आकांक्षा पारे 'काशिव' 30 मार्च 3 नवंबर 17 जुलाई 16 मई 9 मई 11 नवंबर यह महज चंद तारीखें नहीं हैं। यह तारीखें यूं ही आकर नहीं बीत गईं...
आकांक्षा पारे 'काशिव'
30 मार्च
3 नवंबर
17 जुलाई
16 मई
9 मई
11 नवंबर
यह महज चंद तारीखें नहीं हैं। यह तारीखें यूं ही आकर नहीं बीत गईं। यह तारीखें इंसानियत को लहूलुहान कर हमेशा के लिए दाग दे गई हैं। इन तारीखों ने मानव के मूलभूत अधिकारों में से एक का हनन कर उनसे जीवन छीन लिया। 1978 में डच स्कॉलर ऐन नौटा ने जब पहली बार ऑनर किलिंग शब्द का प्रयोग किया था तब वह भी नहीं जानती होंगी कि वह मानव सभ्यता को एक ऐसा शब्द दे रही हैं जो बरसों रक्त सामंतवादिता का पर्याय बन जाएगा। कारो-कारी, इज्जत के नाम हत्या या ऑनर किलिंग जिस नाम से पुकारा जाए समाज के माथे पर यह कालिख का रूप एक ही रहता है।
कोई लड़की सिर्फ इसलिए मार दी जाती है, क्योंकि उसने अपनी आंखों में सुनहरे सपने अंखुआने दिए। किसी को सिर्फ इसलिए मार दिया जाता है कि वह अपनी मर्जी से पसंद के साथी के साथ एक राह पर चल देती है। या कोई महज चैट करती पकड़ी जाने पर कत्ल कर दी जाती है। प्रेम के बदले तो जीवन मिलता है लेकिन देश के कुछ हिस्से प्रेम के बदले मौत का फरमान सुनाते हैं। यह भारत ही नहीं विश्व के और कई हिस्सों में फैला है। ऑनर किलिंग के दानव ने कितनी लड़कियों को, कितने प्रेमी जोड़ों को लील लिया है इसकी कोई गिनती नहीं है।
अपनी इच्छा से शादी करना हर वयस्क का संवैधानिक अधिकार है। सामुदायिक हकीकत से टकराएं तो पता चलता है कि मां-बाप की इच्छा या सामुदायिक नियमों के खिलाफ शादी करने वालों को इतनी मुसीबतों का सामना करना पड़ता है, उसका अंदाजा उन लोगों की मौत की संख्या देती है। ऐसे मामलों में परिवार सजा नहीं देता तो समाज, जाति और पंचायत सजा देना का ठेका ले लेती है।
इन मामलों में कभी-कभी पुलिस की भूमिका भी संदिग्ध हो जाती है। कई बार पुलिस सहयोग नहीं करती और प्रेम भयावह सच्चाई में तब्दील हो जाता है। भयावह सच्चाई में तब्दील हो जाता है। प्रेम का यह रूप तब भयावह हो जाता है जब कोई दलित, सवर्ण को जीवन साथी के रूप में चुनने का 'दुस्साहस' करते हैं। उनके इस दुस्साहस के लिए यह सजा सिर्फ प्रेमी जोड़े ही नहीं भुगते बल्कि उनके परिवार और नजदीकी रिश्तेदार और पड़ोसियों को भी भुगतना पड़ती है।
कोई दलित लड़की जब किसी सवर्ण लड़के से शादी करती है तो ताकतवर लोग इसे अपने अहं पर लेते हैं। उनके सीने पर करारी चोट लगती है और एक निर्मम आवाज आती है, 'तुम्हारी इतनी हिम्मत ? अब हमारे लड़कों को दामाद बनाओगे ?' 30 मार्च 2001 को डॉ0 नाज परवीन और कासिफ जमाल की मुजफ्फरनगर के भीड़ भरे इलाके में दिन-दहाड़े चाकू मार कर हत्या कर दी गई। मौके पर पहुंची पुलिस ने जब जमा भीड़ से हत्यारे के बारे में पूछा तो समवेत स्वर में आवाज आई, 'हमने की है हत्या।' यह दुस्साहस ही बताना है कि मौत का फरमान जारी करने वाली खाप पंचायतों का सामाजिक रूतबा क्या है ?
'खाप पंचायत' शब्द अब ऐसा शब्द हो गया है, जिसे पिछले कुछ सालों में न जाने कितनी बार दोहराया गया है। कुछ सालों से खाप पंचायतें चर्चा का आम विषय हैं। उन पर आरोप लगते हैं कि पंचायतें गांव के लड़के-लड़कियों को मौत का फरमान सुना रही हैं। उन्हें अपनी मर्जी से प्रेम करने से रोकती हैं और शादी के बाद भी समगोत्रिय का बहाना बना कर पति-पत्नी को भाई-बहन के रिश्ते में तब्दील कर देती है। पंचायतें भले ही अपना कितना भी साफ पक्ष रख अपनी छवि बदलने की कोशिश करें लेकिन हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान की घटनाएं बताती हैं कि खाप पंचायतों की भूमिका संदिग्ध रही हैं। वे हत्याओं में पत्यक्ष रूप से शामिल भले ही न रहें लेकिन परोक्ष रूप से प्रेमी जोड़ों के खिलाफ ही रहती हैं। पंचायतें शांति से मामलों को निपटाने के बजाए फरमान जारी करती हैं। क्या भारत में बेटियों की जान इतनी सस्ती है कि उन्हें कोख में मारा जा सकता है, बड़े होने पर काटा जा सकता है या जरूरत होने पर चंद सिक्कों में उसका सौदा किया जा सकता है।
अगर हरियाणा, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लड़कियां प्रेम की बलि चढ़ती हैं, तो कोलकाता, ओड़ीशा में लड़कियां कभी परिवार के सदस्यों, तो कभी किसी परिवार के लोगों के हाथों बिक जाती हैं। मानव देह व्यापार यानी हयूमन ट्रैफिकिंग उनका जीवन ऑनर किलिंग की तरह एक झटके में भले ही खत्म नहीं करता बल्कि उन्हें तिल-तिल रोज मारता है। मेवात इलाके की 'पारो' में तब्दील हो गईं लड़कियां अपनी देहरी को भूल कर वहीं की हो कर रह जाती हैं। उन पर एक परिवार थोप दिया जाता है। इसमें वे होती हैं और होते हैं उनके पति। परिवार के नाम पर वे चार-पांच मर्दों के साथ रह कर उनका घर संभालती हैं और बदले में हर साल कोख में एक बीज मिलता है। हरियाणा के कैथल जिले की बबली काट दी जाती है और राजस्थान के मेवात की सुरजना पारो बन कर लात और घूंसों से पिटती है। अप्रैल 2007 में मनोज-बबली जब दिल्ली से कार्ट की पेशी से लौटते हुए अचानक गायब हुए तो 23 जून 2007 को लाश के रूप में ही मिले। मामला अदालत में लंबा चला और 30 मार्च 2010 को एतिहासिक फैसला सुनाते हुए अदालत ने बबली के पांच नजदीकी रिश्तेदारों को फांसी की सजा सुनाई। लेकिन मनोज-बबली की तरह मनोज और आशा, मीनाक्षी और गुरजीत और पत्रकारिता जैसे तेज-तर्रार पेशे से जुड़ी अनुपमा इतनी खुशकिस्मत नहीं है कि उन्हें इंसाफ मिल सके।
लेकिन इन मामलों को राष्ट्रीय स्तर पर उठाने और इतनी पुरजोर मांग का असर यह हुआ कि 19 जून 2011 का दिन इतिहास में दर्ज हो गया। इस दिन नई दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट की एक खंडपीठ ने खाप पंचायतों को एक तरह से चेतावनी दे डाली। जस्टिस मार्कंडेय काटजू और जस्टिस ज्ञान सुधा मिश्रा की खंडपीठ ने अपने फैसले में खाप पंचायतों को अवैध करार देते हुए उन्हें सख्ती से बंद करने को कहा। अपने फैसले में उन्होंने कहा खाप पंचायतों ऑनर किलिंग को प्रोत्साहित करती हैं और इनके द्वारा लडके-लड़कियों पर अत्याचार होता है। सांमती सोच की इस संस्था पर रोक के लिए भले ही यह पहला कदम हो लेकिन मंजिल तक पहुंचने के लिए यह रास्ता तो है ही।
अगर ऐसे रास्ते बनते गए तो मानव अधिकार की आवाज नक्कार खाने में तूती की तरह नहीं होगी, मानव अधिकार दुनियावी मांग होगी और लड़कियां न खरीदी-बेची जाएंगी न इज्जत के नाम पर कत्ल होंगी।
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(राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, मानवाधिकार संचयिका से साभार)
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