डॉ दीपक आचार्य किसी भी प्रकार की गतिविधि हो, उसका दस्तावेजीकरण किया जाना बहुत जरूरी है। आज हमारे यहाँ डाक्यूमेंटेशन के कई नए और अत्याधुनि...
डॉ दीपक आचार्य
किसी भी प्रकार की गतिविधि हो, उसका दस्तावेजीकरण किया जाना बहुत जरूरी है।
आज हमारे यहाँ डाक्यूमेंटेशन के कई नए और अत्याधुनिक तौर-तरीके हैं लेकिन इनके बावजूद उस तरह का दस्तावेजीकरण नहीं हो रहा है जैसा कि अपेक्षित है।
हममें से अधिकतर लोग शोध-अध्ययन, जिज्ञासा शांति, विश्लेषण, सूचनाओं के संग्रहण, लेखन, तुलनात्मक अध्ययन आदि के लिए जानकारी पाने का प्रयास करते हैं लेकिन होता यह है कि हमें कई स्थानों पर निराशा ही हाथ लगती है।
दस्तावेजीकरण ऎसा काम है जो ऎतिहासिक धरातल रखता है और जीवन में किसी भी समय कहीं भी काम आ सकता है। इसके लिए यह जरूरी है कि जो भी जानकारी संग्रहणीय किस्म की हो, वह एक जगह उपलब्ध रहे, सुरक्षित संग्रहित रहे।
जानकारी लिपिबद्ध हो या कम्प्यूटरीकृत, छपी हुई सामग्री हो या पाण्डुलिपियां, चित्रावलियां अथवा पोस्टर-फोटोग्राफ्स सभी के विषय में यह जरूरी है कि इनका समुचित संधारण व संग्रहण हो ताकि जरूरत पड़ने पर काम आ सकें।
हमारे यहाँ जानकारियों का भण्डार तो बहुत है लेकिन अधिकतर बार यही शिकायत रहती है कि जिस सामग्री या सूचना को जहाँ होना चाहिए वहाँ नहीं होती अथवा सहज सुलभ नहीं हो पाती।
अब जमाना किताबों से भी आगे बढ़ गया है जहाँ कम्प्यूटर, इंटरनेट और सर्च इंजिनों के जरिये हम कोई सी जानकारी कहीं से भी खंगाल कर प्राप्त कर सकते हैं। इतना जरूर है कि सामग्री की प्रामाणिकता पर विश्वास हर कहीं नहीं किया जा सकता।
खासकर जो लोग पीएचडी, डी.लिट., एमफिल और तमाम प्रकार के शोध, अध्ययन, अनुसंधान से जुड़े होते हैं उन लोगों को अपने काम की जानकारी पाने में खूब दिक्कतों का सामना करना पड़ता है।
विशेषकर उन इलाकों के लोगों को इस मामले में ढेरों कठिनाइयों के दौर से गुजरना पड़ता है जो छोटे क्षेत्र हैं तथा जहाँ इस प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं।
इस मामले में जो कुछ खट्टे-मीठे अनुभव सामने आते हैं उनके बारे में पूरी पुस्तक लिखी जा सकती है।
एक तो सामग्री एक जगह प्राप्त नहीं होती।
दूसरी कठिनाई यह कि जिनके पास सामग्री मिलने की उम्मीद हो, वे लोग भाव खाते हैं या कुछ न कुछ अपेक्षा हर किसी से रखते हैं।
और तीसरी किस्म उन लोगों की होती है जिनके पास सामग्री का भण्डार तो होता है लेकिन वे इस पर कुण्डली जमाकर इस कदर बैठ जाते हैं कि न ये सामग्री उनके किसी काम आती है, न औरों के।
ये लोग जिन्दगी भर उस सामग्री का न तो खुद उपयोग कर पाते हैं, न इनकी सुग्रहित सामग्री किसी के काम ही आ पाती है।
यह सामग्री कालान्तर में नष्ट ही हो जाया करती है।
इस मामले में होना यह चाहिए कि हर विभाग, संस्थान और क्षेत्र का अपना दस्तावेजीकरण यूनिट हो जिसमें आदि से लेकर अंत तक की जानकारी आसानी से सुलभ हो।
इसमें किसी को भी कोई सी सामग्री प्राप्त करने में कोई दिक्कत न आए।
आजकल एक-दूसरे पर टालने की बीमारी खूब हो गई है।
लोग कोई सी सामग्री देने या निकालने में जितनी आनाकानी करते हैं वह अपने आप में इतना कठिन मार्ग होता है कि सामान्य इंसान त्रस्त हो जाता है।
कुछ लोग तो ऎसे भी मिल जाया करते हैं जो कुछ भी देना नहीं चाहते, चाहे इनके पास कोई सी सामग्री कितनी ही अधिक मात्रा में उपलब्ध क्यों न हो।
खूब सारे लोग एक-दूसरे पर टालते हुए पूरी जिन्दगी निकाल दिया करते हैं।
कई लोगों का तर्क होता है कि बहुत से लोग सामग्री ले जाते हैं फिर अपने नाम से उपयोग कर लिया करते हैं और इस प्रकार सामग्री का अपने नाम से इस्तेमाल कर व्यवसायिक हित साधन का धंधा भी बड़े पैमाने पर चलता है।
लोगाेंं की एक किस्म तो ऎसी ही हो गई है जो कि सामग्री चुराने से लेकर अपने नाम से प्रकाशन, प्रसारण और पुस्तकें छाप देने की आदी हो गई है।
इन लोगों का एक ही काम रह गया है और वह यह कि दिवंगतों या दूसरे लोगों की सामग्री जमा करो और अपने नाम से छपाओ, वार्ताओं में इस्तेमाल करो और पैसा कमाओ।
इनमें भी चोर किस्म के लोगों कली एक प्रजाति ऎसी होती है जो कि सामग्री अपने कब्जे में आ जाने के बाद सामग्री दाता की मृत्यु तक सामग्री लौटाते नहीं हैं और यही प्रतीक्षा करते हैं कि कब सामने वाला नहीं रहे, और उसकी सामग्री अपने नाम से उपयोग में ली जा सके।
इन सभी कारणों से उन पात्र लोगों को भटकना पड़ता है जो कि अपने भविष्य को सँवारने के लिए शोध और अनुसंधान गतिविधियों में जुटे रहते हैं।
आजकल दस्तावेजीकरण खूब हो रहा है लेकिन उन सभी विषयों का होना चाहिए जो आम से लेकर खास लोगों तक जुड़े हुए हैं।
अभी भी इंटरनेट पर उतनी जानकारी उपलब्ध नहीं है जो होनी चाहिए।
इसके लिए स्थानीय स्रोतों पर ही निर्भर रहने की जरूरत है।
आज भी संस्कृति, साहित्य और इतिहास से लेकर लोक जीवन की तमाम विधाओं और विषयों पर हर क्षेत्र में खूब सारी सामग्री उपलब्ध है जिसका दस्तावेजीकरण तक अब तक नहीं हो पाया है।
यह सामग्री स्फुट अर्थात यत्र-तत्र बिखरी हुई ही पड़ी है।
मजे की बात यह है कि इस प्रकार की सामग्री आज के साहित्य की प्रभावशीलता, सुबोधगम्यता और श्रेष्ठताओं के साथ ही सांस्कृतिक सौष्ठव और वैभव कही दृष्टि से कहीं अधिक धारदार, मर्मस्पर्शी और माधुर्य भरी है लेकिन इनका संरक्षण नहीं हो पा रहा है।
इस क्षेत्र में आकर रातों रात आम से खास बन जाने के इच्छुक लोग भी इस पुरातन संपदा और साहित्य के प्रति उपेक्षित बर्ताव ही करते हैं।
यही वजह है कि पुरातन साहित्य और संपदाओं तथा श्रेष्ठ सामग्री के मूल्य और अर्थवत्ता को हम भुला चुके हैं और इसका खामियाजा समाज व देश को इस रूप में भुगतना पड़ रहा है कि वर्तमान से श्रेष्ठ पुरातन बहुआयामी संपदा नष्ट होती जा रही है।
आज देश में हर क्षेत्र में प्रचुर मात्रा में स्फुट साहित्य, पुस्तकें, पाण्डुलिपियाँ और बहुआयामी सामग्री के भण्डार हैं लेकिन इनके मूल्य को जो जानता है वही इनके प्रति आत्मीयता रखता है।
आज की पीढ़ी को न किताबें पढ़ने की फुरसत है, न साहित्य बाँचने की।
ऎसे में पुरातन संपदा की जो स्थिति हो रही है उसके बारे में किसी को कुछ भी बताने की जरूरत नहीं है।
देश भर में अभियान चलाकर पुरानी पुस्तकों और साहित्य तथा सामग्री के संग्रहण पर जोर दिया जाना जरूरी है।
इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि हर जिले में कम से कम विस्तृत परिसर में फैला एक ऎसा व्यापक संग्रहालय हो जिसमें ज्ञान भण्डार भी हो ताकि लोग स्वेच्छा से इनमें पुस्तकें आदि जमा करा सकें।
इनके साथ ही पुरा संपदाओं की प्रदर्शनी की व्यवस्था भी होनी चाहिए।
शोधार्थियों, अनुसंधाताओं, विद्यार्थियों, लेखकों, अन्वेषकों और जिज्ञासुओं के लिए समय पर उनके काम की सामग्री की उपलब्धता होना आज की सबसे बड़ी जरूरत है।
इसके लिए हम सभी को मिलजुलकर प्रयास करने की जरूरत है।
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- डॉ.दीपक आचार्य
9413306077
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