कुमार अनिल पारा दोस्तों, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘भारत गांवों में बसता है’ लेकिन यह कथन कहने तक सीमित रह गया है। जिसकी तस्वीर...
कुमार अनिल पारा
दोस्तों, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘भारत गांवों में बसता है’ लेकिन यह कथन कहने तक सीमित रह गया है। जिसकी तस्वीर दूर की कल्पना से नजर नहीं आ सकती है। प्राचीन भारत से लेकर आधुनिक भारत के निर्माण तक भारत के गांवों की तस्वीर गांव की गलियों में ही मिल सकती है। आज भी भारत के ज्यादातर गावों में तीन-चार पीढ़ियों से रिश्ते के अमूल्य बंधन एक दूसरे से बंधे हैं। पीढ़ी-दर पीढ़ी भावनाओं की अटूट मिसाल एक दूसरे से लिपटी देखी जा सकती है। यही पीढ़ी आज विकास की अपार संभावनाओं के बीच भारत के गांवों से शहर की ओर पलायन कर रही है।
भौतिक सुख सुविधाओं की चाह में ग्रामीण आबादी शहरों की घनी आबादी की रौनक बनती जा रही है। वैसे तो भारत की संस्कृति परिवार रूपी गठरी से बंधी रहने के नाम से जानी जाती है पर आधुनिक युग में छोटी-छोटी बातों को लेकर विखण्डि़त होते परिवार भारतीय परिवारों की अंदरूनी समस्या बन गई है। गांवों की फुरसत की आजादी से शहर की ओर भागते परिवार आधुनिकता की चकाचौंध में भागमभाग की चिकनी सड़कों पर रोज फिसलते दिखाई दे रहें हैं। जो भारत के हर घर की कहानी बनते जा रहें हैं। एक तरफ रोज टूटते परिवार चिन्ता का विषय तो है हीं पर समाधान के विषय क्यों नहीं होते हैं? भले ही भारत में कई स्वंसेवी संस्थाएं परिवार परामर्श केन्द्र चला रहीं हो पर विखण्डि़त होते परिवार के लोगों पर वस किसी का नहीं चलता है। भारत के सात लाख गांवों से ही मिलकर भारत की शहरी सभ्यता का निर्माण हुआ है।
भारतीय सभ्यता के ठेकेदार तो लगे हाथ यह भी कह देते हैं कि ग्रामीण आबादी को मुहैया होती शहरी सुख सुविधाओं और आधुनिकता ने ही भारत के घरों में बसने वाली स्नेह, प्यार और अपनेपन की संस्कृति के ऊपर कुठाराघात किया है। जिसका परिणाम आज विखण्डि़त होते परिवारों के रूप में देखने को मिल रहा है। भारतीय सभ्यता में कुटुंब परिवार का मूल्य सबसे बड़ा माना गया है। कुटुंब ही इस पृथ्वी की सांसारिक गतिविधियों का संचालन आधुनिक काल से करता चला आ रहा है। कुटुंब की एकता, परिवार की एकता एवं समरूपता इस पृथ्वी का संचालन कर रही है। अहम बात तो यह है कि रोजमर्रा में घटने वाली घटनाओं के पीछे परिवार की वह गठरी बंधी है जहां अकेलेपन की दीवार छोटी दिखाई देती है।
भारतीय सभ्यता में गांवों की झलक देखी जाय तो निश्चित रूप कुटुम्ब परिवार की वह कड़ी आपस में एक दूसरे से जुड़ी नजर आएगी मानो फूलों की माला आज भी मुरझाई नहीं हो। पर शहरी सभ्यता आधुनिकता की दौड़ में अकेले रहना ज्यादा पसंद करती है। इसी सभ्यता के बीच टूट जाती है है वह आशा जो बंधे हुऐ परिवार ने एक दूसरे से लगाये रखी है। भारत को संस्कारों की जननी कहने में कतई संकोच नहीं है क्यों कि भारतीय सभ्यता के एक कुटुंब से हमें यह प्रेरणा मिलती है कि कुटुम्ब परिवार रूपी एक माला है, जो कि पारिवारिक रूप में हमें दिनचर्या के माध्यम से दिखाई पढ़ती है। यही परिवार की माला कुटुंब की माला एक कच्चे धागे से बनी है, उस कच्चे धागे में विभिन्न प्रकार के रंगों के फूल सूत्रधार में बंधे हैं, कहने का मतलब यह है कि अगर इस कुटुंब रूपी माला का कच्चा धागा यह कहे कि मेरे ऊपर यह माला बंधी है, मेरे अस्तित्व से इस माला का निर्माण हुआ है। और अलग-अलग रंगों के फूल यह कहें कि हम नहीं होते तो यह माला कैसे बनती अर्थात सही मायने में देखा जाये तो माला का निर्माण कच्चे धागे ओर विभिन्न रंगों व फूलों के मिलन से हुआ है। तब जाकर इस माला का निर्माण अथवा इस परिवार का निर्माण हुआ है। सभी फूलों को यह मालूम है कि हम जिससे बंधे है वह एक कच्चा धागा है अगर हम थोड़ा भी झटका दे देंगे तो यह कुटुंब रूपी माला टूट जायेगी। अर्थात कहने का मतलब यह है कि जिस माला में जिस कुटुंब में अलग-अलग रंग अलग-अलग सोच के लोग एंव फूल रहते हैं जिनसे मिलकर एक कुटुंब का निर्माण हुआ है। उन्हें कभी भी यह सोचना नहीं चाहिए कि में लाल रंग का फूल हूं मेरी खुशबू अच्छी है, और किसी को यह भी नहीं सोचना चाहिए कि में पीले रंग का फूल हूं मेरी खुशबू अच्छी है, मैं मानता हूं कि खुशबू तो अच्छी है पर यह जानना भी जरूरी है कि हम जिस धागे से बंधे है वह कच्चा धागा है, अगर सभी फूलों ने यह सोच लिया अर्थात परिवार के सभी सदस्यों ने यह सोच लिया तो उस कुटुंब रूपी माला का अन्त कभी नहीं होगा।
बहरहाल हमें यह अच्छी तरह मालूम है कि कुटुम्ब परिवार में अपने को श्रेष्ठ साबित करने से ही कुटुम्ब रूपी माला निरन्तर टूट रही है, अर्थात अपने गुणों का गुणगान कर दूसरे के प्रति उसे नीचा दिखाने की भावना ही भारत में रोज टूटते परिवारों की कहानी बन रही है। भारत की संस्कृति कुटुम्ब और परिवार से चलने वाले क्रियाकलापों की शैली रही है। जो किसी न किसी रूप में परिवार की गतिविधियों में व्याप्त है। भारतीय सभ्यता में रिश्तों की डोर अटूट मानी जाती है, जिसमें प्यार और स्नेह का भरपूर रंग चढ़ा रहता है, उस रंग की सुगंध उन लोगों को भी मोहित कर देती है जिन लोगों पर इन रिश्तों की डोर की छाया थोड़ी भी पढ़ जाती है। पर आधुनिक युग में जीवन जीने के तरीके इन परिवार और कुटुम्ब रूपी माला को हर रोज तोड़ रहे हैं। जिसका असर माँ-बाप भाई-बहन चाचा-चाची ताऊ और ताई से होती दूरियों में झलकता है।
रिश्तों की डोर तो नाजुक होती ही है, जरा सा भार पढ़ने पर टूटने से रोका नहीं जा सकता है। घर को प्यार का मंदिर कहा जाता है जहां माता पिता से मिलता अपार प्यार और स्नेह जीवन जीने के तरीकों को और सुगन्धित कर देता है। जिसकी खुशबू उसी रूप में घर के बाहर भी दिखाई देती है। भारत के घरों में मिलने वाली संस्कार की पूंजी अमूल्य है जिसका कोई मौल नहीं है, फिर हम यह सब भूल कर सुखमयी संस्कृति को एक दूसरे से अलग होकर विखण्डि़त कर रहे हैं आखिर क्यों? क्या शहरी सभ्यता और ब्रान्डेड कपड़े ने उस अपार प्यार को पूरी तरह से ढ़ंक दिया जिसका परिणाम विखण्डि़त होते परिवारों के रूप में हमको भुगतना पढ़ रहा है। कुटुम्ब परिवार के बिना जीवन जीने की परिभाषाएं अधूरी होती जा रहीं है।
अकेलेपन की संस्कृति हमारे देश में कहां से आई है इसका जवाब किसी के पास नहीं है? कुटुम्ब परिवार का नाम सुनने को तो मनमोहक लगता है पर वर्तमान परिवेश की आधुनिक पीढ़ी ने कुटुम्ब परिवार की मोहकता का गला घोंट के रख दिया है। एक दूसरे से ज्यादा कमाने और काम करने के अहम ने कुटुम्ब परिवार रूपी लीला का अंत कर दिया है। आखिर कब तक हमारे कुटुम्ब परिवार के लोग एक दूसरे से विखण्डित होते रहेंगे? यह अब समझ के परे हो गया है। जरा-जरा सी बातों पर अपनों की अपनों पर वेदनाओं के तीर सीधे कुटुम्ब परिवार की माला को कमजोर करने में लगे हुए हैं। और संवेदनाओं की दवाई अपनों के तीर से लगे घाव को भरने में भी असमर्थ हो रही है। परिणामस्वरूप देश का हर आंगन आज बट चुका है।
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कुमार अनिल पारा
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