मनोज कुमार समावेशन शब्द का अपने आप में कुछ खास अर्थ नहीं होता है । समावेशन के चारों ओर जो वैचारिक, दार्शनिक, सामाजिक और शैक्षिक ढ़ाँचा ह...
मनोज कुमार
समावेशन शब्द का अपने आप में कुछ खास अर्थ नहीं होता है । समावेशन के चारों ओर जो वैचारिक, दार्शनिक, सामाजिक और शैक्षिक ढ़ाँचा होता है वही समावेशन को परिभाषित करता है । समावेशन की प्रक्रिया में बच्चे को न केवल लोकतंत्र की भागीदारी के लिए सक्षम बनाया जा सकता है, बल्कि यह सीखने एवं विश्वास करने के लिए भी सक्षम बनाया जा सकता है कि लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए दूसरों के साथ रिश्ते बनाना, अर्न्तक्रिया करना भी समान रूप से महत्वपूर्ण है ।
(एन.सी. एफ. 2005, पृष्ठ 96)
स्वतंत्रता के बाद शिक्षा प्रणाली की क्या उपलब्धि रही है, यदि हम इस ओर ध्यान दें तो संभवतः हमें कुछ संतोषजनक आंकड़े मिलेंगे। आज भारत की विद्यालय शिक्षा व्यवस्था चीन के पश्चात् विश्व की दूसरी सबसे बड़ी शिक्षा व्यवस्था है । जहाँ तकरीबन 10 लाख स्कूलों में 2025 लाख बच्चों को पढ़ाने का काम लगभग 55 लाख शिक्षक कर रहे हैं। 82 प्रतिशत रिहाइशी इलाकों में एक किलोमीटर की परिधि के अन्दर प्राथमिक और 75 प्रतिशत रिहाइशी इलाकों में तीन किलोमीटर के अंदर उच्च प्राथमिक पाठशाला हैं। माध्यमिक स्तर की परीक्षा में भाग लेने वाले बच्चों में कम से कम 50 प्रतिशत बच्चे परीक्षा में उत्तीर्ण होते हैं। इस सबके पश्चात् भी वर्तमान में लाखों बालक शिक्षा की मुख्यधारा से वंचित है । बावजूद इसके आज भी हमारें विद्यालय ऐसे बालकों के लिए साधनहीन नजर आते है जिनकी विभिन्न ज्ञानेन्द्रिय, शारीरिक , बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक कारणों के कारण कुछ विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकतायें है ।
वर्तमान में विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बालकों के लिए शिक्षा की दो प्रकार की व्यवस्थाएं है । एक वह जिन्हे हम विशेष विद्यालय कहते है, जो ज्यादातर शहरों मे स्थित आवासीय है । जिनका उदेद्श्य केवल एक प्रकार के विशिष्ट बालकों की विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा करना होता है । और दूसरा तरीका है कि उन्हे अन्य सभी बालकों के साथ आस-पड़ोस के सामान्य विद्यालय में भेजा जाये और वही उनकी विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा करने की व्यवस्था कि जायें। यदि बालक इस प्रकार के विद्यालय में जाता है तो वह अपने अन्य भाई बहनों के समान अपने माँ बाप के साथ रह सकता है । दूसरा इस प्रकार के विद्यालयों में सभी बालक एक दूसरे से मिलजुल कर एक दूसरे से सीख सकते है । इसके अलावा बालक को बाद में अपने आपको दुनिया में समायोजित करने में सहायता मिलती है क्योंकि आखिरकार उसको रहना तो उसको उसी समाज में है जिसका कि वो हिस्सा होता है इसलिए क्यों न बालक को प्रारम्भ से ही उस माहौल में रखा जाये जहाँ उसे विद्यालय की शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् रहना है? इसलिए अच्छा है कि आरम्भ से बालक को मुख्यधारा वाले ऐसे विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा जाये जहाँ अन्य सामान्य बालक भी जाते है । इस अवधारणा के साथ समावेशित शिक्षा व्यवस्था प्रणाली का आरम्भ हुआ । समावेशी शिक्षा से तात्पर्य ऐसी शिक्षा प्रणाली से है जिसमें प्रत्येक बालक को चाहे वो विशिष्ट हो या सामान्य बिना किसी भेदभाव के, एक साथ, एक ही विद्यालय में, सभी आवश्यक तकनीकों व सामग्रियों के साथ, उनकी सीखने सिखाने के जरूरतों को पूरा किया जायें ।
समावेशी शिक्षा के मायने
समावेशित शिक्षा कक्षा में विविधताओं को स्वीकार करने की एक मनोवृत्ति है जिसके अन्तर्गत विविध क्षमताओं वाले बालक सामान्य शिक्षा प्रणाली में एक साथ अध्ययन करते है । समावेशित शिक्षा के दर्शन के अन्तर्गत प्रत्येक बालक अद्वितीय है और उसे अपने सहपाठियों की भाँति विकसित करने के लिए कक्षा में विविध प्रकार के शिक्षण की आवश्यकता हो सकती है । बालक के पीछे रह जाने के लिए उसे दोषी नही ठहराया जा सकता है, बल्कि उन्हें कक्षा में भली प्रकार समाहित न कर पाने का जिम्मेदार अध्यापक को स्वंय समझना चाहिए ।
जिस प्रकार हमारा संविधान किसी भी आधार पर किये जाने वाले भेदभाव को निषेध करता है, उसी प्रकार समावेशित शिक्षा विभिन्न ज्ञानेन्द्रिय, शारीरिक , बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक आदि कारणों से उत्पन्न किसी बालकों की, विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं के बावजूद उन बालकों को भिन्न देखे जाने के बजाए स्वंत्रत अधिगमकर्त्तों के रूप में देखती है ।
समावेशित शिक्षा का महत्त्व एवं आवश्यकता
क्र समावेशित शिक्षा प्रत्येक बालक के लिए उच्च और उचित उम्मीदों के साथ, उसकी व्यक्तिगत शक्तियों का विकास करती है ।
क्र प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप से सीखने के लिए अभिप्रेरित होता है ।
क्र समावेशित शिक्षा अन्य बालकों, अपने स्वयं के व्यक्तिगत आवश्यकताओं और क्षमताओं के सामंजस्य स्थापित करने में सहयोग करती है ।
क्र समावेशित शिक्षा सम्मान और अपनेपन की विद्यालय संस्कृति के साथ-साथ व्यक्तिगत मतभेदों को स्वीकार करने के लिए अवसर प्रदान करती है ।
क्र समावेशित शिक्षा बालक को अन्य बालकों के समान कक्षा गतिविधियों में भाग लेने और व्यक्तिगत लक्ष्यों पर कार्य करने के लिए अभिप्रेरित करती है ।
क्र समावेशित शिक्षा बालकों की शिक्षा गतिविधियों में उनके माता-पिता को भी सम्मिलित करने की वकालत करती है ।
समावेशित शिक्षा सही मायनों में शिक्षा का अधिकार जैसे शब्दों का रूपान्तरित रूप है जिसके कई उद्द्श्यों में से एक उद्देश्य है,विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बालकों को एक समतामूलक शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षा प्राप्त करने के अवसर प्रदान करना। समावेशित शिक्षा समाज के सभी बालकों को शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ने का समर्थन करती है ।
शिक्षा में समावेशन के आधार
क्र प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप से सीखने के लिए अभिप्रेरित होता है ।
क्र बालकों के सीखने के तौर तरीकों में विविधता होती है । अनुभवों के द्वारा, अनुकरण के माध्यम से, चर्चा, प्रश्न पूछना, सुनना, चिंतन मनन, खेल क्रियाकलापों, छोटे व बड़े समूहों में गतिविधियों करना आदि तरीकों के माध्यम से बालक अपने आसपास के परिवेश के बारे में जानकारी प्राप्त करता है । इसलिए प्रत्येक बालक को सीखने-सिखाने के क्रम में समुचित अवसर प्रदान करना आवश्यक है ।
क्र बालकों को सीखने से पूर्व सीखने-सिखाने के लिए तैयार करना आवश्यक होता है इसके लिए सकारात्मक वातावरण निर्मित करने की जरूरत होती है ।
क्र बालक उन्ही सीखी हुई बातों के साथ अपना संबंध स्थापित कर पाता है जिनके बारे में उसके अपने परिवेश के कारण भली-भाँति समझ विकसित हो चुकी हो।
क्र सीखने की प्रक्रिया विद्यालय के साथ साथ विद्यालय के बाहर भी निरन्तर चलती रहती है । अतः सीखने-सीखने की प्रक्रिया कों इस प्रकार व्यवस्थित किये जाने की आवश्यकता है जिससे बालक पूर्ण रूप से उसमें सम्मिलित हो जाये और उसके बारे में अपने आधार पर अपनी समझ विकसित करें ।
क्र सीखने-सिखाने की प्रक्रिया आरम्भ करने से पूर्व बालक के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भूगौलिक व राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को जानना आवश्यक है ।
क्र प्रत्येक बालक की विविधता के प्रति आदर रखना ।
समावेशित शिक्षा हेतु रणनीतियाँ
समावेशित शिक्षा हेतु कुछ रणनीतियाँ इस प्रकार हो सकती है :-
समावेशित विद्यालय वातावरण :- बालकों की शिक्षा चाहे वह किसी भी स्तर की हो, उसमें विद्याालय के वातावरण का बहुत योगदान होता है। विद्यालय का वातावरण ही कुछ चीजों की शिक्षा बालकों को स्वंय भी दे देता है । समावेशित शिक्षा के लिए यह आवश्यक है कि विद्यालय का वातावरण सुखद और स्वीकार्य होना चाहिए । इसके अतिरिक्ति विद्यालय में विशिष्ट बालकों की विशिष्ट शैक्षिक, चलिष्णुता, दैनिक आदि आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आवश्यक साज-समान शैक्षिक सहायताओं, उपकरणों, संसाधनों, भवन आदि का समुचित प्रबंध आवश्यक है । बिना इनके विद्यालय में समावेशित माहौल बनाने में कठिनाई हो सकती है ।
सबके लिए विद्यालयः- समावेशित शिक्षा की मूल भावना है एक ऐसा विद्यालय जहाँ सभी बालक एक साथ शिक्षा प्राप्त करते है, परन्तु सामान्यतः इस तरह की बातें देखने और सुनने में आती रहती है कि किसी बालक को उसकी विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा करने में अपनी असमर्थता दर्शाते हुए, विद्यालय में प्रवेश देने से मना कर दिया या किसी विशेष विद्यालय में उसके दाखिले के लिए कहा हो।
समावेशित शिक्षा के उद्देश्यों को सभी बालकों तक पहुचाने के लिए यह आवश्यक है कि विद्यालय में दाखिले की नीति में परिवर्तन किया जाना चाहिए । हालाँकि शिक्षा के अघिकार अधिनियम 2009 इस सन्दर्भ में एक प्रभावी कदम कहा जा सकता है परन्तु धरातल पर इसकी वास्तविकता में अभी भी संदेह होता है ।
बालकों के अनुरूप पाठ्यक्रम :- बालकों को शिक्षित करने का सबसे असरदार तरीका है कि उन्हे खेलने के तरीकों तथा गतिविधियों के माध्यम से सीखाने का प्रयास किया जाना चाहिए। समावेशित शिक्षा व्यवस्था के लिए आवश्यक है कि विद्यालय पाठ्क्रम, बालकों की अभिवृत्तियों, मनोवृत्तियों, आकांशाओं तथा क्षमताओं को ध्यान में रखते हुए निर्घारित किया जाना चाहिए । इसके अतिरिक्त पाठ्क्रम में विविधता तथा पर्याप्त लचीलता होनी चाहिए ताकि उसे प्रत्येक बालक की क्षमताओं, आवश्यकताओं, तथा रूचि के अनुसार अनुकूल बनाया सकें, बालकों मे विभिन्न योग्यताओं व क्षमताओं का विकास हो सकें, उसे विद्यालय से बाहर, बालक के सामाजिक जीवन से जो जोड़ा जा सकें, बालकों को सामाजिक रूप से एक उत्पादित नागरिक बनाने में योगदान दे सकें इसके अतिरिक्त बालक के समय का सदुपयोग करने की शिक्षा प्राप्त हो सकें ।
मार्गदर्शन व निर्दैशन की व्यवस्थाः- विशेष आवश्यकताओं वाले बालकों की शिक्षा एक जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया है । इस प्रक्रिया में नियमित शिक्षक, विशेष शिक्षक, अभिभावक और परिवार, समुदायिक अभिकरणों के साथ विद्यालय कर्मचारियों के बीच सहयोग और सहकारिता शामिल है ।
समावेशित शिक्षा व्यवस्था के अर्न्तगत धर से विद्यालय जाते समय बालक को आरम्भ में नये परिवेश में अपने आपको समायोजित करने में कुछ असुविधा हो सकती है । जैसे आरम्भ में कक्षा के कार्यों में सामंजस्य स्थापित करने में कठिनाई होना, दोस्तों का आभाव, नामकरण आदि के करण बालक के आत्मविश्वास में कमी होना । इसके अतिरिक्त किशोरावस्था के दौरान होने वाले शारीरिक, मानसिक, सामाजिक परिवर्तनों के कठिनाई के दौर में मार्गदर्शन एवं निर्देशन से बालक को इस संक्रमण काल में काफी सहायता मिलती है । उचित मार्गदर्शन व निर्दैशन से बालक और उसके माता-पिता दोनों ही इन परिवर्तनों के लिए मानसिक, शारीरिक और सामाजिक रूप से तैयार किये जा सकते है ।
सहायक तकनीकी उपकरणों का उपयोगः- आज के युग में तकनीकी उपायों से मानव जीवन काफी हद तक सुगम हो गया है । मानव जीवन के प्रत्येक पहलु पर आज तकनीक का प्रभाव देखा जा सकता है । समावेशित शिक्षा के सफलता के लिए और उसके प्रचार प्रसार के लिए शिक्षा व्यवस्था में तकनीक का उपयोग किये जाने की आवश्यकता है । टी0वी0, कार्यक्रमों, कम्प्यूटर, मोबाइल फोन, सहायक शिक्षा व चलुष्णुता तकनीकी उपकरणों का उपयोग करके बालकों की शिक्षा, सामाजिक अर्न्तक्रिया, मनोरंजन, आदि मे प्रभावी शाली भूमिका निभाई जा सकती है । इस लिए आज आवश्यकता इस बात की है कि सावेशित शिक्षा वातावरण हेतु बालकों, अभिभावकोें,शिक्षकों को इसकी नवीन तकनीकी विधियों से परिचित करवाया जाये तथा उनके प्रयोग पर बल दिया जाए ।
समुदाय की सक्रिय भागीदारी -विशेष शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बालकों की शिक्षा की पूरी बुनियाद प्रतिभागिता निर्मित करने पर टिकी हुई है । एक अकेले व्यक्ति के प्रयासों से उन्हे शिक्षा की मुख्यधारा में सम्मिलित नहीं किया जा सकता है । समावेशित शिक्षा हेतु यह आवश्यक है कि विद्यालयों को सामुदायिक जीवन का केन्द्र बनाया जाना चाहिए जिससे की बालक की सामुदायिक जीवन की भावना को बल मिलें क्योंकि उसे एक निश्चित समय के पश्चात् उसी समुदाय का एक सक्रिय सदस्य के रूप में अपनी भूमिका का निर्वाह करना है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए समय-समय पर विद्यालय में सांस्कृतिक कार्यक्रम,वाद-विवाद, खेलकूद, देशाटन, जैसे मनोरंजक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिए और उनमें बालकों के अभिभावकों और समाज के अन्य सम्मानित व्यक्तियों को आमंत्रित किया जाना चाहिए जिसे कि उन्हें इन बालकों के एक समावेशित शिक्षा वातावरण में शिक्षा ग्रहण करने के संबध में फैली भ्राँतियों को दूर कर उन्हे इन बालकों की योग्यता व प्रतिभा से परिचित करवाया जा सकें ।
शिक्षकों का पर्याप्त प्रशिक्षण :- शिक्षक को ही शिक्षा पद्धति की वास्तविक गत्यात्मक शक्ति तथा शैक्षिक संस्थानों की आधारशिला माना गया है। यद्यपि यह बात सत्य भी है कि विद्यालय भवन, पाठ्यक्रम, पाठ्य सहभागी क्रियायें, सहायक शिक्षण सामग्री, आदि सभी वस्तुयें व क्रियाकलापों का भी शैक्षिक प्रक्रिया में महत्वपूर्ण स्थान होता है, परन्तु शिक्षक ही वह शक्ति है जो प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को सबसे अधिक प्रभावित करता है ।
समावेशित शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षकों की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है क्योंकि समावेशित शिक्षा व्यवस्था में अध्यापक केवल अपने आपको केवल शिक्षण कार्य तक ही अपने आपको सीमित नहीं रखता है, अपितु विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बालकों का कक्षा में उचित ढंग से समायोजन करना, उनके लिए विशिष्ट प्रकार की शैक्षिक सामग्री का निर्माण करना, विद्यालय के अन्य कर्मचारियों, अध्यापकों तथा विशिष्ट अध्यापक से बालक की विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सहयोग व सहकारपूर्ण व्यवहार करना, बालक को मिलने वाली आर्थिक सुविधाओं का वितरण करना आदि कार्य भी करने पड़ते है। इसलिए अघ्यापक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह पूर्णतः निपुर्ण हो, उसे विशिष्ट सामग्री की जानकारी हो, बालकों के प्रति स्वस्थ व सकारात्मक अभिवृत्तियाँ रखता हो, उनके मनोविज्ञान को समझाता हो ।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि समावेशन की नीति को हर स्कूल और सारी शिक्षा व्यवस्था में व्यापक रूप से लागू किए जाने की ज़रूरत है। बच्चे के जीवन के हर क्षेत्र में वह चाहे स्कूल में हो या बाहर, सभी बच्चों की भागीदारी सुनिश्चित किए जाने की ज़रूरत है। स्कूलों को ऐसे केंद्र बनाए जाने की आवश्यकता है जहाँ बच्चों को जीवन की तैयारी कराई जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि सभी बच्चों, खासकर शारीरिक या मानसिक रूप से असमर्थ बच्चों, समाज के हाशिए पर जीने वाले बच्चों और कठिन परिस्थितियों में जीने वाले बच्चों को शिक्षा के इस महत्वपूर्ण क्षेत्र के सबसे ज्यादा फायदे मिलें।
मनोज कुमार, प्रवक्ता , युवा प्रकोष्ठ, राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद्, दिल्ली.
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