दीपक आचार्य काम के मामले में हर कोई इंसान इस बात को लेकर सजग रहता है कि वह ऎसा कुछ करे कि उसका नाम भी हो और यश भी प्राप्त हो। हम सभी में...
दीपक आचार्य
काम के मामले में हर कोई इंसान इस बात को लेकर सजग रहता है कि वह ऎसा कुछ करे कि उसका नाम भी हो और यश भी प्राप्त हो।
हम सभी में इस बात को लेकर उत्सुकता बनी ही रहती है कि कोई से ऎसे काम करें कि इसका हर तरफ जिक्र हो और हमें सराहा जाए।
इसके लिए हर कोई इंसान अपनी रुचि और लाभ-हानि का आकलन करता हुआ किसी न किसी कर्मयोग को अपनाता है और उस दिशा में आगे बढ़ने की कोशिश करने लगता है।
अपने क्षेत्र से लेकर दुनिया भर में हर कहीं लोग इसी मंशा के अनुसार दिन-रात सोचने और कर्म करने में जुटे हुए हैं।
इनमें और लोगों की तरह हम भी किसी न किसी लक्ष्य को सामने रखकर कर्मरत हैं ही।
लक्ष्य के अनुरूप सफलता प्राप्त करना और अपने कामों या व्यवहार को उल्लेखनीय होने का दर्जा दिला देना अपने आप में महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हो सकता है।
लेकिन इससे कहीं अधिक प्रभावी है इसे अनुकरणीय स्वरूप प्रदान कर डालना।
अपने व्यक्तित्व और कर्म का उल्लेख कोई भी कर सकता है, कहीं पर भी उल्लेख किया जा सकता है।
अहम् बात यह है कि हमारे व्यक्तित्व और कर्मयोग का उल्लेख होना भर काफी नहीं है बल्कि हमारी वृत्तियों और व्यवहारिक आदर्शों का तभी महत्त्व है जबकि दूसरे लोग अनुकरण करें और वह कोरा अनुकरण ही न हो बल्कि अनुकरण के उपरान्त प्राप्त उपलब्धि में कोई नवीन तथ्य और प्रभाव जुड़ें।
आज सर्वत्र उल्लेखनीय तो बहुत कुछ हो रहा है लेकिन अनुकरणीय कहीं कुछ नहीं।
चाहे कोई सा छोटा-बड़ा व्यक्तित्व हो, कोई से महान कहे जाने वाले लोग हों या फिर लौकिक-अलौकिक दुनिया की कोई सी हस्ती, इन सभी के कर्म और चरित्र को उल्लेखनीय तो माना जा सकता है लेकिन इनमें बहुत कम लोग ही ऎसे होंगे जिनके बारे में यह कहा जा सके कि ये अनुकरणीय भी हो सकते हैं।
बहुत पुराने जमाने से कहा जाता है कि उनके बताए मार्ग पर चलें, उनके नक्शेकदम पर चलें, उनकी राह अपनाएँ ... आदि-आदि।
पर कोई यह नहीं बताता कि आखिर किनके उपदेशों पर चलें, वो कौनसी राहे बाकी बची हैं जिन पर आज चला जा सकता है। और वे कौन से लोग हैं जिनके नक्शेकदम पर चला जा सकता है।
हम अपने इलाके में देख लें या फिर आस-पास के पड़ोसी जिलों, राज्यों और देशों में।
असंख्य लोग हैं जिन्हें बड़े, प्रभावशाली और महान कहा और बताया जाता रहा है, लेकिन एक समय बाद सबकी असलियत सामने आने लगती है।
संसार को छोड़ बैठे वैराग्यधारी बाबा लोग हों, संत, कथावाचक और धर्म अध्यात्म के गुरु, महागुरु और गुरु घण्टाल हों, महान और लोकप्रिय कही जाने वाली हस्तियां हों, या फिर किसी भी जगत के सितारे, महापुरुष और राजधर्म का पालन करने वाले लोकतंत्री राजा-महाराजा और रानियाँ हों, या फिर अपने देश के महान से महान, पूजने योग्य उपदेशक।
सब तरफ महान, लोकप्रिय और प्रातःस्मरणीय लोगों की भारी भीड़ छितराई हुई है लेकिन इनमें से कौन अनुकरण करने लायक है, यह आज की सबसे बड़ी समस्या है।
कुछ-कुछ साल में कोई न कोई व्यक्तित्व तिलस्मी छवि लेकर हमारे सामने आता है, हथेली में दिल्ली बताता है और फिर मुट्ठी भींच लेता है, खोले न खोले उसकी मर्जी लेकिन हमारी निगाह उस दिन की तलाश में बेसब्र बनी रहती है जब मुट्ठी खुलने का समय आने वाला है।
यह दिगर बात है कि लाख टके की बंद मुट्ठी जब खुलने लगती है तब हम सारे के सारे अपने आपको ठगा हुआ महसूस करते हुए एक-दूसरे की शक्लें देखने लगते हैं जैसे कि मूर्ख बने हुए सभी लोग अपनी मूर्खता पर शर्म के मारे सर झुका कर पारस्परिक शोक और सान्त्वना प्रकट कर रहे हों।
जिस किसी को हम अच्छा मानने लगते हैं, थोड़े दिन बाद उसकी असलियत सामने आ ही जाती है।
जब कलई खुल जाती है तब श्रद्धा और आस्था के बंदरगाह सुनामी में गुमनाम हो जाते हैं।
जो लोग हमेशा लोकप्रियता के शिखर पर बिराजमान देखना चाहते हैं वे अपने आपको भगवान और जादुई-करिश्माई मनवाने के लिए हर तरह के स्वाँग रचते रहते हैं।
बावजूद इसके आस-पास रहने वाले लोग इनकी हकीकत से रूबरू हो ही जाते हैं ।
जैसे ही हमारे भ्रम टूटते हैं, हमारी आस्थाएं डगमगा जाती हैं और हम तलाशने मेें जुट जाते हैं नए रोल मॉडल को।
हमारी यह यात्रा हर बार नए-नए व्यक्तित्वों से शुरू होती है, आस्था की नदी पूरे यौवन पर आकर अंधश्रद्धा का जबर्दस्त बाँध बना डालती है और कुछ दिन बाद सत्य से साक्षात होते ही यह बाँध टूट जाता है और बहा ले जाता है हमारे अरमानों और श्रद्धा के संचित कतरों को।
हम सभी को तलाश रहती है उनकी जिनका कि अनुकरण कर जीवन को सँवार सकें।
लेकिन यह तलाश जिन्दगी भर अधूरी ही रहती है।
जिसे हम भगवान समझते हैं वे हैवानों से भी बदतर निकलते हैं, जिन्हें धर्म, प्रेम और सत्य का पुजारी मानते हैं वे बहुरुपिये सिद्ध होते हैं और जिन लोगों को महान समझते हैं वे किसी बिजूके से कम नहीं।
वो समय चला गया जब महान लोगों की कमी नहीं थी।
आज महान कहे जाने वाले लोग तो खूब हैं लेकिन वे इंसान के रूप में न परिपूर्ण हैं, न काबिल।
हम सबकी यही तलाश है कि कोई तो ऎसा व्यक्तित्व दिखे या मिले, जिसका अनुकरण किया जा सके।
जिसे स्वीकारने के बाद बार-बार पछतावा न हो।
जिसे जान लेने के बाद पीड़ा और दुःख का अनुभव न हो।
हमारी तलाश जारी है। आप भी तलाशेें, स्वयंभू और स्वनामधन्य लोकप्रियों, परोपकारियों, धर्माधिकारियों और महानतम कही जाने वाली हस्तियों में से कोई परिपूर्ण व्यक्तित्व मिले तो बताएं।
हम सभी की यह तलाश बनी रहनी चाहिए।
तलाश पूर्ण न भी हो पाए, तब भी कोई बात नहीं क्योंकि विराट व्यक्तित्व वाले यशस्वी और महानता से भरे-पूरे भगवानों की असलियत से रूबरू होना भी सत्य से साक्षात्कार से कम नहीं है।
क्योंकि सत्य ही नारायण है और नारायण ही सत्य है।
सत्यमेव जयते नानृताम्।
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- डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
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