सुशील यादव आप यहाँ , आज से पच्चास साल बाद, थियेटरों में रिलीज हो के तहलका मचा देने वाली फ़िल्म, ‘सिंघम रिटर्न ५३ ‘की समीक्षा पढ़ने जा रहे ...
सुशील यादव
आप यहाँ , आज से पच्चास साल बाद, थियेटरों में रिलीज हो के तहलका मचा देने वाली फ़िल्म, ‘सिंघम रिटर्न ५३ ‘की समीक्षा पढ़ने जा रहे हैं।
वैसे हमारे देश में किसान समस्या पर गिनी चुनी फिल्में ही बनी हैं।
आज के जमाने में ,‘सुक्खी-लाला’ वाला पंच,बिरजू डाकू..... और बेटे को बन्दूक से टीप देने वाली मां..... का किरदार, बडा-पाव ,पिज्जा –बर्गर, खाने वाली पीढ़ी के गले उतारना टेढ़ी खीर है।
मनोज भाई साब के ‘उपकार’ फार्मेट पर काम करना ,मानो फ़िल्म में लगाने वाले हजार करोड़ को पानी में डुबोने जैसा है ,इसी नजरिये को लेकर हमने प्रोड्यूसर ‘अजय’ से सीधे बात की
अजय ,जैसा कि हमारी सोच है, ‘किसान समस्या ‘पर फ़िल्म बानाना जोखिम का काम है ,आपने जबरदस्त हिम्मत दिखाई ?और सिर्फ हिम्मत ही नहीं बल्कि अपने फिल्म को ‘पाच हजार करोड़’ कलेक्शन के टारगेट में स्थापित किया ,अनुमान ये भी है कि आपकी फिलम आस्कर न हथिया ले ?बताइये राज क्या है ?
अजय- देखिये ! आपकी बात सही के काफी करीब है। इन्डियन माहौल में अगर हम ‘सब’ की बात करते हैं तो अक्सर किसान पीछे छूट जाता है
-|समझो किसान के नाम से जैसा कि आपने कहा गिनी चुनी फिल्मे ही बनते रही, ऐसे में हमारे राइटर ने सुझाया कि ‘आत्महत्या’ करने वाले किसानो पर कुछ किया जाए ,बस एअक शोध हुआ और फिलिम आपके सामने है।
-आपको ऐसा नहीं लगता कि किसानो की बात कहते- कहते आप कहीं भटक गए ?
बीच- बीच में ऊ... ला.... ला... ,झंडू बाम ये सब क्या है ?
आपफिल्लिम नहीं बनाते इसलिए समझेंगे नहीं ना।
नार्थ टेरिटरी वालों का जबरदस्त दबाव रहता है ,वरना आपकी पिक्चर उठेगी ही नहीं।
उधर आपने ढाय- ढिसुम जरूरत से ज्यादा किया है इसकी वजह ?
लगता है पिक्चर देखते वक्त आपकी मूंगफली खत्म हो गई थी, सो आपने जादा गौर दे देख दी। वो बात ये है कि किसान का भाई, जिसे वह जमीन बेच-बेच के पढ़ा रहा है ,माफिया चुगुल में है और आप तो जानते हैं कि माफिया वाले खाली - पीली चुन्गम नहीं चबाते ,दो चार को काटने-मारने - पीटने दौडाते भी हैं, इस वजह से सिचुएशन की डिमांड कह लो, या साउथ टेरेटरी की लाईकिंग समझो ,फाइटिंग सीन आ ही जाता है।
और ये भी बता दूँ आप सिघम रिटर्न ५३ देखने जा रहे हैं ,’महासती बेहुला’ नहीं, वो भी इयर २०६५ में। क्या बात करते हैं ?आप प्रोड्यूसर डाइरेक्टर के हाथ पैर ही बाँध देगे, तो, पिक्चर तो भैस के साथ पानी में चल देगी जनाब ?
-नहीं-नहीं मेरा कहने का तात्पर्य ऐसा नहीं है हम कौन होते हैं जो किसी की फिलिम को पानी में डुबोये, तैराए ये तो दर्शक हैं जो सब करते हैं। आप तो बखूबी जानते हैं !हाँ ,किसान के साथ हो रही ज्यादती पर फिल्माते समय आपने उनकी समस्याओं पर ज्यादा जोर नहीं लगाया,, ऐसा हमें लगा सो कह रहे हैं ?
-आप कैसे कह सकते हैं कि हमने ज्यादा जोर नहीं लगाया। फ़िल्म में बताया तो है, कि कैसे ‘मनरेगा’ ने किसानों से मजदूर छीन लिए। हमारी स्टडी टीम ने पाया कि ,मनरेगा पीड़ित किसान जिसे दिहाड़ी में , सस्ते में मजदूर मिल जाते थे. वही मजदूर अब खेतों में दिनभर काम करना पसंद ही नहीं करते। कहते हैं मनरेगा में घंटे दो घंटे को जाओ नाम लिखाओ पेमेंट में ‘सैन’ करो, कमीशन वाले को कमीशन का पैसा दो, फिर दारु ठेके पर पूरे दिन की मौज मना लो।
लोगो की आम धारणा है कि ,’अपनी सरकार’ के यही तो फायदे हैं व्होट वाले दिन से वायदा कर के गये होते हैं, अच्छे दिन दिखाएँगे ,हमें तो ऐसे दिन ही अच्छे लगते हैं।
-और देखिये ! ,हमने ये भी बताया है कि स्कूलों में पढने वाले बच्चे ‘मिड-डे मील’ खाकर घर वापस नहीं पहुंच रहे। वे उधर से ही बीडी’’,सिगरेट, खैनी, पडकी, गांजा, अफीम तलाशते या इसी का साइड बिजनेस करते घूमते रहते हैं। हमने अपनी फ़िल्म में ये बताने की कोशिश की है कि,किसानों की दीगर समस्याओं के बीच में यह भी घुसा हुआ सा तो हैं।
-आपने दुशासन जैसा एक करेक्टर डाला है ,उसका क्या....... ?
देखिये ,हम सीधे- सीधे शासन पर उगली उठा नहीं सकते थे और न ही उनके किसी काम में उंगली की जा सकती थी, इसलिए यह पात्र डालना स्किप्ट की मजबूती के लिए मजबूरी थी ,समझ रहे न आप........ ?
- हमारी समझ से किसान की मुख्य लड़ाई शासन से है, चाहे वो बीज, फसल, खाद या कोई सबसीडी को लेकर हो। गौरमेंट का, लेने बखत के दाम में कोई कंट्रोल नहीं, मगर फसल की कीमत देने की जब बारी आती है, तब नानी याद आने लगती है| आई. ऐ. एस. केडर के लोग ,बिचौलियों के साथ मिलकर सैकड़ों बहाने ईजाद कर लेते हैं। कहीं –कहीं फसल के दाम लागत कीमत से भी कम तय कर दी जाती है। उस पर ,किसानों पर दुहरा प्रहार, प्रकृति भी कर देती है, पानी के वक्त पानी का बरसना नहीं होता या ठीक उलट जब फसल पकने को हो घनघोर बारिश हो जाती है
हमने अपनी दो घंटे की फिलिम में ये मुद्दा उठाया है। एक किसान के ठीक बाजू में एन आर आई का खेत बताया है। ड्रिप एरीगेशंन ,उन्नत बीज ,समय पर खाद और बारिश से बचने खेत में शेड लगा के सेट तैयार किया है। उसे खुशहाल दिखाने की कोशिश की है ,वैसे ये अलग बात है कि,उसकी फसल की लागत कीमत उत्पादन से ज्यादा बैठती है।
इस फिलिम में सुझाव देते हुए बताया है कि ,किसानों के हितैषी बनना हो तो आज जरूरत है कि उनके खेतों को पी डब्लू डी में बेकार पड़े सैकड़ों मशीनों से हर तीन साल में एक बार, बारी-बारी से जुतवा कर,जमीन तैयार करके दे दी जावे। दखलंदाजी करने वाले गाव के पगडीधारी,बैर, दुश्मनी रखने वाले पंच-सरपंच को साल भर किसान का बंधुआ मजदूर बनके रहने की सजा दी जावे।
अजय जी ,आपका कांसेप्ट अच्छा है ,और हाँ , आपको सौ साल के बूढ़े किसान के रूप में देख असमंजस्य लगा। आपने जीवंत रोल किया है ,वो झुर्रियां (नेचरल), वो एक्सप्रेशन ,वो कुछ खोने का दर्द ......कैसे कर पाए? ये सब ! कहीं आस्कर देवी तो नहीं करा गई आपसे ?आप को फाल्के वाला एवार्ड मिलने के कयास लगाये जा रहे हैं ,इस बार उठा ही लेगे आप ?हमारी टीम की शुभकामनाएं हैं......
-जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया। दरअसल किसी एवार्ड की लालच में फ़िल्म तो हम बनाते नहीं। एवार्ड की लाइन में लगना होता तो ‘गोडसे’ वगैरा पे कब की बना लेते।
-जाते जाते एक और बात ......आपका किसान फ़िल्म के अंत में ‘आत्महत्या’ के सीन में पूरे सिनेमा हाल को रुलाई के कगार में ले जाता है, मगर आपको ये क्या सूझी कि जिस डंगाल पर वो लटकता है वही टूट कर नीचे आ गिरती है। किसान की मौत होने से बच जाती है, दर्शक तालियाँ पीटते बाहर- हाल हो जाते हैं।
-वो क्या है कि . हमने सुखद अंत रखना बेहतर समझा ,पहले आत्महत्या वाले सीन में किसान को मरते दिखाया गया था ,मगर लोगो ने सजेस्ट किया...., अजय ,कहीं ये सीन आपका ‘फिल्मी करियर बेस्ट लास्ट सीन’ न हो जाए वैसे भी आप सौ से ऊपर के हो गए।
दूसरी बात , सेंसर वाले भी अड़ गए ,समाज में गलत मेसेज जाएगा। आत्महत्या करते किसान को देख, उसे हीरो-गति मिलने पर दूसरे किसान आत्महत्या के लिए प्रेरित होंगे। मसलन जबरदस्ती इस सीन में बदलाव हुआ। आप मानेंगे नहीं पांच हजार करोड़ कलेक्सन में पहुचने का श्रेय भी इसी हेप्पी एंडिंग को जाता है। अपने काका ने आनन्द और सफर में मरकर, एक अच्छी स्टोरी को मार्केट नहीं दिला पाए ,दर्शक दुबारा सिनेमाहाल इसीलिए नहीं गए कि मय्यत में जाने की बजाय दूसरे फ़िल्म के मुजरे का आनन्द ले लिया जाए। खैर हमारी फिलिम आपके सामने है।
आपके शहर में जब लग जाए ,देख के जरुर बताएं ,अजय की ‘सिंघम रिटर्न ५३’ पर आपकी राय क्या है ?
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ.ग.)
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(ऊपर का चित्र - अविजीत सिंग की कलाकृति, प्लांटेशन, कैनवस पर एक्रिलिक रंग)
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