कहानी - नास्तिक

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सुधा शर्मा मंदिर का सारा काम पूर्ण हो चुका था। भक्तों का आना-जाना भी बंद हो गया था। नित्य-प्रतिदिन की भाँति मंदिर के कपाट बंद करके पंडित ब...

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सुधा शर्मा

मंदिर का सारा काम पूर्ण हो चुका था। भक्तों का आना-जाना भी बंद हो गया था। नित्य-प्रतिदिन की भाँति मंदिर के कपाट बंद करके पंडित बद्रीनाथ जी जैसे ही घर की ओर चले कि रास्ते में वही चारों नास्तिकों की चांड़ाल चौकड़ी मिल गई। देखते ही पंडितजी का माथा ठनक गया। बिल्ली के रास्ता काट जाने से भी अधिक अपशकुन उन चारों का मिलना था। पंडित जी राम-राम-राम बड़बड़ाते हुए रास्ता बदलकर निकल गए।

इन चारों को देखकर पंडितजी ही नहीं वरन पूरे गाँव का माथा ठनक जाता था। एक का नाम रामभजन था,लेकिन राम का भजन करना तो दूर वो राम की बातें भी कभी नहीं सुनता था। एक का नाम अल्लारक्खा था उसने भी मस्जिद में जाकर कभी नमाज अदा की हो, ऐसा याद नहीं। गुरबचन और जॉनी भी उसी घुटटी को पिए थे। चारों ही भगवान का नाम सुनकर खिल्ली उड़ाते थे। शायद यह कहावत सही है कि दोस्ती के लिए समान जाति या धर्म की समानता आवश्यक नहीं;विचारों की समानता आवश्यक है। अगर उन चारों को कोई समझाने की कोशिश भी करता तो कमबख्त उस उपदेशक को ही नहीं वरन भगवान को भी अपशब्द कहने लगते।

एक दिन गाँव के बुजुर्गों ने अपना कर्तव्य समझ एक महान धार्मिक व्यक्ति को बुलाकर चारों को उपदेश देने को कहा ,लेकिन नालायक चारों उनके पीछे पड़ गए। कमबख्त मुँहजोरी करने लगे। रामभजन ने उनसे पूछा-''बताओ गुरूजी! ये सब जो रात-दिन मंदिर जाते हैं,रात-दिन भगवान के नाम पर जुलूस निकालते हैं,सारी -सारी रात जागकर भजन-कीर्तन करते हैं, न खुद सोते हैं न मुहल्ले को सोने देते हैं। क्या ये ईश्वर को पाना चाहते हैं? नहीं गुरूजी! नहीं ये केवल कष्टरहित जीवन चाहते हैं,बिना कुछ करे धन-दौलत और सुख चाहते हैं। जब कि दिन- रात की तरह सुख-दुख तो जीवन का आवश्यक अंग है इसीलिए शनि व सांई मंदिर जाते हैं। जिस देवता के नाम से जितनी जल्दी कष्ट दूर हो जाए, उसी की पूजा करनी प्रारम्भ कर देते हैं। मतलब निकालने के लिए एक देवता को छोड़ दूसरे में श्रद्धा रखते हैं ,फिर कहाँ है ईश्वर में इनका अटूट विश्वास। यह तो केवल व्यापार है व्यापार। शुद्ध व्यापार। व्यापार भी बहुत फायदे का। ग्यारह रूपए के बदले में बेटे के लिए सर्विस मांग लेते हैं, बहू मांग लेते हैं। इक्कीस रूप्ए के बदले में पोता माँग लेते हैं, ईश्वर ने उनके लिए जो अतुलनीय धन-संपदा,फल-फूल दिए हैं; उन सब के लिए तो कभी धन्यवाद नहीं देते। सुनकर गुरूजी का क्रोध सातवें आसमान पर था । मन तो कर रहा था कि काला मुँह करके गधे पर बैठाया जाए,लेकिन यह सोचकर चुप रह गए कि ईश्वर सब जानता है। वह अवश्य ही इनके अपराध के लिए दंड़ देगा।

अल्लाबख्श की बातें सुनकर तो मौलवी जी हतप्रभ रह गए। मन तो कर रहा था कि फतवा जारी कर दें कि इस नामुराद को मुसलमान कहलाने का कोई हक नहीं। कैसे अजीब तर्क दिए थे उसने- कि मैं। ऐसे राम या खुदा को नहीं मानता जो इंसान -इंसान के बीच झगड़े का कारण बने। अल्ला तो बहुत रहमदिल है, अपने बंदों को बहुत प्यार करता है। ना मैं हिंदू हूँ ना मुसलमान हूँ ना सिक्ख ना ईसाई। बस इंसान हूँ इंसान और इंसां ही बने रहना चाहता हूँ। गुरवचन और जॉनी की दलील सुनकर भी गाँववाले बड़े क्रोधित और दुखी थे। माँ- बाप भी उनके जन्म पर शर्मिन्दा थे। उनके मुँह से भी निकल गया-'इससे अच्छा तो पैदा ही ना होते या होते ही मर जाते। कम से कम गाँव के सामने शर्मिन्दा तो ना होना पड़ता। वालिद ने तो कई बार घर से निकल जाने की भी धमकी दी लेकिन माँ का दिल नहीं माना। गाँव के साथ-साथ माता-पिता ने भी मान लिया था कि वे चारों उनके बुरे कर्मों के परिणाम स्वरूप हैं।

गाँव-वालों की मेहरबानी के कारण ही चारों के हाथ पीले नहीं हो पाए थे। सभी का मानना था कि जब ये पैदा करने वाले को ही नहीं मानते तो अपनी बीवी-बच्चों का क्या ख्याल रखेंगे।

एक चारों के माता-पिता ने आपस में मिलकर विचार-विमर्श किया कि इन्हें कैसे रास्ते पर लाया जाए। क्योंकि माता-पिता भी बच्चों के गुनाहों के जिम्मेदार होते हैं। बनाने वाले की राह पर चलाना तो हम सबका फर्ज है। अतः सबने यह खोज करनी प्रारम्भ कर दी कि ये किसके रंग में रंगे हैं।

बहुत दिनों के बाद पता चला कि एक फकीर गाँव के बाहर जंगल में कुटिया बनाकर रहता है। जो यह कहता है कि ''मानव-सेवा,सत्य,प्रेम,भाई-चारा ही सच्ची भक्ति है। आड़म्बर, ढोंग,धर्मभीरू होने से ईश्वर नहीं मिलते। धूप-दीप जलाने से,मंदिर-मस्जिद जाने से ईश्वर नहीं मिलते। ईश्वर को पाने के लिए तो सच्चा दिल चाहिए।

चारों के माता-पिता ने उस फकीर से मिलने की योजना बनाई। साथ ही यह भी निश्चय किया कि उसे बख्शा नहीं जाएगा वरन सबक सिखाया जाएगा। समय निश्चित हो गया। योजनानुसार चारों एक साथ गुप्त स्थान पर छिप गए।उस समय चारों नास्तिक भी उसके प्रवचन सुन रहे थे।-''युवको! इस दुनिया में कोई भी मजहब न छोटा है न बड़ा। सबको बनाने वाला केवल एक है। हमने अपनी समझ,श्रद्धा-विश्वास,भक्ति- ज्ञान के अनुसार उसके अलग-अलग नाम रख दिए है। उसकी किसी भी रूप में पूजा कर लो। केवल सच्ची श्रद्धा और लगन होनी चाहिए,वो खुश हो जाता है। लेकिन आज का मानव केवल दिखावा करता है,उसे पाना कोई नहीं चाहता। बस यही कारण है कि अंधविश्वास तथा आड़म्बर का बोलबाला है और धर्म कहीं विलुप्त हो गया है। वो ईश्वर हम सबका माता-पिता और उसकी संताान हमारे बहन-भाई है, म़़ित्र है;फिर आपस में वैमनस्य कैसा? आज लोगों ने धर्म के नाम पर धन कमाने की दुकान खोल ली है। कोई सत्य उजागर करना चाहता है तो 'किसी की आस्था पर वार नहीं करना चाहिए।' यह कहकर उसकी आवाज को दबा दिया जाता है। आज चारों ओर अंधकार ही अंधकार नजर आ रहा है। इसे काटने के लिए हमें आड़म्बरों का छोड़ना होगा और धर्म को जानना होगा।'

इतने में ही चारों अभिभावक,जो पास ही झाडियों के पीछे छिपे

थे,बाहर निकल आए और फकीर के सिर पर लाठियों से अंधाधुंध प्रहार किया। चारों के मुँह काले कपड़े से बँधे थे। अतः पहचानना भी मुश्किल हो गया। उन चारों नास्तिकों ने फकीर को बचाने की पूरी कोशिश की लेकिन उनके सामने ही उसने तड़प-तड़पकर दम तोड़ दिया।

अगले दिन यह बात सारे गाँव में आग की तरह से फैल गईं। पुलिस आई । गाँववालों से पूछताछ हुई लेकिन सबकी जुबान पर एक ही बात थी-'हमें कुछ नहीं पता। चेहरा न देखने के कारण लड़के भी गवाही देने में मजबूर थे।

चारों नास्तिक बड़े उदास थे। उनके दुख का सबसे बड़ा कारण यह था कि वो सामने होते हुए भी उसे बचा नहीं सके। गाँववाले उन्हें ताने मारते थे-'भगवान को नहीं मानते ,तभी तो भगवान ने तुम्हें सबक सिखाया। अरे ईश्वर की मर्जी के बिना तो पत्ता भी नहीं हिलता।'अरे ये तो गाँव के लिए कलंक है कलंक। ये क्या जाने ईश्वर क्या होता है।'

एक दिन सुबह ही सुबह जेाजफ बड़ा उदास बैठा था। उसे देखकर तीनों नास्तिक भी बड़े परेशान हो गए। वे तीनों उसके कष्ट का कारण जानना चाहते थे,लेकिन पूछने पर जोजफ के सब्र का बांध टूट गया और वह छोटे बच्चे की भाँति हिड़की देकर रोने लगा। तीनों दोस्त उसे चुप कराने का भरसक प्रयास करने लगे। लेकिन उसकी आँखों से लगातार आँसुओं की धारा बह रही थी, होंठ काँप रहे थे और मुँह से शब्द नहीं निकल रहे थे। सबने उसे पानी पिलाया,सााँत्वना दी। थोड़ा सा ढॉढस बँधने पर उसने बताया-'कि मेरे पडैास में एक औरत ने पुत्र लालसा में अपनी छः माह की बच्ची को अपने हाथों से काटकर उसका रक्त पी लिया। कहकर वो फिर बिलख-बिलखकर रोने लगा।

तीनों दोस्त सकते में थे । वे आँखें फाड़े उसे घूरे जा रहे थे मानो उन्हें काठ मार गया हो। बड़ी मुश्किल से चारों दोस्तों ने अपने आप को संवारा ।उन्होंने सोचा- पहले गाँव का जायजा लेंगें फिर पुलिस को सूचित करेंगे। यह सोचकर चारों दोस्त गाँव का मिजाज जानने के लिए चल पड़े। उस घर के बाहर भीड़ जमा थी। थेाड़ी देर में पुलिस आ गई। पुलिस पूछताछ कर रही थी लेकिन सबके होठों पर ताले लगे थे। कोई भी उस कुकृत्य की भर्त्सना करने को या गवाही देने को तैयार नहीं था। पुलिस वापस चली गई। सभी की जुबान पर यही वाक्य था-'' ईश्वर की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। भगवान को जो कराना होता है वैसी ही बुद्धि पलट देता है'' बेचारी पुत्र प्राप्त करना चाहती थी।

सुनकर रामभजन का क्रोध सातवें आसमान पर था। वह चिल्ला पड़ा-''अरे! यही है तुम्हारी भक्ति! यही है तुम्हारा धर्म। पाप तुम करते हो इल्जाम भगवान पर लगाते हो। अरे जब भगवान ही सब कुछ करने वाला है,तो उसके निर्णय पर तुम्हें विश्वास क्यों नहीं। यह कन्या भी तो उसने ही दी थी। क्यों नहीं गले से लगाया उसे? उसने तो बड़े प्यार से सुंदर सी परी दी थी। मार ड़ाला उसे। कैसा सम्मान किया उसके उपहार का। अरे आस्तिकों! रात-दिन देवी की पूजा करते हो। सारी रात देवी का जागरण करते हो। यदि देवी घर में आ जाए तो उसे काट फेंकते हो,उसका खून पी जाते हो। नारी ही तो है देवी का रूप। जो दुर्ग की भाँति मजबूत हो वो दुर्गा है। पुरूष केवल कमाता है,उस धन से औरत घर को स्वर्ग बनाती है अतः वह लक्ष्मी है,घर को साफ-सुथरा रखकर वह बीमारी को दूर रखती है,बीमारी हो जाने पर तन-मन से सेवा करती है अतः वह शीतला माता है,अत्यधिक गरीबी में वह खुद भूखी रहकर सबको प्यार से खाना खिलाती है अतः वह संतोषी माता है। लेकिन अन्याय होने पर यदि अपनी पर आ जाए तो वह चंड़ी है ।

अरे! अब ये नास्तिक देंगे हमें उपदेश। क्या बक रहे हो अनाप-शनाप। अरे तुलसी बाबा भी कह गए है'' होइ है वही जो राम रची राखा'' समय बहुत बलवान है, इंसान तो निमित्त मात्र है करने वाला तो वही है।

चुप रहो पंडित! अच्छा काम करके तो बड़े गर्व से कहता है यह काम मैंने किया। गलत काम का सारा सेहरा भगवान के सिर। वाह रे इंसान तू तो बड़ा चालू है। गुरबचन चिल्ला पड़ा -''अरे गाँववालो! घर्म जानना है तो गीता पढ़ो वेद पढ़ो पढ़ो,रामायण पढ़ो,कुरान पढ़ो,बाईबिल पढ़ो,गुरूग्रन्थसाहब पढ़ो । ये तान्त्रिक क्या जाने, क्या है धर्मं. 

धर्म तो प्रकाश है जो जीने की राह दिखाता है, संसार में प्रेम फैलाता है,सबके दुख-दर्द मिटाता है, ईश्वर से मिलाता है। धर्म और आड़म्बर में अंतर समझो। राम,कृष्ण,मौहम्मद ,ईसा, गुरूनानक क्या चाहते हैं ये समझोै दयानंद,विवेकानंद,कबीर इतने महापुरूषों की बातें तुम्हें याद नहीं और इन ढोंगियों की बातें तुम्हारे लिए वेदवाक्य है। धिक्कार है तुम्हें! टरे उस रब के बंदो को प्यार करो उसके उपहार को स्वीकार करो। बस यही तो धर्म है। गुरबचन जोर-जोर से चिल्ला रहा था लेकिन कोई भी सुनने के लिए नहीं रूका। गाँव में अजीब सी खामोशी थी। वे चारों जहाँ भी जाते सब उनसे मुँह फेर लेते जैसे अपराध उस औरत ने नहीं उन चारों ने किया हो।

छो दिन बाद चारों दोस्त गाँव में घूमने निकले तो देखा पूरा गाँव पैम्फलेटस से पटा पड़ा है जिसमें लिखा था-''घूमोगे सारी दुनिया में लेकिन काम बनेगा यहाँ । दुनिया की कोई भी समस्या हो कोई भी ,कैसा भी काम हो सोया भाग्य हो यहाँ चले आइए। समाधान का केवल एकमात्र स्थान। नीचे बड़े-बड़े अंको में मोबाइल नम्बर लिखा था----।

जॉनी ने लिखे नम्बर पर फोन मिलाया और उसे समझाया,धमकाया लेकिन वह जरा भी विचलित नहीं हुआ। वरन बड़े आत्मविश्वास से कहा- हिम्मत हो तो रोक लो। चारों दोस्त बताए पते पर पहुँच गए देखा तो जनसमूह का सैलाब उमड़ा हुआ था। एक व्यक्ति तागे-ताबीज बनाने में व्यस्त था और एक लम्बी दाढी वाला व्यक्ति समस्याएँ सुनने में व्यस्त था। समस्या सुनने वाले का चेहरा ध्यान से देखा तो याद आया कि इसका पोस्टर तो पुलिस-चौकी में लगा था;जिसके नीचे दस लाख का इनाम बुला हुआ था।

यह देखकर चारों उल्टे पैर भागे ।पुलिस में सूचना दी लेकिन पुलिस इन्सपैक्टर की बात सुनकर स्तब्ध रह गए-''तुम जैसे नास्तिक साधु-महात्माओं को ड़ाकू बताते हो। उन बाबाजी की दया से ही मुझे प्रमोशन मिला है। आज के बाद यदि इन बाबा पर उँगली उठाने की कोशिश भी की तो ऐसे-ऐसे चार्ज लगाकर सलाखों के पीछे ड़ाल दूँगा कि कई सालों तक जमानत भी नहीं होगी। चारों ने बहुत कोशिश की समझाने की लेकिन हठ करने पर दो-दो डंड़े और खाने पड़ गए। चारों उदास थे। समझ नहीं आ रहा था-क्या करें? लेकिन रामभजन ने हिम्मत नहीं हारी। उसने कहा-गाँधी बाबा,अन्ना हजारे सब अनशन करते हैं और सरकार को भी झुका देते हैं,तो क्या हम अपने प्रयास से अपने गाँववालों कोे नहीं झुका सकते ,उन्हें सच्चाई का आईना नहीं दिखा सकते। तीनों दोस्तों ने बहुत समझाया लेकिन रामभजन कहाँ मानने वाला था। बस अनिश्चितकालीन भूखहड़ताल पर बैठ गया। पीछे बैनर लिखा था बैनर पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था-तान्त्रिक को छोड़ो,प्रभु से नाता जोड़ो। धर्म के साथ हो आड़म्बर को मात देंा।

पाँच दिन हो गए। कोई पास नहीं आया। तीनों मित्रों ने बहुत समझाया-'इन अंधविश्वासियों के कारण अपना जीवन क्यों नष्ट कर रहे हो। क्यों ईश्वर के दिए उपहार को निबटा रहे हो। अरे बड़े- बड़े विद्वान-समाजसुधारक ऋषि,मुनि हार गए। हमारी-तुम्हारी तो हैसियत ही क्या? गाँव के प्रधान ने भी अनशन तुड़वाने की औपचारिक कोशिश की लेकिन रामभजन ने हठ पकड़ ली।

सातवाँ दिन आ गया ,रामलखन का चेहरा पीला पड़ गया ,होठ सूख गए। आँखे गड़ढे में धँस गई,जुबान ऐंठ गई। अब तो उसका बोलना भी असम्भव हो गया।

रात का समय हो गया था। सारा गाँव नींद की आगोश में डूब गया था। तभी एक साया रामभजन के पास आकर बैठ गया उसका दाँया हाथ उसके सिर पर था। वह रूआँसे शब्दों में मनुहार कर रही थी--'' बेटा तुझे मेरे दूध की कसम, खाना खा ले। किन के लिए जान देने पर तुला है। ये पत्थर के कलेजे वाले लोग है। ये लोग भगवान का नाम भी केवल लालच से लेते हैं तेरी जान इनकी निगाह में क्या कीमत रखती है''। आवाज सुनकर तीनों दोस्त जाग गए थे। माँ को पास बैठा देखकर उन्होंने रामभजन को जगाने की कोशिश की लेकिन शायद उसे अब कोई नहीं जगा सकता था। एक नास्तिक ने अंधविश्वास के खिलाफ जंग लड़ते हुए अपने प्राण त्याग दिए। लेकिन गाँव के आस्तिकों का मन नहीं पिेघला--हाँ कटाक्ष सबके अलग-अलग थे। अरे जो पैदा करने वाले को ही न मानता हो, वो तो पृथ्वी पर बोझ ही था। नास्तिकों का अंत तो ऐसे ही होता है। कुछ लोग कह रहे थे अरे ये नास्तिक बाबाजी का विरोध कर रहे थेा पता है ये कितने पहुँचे हुए बाबा है। इन बाबा ने भगवान को अपने कब्जे में कर रखा है जिस रूह को चाहे अपने दरबार में बुला लेते हैं और नाक रगड़ने के लिए मजबूर कर देते हैं,कठोर दंड़ देते हैं दंड़।

तीनों नास्तिक चुप थे। मन ही मन में कोस रहे थे रामभजन को। किन के लिए बलिदान कर दिया जीवन । ज्ञान का प्रकाश कितनी अँधेरी पर्तों में छिपा पड़ा है। धर्म के नाम पर दुकानें कब बंद होगी काश-----ज्ञान का सूरज निकल आए।

इति

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रचनाकार: कहानी - नास्तिक
कहानी - नास्तिक
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