शिल्पी चौहान स्दियों से होते आ रहे शोषण और दमन के प्रति स्त्री चेतना ने ही स्त्री विमर्श को जन्म दिया। स्त्री विमर्श आत्म सम्मान, आत्मच...
शिल्पी चौहान
स्दियों से होते आ रहे शोषण और दमन के प्रति स्त्री चेतना ने ही स्त्री विमर्श को जन्म दिया। स्त्री विमर्श आत्म सम्मान, आत्मचेतना, आत्मगौरव, समता और समानाधिकारी की पहल का दूसरा नाम है। स्त्री को जहां 'मैं' की चिंता का अहसास है, समझना चाहिए कि वहां से स्त्री विमर्श की शुरूआत है। जब भावना की अपेक्षा बुद्धि की कसौटी पर, विषमता की अपेक्षा समता की कार्य शक्ति की कसौटी पर और लिगांत्मक की अपेक्षा गुणात्मक कसौटी पर व्यक्ति के मुल्यांकन का सूत्रपात होगा तभी 'स्त्री विमर्श' के चितंन को बल मिलेगा।''1
नारी सृष्टि का आधार होने के कारण उसे विधाता की अद्वितीय रचना कहा गया है। नारी समाज, संस्कृति और साहित्य का महत्वपूर्ण अंग है। सृष्टि के आरंभ से ही सृष्टि के निमार्ण और संचालन में नारी की अह्म भूमिका रही है। मानव जाति की सभ्यता एवं संस्कृति के विकास का मूल आधार नारी ही है। गर्भधारण से लेकर संतान का जन्म एवं उसके पालन-पोषण का कार्य नारी ही करती है। परन्तु हमारे समाज में पुरूषों को स्त्रियों से श्रेष्ठ माना जाता है। उन्हें अपने फैसले स्वयं लेने का अधिकार नहीं है। उसके जीवन से संबंधित सभी फैसले पिता, पति या बेटा लेता है वह स्वयं नहीं। हमारे शास्त्रों-पुराणों में हजारों संदर्भ भरे पड़े हैं जिनमें नारी को एक वस्तु या सम्पत्ति माना गया है। आज भी सम्पूर्ण व्यवस्था का निर्माण पुरुषों द्वारा होने के कारण नारी की भूमिका दूसरे दर्जे की ही रही है।
किसी कवि ने नारी और पुरुष के बारे मे कहा भी है-
''मर्दों ने बनाई जो रस्में उनको हक का फर्मान कहा।
औरत के जिंदा जलने को कुर्बानी और बलिदान कहा।
अस्मत के बदले रोटी दी और उसको भी अहसान कहा।
मर्दो के लिए लाखों सेजे, औरत के लिए रोना भी सजा।
मर्दो के लिए हर ऐश का हक, औरत के लिए बस एक चिता।''2
प्राचीन काल से ही नारी किसी न किसी रूप में चिंतन का विषय रही है। प्रारंभ में परिवार मातृसत्तात्मक होने के कारण नारी को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। वैदिक काल में नारी शिक्षित और स्वतंत्र थी सभी कार्यों में उसका सहभाग था। नारी के लिए उस समय कहा भी गया है-
'यत्र नार्यस्तु पुज्यन्ते तत्र रमन्ते देवता'3
उत्तर वैदिक काल से उसकी अवनति प्रारंभ हुई उसका स्थान घर तक सीमित होने लगा और वह पुरूष के अधीन होने लगी। महाकाव्य काल में आते-आते वह देवी और दानवी रूप में विभाजित हो गई। सुरक्षा के नाम पर उसे इतने बंधनों में जकड़ दिया कि उसके स्वतंत्र अस्तित्व का नामोनिशान न रहा। पुरूष ने हर क्षेत्र में नारी को गुलाम बनाकर अपनी श्रेष्ठता स्थापित की। जिसके कारण नारी एक व्यक्ति न रह कर पुरूष के भोग की वस्तु बनकर रह गई। प्राचीन काल से लेकर आज तक के साहित्य, संस्कृति और समाज में नारी संबंधी धारणाएं पुरुष मानसिकता और दृष्टिकोण से प्रभावित रही है। साहित्य में कहीं उसे देवी मानकर उसकी पूजा की गई है तो कहीें उसे पाप की खान और भोग की वस्तु समझा गया है। साहित्य में अगर हम देखे तों ऐसे बहुत से उदाहरण मिलते है जहां उसे केवल एक मादा (नारी) के रूप में ही अधिक देखा गया है। विभिन्न साहित्यिक ऐतिहासिक ग्रन्थों में नारी की स्थिति को देखने से यह ज्ञात होता है कि सामाजिक जीवन में नारी की स्थिति में उतार-चढ़ाव आते रहे हैं। नारी पर हो रहे अत्याचारों और धर्म के ठेकेदारों जिन्होंने समाज में अशांति फैलाकर नारी को बंधनों में जकड़ा है इसे नरेश मेहता जी ने इन शब्दों में व्यक्त किया है-
''एक दिन
साध्वी की भूषा में लिपटी उस नारी ने
उतार दिए आवरण
लाघें तापसता के सारे चौखटे
और मुक्ति के लिए वरणकर किसी को लौटा दी
अपने को अपनी ही नारी।''4
आधुनिक युग की नारी में नई चेतना का संचार हुआ लघु मानव की प्रतिष्ठा, सामाजिक न्याय, समता, बंधुत्व आदि विचारों के कारण परिवर्तन की प्रकिया तेज हुई। स्मकालीन हिन्दी उपन्यासों में स्त्री विमर्श की अपूर्व पहल नजर आती है। प्रांरभिक कथा साहित्य में नारी कर जीवन गाथा केन्द्र मे रही या उसकी व्यथा कथा। समकालीन साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में मानवीय अधिकार और अस्मिता से जुड़े सवालों को उठाया है। हिन्दी में विभिन्न साहित्यकारों ने लेखन के मोर्चे को संभाला है। आज भारतीय नारी अपने अधिकारों एवं स्वायत्तता को पाने के लिए और सब तरह के शोषण से मुक्त होने के लिए संघर्षरत है। श्री नरेश मेहता के कथा साहित्य में ऐसी ही नारी की विभिन्न समस्याओं का विस्तृत चित्रण किया गया है।
नारी आदि काल से ही सेवा, त्याग व शक्ति का प्रतीक रही है। उसे आचरण, त्याग और सहिष्णुता की मुर्ति माना गया है। भारतीय समाज में पुरुष समाज का महत्व होने के कारण सामान्य नारी नहीं अपितु शिक्षित एवं आधुनिक नारी को भी पुरूष की अधीनता स्वीकार करनी पड़ती है। इस सब का मूल कारण पुरुष की सामन्तवादी मनोवृति एवं अहंकार है। आधुनिक होने के वाबजूद पुरुष वर्ग स्वार्थ केंद्रित परम्परागत और संस्कारों का दास है। उसकी दृष्टि आज भी नारी के मन से अधिक तन की ओर आकर्षित होती है। आर्थिक अवलम्बन भी नारी के शोषण में सहायक है। अर्थ का स्वामी पुरुष नारी को अपनी दासी मानता है।
नरेश मेहता के उपन्यास 'यह पथ बन्धु था' में नारी शोषण के उदाहरण प्रस्तुत किये गये है। जब कथा नायक की बेटी (गुनी) का ब्याह हो जाता है तो ससुराल वाले दहेज पूरा न देने के कारण गुनी को मैके भेजना बंद कर देते है। गुनी को अपाहिजों जैसा जीवन व्यतीत करना पड़ता है।''5 इस घटना के माध्यम से नरेश मेहता जी ने समाज में व्याप्त दहेज प्रथा जैसी कुरितियों को उजागर किया हैं। इसी प्रकार 'डूबते मस्तूल' की नायिका रंजना पत्नीत्व की दुहाई देती चिल्लाती ही रहती है, परन्तु सैयद पत्नी के प्रति कोई सद्भावना नहीं दिखाता। नारी का हर क्षेत्रा में किसी न किसी रूप में शोषण हो रहा है। उसे पुरुष के अत्याचारों को मूक बनकर सहने के लिए विवश होना पड़ता है।
वैदिक युग में नारी की स्थिति सम्मान युक्त थी। मध्ययुग में नारी को भोग्या वस्तु समझा जाता था। आधुनिक युग में शिक्षा के प्रचार प्रसार ने नारी को पूर्ण स्वाबलम्बी तथा स्वतंत्र व्यक्तित्व का वहन करने के लिए प्रेरित किया है। समय परिवर्तन के साथा नारी समाज में जागृति आई है। आज की नारी दृढ़ आत्मविश्वास और गहरे स्वाभिमान के साथ अपना व्यक्तित्व निर्माण करना चाहती है। वह प्राचीन मान्यताओं से मुक्त होकर पुरुष के समकक्ष प्रतिष्ठित होने के लिए प्रयत्नशील है, लेकिन पारिवारिक उत्तरदायित्व और रूढ़िग्रस्त समाज के सौतेले व्यवहार के कारण उसे अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा है। आधुनिक शिक्षित नारी के जीवन में निरन्तर परम्परागत रूढ़ियां समाप्त होती जा रही है तथा नवीनता का समावेश होता जा रहा है।
वर्तमान नारी परम्परागत रूढ़ियों को नकार कर घर की चार दीवारों से बाहर निकल गई है। वह सामाजिक स्वतंत्रता के साथ-साथ आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए संघर्षरत है।
नरेश मेहता जी के उपन्सास 'उत्तरकथा द्वितीय खण्ड' में नारी स्वतंत्रता से सम्बद्ध भाव की पुष्टि होती है। उपन्यास की एक पात्र नर्मदा देवी, दुर्गा से कहती है, वैसे हम लोगों में न जाने कहां से यह पर्दा आ घुसा है नही तो गुजराती स्त्रियां पर्दा नहीं करती, पर अब तुम कब तक बहु बनी रहोगी?''6 नारी जीवन के पर्दाप्रथा जैसी कुरितियों से मुक्ति दिलवाने में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम ने अह्म भूमिका निभाई है। शिक्षित स्त्री सरकारी नौकरी में भी पुरुष की तरह भागीदारी निभा रही है। वह अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व वहन करने के लिए मुक्त है। 'प्रथम फाल्गुन' उपन्यास की नायिका गोपा को दिशा निर्देश देने का कार्य किया जाता है तो वह स्वतंत्र निर्णय लेती है। किसी परपुरुष के दबाव में निर्णन नहीं लेती। प्राचीन काल में जहां नारी एक बार परिणय सूत्र में बधं जाने के बाद उम्र भर उससे ही बंघी रहती थी। आधुनिक शिक्षा ने उन सभी सीमाओं को तोड़ दिया है। 'डूबते मस्तूल' उपन्यास की नायिका रंजना एक बार के वैधव्य के बाद अनेक विवाह करती है। वह अपना जीवन स्वतंत्र रूप से जीना चाहती थी। आधुनिक नारी स्वतंत्र जीवन जीने को उत्सुक है।
श्री नरेश मेहता के कथा साहित्य में नारी की बदलती मानसिकता का चित्रण हुआ है। 'उत्तरकथा द्वितीय खण्ड' उपन्यास में नारी स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेती है। 'डूबते मस्तूल' की नायिका रंजना पारम्परिक सामाजिक मर्यादाओं को तोड़ कर युद्ध में जख्मी सैनिकां की परिचर्या हेतु एम्बुलैंस में भर्ती होती है। 'प्रथम फाल्गुन' की नायिका गोपा नौकरी करने में स्वतंत्र निर्णय लेना चाहती है उसे किसी मार्गदर्शन की आवश्यकता नहीं। अहंवादी गोपा अपने प्रेमी महिम को धोखें मे नहीं रखना चाहती उसे अपने जारज होने के बारे में बता देती है। 'डूबते मस्तूल' की नायिका रंजना विधवा होने के उपरान्त भी अनेक विवाह करती है, भले ही उसे पत्नीत्व का सुख न मिला हो। उपन्यास 'दो एकान्त' की नायिका पति की व्यस्तता को देखकर उसके व्यवसायिक जीवन में प्रवेश कर जाती है। आधुनिक नारी महत्वाकांक्षी है। व्यक्तित्व विकास के कारण उसकी रूचि और भावना का महत्व बढ़ जाता है। समाज व परिवार में उचित स्थान पाने के लिए उसे संघर्ष करना पड़ता है । श्री नरेश मेहता ने अपने कथा साहित्य में महत्वाकांक्षी तथा स्वाबलम्बी नारी का चित्रण किया हैं।
निष्कर्ष विवेच्य उपन्यासों मे नारी विमर्श की चर्चा पर्याप्त मात्रा में मिलती है। नारी अस्मिता एवं नारी चितंन की अभिव्यक्ति मेहता जी के उपन्यासों मे दिखाई देती है। स्त्री विमर्श स्त्री की अस्मिता का आत्मचेतना का, अन्याय के विरोध का, अस्तित्व बोध का और उसकी अत्याचार कें विरोध में खड़े रहने की लड़ाकू वृति का न केवल परिचय देता है अपितु इस चितंन को बल प्रदान करता है। नरेश मेहता जी ने समकालीन युग एवं जीवन को कथा साहित्य में यथार्थ रूप में अभिव्यक्त किया है। आधुनिक जीवन की समस्याओं को गहराई से समझा और मानवीय संचेतना को कुशाग्रता के साथ चित्रित करने का प्रयास किया है। नारी के विविध रूपों, कामनाओं नारी मन की भावनाओं, आकांक्षाओं को मेहता जी ने साहित्य में स्पष्ट किया है। समाज में फैली विषमताओं, जो संक्रामक रोग की तरह फैल रही थी को हटाने का सफल प्रयास किया है। आज के युग मे नरेशजी के उपन्यासों के नारी पात्र साहस, विद्रोह, निडरता, जागरूकता, प्रगतिशीलता व मानवीयता को जाग्रत करने में सक्षम है। आने वाली पीढ़ी की नारियों में चेतना जाग्रति के लिए यह दर्शन निश्चित ही प्रेरणा दायी होगा।
संदर्भग्रंथ सूची-
1. डॉ. अर्जुन च्व्हाण, विमर्श के विविध आयाम, वाणी प्रकाशन, दिल्ली-110002, सं.2008 पृ.सं. 29-30
2. ज्ञानेन्द्र रावत, औरतः एक समाजशास्त्रीय अध्ययन, विश्वभारती पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली-110002, सं. 2006, पृ.सं. 220
3. मनुस्मृति, 3.56
4. नरेश मेहता, आखिर समुद्र से तात्पर्य पृ. सं. 54
5. डॉ. जयकरण, नरेश मेहता के कथा साहित्य में मध्यवर्ग, संजय प्रकाशन, दिल्ली
6. नरेश मेहता, उत्तरकथा द्वितीय खण्ड, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2011,
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शिल्पी शोध छात्रा,गृह विज्ञान विभाग
वनस्थली विद्यापीठ
निवाई, टोंक, राजस्थान
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