दीपक आचार्य सच बोलना और सच्चे काम करना आज कम ही देखने में आता है। अधिकांश लोग झूठ के सहारे अपनी चवन्नियाँ चलाने वाले हो गए हैं। सब चाहते...
दीपक आचार्य
सच बोलना और सच्चे काम करना आज कम ही देखने में आता है।
अधिकांश लोग झूठ के सहारे अपनी चवन्नियाँ चलाने वाले हो गए हैं।
सब चाहते हैं कि उनके जीवन में उजाला बना रहे मगर इसके लिए वे अंधेरे रास्तों की मदद से आगे बढ़ने की तलाश में लगे रहते हैं।
उजालों का सफर पारदर्शी होता है जिसमें हमें भी देख कर चलना होता है, और दूसरे लोग भी हमारी हरकतों पर हर क्षण निगाह रखते हैं।
अंधेरों के साथ ऎसा नहीं होता। अंधेरे में जो चाहे कुछ कर लो, न कोई रोकने-टोकने वाला है, न कोई देखने वाला।
कोई देखने वाला भी होगा तो वह भी अपनी ही तरह अंधेरा पसंद ही होगा। फिर जहाँ अंधेरों का जयगान करने वाले दो-चार लोग ही मिल जाएं, तो बात ही क्या है।
कोई न किसी को कुछ कहता है, न दखल करता है। चाहो जो कर डालो। अंधेरा यहाँ भी है और अंधेरी गलियों से लेकर प्रासादों तक भी पूरे प्रभुत्व के साथ पसरा हुआ है।
जितना अंधेरा बाहर और आस-पास है, उससे कहीं अधिक घुप्प अंधेरा भीतर है।
अंधेरा उन प्राणियों को सताता है जो सूरज के दीवाने हैं, रोशनी के परवाने हैं।.
उल्लूओं के लिए तो अंधेरा अपना सब कुछ है जिसकी पनाह पाकर दस्युओं से लेकर तमाम प्रकार के षड़यंत्रकारियों तक की हर रात दीवाली होती है।
लगता है आज के फरेबी, धूर्त, मक्कार, बहानेबाज और बात-बात में झूठ का सहारा लेने वाले लोग इन्हीं अंधेरों की उपज हैं जिन्होंने पैदा होते ही शायद सबसे पहले कहीं से सुन लिया हो - अंधेरा कायम रहे।
इन अंधेरों के ही प्रतीक हैं ये लोग, जो अवसर और सामर्थ्य पाने के बाद भी न किसी को रोशनी दे सकते हैं, न दिखा ही सकते हैं।
इन्हीं लोगों में से काफी तादाद ऎसे लोगों की है जो कि अपने स्वार्थ को भुनाने के लिए दिन-रात में कितनी ही बार झूठ और बहानों का सहारा लेते हैं।
और बहाने तथा झूठ भी ऎसे कि हर कोई भ्रमित हो जाया करता है इन्हें सुनकर ।
फिर कई सारे झूठ और बहाने ऎसे होते हैं कि जो मानवीय संवेदनाओं को छलकाते हुए दया, करुणा और परदुःखकातरता की सुप्त ग्रंथियों को जगा दिया करते हैं।
जो कह रहा है वह भले ही झूठा और बहानेबाज क्यों न हो, कारण ऎसा उपस्थित कर दिया जाता है कि सामने वाला पसीज ही जाता है।
बस यहीं से शुरू हो जाता है मानवता का शोषण, इंसानियत का दुरुपयोग और समाज तथा देश के साथ बेवफाई का दौर।
वे सारे लोग गद्दार ही हैं जो हमेशा बहाने बनाते हुए काम से जी चुराते हैं, बिना कुछ किए पूरा का पूरा पैसा पाना चाहते हैं और रोजाना ही कोई न कोई बहाना बनाते हुए अपने ऎशो आराम को आकार देते रहने के आदी हो चुके हैं।
अपने यहाँ इस किस्म के लोग बहुतायत में पाए जाते हैं जो झूठ बोलते हैं, बहाने बनाते हैं और बेजा फायदा उठाते हैं।
जो झूठ बोलने का आदी होता है वह उतना ही शातिर बहानेबाज भी होता है जिसके अक्षय तरकश में हमेशा सौ-सौ बहाने हर क्षण विद्यमान रहते हैं।
झूठ बोलने की शुरूआत हमेशा पुरुषार्थहीनता, दरिद्रता और आलस्य से होती है।
कई लोगों में यह जन्मजात और आनुवंशिक गुण होता है जबकि बहुत से लोगों में यह प्रवृत्ति तब पल्लवित-पुष्पित होने लगती है जबकि निरंकुश माहौल में पले-बढ़े हों, और जो कुछ खाया-पीया जा रहा हो उसमें अपने या परिवार की मेहनत की कमाई का अंश कुछ भी न हो।
जो लोग हराम का खान-पान कर पले-बड़े होते हैं उन लोगों से मेहनत, ईमानदारी, कर्मयोग, राष्ट्रीय चरित्र, इंसानियत और सेवा-परोपकार की अपेक्षा करना व्यर्थ है।
इसका मूल कारण यह है कि इनका शरीर जिन घटक द्रव्यों से मिल कर बना और परिपुष्ट होता है उनमें तरह-तरह की विजातीय मिलावट होती है, रक्तकणों में अपना कुछ नहीं होता बल्कि सब कुछ परायों ही परायों का होता है।
इसलिए इन लोगों को अपने सिवा शेष सारे लोग पराये ही नज़र आते हैं।
यही कारण है कि इनकी जिन्दगी परायेपन से अभिशप्त रहती है और इस सनक की वजह से न औरों को अपना मान सकते हैं, न बना सकते हैं।
यही मूल वजह है कि इनका रोजमर्रा का जीवन झूठ और बहानों से भरा रहता है और इन्हीं के सहारे वे अपना पूरा कार्यकाल और उमर गुजार दिया करते हैं।
ऎसे लोगों पर दूसरे इंसानों की बददुआओं का भी कोई असर नहीं होता क्योंकि हर असर पैदा करने के लिए शुद्धता का होना जरूरी है।
जहाँ सब तरह की मिलावट ही मिलावट का जखीरा हो, वहाँ संकरदोष के कारण सकारात्मक परिवर्तन आने की सारी संभावनाएं अपने आप ध्वस्त हो जाती हैं।
जो लोग रोजाना झूठ और बहानों की नावों पर सवार होकर टाईमपास करते रहते हैं उन्हें शायद यह पता नहीं होता कि कोई-कोई घड़ी ऎसी भी होती है जिसमें जो कुछ कहा जाए वह सच होता है।
ऎसे में अपना कहा कोई सा झूठ और बहाना सही निकल जाए तो फिर दोष और किसी को नहीं दिया जा सकता, इसका खामियाजा हमें ही भुगतना पड़ सकता है।
जिनकी कथनी और करनी झूठ से भरी होती है वे लोग आशातीत सफलता का दावा तो कर सकते हैं मगर जीवन के सामान्य आनंद से भी कोसों दूर हो जाते हैं और एक स्थिति वह आती है जब उत्तरार्ध में खाट, बीमारी और अकेलेपन की विवशता के अलावा कोई इनके साथ नहीं होता।
और यह समय इनके लिए सर्वाधिक दुःखद, आत्मग्लानि और पश्चाताप भरा होता है जिसमें इनके पास अपने कुकर्मों, सैकड़ों-हजारों झूठ और बहानों के लिए प्रायश्चित करने का मौका भी नहीं मिलता।
यह वह समय होता है जब इंसानियत के इन दुश्मनों को लगता है कि उनका सारा जीवन बेकार चला गया।
यह जनम तो बिगड़ा ही, अगले कई सौ जनम भी मनुष्य बनने का कोई ठिकाना नहीं।
---000---
- डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
--
(ऊपर का चित्र - उदय चंद गोस्वामी की कलाकृति)
COMMENTS