पर्यावरण पथ के पथिक पर्यावरणविदों की असली जीवन कहानियां संपादनः ममता पंडया, मीना रघुनाथन हिंदी अनुवादः अरविन्द गुप्ता कासिम मोहम्...
पर्यावरण पथ के पथिक
पर्यावरणविदों की असली जीवन कहानियां
संपादनः ममता पंडया, मीना रघुनाथन
हिंदी अनुवादः अरविन्द गुप्ता
कासिम मोहम्मद
कासिम मोहम्मद और उनका परिवार सालों से नलसरोवर के पास रहते आये हैं। यह बड़ा ताल गुजरात में, अहमदाबाद से लगभग 60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस ताल पर बड़ी मात्रा में, प्रवासी पक्षी आकर्षित होते हैं, विशेषकर जाड़े के मौसम में। बहुत से दर्शक और सैलानी इन पक्षियों को देखने के लिये आते हैं। कुछ ताल के पास पिकनिक मनाने भी आते हैं। कासिम एक ऐसे परिवार से आते हैं जिसने बरसों से नाव चलाने का काम किया है। कासिम का अपने परंपरागत पेशे के साथ-साथ, नलसरोवर पर आये पक्षियों के बारे में अधिक जानने में गहरी रुचि है। वो अपने इस ज्ञान को दो-पाये पर्यटकों के साथ भी बांटने को इच्छुक हैं! वो एक स्वयंशिक्षित पक्षी-निरीक्षक हैं और उनमें अभूतपूर्व उत्साह है।
पक्षी मेरी पड़ोसी हैं
मेरा नाम कासिम मोहम्मद है। मैं 34 साल का हूं। मैं गुजरात फारेस्ट विभाग के लिये नलसरोवर पक्षी अभयारण्य में नाव चलाने का काम करता हूं। यह ताल 120 वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैला है और अहमदाबाद से 60 किलोमीटर दूर है। इस सरोवर में बहुत से पक्षी रहते हैं परंतु जाड़े के मौसम में यहां दूर-सुदूर के बहुत से प्रवासी पक्षी भी आते हैं जिनमें खासतौर पर राजहंस (फ्लैमिंगोज), हवासील (पेलिकिन) और कई प्रजातियों की बत्तखें भी होती है। बहुत से पर्यटक नलसरोवर आते हैं - कुछ पक्षी-निरीक्षण के लिये परंतु अधिकांश पिकनिक मनाने आते हैं। मेरा काम सुबह जल्दी ही शुरू हो जाता है।
मैं पर्यटकों का अपनी नाव में, सरोवर के एक किनारे पर इंतजार करता हूं। मैं उन्हें सरोवर मैं नौका विहार के लिये ले जाता हूं और साथ में उन्हें पक्षियों के दर्शन भी करता हूं। परंतु अधिकांश पर्यटकों की पक्षी-निरीक्षण में विशेष रुचि नहीं होती है। उन्हें बस पिकनिक के दौरान, नौकाविहार में मजा आता है। मेरे पिता जब सरोवर में नाव चलाते थे तब मैंने उनके साथ काम करना शुरू किया। मेरे पिता ने मुझे नाव चलाना सिखाया। मैं पांचवी कक्षा तक पढ़ा हूं। मेरे माता-पिता ने पढ़ाई खत्म करने के तुरंत बाद मेरी शादी कर दी। मुझे चार बहनों के साथ-साथ अपने परिवार की देखभाल भी करनी पड़ती है। मुझे पता था कि एक दिन मैं भी अपने पिता की तरह ही नाव चलाऊंगा। मेरे पास कोई और चारा भी नहीं था। जब से पिता कमजोर और बीमार हुये तब से उन्होंने नाव चलाना छोड़ दिया। उसके बाद मुझे ही इस काम को संभालना पड़ा।
अब मेरे पिता और एक बहन, गेट के पास चाय की दुकान चलाते हैं। नाव चलाने के लिये बहुत ताकत, सहनशक्ति और उर्जा की जरूरत होती है। मुझे यह नहीं पता कि मुझे कैसे पक्षियों के नाम याद हुये परंतु पक्षियों में रुचि किस तरह जगी यह मुझे अच्छी तरह याद है।
जब मैं सात साल का था तो एक बूढ़ा आदमी नलसरोवर को देखने आया करता था। हर कोई उस बूढ़े आदमी की बातें करता। उनके पास एक कैमरा था और जब वो कैमरे का बटन दबाते तो उससे निकलती ‘क्लिक’ की आवाज मुझे बहुत पसंद आती। जब मुझे पता चला कि वो एक पक्षी वैज्ञानिक हैं तो मैं अचरज करने लगा कि भला लोग पक्षियों का क्यों अध्ययन करते हैं। बाद में मुझे पता चला कि उनका नाम डा सलीम अली था। वो एक नामीगिरामी व्यक्ति थे और उन्होंने प्रकृति विज्ञान में बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया था। उनकी उस यात्रा के बाद से मैं पक्षियों को ध्यान से देखने लगा। मैं पक्षी-निरीक्षण करते-करते ही बड़ा हुआ हूं और इस दौरान मैंने पक्षियों की आबादी को घटते हुये भी देखा है।
इस सरोवर के चारों ओर सात गांव बसे हैं। इनके निवासी मूल रूप से मछलियां पकड़ते हैं और कुछ अधिक पैसे कमाने के लिये चिड़ियों को भी पकड़ते हैं। वो कुछ चिड़ियों को बेंच देते हैं और कुछ को खा जाते हैं। पक्षियों को पकड़ने के लिये वो दो बांसों की सहायता से एक खड़े जाल को पानी सतह पर लगाते हैं। मेरी पक्षियों में रुचि एक घटना के बाद से शुरू हुयी। मैंने और मेरे मित्र ने एक पक्षी को जाल में फंसा हुआ पाया। हमें लगा कि पक्षी मरा होगा परंतु वो बच गया। हमने जब जाल में से पक्षी को छुड़ाया तो हम उसके पंखों का रंग और उसकी चोंच देखकर दंग रह गये। यह पहला अवसर था जब मैंने किसी चिड़िया को इतने करीब से देखा था।
एक बार मैंने और मेरे मित्र ने बेवकूफी में पक्षियों को फंसाने की योजना बनायी। हमने ऐसा क्यों किया यह मुझे अब याद नहीं। हमने ऐसे दो बांस और जाल लिये जिनसे स्थानीय लोग पक्षियों को पकड़ते थे। दोनों बांसों को इकट्ठा लगाना आसान नहीं था। दो घंटे तक पानी में संघर्ष करने के बाद हम जाल को फैलाने में सफल हुये। सुबह को हम उसमें फंसे पक्षी को देखने के लिये आये। हमारे दोनों बांस और जाल गायब थे! यह देखकर हमें बड़ा गहरा धक्का लगा।
अंत में हमनें उन्हें किनारे के पास तैरता हुआ पाया। हमें इस बात का भी अंदाज लगा कि पक्षी पकड़ना कोई आसान काम नहीं है! सरोवर के पास रहने वाले बच्चे अपने आसपास हो रही चीजों से सीखते हैं। इस प्रकार पक्षियों को आज भी पकड़ा जाता है। मुझे इस बात का भय है कि अगर सरोवर के आसपास रह रहे बच्चों को ताल और पक्षियों के महत्व की शिक्षा नहीं मिलेगी तो वो कहीं एक दिन पक्षियों के शिकारी न बन जायें। कुछ नाविकों को रात के समय सरोवर की चौकीदारी का काम दिया जाता है। चौकीदारी करने के दौरान मैंने बहुत से जालों को पकड़ कर उन्हें फारेस्ट विभाग को सौंपा है। जालों की संख्या को फाइल में दर्ज किया जाता है और इस प्रशंसनीय कार्य के लिये मुझे कुछ अंक मिलते हैं।
मुझे दुख है कि इन अंकों को केवल रपटों में ही गंभीरता से लिया जाता है परंतु उन पर कभी भी कोई ठोस कदम नहीं उठाया जाता है। इस प्रकार की घटनायें मुझे उदास और परेशान करती हैं। मुझे फिक्र लगी रहती है कि अगर इस प्रकार की वारदातें जारी रहीं तो एक दिन सभी पक्षी लुप्त हो जायेंगे। एक बार रात को चौकीदारी के समय शिकारियों ने मेरा पीछा किया जिससे एक पत्थर मरे सिर पर आकर लगा। इन घटनाओं से मेरे परिवार के सदस्य परेशान होते हैं और मुझे इन मामलों से दूर रहने की सलाह देत हैं। दिसंबर और जनवरी के महीनों में नलसरोवर में सबसे अधिक पर्यटक आते हैं। तब तालाब पर विभिन्न प्रजातियों के पक्षियों का मेला सा लगा रहता है। पक्षियों को देखने के बाद लोगों की अलग-अलग प्रतिक्रियायें होती हैं।
जिन पर्यटकों की पक्षियों में बिल्कुल रुचि नहीं होती उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। उन्हें जोर की आवाजें निकालने और गाना गाने में ही मजा आता है। अगर मैं उनसे चुप रहने की अपील भी करूं तो भी मेरी बात नहीं मानते। कुछ अहमदाबाद के कंकारिया चिड़ियाघर को, पक्षी-निरीक्षण की बेहतर जगह मानते हैं। उनके अनुसार वहां पर आप पक्षियों को करीबी से और स्पष्टता से देख सकते हैं। परंतु कुछ लोग केवल पक्षी-निरीक्षण के लिये ही यहां आते हैं और वो मेरे पिता से चाय की दुकान पर ही मेरे बारे में मालूमात हासिल करते हैं। जिन लोगों की पक्षियों में रुचि होती है वो मेरी बातों को बड़े ध्यान से सुनते हैं और जाते वक्त मुझे अपने विजिटिंग कार्ड और पते दते जाते हैं।
नलसरोवर में नये पक्षियों के आने की सूचना वो मुझसे टेलीफोन करके बताने को कहते हैं। मैं पर्यटकों को अधिक पैसों के लालच में, पक्षी-निरीक्षण नहीं कराता हूं। ऐसा करने से मुझे बड़ी खुशी मिलती है। मैं उम्मीद करता हूं कि ये पर्यटक वापिस जाकर अन्य लोगों को नलसरोवर की बहुमूल्य संपदा के बारे में बतायेंगे। मुझे अभी तक किसी दूसरे पक्षी अभयारण्य में जाने का मौका नहीं मिला है। अक्सर दर्शक, राजस्थान के भरतपुर पक्षी अभयारण्य का जिक्र करते हैं। परंतु मेरे लिये तो यहीं भरतपुर है। बहुत से पर्यटक पूछते हैं कि मैंने पक्षियों के नाम कैसे सीखे, क्योंकि मैं अधिक पढ़ा-लिखा नहीं हूं।
मैंने इन्हें पुस्तकों या एक विशेष व्यक्ति से नहीं सीखा। मैं पक्षी-निरीक्षण करता हुआ ही बड़ा हुआ, परंतु उन सभी के नाम, खासकर के अंग्रेजी के नामों को याद करने में मुझे कई वर्षों का समय लगा। जब कभी यहां बड़े अफसर या पक्षी-निरीक्षक आते तो वे पुस्तकों में देखकर आपस में चर्चा करते। मैं उनकी बातों को बड़े ध्यान से सुनता और कभी-कभी किताबों में झांककर उनकी तस्वीरों को पास से देखने की कोशिश करता था। अब मैं नलसरोवर के लगभग सभी पक्षियों को पहचान सकता हूं। वो यहां कब आते हैं और कहां अपने घोंसले बनाते हैं यह भी मुझे पता है। पिपि (जसाना) और जलमुर्गियों (मूरहेन) जैसे पक्षी तैरती वनस्पतियों में ही अपने घोंसले बना लेते हैं। इसलिये नाव को, सरोवर के घास वाले इलाके में ले जाते हुये और किनारे पर चलते समय मुझे सावधानी बरतनी पड़ती है।
मैं चाहता हूं कि मेरे सहनाविक भी पक्षियों के बारे में सीखें और सिखायें। अक्सर नाव वाले पक्षियों के गलत नाम बताते हैं। वो कई बार गजपांव (ब्लैकविंग स्टिल्ट) को राजहंस (फ्लैमिंगो) का बच्चा बना देते हैं! वो पर्यटकों के मनोरंजन के लिये मनमर्जी की कहानियां गढ़ लेते हैं। मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता है। हमें नलसरोवर को इस प्रकार नहीं बेंचना चाहिये। पक्षियों के कारण ही इतने सैलानी नलसरोवर आते हैं और हमें उन्हें सही और तथ्यात्मक जानकारी देना चाहिये। नाव चलाने वालों की चेतना बढ़ाना महत्वपूर्ण है। हम चाहें तो पक्षियों को बचाने का काम कर सकते हैं। इसलिये सरोवर के संरक्षण का काम हमारे अपने हित में है। मेरा सपना इस स्थान को एक सुरक्षित जगह बनाने का है।
मैं नलसरोवर को हरेक मौसम और छटा में लिपिबद्ध करना चाहता हूं। अगर इस प्रकार की डाक्युमेंटरी को लोग टेलीविजन पर देखेंगे तो वो इस सरोवर के बारे में अधिक जान पायेंगे। अगर आफिस क्षेत्र में ही एक शैक्षणिक केंद्र खोला जाये तो बहुत अच्छा होगा। नौका विहार से पहले लोग उस केंद्र में जायेंगे तो अच्छा होगा। इस सरोवर के आसपास रहने वाले लोगों को इस तालाब के महत्व के बारे में भी समझाना होगा। मुझे लगता है कि हमें आसपास के गांवों में जनजागरण और चेतना का कार्यक्रम चलाना चाहिये, खासकर छोटे लड़के-लड़कियों के लिये। उन्हें सही मार्गदर्शन की आवश्यकता है और उन्हें पक्षियों के इस स्वर्ग के पास रहने का गर्व होना चाहिये। नौका चालक और पक्षी-निरीक्षक होने के अपने ही फायदे हैं।
मैं पक्षियों को बिना विघ्न पहुंचाये भी उनके पास तक जा सकता हूं। मैं विभिन्न पक्षियों की आवाजों को स्पष्ट सुन पाता हूं और मुझे उनके व्यवहार और घोंसलों के अवलोकन का अवसर भी मिलता है। मुझे लगता है नलसरोवर ही मेरा घर है और पक्षी ही मेरी पड़ोसी हैं। मुझे नलसरोवर के रखरखाव में अपने छोटे से योगदान से खुशी मिलती है और मैं उस दिन का इंतजार कर रहा हूं जब हरेक गांववासी भी अपने आपको नलसरोवर का एक अभिन्न अंग समझेगा। सेंटर फार इंवायरनमेंट एडयुकेशन की अंबिका अइयादुराई को सुनाई वार्ता पर आधारित।
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(अनुमति से साभार प्रकाशित)
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