पर्यावरण पथ के पथिक पर्यावरणविदों की असली जीवन कहानियां संपादनः ममता पंडया, मीना रघुनाथन हिंदी अनुवादः अरविन्द गुप्ता सीमा भट्ट ज...
पर्यावरण पथ के पथिक
पर्यावरणविदों की असली जीवन कहानियां
संपादनः ममता पंडया, मीना रघुनाथन
हिंदी अनुवादः अरविन्द गुप्ता
सीमा भट्ट
जब सीमा भट्ट ने ‘पर्यावरण’ और ‘जैविक विविधता’ के मुद्दों पर काम करना शुरू किया तब यह विषय इतने लोकप्रिय नहीं थे। इसलिये वो इस क्षेत्र में जीवविज्ञान और कीटविज्ञान के परंपरागत विषयों के जरिये आयीं। यात्राओं और घुमक्कड़ी में गहरी रुचि के कारण ही उन्होंने पढ़ाई को अन्य गतिविधियों - जैसे डब्लूडब्लूएफ द्वारा आयोजित शिविरों आदि से जोड़ने की सोची। इसी विशेष संयोजन की वजह से ही वो तमाम अलग-अलग काम कर पायीं हैं और समृद्ध अनुभवों से गुजरी हैं। शायद यही एक दिन उनका ‘खास पेशा’ बन जाये - जिसमें संरक्षण के कामों में आम लोगों की भागीदारी हो। वो हमेशा ‘कुछ नया’ करने को तैयार रहती हैं। सीमा नये क्षेत्रों और आयामों को खोजने के लिये तत्पर हैं - चाहें वो भौगोलिक हों या फिर उनके पेशे से संबंधित हों।
नाम, स्थान, जानवर, चीज
मुझ से लोग अक्सर पूछते हैं कि मैं आजीविका के लिये क्या करती हूं। यह एक कठिन प्रश्न है। मैं पर्यावरण/संरक्षण/और जैविक विविधता की विशेषज्ञ हूं। आप जैसे चाहें इसे उल्टा-पुल्टा करके देखें - मैंने जैविक विविधता के संरक्षण को ही अपना पेशा बनाया है। इस अजीबोगरीब पेशे को आखिर मैंने क्यों चुना? इसकी शुरुआत कहां हुयी यह कहना कठिन होगा। मेरे परिवार में मेरे माता-पिता के अलावा मेरी दो बड़ी बहनें हैं। सबसे छोटी होने के कारण शायद मुझे इस अजीबोगरीब पेशे को चुनने में अवश्य कुछ छूट मिली। माता-पिता ने बचपन से ही हममें प्रकृति प्रति प्रेम के बीज बोये थे।
मुझे याद है कि जब कभी हमारा पूरा परिवार यात्रा पर जाता तो मेरे माता-पिता हमेशा सामान्य पक्षियों की ओर इशारा करके उनके हमें नाम बताते। उन्होंने ही नीलकंठ (ब्लू जे) और किलकिला (किंगफिशर) पक्षियों स पहली बार मेरा परिचय कराया। मेरे माता-पिता ने मुझे आसपास ‘देखने’ के लिये प्रोत्साहित किया। बचपन में हमारा एक प्रिय खेल था जिसमें खिलाड़ियों को किसी विशेष अक्षर से नाम, स्थान, जानवर, चीजें आदि लिखने होते थे। इसमें दुर्लभ और अजीबोगरीब पक्षियों और जानवरों ने नाम खोजना बड़ा चुतौनी भरा काम होता था। इन्हें खोजने के लिये मैं प्रकृति से संबंधित पुस्तकें पढ़ने लगी और इससे मुझे इस विषय के बारे में और अधिक जानने का प्रोत्साहन मिला।
मैंने जेरेल्ड डरल और जिम कार्बेट जैसे लेखकों की पुस्तकें भी पढ़ीं और फिर मेरी दूरदराज की मनमोहक जगहों पर यात्रा करने और वहां के विचित्र पक्षी और प्राणी देखने की इच्छा बहुत प्रबल होती गयी। इसके सबके कारण मेरे लिये स्कूल में जीवविज्ञान का विषय पढ़ना अनिवार्य हो गया। कालेज में भी मैंने प्राणिविज्ञान विषय को चुना। मुझे इस विषय में बस मजा आता था। आगे जाकर मैं उसका किस प्रकार उपयोग करूंगी यह मुझे नहीं पता था। मेरी बड़ी बहन वनस्पतिशास्त्र में स्नातक होने के बाद डाक्टरी पढ़ने चली गयी। यह पेशा मेरे लिये अपना पाना संभव न था। परिवार में सबसे छोटे होने का भी फायदा था क्योंकि किसी ने भी मुझ पर किसी प्रकार का कोई दबाव नहीं डाला।
स्नातक की उपाधि के आखिरी साल में मैंने एक राष्ट्रीय अभयारण्य में वर्ल्ड वाइल्ड वाइड फंड (डब्लूडब्लूएफ - इंडिया) द्वारा आयोजित एक शिविर में भाग लिया। इसमें मैं पूरी तरह से रम गयी, या कहिये फंस गयी! मैं क्या करना चाहती थी, इसकी मुझे अब सही अनुभूति हुयी। मैं पर्यावरण संरक्षण के काम को अपना शौक और पेशा दोनों ही बनाना चाहती थी। उच्च शिक्षा के लिये पर्यावरण विज्ञान या वन्यजीवन विज्ञान जैसे विषय मैं अवश्य पढ़ना चाहती। परंतु तब इस प्रकार के विषय भारत के किसी भी विश्वविद्यालय में नहीं पढ़ाये जाते थे। परंतु संरक्षण का पेशा अपनाने के लिये उचित उच्च शिक्षा नितांत आवश्यक थी। इसी वजह से मैंने दूसरा सबसे अच्छा विकल्प चुना और कीटविज्ञान (कीड़ों के अध्ययन) में एमएससी करने का निश्चय किया। इस विषय की पढ़ाई के दौरान मुझे कम-से-कम कक्षा से बाहर निकलने का मौका तो प्राप्त होगा।
एमएससी करते समय मैं डब्लूडब्लूएफ - इंडिया के लिये एक स्वयंसेवी कार्यकर्ता जैसे काम करने लगी। यही शायद एक ऐसा मौका था जब मेरी मां ने आपत्ति उठायी। उस समय बिरला ही कोई छात्र, पढ़ाई के साथ-साथ काम करता था। मां को लगा कि काम करने से परीक्षा में मेरे कम नंबर आयेंगे। अब मेरे सामने एक स्पष्ट चुनौती थी! मैं रोजाना 25 किलोमीटर की यात्रा करती, जिसमें मुझे दो बसें बदलनी पड़तीं, जिससे कि मैं प्रतिदिन डब्लूडब्लूएफ - इंडिया के दफ्तर में कुछ घंटे बिता सकूं। मैंने अच्छे नंबर लाने के लिये खूब जमकर पढ़ाई भी की। मेरे कुछ प्रोफेसरों का ध्यान वन्यजीवन में मेरी गहरी रुचि की ओर आकर्षित हुआ और उन्होंने मुझे इस काम में प्रोत्साहित भी किया। मुझे एक प्रोफेसर की अभी भी याद है। वो हमें नियमित रूप से पक्षी निरीक्षण के लिये बाहर ले जाते थे।
एमएससी की पढ़ाई समाप्त करने के बाद मुझे डब्लूडब्लूएफ - इंडिया में ही नौकरी मिल गयी। इस प्रकार संरक्षण के क्षेत्र में मैंने काम करना शुरू किया। भारत के जंगलों में घूमने-फिरने के मेरे रोमांचक सपने धरे रह गये क्योंकि अगले पांच वर्ष मुझे अपनी मेज पर ही, पर्यावरण संबंधी जानकारी को एकत्रित और व्यवस्थित करने में गुजारने पड़े। अपना काफी खाली समय बाहर बिताने के बाद भी मैं अपनी नौकरी से ऊब गयी थी। परंतु अब मैं जब पीछे मुड़ कर देखती हूं तो शायद यह साल बेकार नहीं गये।
पर्यावरण के क्षेत्र में मेरे लिये यह एक बहुत महत्वपूर्ण उन्मुखीकरण था और शायद इसी के कारण मैं अमरीका से पर्यावरण विज्ञान में एक और उच्च डिग्री प्राप्त कर पायी। मैंने इस डिग्री के लिये जी तोड़ कर मेहनत की परंतु उसमें मुझे बहुत मजा भी आया। मैं जो कुछ भी पढ़ रही थी उसका मैं जिंदगी से रिश्ता जोड़ सकी क्योंकि मैं संरक्षण की असली दुनिया में थी। मैं अधिक-से-अधिक सीखने को तत्पर थी जिससे कि मैं उस ज्ञान को भारत वापिस लौट कर उपयोग में ला सकूं। उसके बाद से मैं भारत और नेपाल मं, जैविक विविधता से संबंधित प्रकल्पों का समन्वय कर रही हूं। इनका उद्देश्य उन तरीकों को खोजना है जिससे इन देशों की जैविक विविधता को स्थानीय समुदायों की सहायता से संरक्षित रखा जा सके। इन अनूठे प्रकल्पों में प्राकृतिक उत्पादों के लिये छोटे धंधे शुरू किये गये हैं जिससे कि स्थानीय लोगों को संरक्षण का कुछ आर्थिक लाभ भी मिले।
मैंने कर्नाटक में, बिलिरंगन जंगलों में, सोलिगा आदिवासियों के साथ काम किया है और शहद इकट्ठा करने, उसके रखरखाव और उसे बेंचने में उनकी सहायता की है। गढ़वाल की पहाड़ियों में स्थानीय साथियों की मदद से हमने लोगों को, बांझ के पत्तों से पर्यावरण-मित्र तरीके से टसर रेशम बनाया सिखाया है। सिक्कम में हमने पर्यावरण-मित्र, पर्यटन को सफल बनाने के तरीके सुझाये हैं। नेपाल में हमने एक बिल्कुल दूरदराज के जिले में स्थानीय समुदाय की, एक विशेष पौधे की जड़ों से, कुछ सुगंधित तेल निकालने में सहायता दी है। नेपाल में एक और प्रकल्प के तहत हमने, गेंडों और बाघ के एक इलाके में, समुदाय आधारित, पर्यावरण-मित्र पर्यटन तरीके से, रोजगार बढ़ाने के सुझाव दिये हैं। जब मैं हाथी की पीठ पर बैठकर गेंडों को निहारती हूं या फिर बर्फ से ढंकी पहाड़ियों पर से उगते सूरज की छटा को देखती हूं तो मैं यह सोचकर धन्य हो जाती हूं कि इन मनोरम नजारों का मजा लेने के लिये भी मुझे पैसे मिल रहे हैं!
परंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि इन अद्भुत अनुभवों के लिये बहुत श्रम भी करना पड़ता है। इसमें लंबी, धूल भरी
यात्रायें, पैरों में छाले, चिचड़ी, जोंक और कम उत्तेजक (परंतु जरूरी) काम, जैसे विस्तार से रिपोर्ट लिखना, हिसाब-किताब
रखना आदि कार्य शामिल होते हैं। जब मैं अपने काम के कुछ प्रत्यक्ष नतीजे देखती हूं तो मुझे बेहद खुशी मिलती है।
इस प्रकार के पेशे में इंसान को अपने शरीर को एकदम फिट रखना पड़ता है। साथ में मानसिक रूप से भी इंसान को हर प्रकार की परिस्थितियों का सामना करने के लिये तैयार रहना पड़ता है।
काम के दौरान भूस्खलन, आदमखोर बाघ, पागल हाथी के साथ-साथ चोर-उचक्कों को भी झेलना पड़ता हैं। इस कार्य में, अलग-अलग प्रकार के लोगों के साथ मिलकर काम करने की क्षमता भी होनी चाहिये। मैं आपको एक अविस्मरणीय अनुभव सुनाती हूं जिससे आपको ‘फील्ड में काम करने’ का कुछ अंदाज लग सकेगा। हम अपने एक प्रकल्प को देखने के लिये नेपाल के रायल चितवन नेशनल पार्क में गये थे। हमें वहां एक स्थानीय स्वयंसेवी संस्था के शोध कक्ष में रुकना था। यहां के कमरों में न तो बिजली थी और न ही कोई शौचालय। हमें रात को बाहर के शौचालय में जाने के लिये टार्च लेकर जाने की हिदायत दी गयी क्योंकि वहां रात को गेंडे आते थे। किसी ने भी इस बात पर विश्वास नहीं किया।
कुछ दिनों के बाद मैं जब एक रात को उठी तो मुझे बाहर किसी के जुगाली करने की आवाज आई। बाहर देखने पर मुझे एक गेंडा दिखायी दिया जो मध्यरात्रि में मजे से कुछ खा रहा था। उसके बाद से मैंने रात के समय, शौचालय को इस्तेमाल करना ही बंद कर दिया! पहली सिक्किम यात्रा के दौरान पहले हमें एक स्थान पर ले जाया गया। वहां से हमें एक पर्यावरण-मित्र पर्यटन स्थल तक जाने के लिये पैदल यात्रा करनी थी। सात घंटे की जीप यात्रा के बाद सड़क पर भूस्खलन हो गया जिसके कारण हमारा आगे जाना असंभव हो गया। तब हमने दूसरा रास्ता अपनाने की सोची। परंतु चार घंटे के बाद हमने दूसरी सड़क को भी भूस्खलन द्वारा बंद पाया। उस समय तक रात हो गयी थी और तेज बारिश पड़ने लगी थी। उसके बाद हमने सबसे पास के शहर में रात बितायी जहां हमें बिस्तर के अलावा सामुदायिक शौचालय की सुविधा उपलब्ध हुयी।
अगली सुबह हम लोग भूस्खलन के ऊपर पैदल चढ़े फिर दूसरी ओर आकर हमने अपने गन्तव्य के लिये आठ घंटे की पैदल चढ़ायी शुरू की। चढ़ायी का रास्ता बेहद खूबसूरत था, परंतु वहां पर जांकों की भी भरमार थी जिसकी वजह से हमें काफी सावधानी बरतनी पड़ी। सिक्किम में हमारा स्वागत काफी दिलचस्प रहा। हमें बार-बार बताया गया कि नेपाल का हुमला जिला बहुत दूर और बीहड़ इलाके में बसा है। हमें इस ‘दूरी’ का अंदाज वहां पहुंचने के बाद ही लगा। एक आठ सीटों वाले हवाईजहाज ने हमें 12,000 फीट (4,000 मीटर) पर बसे सिमिकोट के जिला मुख्यालय में छोड़ा।
सिमिकोट की यात्रा पूर्णतः मौसम पर निर्भित थी। सिमिकोट के बाद न तो कोई सड़कें थीं और न ही आने-जाने का अन्य कोई साधन। आप केवल पैदल ही इधर से उधर आ-जा सकते थे। और वहां पैदल चलना कोई आसान काम नहीं था। इसकी सही अनुभूति मुझे अपने पैरों के नाखूनों से हुयी! एक प्रकल्प स्थल तक पहुंचने के लिये हमें तीन घंटे तक कठिन उतराई करनी पड़ी। अपने तंबुओं में रात गुजारने के बाद (जहां भारी मात्रा में कुटकी और पिस्सू थे) हमने पास के गांव में जाने की सोची। ऊंचे-नीचे दुर्गम पहाड़ों पर पांच घंटे की यह यात्रा मेरे जीवन में सबसे कठिन यात्रा थी।
परंतु इसमें हमें कुछ अद्भुत प्राकृतिक सुंदरता भी देखने को मिली! इतनी चढ़ाई की यात्रा के फलस्वरूप मेरे पैर के अंगूठों के दोनों नाखून निकल गये! मैंने अक्सर ऐसी स्थितियों में काम किया है जहां मैं अकेली महिला होती हूं - परंतु मैंने ऐसे हालातों की कभी परवाह नहीं की है। मैं कुछ अलग हूं इसका मुझे किसी ने कभी कोई अहसास नहीं होने दिया। मैं इस तथ्य पर इसलिये जोर दे रही हूं जिससे महिला होने के कारण ऐसा पेशा चुनने में किसी को कोई बाधा न आये।
सीखना हमेशा जारी रहता है, इस बात को मैं इस क्षेत्र में पंद्रह वर्ष काम करने के बाद समझी हूं। हरेक स्थान, हरेक यात्रा और हरेक समुदाय ने मुझे कुछ न कुछ सिखाया है। मैंने इस समझ को बाद में, कहीं न कहीं उपयोग किया है। इस पेशे में खुले दिमाग से काम करना बहुत महत्वपूर्ण है।
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(अनुमति से साभार प्रकाशित)
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