्रित किताबें, कापियाँ
क़लम और रंग भरे सपने
आसमान गिराता है उनके लिए
एक सी रंगीन पन्नियों में
लिपटे खाने के पैकेट और क्लस्टर बम
गर्म हवाओं और बफर्बारी के बीच
अब भी लहलहाती है अफीम की फसल
आज़ाद घूमता है आकाश में शिकारी बाज
फिर भी बच्चे खेलते हैं
मिट्टी की छत पर कबूतरों के साथ
भले ही जानता हो आदमी कि
दुनिया में जीतता नहीं है प्रतिशोध
और नूरिस्तान में नहीं रहा अब खुदाई नूर
फिर भी वह गा नहीं सकता
जुलेखा और जोसेफ के प्रेमगीत
कितनी भी लम्बी हो
जीनी पड़ती है अपने हिस्से की ज़िन्दगी
क्योंकि सूरज तो निकलता ही है
कभी न कभी भले ही कोहरा घना हो
दरख़्त पर लटकी है तलवार
मुनकिरों के लिए सजाए हैं
औरतों से सोहबत करो तो
पाक मिट्टी से तयम्मुम करो
अपने मुँह और हाथ मसह करो
औरतों की तो दुनिया में रुसवाई
और आखिरत में बढ़ी है दोजख
हमल गिन कर कत्ल करते जाएँ
जो बचें उन्हें तम्बाकू या नमक चटाएँ
या फिर एक हाथ और पाँव काट कर
ढाँक दें उनके चेहरे
और रुखसत कर दें
एक अंधेरे से दूसरे अंधेरे में
बेटियाँ के आंसुओं से ही
जारी होते हैं पत्थरों से चश्में
और उनके क़दमों से बनती है
दरिया में राह
जिस ज़माने में मकबूल हुआ करती थी कुरबानियाँ
आसमान से उतरती थी एक आग
उन्हें उठाने की ख़ातिर
क्या करें हम अपनी बेटियों की लाशों का
कैसे कबूल होंगी कुरबानियाँ
वे गुलरूख हसीनाएँ अब तो
डरती हैं हमारे ख़्वाबों में आने से भी
देखना चाहता स्त्री को सिर्फ़ स्त्री की तरह
जिस वक़्त पृथ्वी हरी थी और आसमान था नीला
जितना कि उसे होना चाहिए था
उस वक़्त देखना चाहा एक स्त्री को सिफर् स्त्री की तरह
पर ऐसा हुआ नहीं
कुछ चुप थीं झुकी हुई थीं उनकी आँखें
पिता, पति, पुत्र ही नहीं दादियों और माँओं की
असंख्य छायाओं में छुपी स्त्रियों की नींदों को नसीब नहीं थे सपने
वे कुछ भी नहीं कहती थीं प्रेम के बारे में
जब समुद्र में लहरें इठला रही हैं
और नई फुनगी पर सतरंगी चिड़िया चहक रही है
उस वक़्त तलाश जारी है उस औरत की
जो बता सके आँखें खोल कर
कि उसके पोर पोर में बसता है प्रेम
और बिना किसी शिकंजे के भी उतनी ख़ूबसूरत है उसकी देह
जितना कि पूरे खिले फूल को होना चाहिए
दरवाज़ों से निकल आईं औरतें
देह को अलगनी पर
टांग कर
दरवाज़ों से
निकल आईं औरतें
अब तक सि( हुए
तमाम पौरुषीय प्रमेयों को
उलट, पुलट,
गई हैं।
बिना देहवाली औरतें
बिना देह वाली औरतें
छीन लेती हैं अपना हक़
घसीट लाती हैं
वक़्त की दुकान से
जिंदा पल,
चुपचाप सांस लेती हैं
पत्तों की तरह
और
खिलना भी जानती हैं
भरपूर फूलों की तरह
अगवा हुईं बेटियाँ
अगवा हुईं बेटियाँ
बिखेर दी जाती हैं गलियों में
और पूरी दुनिया ही बन जाती है
सोनागाछी
वक़्त की चट्टानों के बीच मिलते हैं
दूधिया हँसी और
नन्हीं सिसकियों के जीवाश्म
ख़ून और वीर्य से सने चेहरों की भीड़ में
रिश्तों की तलाश करती जाती हैं
पाँच साल की उम्र में
अगवा हुईं बेटियाँ
आँखें खोल लो तुम
तुम्हारी माँ को भी याद नहीं
कि किस साइत में
जन्मी थीं तुम
कि धूप ने कब तुम्हारी
त्वचा
को झुलसा दिया,
कि कौन तुम्हारी
नसों में बहते ख़ून को निचोड़कर
धधकती आग भर गया
तुम्हारी आँखों का पानी
तुम्हारी माँ के आँसुओं की तरह वाष्पित हो जाये
इसके पहले हटा दो उन क्रूर हाथों को
जो तुम्हारी छातियों के साथ
तुम्हारी गर्दन पर भी अपने निशान छोड़ने लगे हैं
मस्तिष्क में चक्कर काटते
असंख्य विचारों की ऊर्जा
संस्कार पी जाये
उसके पहले ही आँखें खोल लो
ताकि तुम्हारे भीतर बहती आग को
फैलने की राह मिल जाये।
वह जो नहीं है बार्बी डॉल
बार्बी डॉल-सी
कभी नहीं रही उसकी टांगें
कछौटा लगाकर
टखनों तक कीचड़ पानी में
परहा लगाते
उसने कभी नहीं उखाड़े
टांगों पर उगे भूरे काले रोम
न ही फटी हुई एड़ियोें
पर जमा मजबूत शरीर
कभी हवा के
मामूली झोंकों से हिला
उसने कोशिश भी नहीं की
कमर पर झूल आई चरबी को शरमा कर
ढाँकने की
अलबत्ता
गोद में पड़ी बेटी को
आराम से दूध पिलाते हुए वह हँसी
और बेटी को कस कर चूम लिया
लकड़ी के कठघरे में खड़ी थी लड़की
रूखे बिखरे बाल
और फटी हुई आँखों से
सामने खड़े आदमी को पहचानने की
कोशिश करती लड़की
वह क्यों बीनती थी
कचरा?
कौन होता था
उसके साथ?
उसकी
मटमैली फ्रॉक पहले से फटी थी
या फाड़ी गई थी?
उसकी छातियों को
किसने नोचा था?
जांघ की खरोंचें
गिरने से तो नहीं आई थीं?
उसे एकाएक याद
आया था
भेदता हुआ दर्द, अपनी ही चीख,
और आँसुओं की धुंध में ग़ायब होता चेहरा
लकड़ी के कठघरे में खड़ी थी लड़की
उसने उंगली उठा दी थी
जिसकी सीध में दुनिया के तमाम
आदमी ही नहीं
सारी औरतें भी थीं
प्रेम का दुर्निवार ज्वार
आज तक वह किसी भी औरत से
उस तरह प्यार नहीं कर पाया
जैसा वह करना चाहता है
दरअसल वह जब भी बालों में हाथ फेरना शुरू करता है
तो उसके पोरों के नीचे सरक जाता है
कोई ताज़ा गूमड़ या कोई पुराना गहरा घाव
और उस घाव में वह देखने लग जाता है उस औरत के आँसू
दरवाज़े या पलंग के कोने से टकराता उसका सिर
उससे बह आया ख़ून
फिर वह खींच लेता है अपना हाथ
और रोशनी में फैलाकर हथेलियों पर ढूँढने लगता है कत्थई दाग़
फिर वह उस तरह प्यार नहीं कर पाता जैसे वह करना चाहता है
जब भी वह किसी औरत की
पीठ पर लिखना शुरू करता है कोई प्रेम कविता
और दिखाई पड़ते हैं उसे कुछ नीले दाग़, कुछ खरोंचें
तब वह समेट लेता है अपने हाथ
उसे सुनाई पड़ने लगती है उस औरत की सिसकियाँ
और वह उसे थपकने लगता है ताकि वह औरत सो सके सुकून से
फिर वह उस तरह प्यार कर ही नहीं पाता जैसा वह करना चाहता है
जब भी उसके पाँव की उंगलियों के नीचे खिसखिसाती थीं
उस औरत की एड़ियों की गहरी दरारें
तो वह सिकोड़ लेता था पैर
दिन भर चल कर थके हुए पाँवों पर वह रख देता था ओंठ
और मलने लगता था उन्हें
ताकि उनकी थकान उतर जाये
फिर वह उस तरह उस औरत से प्यार कर ही नहीं पाता था
जैसे वह करना चाहता था।
पर वह अब भी ढूँढ रहा है एक ऐसी औरत की आँखें
जिनके भीतर आँसुओं की जगह लहराता हो
प्रेम का दुर्निवार ज्वार
और वह उस औरत को उसी तरह प्यार कर पाये
जैसा वह करना चाहता है
अल्ट्रा साउण्ड की भेदती आँखें
बच भी जाओगी
कैरोसिन में छुलाई जाती
तीली की बदबूदार लपट से,
पर कैसे बचोगी
पिता के माथे पर
गहरा आई लकीरों के फन्दे से?
तुम्हें पैदा करने के
अपराध बोध से ग्रस्त
माँ की आँखों के अंधे कुएं से?
बिटिया
अब तो माँ की कोख भी
महफू़ज नहीं रही तुम्हारे लिये
जहाँ तैर लेती थीं तुम नौ माह निर्द्वन्द्व
तुम्हें तलाशते
गण्डे ताबीजों के अलावा
हमारे पास अब
अन्ट्रा साउण्ड की भेदती आँखें हैं,
कोरियन बायोप्सी की तीखी सलाई है
तुम फिर भी जीना लड़की!
जितनी बार मरना
उतनी ही बार जी जाना
हमारी मृत संवेदनाओं के किलिमिन्जारों में!
औरत, जान लो!
तुम गढ़ सकती हो
समूचा ब्रह्माण्ड
सिफर् छुड़ाने होंगे
माथे से चिपके पौरुषीय मानदण्ड,
उतारने होंगे पवित्रता और सतीत्व के लेबल
फेकना होगा जोंक की
तरह चिपका हुआ डर
फिर देख लो
तुमने गढ़ ही लिया है
इसी देह से
मेरे बच्चे!
नौ माह तक चाँदनी
मेरी नसों से
कोख में रिसती रही
और
अचानक एक सुबह
सूरज दूध से नहा कर
आकाश चूमने लगा।
बसंत के आते ही
यह धुन
जो साल भर
शाखों में भटकती रही,
वह गंध
जो पूरे वर्ष
नसों को टटोलती रही,
वह पुलक
जो हर )तु में पोर-पोर खोजती रही,
बसंत के आते ही
काया पर फूट पड़ी है तुम्हारे रूप में।
उतना ही आना और बाक़ी है
जितना तुम आये हो
मुझमें
लगा उतना ही आना
और बाक़ी है।
तुम आये तो मैं ठहर गई।
फिर आये तो
उगने लगी
धरती की छाती भेद कर।
अपनी बाँहें मैंने
हर डाल में
तुम्हारी प्रतीक्षा में
फैला दी हैं।
तुम डालों से आओगे
तो मैं फूलों में
खुल जाऊँगी।
तुम्हारे पराग को
तितलियों से माँग लूँगी।
जब तुम छोटे बीजों में जन्मोगे
तब भी कई-कई
जगह उग कर
तुम्हारे इंतज़ार में यही दोहराऊँगी
जितना तुम
आए हो मुझमें
उतना ही आना और बाक़ी है।
तीस मौसम बाद
आज तीस मौसम बाद
महसूसा है
माँ, तुम्हारा वात्सल्य
मन घूम आया
उसे समेटने
बचपन की उस क्यारी में
जहाँ अपने हाथों
तूने रोपे थे
सींचे थे
पनपाये थे
मटर और चने के बूटे।
तुझसे छिपकर खाई
कच्ची फलियों की मिठास
जब-जब भी याद आती
तब यह ममत्व ही
आलोड़ित कर जाता है
पूरे अस्तित्व को।
आज वही मिठास
वही स्नेह
अपनी नन्ही के
पूरे तंत्र में बसा देना चाहती हूँ।
इस उम्मीद में कि,
अगले तीस साल बाद वह
यही ममत्व अपनी
अंजुरी में समेट
आगे बढ़ा
हममें से ही हो जायेगी।
कौन सी गंध मेरी है
आज मत पूछो मुझसे
कि, कौन सी गंध मेरी है।
कोरी माटी से
पहली बौछार के बाद उठती गमक
या उस जंगल की
पगडंडी पर
बावरी सी घूमती
मादक सुगंध
या तुम्हारे मीलों दूर
चले जाने के बाद
मेरी पड़ी हुई
देह की
चिरायँध गंध।
आज मुझसे मत पूछना
जवाब तुम ही देना।
आज कोई खोया नहीं।
उस पगडंडी पर!
हाँ, आज तो
गि(ों से जवाब
मिलेगा तुम्हें
कि, कौन सी गंध
मेरी है।
मेरे घर अब दरवाज़ा नहीं है
तुमने दस्तक दी
और मैंने
खोल कर रख दिया
दरवाज़ा
फिर तुम भीतर
चले आये।
मैं भूल गई
भीतर बाहर का अंतर।
आज दरवाज़ा बंद
करने की
बात से
परेशान हो उठी हूँ।
अब तुम हो
मैं हूँ
भीतर भी/बाहर भी
हाँ कि मेरे घर अब
कोई दरवाज़ा नहीं है।
तो तुमने क्या किया
जब-जब तुम्हें तोड़ने के लिए
हाथ उठाये
तुमने हाथों को आँखों पर रख लिया।
तुम्हें जब काँटों से बींधने की
कोशिश की
तब तुमने लहूलुहान ओठों से
मुझे चूम लिया।
मैंने तुम्हें पिघलाना चाहा
तो तुम, आप ही पिघल कर
मुझे भिगो गये
भीतर तक।
फिर आज मैंने तुम्हें समेट लेना चाहा
तो तुमने ये क्या किया।
मुझे समेट कर
मुट्ठी में क़ैद कर लिया।
लेकिन
आज, मैं जीत गई
क्योंकि तुम्हारी मुट्ठी में मैं हूँ
और मुझमें तुम।
शाम तुम्हारे इतंज़ार में
पूरी दोपहर
चिलकती धूप से
ओट होकर
शाम तुम्हारे इंतज़ार में
अपने पाँव
आलते से सजाती रही।
जब तुम नहीं आये
तो
पूरी शीशी आलते की
आसमान में फैलाकर
रात के घर में
उनींदी
तुम्हारा इंतज़ार ही
कर रही है।
हीरों पटी ज़मीन पर बचपन
हीरों पटी ज़मीन पर
चलना सीख चुकी लड़कियों का
बचपन ढूँढ़ती रही
केन के किनारों पर फैली रेत में
रंगीन पत्थरों की चौड़ी बिछावन में
पंडवन की सुराखों वाली चट्टानों के भीतर
कैथे, अमिया और इमली की खटास में
कच्ची गुनगुनी धूप की
सुनहरी छाँव में।
वही बचपन मिला
नान-चाँद के
सामूहिक विवाहोत्सव में।
घूँघट ओढ़े
चूल्हें में धुआँती
लकड़ियों को सुलगा कर रोटियाँ बनाते।
खिचड़ी के मेले में
जाते ट्रैक्टर की ट्राली में
रंग-बिरंगे पल्लों की ओट से
बौछारों की ठंडक को
आँखों में उतारते।
वही बचपन
लिथाटॉमी पोजीशन में पड़ा
चिथी हुई देह में
टाँके लगवाते मिल गया है
ऑपरेशन थियेटर में।
इस ख़तरनाक अपहरण की वारदात
कहीं दर्ज़ नहीं हुई है
और बचपन छुप गया है
जवानी की आड़ में।
रत्नगर्भा धरती की औरत
खदानों से निकली चाल से
हीरे चुनती उँगलियाँ
घर आकर रोटी बेलती हैं
‘कोदई’ चुराती हैं
और छत पर चढ़ी
बेल की तोरई तोड़ कर
सब्जी परोसती हैं।
इन्हीं उँगलियों वाली औरत
हर साल
कोख को
हीरे की उजास से
भरने की कोशिश में
निचुड़-निचुड़ कर
सरकारी अस्पताल के
गंधाते वार्ड में
दवाइयों के साथ
उलाहने का ज़हर पीकर
खड़ी हो पाये तो
फिर चुभने लगती है हीरे
या
मृत देह के साथ
इस रत्नगर्भा धरती में ही
घुल-मिल कर
समय की चट्टानों से
जूझने लगती है
खुद ही
हीरे में रूपांतरित होने।
खजुराहो
1.
सदियों से चलते-चलते
न तो देह की भाषा बदली
न ही आलिंगन मुद्रा।
हम नत्थी हो गये हैं।
साथ-साथ
खजुराहो के मंदिरों पर
बाहर उकेरे
मिथुन शिल्प में।
पर इस सदी में
अंतर्कक्ष से
देवता
अंतरिक्ष में
कूच कर गये हैं।
और हम
स्थिर रह गये हैं
मिथुन मुद्रा में
निर्विकार
2.
इस संवत् में
खजुराहो के
लक्ष्मण मंदिर की दीवार से
ऑर्गी का नियम भंग कर
मिथुन पुरुष सड़क पर उतर आया है
हशिश, हीरों और अपनी ही भंगिमाओं की
तस्करी करने।
सदियों से बल खायी हुई
नायिका भी उकता कर
उजड़े हुये हुए गर्भ गृह की शांति में
सुस्ताना चाहने लगी है
इस संवत् में
3.
लक्ष्मण मंदिर की नायिका
दीवार से उतर कर
सांझ के ढलते रंगों के साथ
अँधेरे की ओट में
अड्डों की ओर
चल पड़ी है।
उसी को देखा है
टूरिस्ट्स और ब्यूरोक्रेट्स की
शिफ्ट निपटाते।
फिर
मुँहअँधेरे
किसी होटल के बाथरूम में
रात भर की लिजलिजाहट के साथ
इस सदी का
इनटॉक्सिकेटिंग फ्रेग्नेंस बहाते।
अपना वालपेचुअस फि़गर संभाल कर
दीवार पर चढ़ते।
और फिर
उसे ही देखा है
बालों से टपकते
पानी की मोती जैसी बूँदों को
चोंच उघरे हंस पर बिखराते
एक सुबह
खजुराहो में।
4.
बरसों पहले
बिछुड़ी सखी का विदेश से आया
पत्र पढ़ कर
विश्वनाथ मंदिर की नायिका
कसमसा गयी है।
किसी करोड़पति के दीवानेख़ास में
रसायनों के लेप से
सुरक्षित होकर
ताम्बूल की जगह लिपिस्टिक से रंगे ओठों
शैम्पेन का प्याला थामे
नये केश विन्यास में
बाल छाँट कर
सुखों में लोटती
पुरानी सखी ने
इटली से लेकर न्यूयार्क तक का
सफर बयान किया है
शायद इसलिये
चिट्ठी लिखती नायिका ने
पुराना काग़ज़ फाड़ कर
मेरी डायरी का
पन्ना खींच लिया है
अपना पैगाम सागर पार
भेजने के लिये
डैफने1
प्रकाश के देवता
अपोलो के उन्मादी आलिंगन से
बच कर भागती
डैफने की पुकार
सुन ली थी
वनस्पति की देवी ने।
और लॉरेल के
वृक्ष में
प्रतिरोध का प्रतीक बन
डैफने स्थिर हो गयी।
अब भी अपोलो का
उन्मादी प्रेम
डैफने को समेटने दौड़ रहा है।
ओलिम्पस पर सुस्तानी वनस्पति की देवी
जानने लगी है कि
लॉरेल की छाल में
छिपने पर भी
डैफने को आपोलो का
अनचाहा प्रेमावेग
भोगना ही होगा।
इसीलिये वह उतरती नहीं
देवताओं की बस्ती से
और डैफने रोम की सड़कों से भागते हुए
साल और बीजा के जंगलों में
छुपने की बेमानी कोशिश
कर रही है।
स्त्रीत्व को सि( करते गुज़र गयी
पन्द्रह सालों से
मंदिरों-मज़ारों
ओझा-पीरों के दरवाज़ों से
गंडे तावीज़ों में
लिपटी हुयी
देवरी रनवाहा की
बांझ कहलाने वाली औरत
ज़िला अस्पताल की
देहरी चढ़ गयी,
और फौर्टिफाईड प्रोकेन पेनिसिलिन के
इन्जेक्सन्स लगवाने के बाद
भारी पाँव लेकर
मन्नतें उतराने
घूमती रही।
सातवें महीने में
फूली सूजी
एनीमिक देह लेकर
वापस लौटी है।
खेत गहन रख कर
चमार टोले वाली
देवरी रनवाहा की औरत
ख़ून खरीद कर
चढ़वा गयी है।
बीसवीं सदी के आख़िरी दशक की छाती पर
मरे बच्चे को पटक कर
स्त्रीत्व को सि( करते
गुज़र गई है वह औरत।
सदी की विरासत
सदियों से
सृजन गौरव को
माँग के टीके में सजा कर
अनागत को
आँचल में ढाँकती आयी
औरत की लुनाई
बीसवीं सदी की
कगार पर
अबॉर्शन क्लीनिक्स के
वेक्यूम सैक्शन से होकर
गटर में
बही जा रही है।
बच रही है
खरोंची हुई
इंसानियत की
झिल्ली ही
हमारे हाथों
नयी सदी के स्वागत में।
साल दर साल
साल दर साल
बाड़ पर फैली करेले की बेल से
ताज़े करेले उतारती
या कच्चे आम की पाल लगाती
उसी सहजता से
हर साल कोख अजियारती
दिया उमरी की औरत
सातवें बच्चे के फँस जाने से
भय ग्रस्त है।
पिछले क्वार में
गौना दी
लड़की की जचकी
नई बहू की गोद भराई
बैलों की टूटी जोड़ी
दूसरी लकड़ी की पक्कियात
गाँव भर डोलते दो लड़के
और गोद में रिरियाता छोटा बच्चा
की सोच भी
कमर तोड़ते दर्द के साथ
चीखों में बदलने लगी
तब वह दिया उमरी की औरत
किशोर जू को थाल मान कर
ख़ून के पनाले में डूब कर
आख़िरी ज़ोर लगा रही है।
सपनों की छाया में सोती बेटियाँ
1.
एक ठण्डा कमरा
एक मशीन की आँख
हज़ारों सपनों की छाया में सोती
बेटियाँ
थरथराती हैं कोख में!
2.
आकाश से पंछी गुम
जल से मछली गुम
बाग़ से कलियाँ गुम
कोख से बेटियाँ गुम
आगे हमारे जिस्म से
हमारे दिल भी गुम।
3.
धरती से जंगल ग़ायब
जंगल से जानवर ग़ायब
आँगन से गौरैयाँ ग़ायब
माँ की कोख से बेटियाँ ग़ायब
इंसानों की बस्ती पर
शैतान का साया!
4.
बेटी को देखा
कुछ हँस दिये
कुछ गुमसुम हुये
कुछ रोये
कुछ खीझें
कुछ मुस्कुराये
कुछ उठ पड़े
कुछ चिल्लाये
कुछ चल दिये
कुछ खड़े रहे
देखते रहे
खोदते रहे मिट्टी
कुछ ने पत्थर जड़ दिये
5.
हमने ज़िन्दगी की दौड़ में
ख़ुशबू खोई
फूल खोये
बेटियाँ खोयीं
फुरसत खोई
यहाँ तक कि भूल गये
सही वक़्त पर साँस खीचना
6.
एक औरत कोख में सपने बुनती है
आँचल में उरसती है
पायल के रुम झुम
फूलों की क्यारियाँ
और
फुदकती हुई चुटिया
और
मुस्कुराती है करवट बदल कर
7.
तुम्हारे पास एक मशीन है
जिससे तुम गर्म जल में तैरती
जल परियों की पहचान कर सकते हो।
तुम्हारे पास भाषा है
जिससे तुम निशानिया ज़ाहिर कर सकते हो
तुम्हारे पास औजार है
जिनसे उन्हें पकड़ सकते हो
यक़ीनन तुम्हारे बुत
यहाँ पूजे जायेंगे।
8.
जब पहाड़ों से नदी उतरेगी
पगडंडियों पर धूप टहलेगी
सर्दियों की सुबह
क्या हवाएँ सुना पायेंगी
बेटियों के तराने
9.
बरस पड़े बाद अचानक
बरफ की चादर पर
छा जाये रंग अचानक
रेत से उफन पड़े
समुन्दर अचानक
बेटियों के क़दमों से
बदलते हैं मौसम
10.
उनके चेहरे पर नक़ाब
हाथों में खोजबत्ती
स्क्रीन पर हिलाती तस्वीरें
घर-घर औजारों से खोलता है कोई
दुनिया का तानाबाना
बेटियों के ख़ून से लिखी
इबारत को पढ़ ले।
इन गुनाहों के लिये
माफी मयस्सर नहीं।
11.
विश्वास से प्रेम का रिश्ता
प्रेम से उम्मीदों का रिश्ता
उम्मीदों से ज़िन्दगी का
ज़िन्दगी से तकलीफों का
तकलीफ से आँसुओं का
समझ से सहने का
सहने से प्रार्थना का
प्रार्थना से अस्तित्व का
अनोखा रिश्ता
गोद में कुनमुनाता बच्चा
समुद्र में उठती हैं लहरें
एकाएक हिलने लगती है पृथ्वी
नदियाँ मुड़ जाती हैं तिर्यक होकर
तुम्हारी आर्किअक मुस्कान में
तुम्हारे आस-पास मंडराती
पीली तितलियों के झुण्ड देखता
वहीं खड़ा है वसंत
अपना रंगीन लबादा संभालते
कई-कई बरसों से
हवाएँ गर्म हैं
तुम फैलाए रखो अपना आंचल
ताकि कच्ची नींद से जागने न पाये
तुम्हारी गोद में कुनमुनाता बच्चा
अपनी दुनिया में बंद आदमी
कौन गवाह है जब ओसिरस खड़ा था
घुटनों के बल आइरिस के सामने
पत्थर की दीवारों के अलावा
किसने देखा था उसकी आँखों
में उतर आया निवेदन
किसी दरार से झांकती चांदनी
धूप या बादल भी नहीं जानते
कि अपने हिस्से की दुनिया में बंद आदमी
को सुनाई नहीं पड़तीं हवाओं की तालियाँ
यु( विराम के बाद
1.
किसे ढूँढता है
सरायेवो की छत पर टहलता चांद
दहशत भरी बेनींद आँखों में चांदनी घोंपकर
क्या देखता है भीगे चेहरों में घूरता हुआ चांद
जिस्म के चिथड़ों और हड्डियों को जोड़ते मुर्दे
अपनों से फुसफुसा कर अपनी पहचान बताने निकलते हैं
तब चांदनी की खोज बत्ती से उन्हें
फिर क्यों धज्जी-धज्जी कर जाता है चमकता चांद
उजड़ी हुई बस्तियों में
जमे हुए खून के थक्कों को खुरच खुरच कर
किसे नींद से जगाकर किसका पता पूछता रहता है
सरायेवो की छत पर टहलता चांद
कौन सुन पायेगा कि
एयर रेड्स के धमाकों के बीच
किस किस की आखिरी चीख खो गई थी
एक और सवाल बन कर
फूलों की नई फसल आने को है
कौन बता पायेगा
किस गंध और किस रंग के फूल
किस कौम की लाशों पर उगते हैं?
2.
अब कौन बता पायेगा क्रोशिया में कि
मक्के के दूधिया दानों की मिठास में
सर्ब खून घुला है या क्रोट
अंगूर के बगीचे में
टहलती धूप से कौन पूछेगा कि
वह अभी गिरजे से लौटी है
या अभी अजान करने जायेगी
कौन समझायेगा
डेढ़ साल के राबिन को उठाये
बिस्तर ठीक करती मार्था को कि
उसकी पलकों में रुकी हुई प्रतीक्षा को चूम लेने
फ्रेंजो अब नहीं आयेगा
रात दिन घूमती हवाओं में
दर्द
किसने कहा
तुमसे
तुम न आओ
पर ये भी
नहीं कहा
अपने साथ
दुनिया भर
की भीड़
उठा लाओ
एकांत
तुम्हारे साथ
लगता है
कभी कभी
भला सा
पर तुम
आये तो
साथ तुम्हारे था
मेला सा
तुम्हीं कहो
मैं तुम्हें
कैसे
अपनाऊँ
एक को
निमंत्रण देते देते
कहीं सैकड़ों
से
न घिर जाऊँ
कभी तो
आओ
चुपचाप
सुन न पाये
कोई तुम्हारे
पदचाप
लेकिन तुम
दर्द हो
तुम आओगे
अकेले कैसे
मैं तुमसे
अब कुछ नहीं
कहूँगी
खुशियों से
भरी
ज़िन्दगी में तुम्हारी
कमी खलेगी
उसे भी
जज्ब कर लूँगी
और ये जज्ब
करना भी तो
शायद
तुम्हारा ही
कोई साथी है
ओफ!
तुम सच
बड़े वैसे हो
बता नहीं पाऊँगी
कैसे हो
कभी तो
आओ
ऐसे कि मैं
तुम्हें
सिर्फ तुम्हें
बस महसूस
ही करूँ
साथ तुम्हारे
न हो कोई
तुम्हें हमेशा
के लिये
बस उसी
तरह
महसूस
करूँ
लेकिन तुम नहीं
आओगे
कम्बख्त! दर्द जो हो
भीड़ सहित आकर बस
रुलाओगे बेदर्द!
दर्द।
आग-सी तपिश
गालों तक
झुक आया
गुलमोहर
भला तो
है
भाता भी है
बार बार झुककर
हौले-हौले छूकर
मन को लुभाता
भी है
पर अभी
नहीं
ये भी कहूँगी
आख़िर कब
तक नहीं!
आग सी तपिश लिये
चंचल पवन
सच कहूँ
अच्छा भी लगे
जब ओ
गुलमोहर
तुम्हें छू न पाये
तुम्हें देख न पाये
तुम्हें दहला न पाये
झुलसाने वाली धूप के लम्बे लम्बे
ये डरावने साये धूप का चकता आया है
तो क्या
फिर
जा नहीं सकता?
जब वो जायेगा
ठण्डी मीठी
अरुणिन संध्या
को पीछे
छोड़ जायेगा
तब तुम मुझे
छूना
कंधों तक
आकर धीमे से
हलके से
तुम मुझे छूना
कपोलों को
स्पर्श के
मन के
किसी
भीतरी कोने को
फिर वैसे ही छूना
देखो फिर
अछूता
अधूरा न रह जाये
न महसूस
हो कोई हिस्सा सूना।
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