डॉ.चन्द्रकुमार जैन टाइम्स नाउ के प्रमुख संपादक अर्णव गोस्वामी ने पारंपरिक मीडिया और डिजिटल मीडिया की ताकत के बारे में एक बातचीत में बड़ी प...
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
टाइम्स नाउ के प्रमुख संपादक अर्णव गोस्वामी ने पारंपरिक मीडिया और डिजिटल मीडिया की ताकत के बारे में एक बातचीत में बड़ी पते की बातें कहीं हैं। पहले उनका कहा उन्हीं के शब्दों में पढ़ लीजिये - डिजिटल की शुरुआत से ही वह हमेशा इसकी निंदा करते थे क्योंकि उनका मानना था कि टेलिविजन ही सबसे प्रबल माध्यम था। मेरा मानना था कि टेलिविजन ही कोई एजेंडा तय करता है और डिजिटल उसे फॉलो करता है। इसलिए मैं डिजिटल को ट्रेडिशनल मीडिया का प्रतिद्वंद्वी मानता था। करीब आठ-नौ साल पहले जब मैंने टाईम्स नाऊ शुरू किया था तब मैं डिजिटल के बारे में ज्यादा नहीं जानता था। मैंने पिछले आम चुनावों में ही डिजिटल के बारे में देखना शुरू किया था। उन्होंने कहा कि इसके बाद उन्होंने बातचीत के लिए डिजिटल माध्यम का इस्तेमाल शुरू किया। उन्होंने कहा कि यह बातचीत का सबसे अच्छा माध्यम है।
डिजिटल के बारे में एक पत्रकार के रूप में अपनी प्रतिक्रिया के बारे में उन्होंने कहा कि उनकी प्राथमिकता टेलिविजन थी और डिजिटल न्यूज सिर्फ काम्प्लिमेंट्री हैं। अरनब ने कहा, टेलिविजन और डिजिटल न्यूज आने वाले समय में एक-दूसरे की पूरक होंगी। आने वाले समय में न्यूज चैनल, सोशल मीडिया सोर्स और न्यूज पोर्टल एक-दूसरे के क्षेत्र में मिल जाएंगे। उस समय यदि आप इनके साथ मिलकर नहीं चलेंगे तो आप नष्ट हो जाएंगे। टेलिविजन से जुड़ा व्यक्ति होने के नाते मेरा मानना है कि ये तीन कैटेगरी- न्यूज चैनल, सोशल मीडिया सोर्स और न्यूज पोर्टल साथ काम करेंगे।
समाचार 4 मीडिया के मुताबिक़ उक्त बातों के अलावा श्री गोस्वामी ने यह भी कहा कि अपने दर्शकों के बारे में पता लगाने पर ज्ञात हुआ कि वे विभिन्न मीडिया से हैं और आपको विभिन्न तरीकों से प्रतिक्रिया दे रहे हैं। उन्होंने कहा, जो लोग मुझे कॉल कर रहे हैं, वे वह नहीं हैं जो मुझे ईमेल भी भेजेंगे। इसके अलावा जो लोग मेरे प्रोग्राम के दौरान ट्विटर पर ट्वीट करते हैं, वह लोग अलग हैं और जो मुझसे टाईम्स नाउ की टिप्पणियों में बातचीत करते हैं, वे अलग हैं। मुझे विश्वास नहीं हुआ कि न्यूज़ ऑवर डिबेट्स और टीएम और बीएआरसी पर हमारी दर्शकों की संख्या में सीधा संबंध है। उन्होंने कहा कि चूंकि वह टेलिविजन प्रोड्यूसर हैं, इस नाते डिजिटल ने उनके ब्रैंड और कंटेंट को आगे बढ़ाने का अच्छा अवसर प्रदान किया है। उन्होंने कहा कि आज आप जिस तरीके से न्यूज प्राप्त करते हैं, 2020 में वह तरीका बिल्कुल बदल जाएगा। अब हमारे सामने यह चुनौती है कि जब इस तरह की बड़ी घटनाएं होंगी तो हम उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकें।
दरससल, यह महज़ संयोग नहीं है कि पिछले 15 वर्षों में मीडिया के स्वरूप में बहुत तेज बदलाव देखने को मिला है। सूचना क्रांति एवं तकनीकी विस्तार के चलते मीडिया की पहुंच व्यापक हुई है। इसके समानांतर भूमंडलीकरण, उदारीकरण एवं बाजारीकरण की प्रक्रिया भी तेज हुई है, जिससे मीडिया अछूता नहीं है। नए-नए चैनल खुल रहे हैं, नए-नए अखबार एवं पत्रिकाएं निकाली जा रही है और उनके स्थानीय एवं भाषायी संस्करणों में भी विस्तार हो रहा है। मीडिया के इस विस्तार के साथ चिंतनीय पहलू यह जुड़ा गया है कि यह सामाजिक सरोकारों से दूर होता जा रहा है। मीडिया के इस बदले रूख से उन पत्रकारों की चिंता बढ़ती जा रही है, जो यह मानते हैं कि मीडिया के मूल में सामाजिक सरोकार होना चाहिए।
भारत में मीडिया की भूमिका विकास एवं सामाजिक मुद्दों से अलग हटकर हो ही नहीं सकती पर यहां मीडिया इसके विपरीत भूमिका में आ चुका है। मीडिया की प्राथमिकताओं में अब शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी, विस्थापन जैसे मुद्दे रह ही नहीं गए हैं। उत्पादक, उत्पाद और उपभोक्ता के इस दौर में खबरों को भी उत्पाद बना दिया गया है, यानी जो बिक सकेगा, वही खबर है। दुर्भाग्य की बात यह है कि बिकाऊ खबरें भी इतनी सड़ी हुई है कि उसका वास्तविक खरीददार कोई है भी या नहीं, पता करने की कोशिश नहीं की जा रही है। बिना किसी विकल्प के उन तथाकथित बिकाऊ खबरों को खरीदने (देखने, सुनने, पढ़ने) के लिए लक्ष्य समूह को मजबूर किया जा रहा है।
इस बात में कोई दम नहीं है कि मीडिया का यह बदला हुआ स्वरूप ही लोगों को स्वीकार है, क्योंकि विकल्पों को खत्म करके पाठकों, दर्शकों एवं श्रोताओं को ऐसी खबरों को पढ़ने, देखने एवं सुनने के लिए बाध्य किया जा रहा है। उन्हें सामाजिक मुद्दों से दूर किया जा रहा है। पिछले दिनों राष्ट्रीय मीडिया संवाद में एक बात बहुत ही स्पष्ट रूप से उभरकर आई कि बाजार एवं व्यावसायिक दबावों के बीच सामाजिक सरोकार से जुड़ी पत्रकारिता हो सकती है और नई चुनौतियों पर चर्चा एवं नई राह तलाशने के लिए ऐसे आयोजन लगातार किए जाने की जरूरत है। यह माना गया कि -मुद्दों के विभिन्न पक्षों को देखने की जरूरत है। सोच में सकारात्मक परिवर्तन लाने की जरूरत है। मुद्दा आधारित पत्रकारों के समूह बनाने की जरूरत है। स्थानीय मुद्दों पर लिखने, शोध करने एवं उसका फॉलोअप करने की जरूरत है। मीडिया के छात्रों के साथ कार्यशाला आयोजित करने की जरूरत हैं।
सामाजिक विकास से जुड़ी एजेंसियों के माध्यम से मुद्दों पर लिखे गए लेखों को जारी करने होंगे। इन कार्ययोजनाओं को देखते हुए यह जरूरी है कि जो प्रतिभागी संवाद में शामिल हुए हैं और जो मीडिया संवाद से जुड़े हैं, या फिर जो जन सरोकार से जुड़कर मूल्यपरक पत्रकारिता के पक्षधर हैं, वे अपने-अपने क्षेत्र में संवाद की प्रक्रिया को आगे बढ़ाएं। मीडिया के भविष्य और भविष्य के मीडिया पर इन विचारों से शायद कोई कारगर दिशा मिल सकती है।
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प्राध्यापक, हिन्दी विभाग,शासकीय
दिग्विजय महाविद्यालय, राजनांदगांव।
मो.9301054300
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