सुधा मूर्ति गर्मियों के शुरुआती दिन थे। मैं गुलबर्गा स्टेशन से उद्यान एक्सप्रेस में चढ़ी थी और बंगलौर मेरा गंतव्य स्टेशन था। ट्रेन के जिस से...
सुधा मूर्ति
गर्मियों के शुरुआती दिन थे। मैं गुलबर्गा स्टेशन से उद्यान एक्सप्रेस में चढ़ी थी और बंगलौर मेरा गंतव्य स्टेशन था। ट्रेन के जिस सेकेंड क्लास डिब्बे में मैं चढ़ी थी वह लोगों से खचाखच भरा हुआ था। हालांकि वह आरक्षित डिब्बा था, लेकिन उसमें बहुत सारे ऐसे लोग भी घुसे हुए थे, जिन्हें उसमें बैठने का अधिकार नहीं था। कर्नाटक का यह हिस्सा हैदराबाद-कर्नाटक के नाम से मशहूर है क्योंकि किसी जमाने में इस पर हैदराबाद के निजाम का शासन रहा था। इस क्षेत्र में पानी की बड़ी कमी रहती है जिससे यह रूखा-सूखा रहता है और इसीलिए गर्मियों में यहां के किसान इसमें कुछ भी नहीं उगा पाते हैं। इसी कारण से बहुत-से गरीब किसान और भूमिहीन मजदूर गर्मियों के इन दिनों में इस हैदराबाद-कर्नाटक क्षेत्र से बंगलौर तथा अन्य बड़े शहरों की ओर चल पड़ते हैं जहां कि वे निर्माण कार्यों में मेहनत-मजदूरी किया करते हैं। बरसात आने पर फिर से खेती के काम में लग जाने के लिए वे वापस घर आ जाते हैं। पलायन करने वाला यह वही अप्रैल का महीना था और इसीलिए रेल का डिब्बा भरा हुआ था।
मैं बैठ गई या कहूं कि बर्थ के कोने की ओर जैसे धकेल दी गई। हालांकि वह बर्थ केवल तीन जनों के बैठने के लिए थी, लेकिन उस पर कुछ जने पहले से ही बैठे हुए थे। मैंने देखा कि उस भीड़ में कुछ तो छात्र थे जो कि अपने करिअर बनाने के लिए बंगलौर जा रहे थे। कुछ व्यापारी थे, जो कि बैंगलौर से माल लाने के बारे में बातें कर रहे थे। कुछ सरकारी अधिकारी भी थे, जो कि गुलबर्गा की आलोचना कर रहे थे, ओफ, क्या शहर है ये! इतना गर्म कि यहां रहा ही नहीं जा सकता। शायद इसीलिए यहां तबादला होना एक सजा माना जाता है।'
तभी टिकट कलेक्टर आ पहुंचा और लोगों के टिकट व आरक्षण चेक करने लगा। यह अंदाजा लगाना मुश्किल हो रहा था कि किसके पास टिकट है और किसके पास आरक्षण है। कुछ लोगों के पास टिकट तो था, लेकिन आरक्षण नहीं था। यह रात भर की यात्रा थी, इसलिए लोग स्लीपर-बर्थ चाहते थे, लेकिन वे तो गिनी-चुनी ही थीं। जिन लोगों को स्लीपर बर्थ का आरक्षण नहीं मिल पाया था, वे टिकट कलेक्टर से उन्हें ' किसी तरह जगह दे देने के लिए चिरौरी कर रहे थे। हर एक की बात सुन पाना उसके लिए असंभव हो रहा था।
अपनी गिद्ध दृष्टि से उसने आसानी से उन लोगों को पहचान लिया, जिनके पास टिकट नहीं थे। बिना टिकट वाले लोग अपनी-अपनी दलीलें दे रहे थे, ' सर, पहली वाली ट्रेन कैंसिल हो गई। उसमें हमारा रिजर्वेशन था। यह हमारी गलती नहीं है। इस ट्रेन में बैठने का दोबारा किराया हम क्यों दें?' कुछ अनुनय कर रहे थे, ' सर, स्टेशन पहुंचने में मैं थोड़ा लेट हो गया था, टिकट खिड़की पर लंबी लाइन लगी हुई थी। टिकट खरीदने का समय
ही नहीं रह गया था, इसलिए मैं इस डिब्बे में चढ़ गया। ' अवश्य ही टिकट कलेक्टर ने गीता पढ़ रखी होगी, तभी तो वह लोगों के इन बहानों को बड़े निर्विकार भाव से सुनता रहा था और बिना टिकट लोगों के टिकट बनाता रहा था।
तभी अचानक उसने मेरी तरफ देखा और बोला, ' हां, तुम्हारा टिकट? '
' मैं आपको अपना टिकट दिखा चुकी हूं' मैंने कहा।
' आप नहीं मैडम, वो लड़की जो आपकी बर्थ के नीचे छुपी है? हे बाहर निकलो, टिकट कहां है तुम्हारा? '
तब मुझे पता चला कि कोई मेरी बर्थ के नीचे छुपा बैठा है। टिकट कलेक्टर जब उस पर चिल्लाया, तो वह लड़की बाहर निकल आई। वह लड़की दुबली-पतली और गहरे सांवले रंग की थी, वह घबराई हुई थी और लग रहा था कि वह बहुत रोती रही थी। वह कोई तेरह-चौदह साल की रही होगी। उसके बालों में जाने कब से कंघी नहीं हुई थी, जो स्कर्ट और ब्लाउज उसने पहन रखे थे, वे कटे-फटे थे। वह कांप रही थी और उसने दोनों हाथ जोड़ लिए थे।
टिकट कलेक्टर ने फिर पूछा, 'कौन हो तुम? किस स्टेशन से चढ़ी हो? कहां जा रही हो? बताओ, मैं तुम्हारा पूरा टिकट जुर्माने सहित बना देता हूं। '
उस लड़की ने कोई उत्तर नहीं दिया। टिकट कलेक्टर को चूंइक बहुत-से बेटिकट लोगों से निपटना पड़ रहा था, इसलिए अब वह बिगड़ने लगा था। उसने अपना सारा गुस्सा उस छोटी-सी लड़की पर उतार दिया, ' तुम जैसे भगोड़ों को मैं अच्छी तरह जानता हूं वह चिल्लाया, 'तुम लोग मुफ्त में रेल की सवारी करते हो और मुसीबत खड़ी करते हो। न तो तुम मेरे सवालों का जवाब देते हो और न ही टिकट खरीदते हो। अरे, मेरे से ऊपर भी अफसर हैं मुझे तो उन्हें जवाब देना ही पड़ता है..'
वह लड़की एक भी शब्द नहीं बोली, लेकिन वहां बैठे लोगों को जैसे इस बात से कोई वास्ता ही नहीं था, वे अपने-अपने कामों में मशगूल रहे। कुछ तो टिकट खरीदने के लिए रुपए गिन रहे थे, कुछ अगले स्टेशन यानी वाडी जैक्यान पर उतरने की तैयारी में थे, ऊपर वाली बर्थ के लोग सोने की तैयारी करने लगे थे और बाकी लोग डिनर में व्यस्त थे। यह सब मेरे लिए बड़ा अजीब था, क्योंकि अपने सामाजिक कार्यों के इतने लंबे अनुभव के दौरान कभी मैंने इस तरह का नजारा नहीं देखा था।
वह लड़की बुत की तरह खामोश खड़ी रही थी, जैसे उसने कुछ सुना ही न हो। टिकट कलेक्टर ने उसकी बांह पकड़ी और उसे अगले स्टेशन पर उतर जाने के लिए धमकाया। 'मैं तुम्हें पुलिस को सौंप दूंगा। वे तुम्हें अनाथालय में दे देंगे। फिर मेरी सिरदर्दी नहीं रहेगी। अगले स्टेशन पर उतर जाना' उसने कहा। वह लड़की नहीं हिली। तब टिकट कलेक्टर ने डिब्बे से उतारने के लिए उसे जबर्दस्ती खींचना शुरू कर दिया। अचानक ही, पता नहीं मुझे क्या हुआ। मैं खड़ी हो गई और टिकट कलेक्टर से ललकारती हुई-सी बोली, ' सुनिए, इसके टिकट के पैसे मैं दूंगी। अब रात हो गई है। मैं नहीं चाहती कि यह छोटी लड़की इस समय प्लेटफॉर्म पर उतरे। '
कलेक्टर ने नजर उठाकर मुझे देखा। वह मुस्कुराया और बोला, ' मैडम, यह आपकी दयालुता है जो आप इसका टिकट ले रही हैं लेकिन मैंने इसके जैसे बहुत बच्चे देखे हैं। ये लोग एक स्टेशन से गाड़ी में चढ़ते हैं और फिर अगले किसी स्टेशन पर उतर कर दूसरी गाड़ी में चढ जाते हैं। ये लोग इसी तरह मागते-मूंगते बिना टिकट अपनी मंजिल तक पहुंच जाते हैं। यह लड़की भी उनसे कुछ अलग नहीं है। आप अपने पैसे क्यों बबांट करना चाहती हैं? यह लड़की उस टिकट से भी यात्रा नहीं करेगा अगर आप उसे थोड़े पैसे पकड़ा देंगी, तो यह अपने रास्ते ली जाएगी। '
मैंने खिड़की से बाहर की तरफ देखा। ट्रेन किसी स्टेशन पर आने वाली थी और प्लेटफॉर्म की तेज रोशनी दिख रही थी। चाय, जूस और खान-पान की चीजें बेचने वाले ट्रेन की तरफ लपकने लगे थे। मेरा दिल उस कलेक्टर की बात मानने को तैयार नहीं था और मैं हमेशा अपने दिल की बात माना करती हूं। हो सकता है कि कलेक्टर सच ही कह रहा हो, लेकिन आखिर मेरी कितनी रकम चली जाएगी - केवल कुछ सौ रुपए, बस इतना ही तो! 'सर, ठीक है लेकिन जो भी हो, मैं उसका टिकट लूंगी' मैंने कहा।
मैंने उस लड़की से पूछा, 'यह तो बताओ कि तुम जाना कहां चाहती हो? '
उस लड़की ने मुझे ऐसी नजर से देखा, जैसे उसे विश्वास ही न हो रहा हो। तब मैंने ध्यान दिया कि एकदम काली पुतली वाली उसकी आँखें बहुत सुंदर थीं, लेकिन उनमें दुख था, पीड़ा थी, लेकिन वह चुप ही रही।
कलेक्टर मुस्कुराया और बोला, ' मैडम, मैंने कहा था न! एक्सपीरियंस इज द बेस्ट टीचर। '
वह लड़की की ओर मुड़ा और बोला, ' चलो, नीचे उतरो। ' मैंने कलेक्टर की बात नहीं मानी। मैंने उससे आखिरी स्टेशन यानी बंगलौर तक का टिकट बना देने के लिए कहा, ताकि वह लड़की जहां चाहे वहां उतर सके।
कलेक्टर ने एक बार फिर मेरी ओर देखा और बोला, ' लेकिन उसे बर्थ नहीं मिलेगी और आपको पैनल्टी भी भरनी पड़ेगी। '
मैंने शांत भाव से अपना पर्स खोला।
कलेक्टर ने अपना बोलना जारी रखा, ' अगर आप टिकट लेना ही चाहती हैं तो आपको ट्रेन के स्टार्टिंग पॉइंट से ही किराया भरना पड़ेगा। '
वह ट्रेन बंबई वीटी से शुरू होती है और बंगलौर पर खत्म होती है। बिना कुछ कहे मैंने पूरा किराया भर दिया। कलेक्टर ने टिकट बना दिया और ऐसा चेहरा बनाता हुआ वहां से गया, जैसे मैंने कोई बड़ा बुरा काम कर दिया हो।
लड़की अभी तक वहीं की वहीं खड़ी थी। मैंने साथ के यात्रियों से थोड़ा खिसकने और उस लड़की को बैठने देने के लिए आग्रह किया, क्योंकि अब तो उसके पास बाकायदा टिकट हो गया था। एक अनमने भाव से जब वे थोड़ा-थोड़ा खिसक गए, तो मैंने उस लड़की से सीट पर बैठ जाने के लिए कहा, लेकिन वह नहीं बैठी। जब मैंने अधिक कहा तो वह फर्श पर बैठ गई। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं उससे बात कहां से शुरू करूं। मैंने उसके लिए खाना मंगाया। जब खाने का डिब्बा आ गया, तो उसने उसे ले तो लिया, मगर खाया नहीं। उसे खाना खिलाने की और उससे बात करने की मेरी सारी कोशिशें बेकार रहीं। अंतत: उसका टिकट उसे थमाते हुए मैंने उससे कहा, ' देखो, पता नहीं कि तुम्हारे मन में क्या चल रहा है क्योंकि तुम कुछ भी नहीं बता रही हो। जो भी हो, यह तुम्हारा टिकट है तुम जहां चाहो वहां उतर सकती हो। '
जैसे-जैसे रात होती गई, लोग अपनी-अपनी बर्थ पर और फर्श पर सोने के लिए पसरने लगे, लेकिन वह लड़की बैठी ही रही। सुबह व्य बजे जब मेरी आंख खुली तब वह सो रही थी। इसका मतलब था कि वह कहीं नहीं उतरी थी। उसका खाने का डिब्बा भी खाली था। मुझे खुशी हुई कि कम से कम उसने खाना तो खा ही लिया था।
जैसे-जैसे बंगलौर निकट आता जा रहा था, डिब्बा खाली होता जा रहा था। मैंने एक बार फिर उसे एक खाली सीट पर बैठने के लिए कहा और इस बार वह मान भी गई। धीरे-धीरे उसने बात करनी शुरू की। उसने बताया कि उसका नाम चित्रा है। वह बिदर के पास के एक गांव की रहने वाली है। उसका पिता बोझा ढोने वाला एक पल्लेदार था और उसकी मां उसे जन्म देते समय ही मर गई थी। फिर उसके पिता ने दूसरी शादी कर ली थी और उससे दो बेटे हैं। कुछ महीने पहले उसके पिता का भी देहांत हो चुका है। उसकी सौतेली मां अब उसे बहुत मारती-पीटती है और अक्सर खाना भी नहीं देती है। उसके फटे कपड़ों की दरारों से झांकते उसके बदन पर पड़े पिटाई के निशान और ब्लाउज पर लगे हल्के-हल्के खून के धब्बे उसके शब्दों की सच्चाई की गवाही दे रहे थे। उस जीवन से वह उकता गई थी और कुछ बेहतर पाने की तलाश में उसने घर छोड़ दिया था।
उसकी बात पूरी होते-होते ट्रेन बंगलौर पहुंच गई थी। मैंने चित्रा को गुड-बाय कहा और ट्रेन से उतर गई। मेरा ड्राइवर आ गया था और उसने मेरा सामान उठा लिया था। मुझे लगा कि कोई मुझे ध्यान से देख रहा है। मैंने पलटकर देखा तो पाया कि चित्रा वहां खड़ी हुई थी और दुख भरी आंखों से मुझे अपलक देख रही थी, लेकिन इससे ज्यादा मैं उसके लिए कुछ और नहीं कर सकती थी।
जब मैंने अपनी कार की तरफ चलना शुरू किया, तो मुझे लगा कि चित्रा मेरे पीछे-पीछे आ रही है। मुझे पता था कि इस भरी दुनिया में उसका कोई नहीं है। अब मैं पसोपेश में पड़ गई थी। मैं समझ नहीं पा रही थी कि उसके साथ कैसा व्यवहार करूं? अपने मन में उठी करुणा के कारण मैंने उसका टिकट ले लिया था, लेकिन मैंने ऐसा बिलकुल नहीं सोचा था कि वह मेरी जिम्मेदारी ही बन जाए, लेकिन चित्रा के नजरिए से देखा जाए, तो मैंने उस पर बड़ी मेहरबानी की थी और वह मुझसे चिपके रहना चाहती थी। जब मैं कार में बैठ गई, तब भी वह बाहर खड़ी मुझे ही देखती रही थी।
एक मिनट के लिए तो मैं घबरा ही गई थी, लेकिन फिर मैंने खुद से पूछा, 'मैं कर क्या रही हूं? ' गाड़ी पर इसी लड़की की सुरक्षा को लेकर मैं कितनी चिंतित और व्यग्र हो उठी थी, लेकिन अब इस बंगलौर जैसे महानगर में - यानी पिछले हालात से भी बुरे हालात में, उसे मैं यूं ही छोड़े जा रही हूं। यहां तो चित्रा के साथ कुछ भी हो सकता है। आखिर वह एक लड़की है। लोग उसकी इस अवस्था का तरह-तरह से दुरुपयोग कर सकते हैं। मैंने चित्रा को कार में बैठने के लिए कहा। ड्राइवर ने उसे कौतूहल भरी नजरों से देखा। उससे मैंने कहा कि पहले राम के घर चले। राम मेरा मित्र है और उसने अनाथ बच्चों के लिए आश्रय खोल रखा है लडकों का अलग और लड़कियों का अलग। इंफोसिस फाउंडेशन से हम उसे निरंतर आर्थिक सहायता उपलब्ध कराते रहते हैं। मैंने सोचा कि चित्रा कुछ दिन वहीं रह लेगी और मेरे कुछ हफ्तों के बाहरी दौरे से लौटकर आने के बाद . हम उसके भविष्य के बारे में चर्चा करेंगे और कोई निर्णय ले ' लेंगे। उस आश्रय में लगभग दस लड्कियां थीं, जिनमें से तीन . तो चित्रा की ही उम्र की थीं। वे सभी लड्कियां मुझे जानती थीं। : जब मैं आश्रय पहुंची, तो वहां की महिला सुपरवाइजर बाहर आई और उसने मुझसे बात की। मैंने सारी स्थिति उसे बताई और। चित्रा को उसे सौंपते हुए कहा, ' तुम यहां कुछ दिन रह सकती ( हो। चिंता मत करना। ये लोग बहुत अच्छे हैं। मैं दो हफ्ते बाद लौटूंगी और तब तुमसे मिलने आऊंगी। यहां से भाग मत जाना, कम-से-कम मेरे लौटने तक तो बिकुल नहीं। कोई समस्या हो अपनी सुपरवाइजर से बात करना। तुम उसे अक्का बुला। सकती हो। ' ( कुड् भाषा में अक्का का अर्थ होता है बड़ी बहन) मैंने कुछ रुपए भी उस सुपरवाइजर को दिए और कहा कि इनसे वह चित्रा के लिए कुछ कपड़े और अन्य आवश्यक सामान खरीद लाए।
दो हफ्ते बाद मैं पुन: उस आश्रय में गई। मुझे इस बात में संदेह था कि चित्रा अभी तक वहां टिकी होगी, लेकिन मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ वह न केवल वहीं थी, बल्कि पहले की अपेक्षा बहुत खुश थी। अपने जीवन में पहली बार वहां उसे ढंग का खाना नसीब हुआ था। उसने नए कपड़े पहने हुए थे और वह छोटी बच्चियों को पढ़ा रही थी। जैसे ही उसने मुझे देखा, वह तत्परता से खड़ी हो गई। सुपरवाइजर ने बताया, 'चित्रा बहुत अच्छी लड़की है। वह रसोई में हमारी मदद करती है आश्रय की सफाई-सुथराई करती है और छोटी लड़कियों को पढ़ाती भी है। वह बता रही थी कि अपने गांव के स्कूल में वह पढ़ाई में बहुत अच्छी थी और हाईस्कूल में प्रवेश लेना चाहती थी, लेकिन उसके घरवालों ने उसे ऐसा करने नहीं दिया। उसे यहां बड़ा अच्छ लग रहा है और वह आगे पढ़ना चाहती है। उसके भविष्य के बारे में आपने क्या सोचा है? क्या हम उसे यहीं रख सकते हैं? '
तभी राम भी आ गया। उसे सारी बात पहले से ही मालूम थी। उसका सुझाव था कि चित्रा को निकट के ही हाईस्कूल में भेजा जा सकता है। मैं तुरंत सहमत हो गई और उन्हें कह दिया कि जब तक वह पढ़ाई करना चाहे उसकी पढ़ाई का सारा खर्चा मैं उठाऊंगी। इस बात की तसल्ली के साथ मैं आश्रय से चल पड़ी थी कि चित्रा को एक घर मिल गया है और जीवन की एक दिशा भी मिल गई है।
मैं अपने कामों में पहले की अपेक्षा अधिक व्यस्त हो गई थी और उस आश्रय में मेरा आना-जाना कम होकर साल में कोई एक बार ही रह गया था, लेकिन मैं फोन पर चित्रा की कुशलक्षेम अवश्य मालूम कर लिया करती थी। मुझे पता चलता रहता था कि वह पढ़ाई अच्छी तरह कर रही है और आगे बढ़ रही है।
समय बीतता गया। एक दिन राम का फोन आया और उसने बताया कि चित्रा ने दसवीं कक्षा में 85 प्रतिशत अंक प्राप्त किए हैं। इसके लिए चित्रा को बधाई देने और उससे कुछ बातें करने के लिए जब मैं आश्रय पहुंची, तो वह बहुत प्रसन्न थी। अब वह एक विश्वास से भरपूर नवयुवती बनती जा रही थी। काली पुतली वाली उसकी सुंदर आंखों में एक चमक आ गई थी।
मैंने प्रस्ताव रखा कि यदि वह अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहे, तो मैं उसकी कॉलेज की पढ़ाई की जिम्मेदारी ले सकती हूं लेकिन उसने कहा, 'नहीं अक्का, अपनी कुछ सहेलियों से मेरी बात हुई है और मेरा इरादा है कि मैं कंप्यूटर साइंस में डिप्लोमा करूं, ताकि तीन साल बाद मुझे तुरंत नौकरी मिल जाए। ' मैंने उसे इंजीनियरिंग में ग्रेजुएशन करने के लिए समझाने की हरचंद कोशिश की, लेकिन वह तैयार नहीं हुई। दरअसल, वह जल्द-से-जल्द अपने पैरों पर खड़े हो जाना चाहती थी। जिन हालात से वह आई थी, उन्हें मैं महसूस कर सकती थी।
तीन साल पूरे हो गए और चित्रा ने बहुत अच्छे अंक हासिल करते हुए अपना डिप्लोमा पूरा कर लिया। एक सॉफ्टवेयर कंपनी में असिस्टेंट टेस्टिंग इंजीनियर के पद पर उसे नौकरी भी मिल गई। जब पहला वेतन उसे मिला, तो मेरे लिए एक साड़ी और मिठाई का डिब्बा लेकर वह मेरे कार्यालय आ पहुंची थी। उसकी इस भावना ने मेरे अंतर्मन को छू लिया था। बाद में मुझे पता चला कि उसने अपना पहला वेतन आश्रय में हर किसी के लिए लाने में का खर्च कर डाला था।
कुछ-न-कुछ पूरा पूरा इसके कुछ ही दिन बाद एक समस्या को लेकर राम का फोन आया। उसने कहा, 'चित्रा अब नौकरी-पेशा वाली लड़की हो गई है इसलिए अब वह आश्रय में नहीं रह सकती है क्योंकि आश्रय केवल छात्राओं के लिए है। ' मैंने राम को बोला कि मैं चित्रा से बात करूंगी और आश्रय को किराए के रूप में एक समुचित राशि चुकाने के लिए कहूंगी। इस तरह शादी होने तक वह आश्रय में रहना जारी रख सकेगी। यह बात मैं बड़ी शिद्दत से महसूस कर रही थी कि चित्रा जैसी अविवाहित और अनाथ लड़की के लिए वह आश्रय एक सुरक्षित जगह थी।
राम ने पूछा, 'क्या आप उसके लिए कोई लड़का तलाश कर रही हैं? '
उसने एक नई और काफी बड़ी समस्या मेरे सामने रख दी थी। चित्रा की अनौपचारिक अभिभावक होने के नाते मुझे उसके लिए एक सुयोग्य लड़का तो तलाश करना ही चाहिए या फिर चित्रा को ही अपने लिए कोई जीवनसाथी ढूंढना पड़ेगा। यह एक बड़ी भारी जिम्मेदारी थी। जब लोग कहते हैं कि मुझे दूसरों की मुसीबतें ओढ लेने की आदत हो गई है तो वे कुछ गलत भी नहीं कहते, लेकिन ऊपर वाला उनसे बाहर निकलने के अनोखे रास्ते भी मुझे दिखाता रहता है। मैंने राम से कहा, ' अभी तो वह इक्कीस साल की ही है। उसे कुछ साल काम करने दो। हां, अगर तुम्हें भी कोई सुयोग्य लड़का नजर आए तो मुझे बताना। '
मैंने चित्रा को बुलाया और आश्रय में रहते रहने के बारे में बात की। वह वहीं रहने और किराया देने के लिए खुशी-खुशी तैयार हो गई।
दिन बीतते गए और फिर वे महीनों और बरसों में बदलते चले गए। एक दिन, मैं दिल्ली में थी कि चित्रा का फोन आया। खुशी से चहकते हुए उसने बताया, ' अक्सका, मेरी कंपनी मुझे यूएसए भेज रही है। जाने से पहले मैं आपसे मिलना चाहती थी और आपका आशीर्वाद लेना चाहती थी, लेकिन आप बंगलौर में नहीं हैं। '
उस समय चित्रा के लिए जो अनुभूति मुझे हुई थी, उसे परम-आनंद कहा जा सकता है। मैंने कहा, 'चित्रा अब तुम विदेश जा रही हो। अपना खयाल रखना और संपर्क बनाए रखना। मेरा आशीर्वाद सदा-सर्वदा तुम्हारे साथ है। '
समय बीतता गया। बीच-बीच में उसके ई-मेल मुझे आते रहते थे। वह अपने करिअर में बहुत अच्छा कर रही थी। यूएसए के कई शहरों में उसकी पोस्टिंग होती रही थी और वह अपना जीवन आनंद से बिता रही थी। मैं मन-ही-मन प्रार्थना करती रहती थी कि वह जहां भी रहे सुखी रहे।
कुछ साल बाद, मुझे सैन फ्रांसिस्को में कुडु-कूटा में व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया। कुडू-कूटा वह संगठन है जिसमें कुडभाषी लोग मिला करते हैं और कोई-न-कोई आयोजन करते रहते हैं। मेरा व्याख्यान जिस होटल में होना था, मैंने उसी में ठहरने का निर्णय लिया। व्याख्यान के बाद हवाई अड्डे जाने के लिए अपना कमरा छोड़कर मैं रिसेप्शन काउंटर पर पहुंची, ताकि अपने ठहरने का बिल चुका दूं तो रिसेप्शनिस्ट ने कहा, ' मैडम आपको कुछ भी चुकाने की जरूरत नहीं है। ये जो महिला खड़ी हैं उन्होंने आपका बिल चुका दिया है। आप शायद उन्हें जानती हों। '
मैंने पलट कर देखा, तो चित्रा को वहां खड़े पाया। उसने एक सुंदर साड़ी पहन रखी थी और वह एक गोरे युवक के साथ थी।
अल्प की अपेक्षा लेटे बालों में वह बहुत सुंदर लग रही थी। काली वाली उसकी आंखों से खुशी फूट रही थी और उनमें गौरव था। जैसे ही उसने मुझे देखा उसके चेहरे पर एक बड़ी-सी १२४४-४ फैल गई, वह मेरे गले से लग गई, उसने मेरे पैर छुए। मैं इतनी अभिभूत हो गई थी कि समझ नहीं पा रही थी कि चित्रा को क्या कहूं? '
'चित्रा कैसी हो तुम? तुम्हें देखे हुए तो युग बीत गए। कितना पछ संयोग हुआ है! तुम्हें कैसे पता कि मैं आज इस शहर में हूँ'
' अक्का, मैं इसी शहर में रहती हूं। मुझे पता चल गया था - आप कुडू-कूटा में व्याख्यान देने आ रही हैं। मैं भी इसकी ४९-२१ हूं। मैं आपको सरप्राइज देना चाहती थी। आपका शेड्यूल कोई कठिन काम नहीं था। '
'चित्रा, तुमसे तो मुझे बहुत सारी बातें करनी हैं। नौकरी कैसी रही है? इस बीच क्या कभी भारत भी आना हुआ या नहीं? बड़ी बात कि कोई 'मि. राइट' मिला या नहीं? लेकिन, होटल का मेरा बिल क्यों भरा? '
'नहीं अक्का, जब से भारत से आई हूं तब से अभी तक मैं एक बार भी वहां नहीं जा सकी हूं। यदि मैं वहां आती, तो आपसे मिले बिना भला कैसे लौट सकती थी। अक्का, आपसे एक बात करनी है। मैं जानती हूं कि आप मेरी शादी को लेकर हमेशा न रही हैं। आपने कभी मेरी जाति के बारे में भी नहीं पूछा। आप तो बस मुझे जिंदगी में सही मुकाम पर पहुंचाना चाहती रही। मुझे मालूम है कि मेरे लिए कोई लड़का ढूंढना आपके लिए कठिन काम है। अब मैंने अपना 'मि. राइट' ढूंढ लिया है। इनसे मिलिए ये हैं जॉन, मेरे साथ ही काम करते हैं। इस साल के अंत तक हम दोनों शादी करने वाले हैं। हमारी शादी पर हमें आशीर्वाद देने के लिए आपको जरूर-जरूर आना है। '
सारी बातें जिस तरह चित्रा के अनुकूल होती जा रही थीं, उन्हें देखकर मैं सचमुच बहुत खुश हो रही थी, लेकिन मैं अपने यक्ष प्रश्न पर फिर लौट आई थी, 'चित्रा, तुमने होटल का मेरा बिल क्यों भरा? यह बात ठीक नहीं है। '
उसकी आंखों में आँसू और चेहरे पर कृतज्ञता के भाव तैर आए थे और वह बोली, ' अक्का, अगर आप मेरी मदद नहीं करतीं, तो पता नहीं कि मैं आज कहां होती - शायद भिखारिन होती, किसी कोठे पर बैठी होती... या हो सकता है कि मैं आत्महत्या कर चुकी होती। आपने मेरा जीवन बनाया है। मैं हमेशा-हमेशा आपकी एहसानमंद रहूंगी। '
'नहीं चित्रा, तुम्हारी इस सफल जिंदगी की सीढ़ी में मैं तो केवल एक पायदान रही हूं। ऐसे और भी कई पायदान रहे हैं जो तुम्हें वहां तक लाने में मददगार रहे हैं जहां तुम आज हो - वह आश्रय जिसने तुम्हारी देखभाल की, वह स्कूल जिसने तुम्हें अच्छी शिक्षा दी, वह कंपनी जिसने तुम्हें अमेरिका भेजा और इन सबसे ऊपर तुम स्वयं - एक दृढ़निश्चयी और अंतःप्रेरित लड़की, जिसने अपना जीवन स्वयं बनाया। मुझ अकेले पायदान को तुम अपनी सफलता की पूरी सीढी के शीर्ष तक पहुंचाने का सारा श्रेय नहीं दे सकतीं। '
' अक्का, ऐसा आपका मानना है लेकिन मैं ऐसा नहीं मानती। '
'देखो चित्रा, अब तुम एक नया जीवन शुरू करने जा रही हो, इसलिए तुम्हें अपने लिए और नए परिवार के लिए पैसा बचाना चाहिए। तुमने मेरा होटल का बिल क्यों भरा? '
चित्रा ने कोई उत्तर नहीं दिया, बल्कि जॉन से मेरे पैर प्ले को कहा और फिर, अचानक ही सुबकते हुए वह मेरे गले से लग गई और बोली, 'क्योंकि आपने बंबई से बंगलौर तक का मेरा टिकट भरा था। '
अनुवाद : अचलेश शर्मा ( सुधा मूर्ति द्वारा लिखित तथा पेंग्विन इंडिया द्वारा प्रकाशित पुस्तक ' द डे आई स्टाप्ड ड्रिंकिंग मिल्क’ से साभार)
अहा!जिंदगी मई 2015 से साभार
(ऊपर का चित्र - तन्वी शर्मा की कलाकृति)
बेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!शुभकामनायें.
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