डॉ. सुभाष शर्मा यह कैसी विडम्बना है कि बर्बर आदिम युग की तरह इस तथाकथित आधुनिक, स्वतंत्र एवं सभ्य समाज में भी हत्याएं धड़ल्ले से हो रही हैं...
डॉ. सुभाष शर्मा
यह कैसी विडम्बना है कि बर्बर आदिम युग की तरह इस तथाकथित आधुनिक, स्वतंत्र एवं सभ्य समाज में भी हत्याएं धड़ल्ले से हो रही हैं । थॉमस हॉब्स ने सदियों पहले कहा था : 'मनुष्य स्वभावतः गन्दा, असभ्य और लघु होता है' यह विचार एक ऐसे ध्रुवान्त पर है जो मनुष्य को जानवरों की तरह जंगली मानता है । मगर दूसरा ध्रुवान्त भी है । प्राचीन यूनान के राजनैतिक दार्शनिक अरस्तू मनुष्य को एक 'सामाजिक प्राणी' मानते हैं अर्थात् प्रत्येक मनुष्य अपनी व्यक्तिता से बढ़कर समूह, संगठन, या समाज का सदस्य होता है अर्थात् 'मनुष्य में समाज' और 'समाज में मनुष्य' निहित होता है ।
लगभग ऐसा ही विचार जे-जे- रूसो का है जिनका कथन उद्धरणीय है : 'मनुष्य स्वतंत्र पैदा होता है मगर सर्वत्र बेड़ियों में जकड़ा होता है' ज्ञातव्य है कि हॉब्स, लॉक और रूसो तीनों 'सामाजिक समझौते के सिद्धान्त' (Social contract theory) के संस्थापक थे मगर उनके विचार थोड़-थोड़े भिन्न थे । लॉक निजी स्वतन्त्रता का विशेष पक्षधर था और रूसो निजी स्वतन्त्रता के साथ-साथ सामाजिक सरोकारों का भी पक्षधर था । रूसो ने 'निजी इच्छा' और 'सामान्य इच्छा' (जो समुदाय/समाज की सामूहिक राय का प्रतीक है) की बात की है और कानून को 'सामान्य इच्छा' की अभिव्यक्ति माना है । आज इक्कीसवीं सदी में भारत जैसे विकासशील देशों में ही नहीं, बल्कि सं. रा. अमरीका और ब्रिटेन जैसे विकसित देशों में भी यथार्थ इन दो ध्रुवान्तों के बीच में धमाचौकड़ी करता है क्योंकि सचाई प्रायः काली या सफेद नहीं होती, बल्कि भूरी या मटमैली होती है । द्वितीय विश्व युद्ध में महाविनाश झेलने के बावजूद समूचा विश्व नाना प्रकार की हिंसा का शिकार होता रहा है ।
एक ओर जिस सं. रा. अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने 16 जनवरी 1941 को विश्व के नाम प्रसारित संदेश में चार प्रकार की स्वतंत्रताओं का बढ़-चढ़कर बखान किया था (भय से मुक्ति, भूख से मुक्ति, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं पूजा करने की स्वतंत्रता) । उसी एक ध्रुवीय सं. रा. अमरीका द्वारा कालान्तर में तमाम विकासशील देशों पर कई आक्रमण किये गये (कभी लोकतंत्र न होने के नाम पर, कभी अशांति के नाम पर, कभी गृहयुद्ध को सँभालने के नाम पर, कभी विरोधी विचारधारा रोकने के नाम पर, कभी आतंकवादी गतिविधियों को खत्म करने के नाम पर, तो कभी परमाणु बम के निर्माण को रोकने के नाम पर) अथवा दूसरे देशों को विखंडित कर दिया गया (जैसे सोवियत रूस को) ।
मगर इस वैश्विक हिंसा के अलावा राष्ट्रीय, प्रान्तीय, स्थानीय एवं पारिवारिक स्तरों पर भी हिंसक घटनाएं घट रही हैं जिनमें कभी राज्य, तो कभी उग्रवादी/नक्सलवादी संगठन, तो कभी राजनैतिक दल, तो कभी अर्धसंगठित समूह, धर्म, जाति, परिवार या छिटपुट व्यक्ति अहम भूमिका निभाते रहे हैं । इस प्रकार हिंसा रूपी बालक को जन्म देने या गोद लेने के लिए तमाम संस्थाएं, समूह, दल, संगठन या व्यक्ति लालायित रहते हैं, यहाँ तक कि वे भी जो अहिंसा की माला जपते हैं औपचारिक एवं प्रत्यक्ष रूप से।
लेबिस हेनरी मोर्गन ने 1877 में 'एनशिएंट सोसायटी' (प्राचीन समाज) नामक पुस्तक की रचना की थी जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा फ्रेडरिक एंगेल्स ने अपनी पुस्तक 'परिवार, निजी सम्पत्ति एवं राज्य' की भूमिका में (1884 में) की थी । मोर्गन अमरीकी मानवशास्त्र के संस्थापक थे । मगर अमरीकी विश्वविद्यालयों ने बाद में उनके विचारों को तरजीह नहीं दी, बल्कि रैडक्लिफ-ब्राउन को तरजीह दी जो मोर्गन के विचारों को अनुमान (कंजेक्चर) कहकर खारिज कर दिये, बिना बहस किये । मोर्गन का यह कथन उद्धरणीय है : सभ्यता के आरंभ से ही सम्पत्ति ने इस कदर हाथ-पाँव फैला लिये हैं, उसके रूपों में इतनी विविधता आयी है, उसके उपयोग इतने बढ़े हैं और स्वामियों के हित में उसके प्रबंध में इतनी बुद्धिमता पैदा हुई है कि वह जनता के बस के बाहर की शक्ति हो चुकी है । मानव-मन अपनी ही रचना के सामने हतबुद्धि खड़ा है । फिर भी वह समय आयेगा जब मानव की बुद्धि आगे बढ़कर सम्पत्ति पर अधिकार पायेगी -शासन में लोकतंत्र, समाज में भाईचारा, अधिकारों और सुविधाओं की समानता और सार्वभौम शिक्षा समाज के उस अगले, उच्चतर चरण के संकेत देते हैं जिसकी ओर बुद्धि, अनुभव और ज्ञान लगातार बढ़ रहे हैं । यह प्राचीन गोत्रों की स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुत्व की एक उच्चतर स्तर पर पुनर्स्थापना होगी ।
इसके निम्न निहितार्थ हैं :-
1. स्वतन्त्रता, समता और बन्धुत्व . जो 1789 की फ्रांसीसी क्रांति के नारे थे ।
2. मनुष्य सम्पत्ति (जो उसकी रचना है) के सामने विवश है-मार्क्स के पहले का यह कथन है। यह मार्क्स के परायेपन-अपनी पैदावार से परायेपन-का पूर्वाभास है। फिर देवी-देवता, भूत-प्रेत, परम्परा, रीति-रिवाज आदि मानव की पैदावार है, मगर बाद में मनुष्य पर शासन करने लगते हैं ।
3. सम्पत्ति के चंगुल से मुक्त होने की संभावना-मगर वह मार्क्स की तरह यह नहीं देख पाये कि पूँजीवाद से उत्पन्न सर्वहारा वर्ग उसका विनाश भी करेगा ।
मोर्गन यह भी मानते थे कि मानव जाति की सभी शाखाएं मोटे तौर पर एक ही प्रक्रिया से, एक जैसे चरणों से गुजरी हैं, भले कोई शाखा दूसरे से बहुत आगे बढ़ गई हो या कोई दूसरी शाखा अन्य से बहुत पीछे रह गई हो । अमरीका की इरोक्वा जनजाति का अध्ययन करके मोर्गन ने प्राचीन रोम, यूनान, जर्मनी आदि समाजों की संस्थाओं को समझने का प्रयास किया था । दूसरी ओर रैडक्लिफ ब्राउन का मानना है कि मानव जाति की शाखाओं के विकास के रास्ते अलग-अलग हो सकते हैं । मेरा मानना है कि विभिन्न मानव समाज में चार प्रकार के तत्वों का समावेश होता है :
(क) संरचनात्मक - सार्वभौम तत्व (Structural & universal)
(ख) संरचनात्मक - विशिष्ट तत्व (Structural&Particularistic)
(ग) सांस्कृतिक - सार्वभौम तत्व (Cultural&universal)
(घ) सांस्कृतिक-विशिष्ट तत्व (Cultural &Particularistic)
(Cultural&relativism)
नवकांटवादी लेवी स्त्राउस (कांट के अनुसार वस्तुगत जगत में कोई नियम नहीं होता, हमारा मन घटनाओं और संवृत्तियों पर एक नियम आरोपित करता है) के अनुसार सामाजिक संबंधों का कोई ढाँचा नहीं होता, हमारा मन सामाजिक सम्बन्धों पर एक ढाँचा आरोपित करता है । मगर वस्तुगत नियमों को इनकार करना सचाई से मुँह मोड़ना है । उत्तर भारत में 'बिरादरी' (या 'भैवादी') की अवधारणा मोर्गन के 'फ्रेटरी' का समतुल्य है । एक ही फ्रेटरी के सदस्यों के बीच विवाह की अनुमति नहीं थी, मगर वे दूसरी फ्रेटरी के किसी गोत्र में विवाह कर सकते थे । स्पष्टतः एक ही फ्रेटरी के गोत्र एक मूल गोत्र के उपविभाजन थे और इसलिए अपने ही गोत्र के एक व्यक्ति से विवाह पर लगे प्रतिबन्ध को उसके उपविभाजनों (उपगोत्रों) पर भी लागू किया गया ।
मगर जैसे-जैसे कालगत परिवर्तन होते गये, अपने गोत्र को छोड़कर अन्य उपविभाजनों पर से वैवाहिक प्रतिबंध हटा लिये गये । पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली आदि क्षेत्रों में जाट बिरादरी में अपने गोत्र के अलावा अन्य कई गोत्रों (राठी, हुडा, दहिया, मलिक आदि) में विवाह नहीं करने के प्रतिबन्ध आज भी मौजूद हैं । इस प्रकार फ्रेटरी की सी अवधारणा जाट समुदाय में अब भी कायम है ।
मोर्गन का मानना है कि आविष्कारों के अलावा संस्थाओं के विकास-क्रम निम्न रहे हैं :
(क) जीवन निर्वाह . साधनों में उत्तरोत्तर वृद्धि
(ख) शासन-जंगल युग में गणों (बसंद) में संगठन, बाद में राजनैतिक समाज (राज्य)
(ग) भाषा-संकेतों की भाषा मुखर भाषा से पहले, जैसे विचार भाषा से पहले आया( छोटे शब्द बड़े शब्दों से पहले आये, बड़े शब्द सुगठित शब्दों से पहले आये ।
(घ) परिवार-रक्त-सम्बन्ध और विवाह सम्बन्ध . वैवाहिक रिवाज ।
(ङ) धर्म-ज्ञान के अनिश्चित तत्वों से धर्म का सम्बन्ध ।
(च) गृहस्थ जीवन और वास्तुकला . जंगल युग की झोपड़ी से बर्बर युग के सामुदायिक निवास और बाद में सभ्य जनगणों के नाभिक परिवार के मकान ।
(छ) सम्पत्ति . भावनाओं पर एक मोह के रूप में सम्पत्ति का वर्चस्व सभ्यता के आरंभ का सूचक . राजनैतिक समाज की स्थापना करने में सहायक
मोर्गन का यह भी मानना है कि शासन के सभी रूपों को दो सामान्य योजनाओं में बाँटा जा सकता है। पहली में समाज (Societsa) की इकाई गोत्र है - आदिम काल में उसके एकीकरण के उत्तरोत्तर चरण हैं : गोत्र (gens)&फ्रेटरी- कबीला (ट्राइब)-कबीलों का महासंघ (Confederacy)-जनगण (populus)। बाद में एक ही क्षेत्र के कबीलों के विलय से राष्ट्र (नेशन) का उदय हुआ। दूसरी योजना में भूभाग और सम्पत्ति ज्यादा महत्वपूर्ण है तथा उसे राज्य ;ब्पअपजेंद्ध कहा जा सकता है। अपनी सम्पत्ति के साथ बाड़ों या चौहद्दियों से घिरा हुआ कस्बा या मुहल्ला इस राज्य की इकाई है और राजनैतिक समाज (राज्य) उसकी पैदावार हैं । बाद में काउंटी या प्रान्त कस्बों/मुहल्लों का योग होता है तथा प्रान्तों का योग राज्य होता है । मोर्गन की यह बात महत्वपूर्ण है कि सम्पत्ति, देवी-देवता, रीति-रिवाज आदि मनुष्य द्वारा बनाये गये मगर ये सब कालान्तर में मनुष्य पर हावी हो गये और वस्तुएं ही कर्त्ता की नियंता बन गईं जिन्हें पूरी तरह बदलने की जरूरत है जिससे मनुष्य के विकास की जरूरत के अनुसार इनका संचालन हो।
मोर्गन ने दिखाया है कि प्राचीन रोम में स्त्री-पुरुष सम्बन्ध के लिए दो शब्द प्रचलित थे :
(क) कोन्युबियम Connubium - विवाह जिसमें यौन सम्बन्ध को मान्यता थी . यह नागरिक संस्था मानी जाती थी ।
(ख) कोंजुजियम Conjugium - मात्र शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करना । जंगल युग में पतियों का समुदाय और पत्नियों का समुदाय समाज व्यवस्था के केन्द्रीय तत्व थे। परिवार का आरंभ समरक्तता से हुआ - भाइयों का समूह अलग, बहनों का समूह अलग। उसके पश्चात् भाइयों के ऐसे समूह बन गये जिनकी साझी पत्नियाँ होती थीं (जैसे पांडवों की द्रौपदी)। दूसरी ओर बहनों के ऐसे समूह बन गये जिनके साझे पति होते थे। लिंग के आधार पर वर्गों का गठन और नातेदारी (Kinship) के आधार पर गोत्रों का गठन हुआ। पुरुष और स्त्री वर्ग गोत्रों से पहले की चीजें हैं क्योंकि गोत्र उच्चतर स्तर का है।
खैर-'इज्जत के लिए हत्या' का वृहत् इतिहास रहा है भारत में भी और विदेशों में भी । 'इज्जत के लिए हत्या' ऐसी हत्या है जो परिवार या जाति या धर्म या समुदाय के सदस्यों द्वारा इसलिए की जाती है कि पीड़ित व्यक्ति (पुरुष या महिला) ने उस परिवार, जाति, धर्म या समुदाय की इज्जत, प्रतिष्ठा या नाम पर बट्टा (धब्बा) लगाया है अपने किसी कृत्य से। 'संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या गतिविधियों के लिए निधि' (यू.एन. एफ.पी.ए.) के एक अनुमान के अनुसार विश्व में 5000 महिलाएं/बालिकाएं प्रतिवर्ष अपने परिवारों द्वारा इज्जत के नाम पर मार दी जाती हैं । मगर मध्यपूर्वी देशों के महिला संगठनों के अनुसार यह संख्या बीस हजार प्रति वर्ष है । उल्लेखनीय है कि इज्जत पर बट्टा लगना वास्तविक सत्य, उसकी कोशिश या संदेह पर भी मान लिया जाता है । इसीलिए 'ह्यूमन राइट्स वाच' ने इज्जत के लिए हत्या की विस्तृत परिभाषा दी है :
पहला, यह प्रतिशोधपूर्ण सत्य है, जिसमें प्रायः हत्या की जाती है ।
दूसरा, प्रायः ऐसी हत्या पुरुषों द्वारा की जाती है जिनका मुख्य उद्देश्य परिवार की महिला सदस्य की हत्या करना होता है जिसने इज्जत पर बट्टा लगाया हो (मगर इस बेइज्जती में जिस बाहरी पुरुष/स्त्री ने अहम भूमिका निभायी हो, उसकी भी हत्या कर दी जाती है)
। तीसरा, बेइज्जती के कई रूप हो सकते हैं : पारम्परिक विवाह न करना, ञजाति-धर्म से बाहर विवाह करनाट, बलात्कार का शिकार होना, तलाक चाहना, अथवा जार-सम्बन्ध कायम करना आदि ।
यह भी उल्लेखनीय है कि ब्रिटेन में प्रवासी एशियाई परिवारों में भी इज्जत के लिए हत्या की जाती है क्योंकि वे अपने मूल देश की पितृसत्तात्मक व्यवस्था के रीति-रिवाजों को अपनाते हैं । ऐसा भी देखा गया है कि जो प्रगतिशील महिलाएं पारम्परिक रीति-रिवाजों का विरोध करती हैं, उनकी भी हत्या कर दी जाती है अथवा उन्हें गम्भीर चोटें पहुँचायी जाती हैं ।
यह कैसी विडम्बना है कि ऐसी हत्याओं को जाति, धर्म, समुदाय, परिवार आदि द्वारा उचित ठहराया जाता है क्योंकि इज्जत पर बट्टा लगने से नैतिक व्यवस्था क्षतिग्रस्त हो जाती है और पूरी जाति या धर्म या समुदाय को 'सामूहिक शर्म' का सामना करना पड़ता है तथा ऐसी सामूहिक मान्यता होती है कि बट्टा लगाने वाली महिला की हत्या कर देने से सामूहिक शर्म दूर हो जायेगी और नैतिक व्यवस्था बहाल हो जायेगी अर्थात् 'सामाजिक संतुलन' पुनः कायम हो जायेगा । कई समाजों में दूसरी जातियों/धर्मों को पूर्णतः खत्म करने एथनिक क्लीन्जिंगट की अवधारणा के पीछे ऐसे ही विचार काम करते हैं । कुछ समाजशास्त्रियों/मानवशास्त्रियों की यह भी मान्यता है कि जैसे-जैसे महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता बढ़ रही है और पिता के अधिकार-क्षेत्र कम हो रहे हैं, वैसे-वैसे पितृसत्तात्मक व्यवस्था का मुखिया खोये हुए अधिकारों की पुनर्पाप्ति के लिए हिंसक हो रहा है ।
ऐसा भी देखा गया है कि ब्रिटेन में मध्यपूर्व और दक्षिण एशिया से गये तमाम प्रवासी परिवारों में इज्जत के लिए हत्या की वजहें पश्चिमी मूल्यों को अपनाना है : पश्चिमी शैली के कपड़े पहनना ञजिससे स्त्री के शरीर के सारे अंग नहीं ढकतेट, लड़कियों द्वारा लड़का-मित्र बनाना, अथवा पारम्परिक विवाहों को अस्वीकार करना आदि । मगर यह भी सही है कि ब्रिटेन में कई प्रवासी परिवार शहरीकरण के तमाम नकारात्मक परिणामों यथा अजनबीपन को सह नहीं पाते और इसलिए अपने मूल देश, जाति, धर्म, वंश से ज्यादा गहराई से जुड़े होते हैं और उनकी परम्पराओं को हृदयंगम करते हैं । दरअसल अपने मूल वतन में, खासकर ग्रामीण इलाकों में, वे देखते हैं कि पुरुषों के अधिकार-क्षेत्र काफी बड़े हैं जबकि ब्रिटेन के महानगरों/कस्बों में परिवार की स्त्रियों और बच्चों के सहकर्मी, सहपाठी किसके साथ उठते-बैठते या खाते-पीते हैं आदि पर पुरुषों का कोई नियंत्रण नहीं रहता । अतः वे इसकी भरपाई के लिए इज्जत के नाम पर हत्या करने से नहीं चूकते । 2001 में बी.बी.सी. (लन्दन) की एशिया शाखा द्वारा किये गये एक सर्वेक्षण में (जिसमें 500 हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई और सिक्ख लोग शामिल थे) 10: प्रवासियों ने स्वीकार किया कि यदि कोई उनके परिवार की इज्जत पर बट्टा लगाता या उसका प्रयास करता है, तो उसकी हत्या करना बुरा नहीं है । इससे साफ जाहिर होता है कि इन चारों धर्मों में इज्जत के लिए हत्या करना माफी देने के योग्य है और परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा, परम्परा तथा संस्कार सर्वोपरि है । मानव अधिकार कार्यकर्त्ता हिना जिलानी का यह कथन अत्यंत सारगर्भित एवं प्रासंगिक है : 'पाकिस्तान में महिलाओं को जीवन का अधिकार इस शर्त पर मिला है कि वे सामाजिक नियमों और परम्पराओं का अनुपालन करें ।' निःसंदेह, सामन्ती मानसिकता इस बाबत मुख्य कारण होती है मगर दूसरी ओर यह भी सच है कि भारत, पाकिस्तान, तुर्की, अफगानिस्तान, मध्य-पूर्व आदि में शिक्षित लोग भी इज्जत के लिए हत्या करते हैं, ऐसा करने के लिए प्रेरित करते हैं अथवा ऐसे अभियुक्तों को संरक्षण देते हैं । ये शिक्षित या अर्ध-शिक्षित लोग समाज के ठेकेदार होते हैं, मसलन धार्मिक नेता, जातिगत/सामुदायिक नेता, वगैरह । 2008 में तुर्की के कुर्द बहुल इलाके में किये गये एक सर्वेक्षण में यह बात साफ तौर पर उभरी कि इज्जत के लिए हत्या करने के लिए उकसाने वालों में 60: विद्यालय अथवा विश्वविद्यालय स्तरीय शिक्षा प्राप्त थे । जाहिर है, हमारी शिक्षा एक बनी-बनायी लीक पर चल रही है और लोगों को सचेत नहीं बना रही है ।
इसके अलावा ऐसे भी दृष्टांत सामने आये हैं जिसमें समलैंगिकता के कारण हत्याएं की गई हैं, विशेषकर मध्यपूर्व एशियाई देशों और लातीनी अमरीका में । ब्राजील, अर्जेंटाइना, जोर्डन, तुर्की में ऐसी घटनाएं घट चुकी हैं। ज्ञातव्य है कि बड़े-बड़े धर्मों के आविर्भाव के पूर्व छोटे-छोटे धर्मों में इज्जत के लिए हत्या की प्रथाएं विश्व के तमाम देशों में प्रचलित थीं। कहने का आशय यह है कि यह कुप्रथा संस्कृति, धर्म और देश की सीमाओं को तोड़ती रही है। हम्मूरबी और अन्य असीरियाई आदिवासियों में 12वीं शताब्दी ई.पू. में इज्जत के लिए हत्या का स्रोत इस विश्वास में निहित था कि स्त्री का कौमार्य उसके परिवार की सम्पत्ति है। उदाहरणार्थ, बेबोलिनियाई समाज में जारकर्म के संदेह वाली महिलाएं नदी में कूदने के लिए बाध्य की जाती थीं जिससे वे सिद्ध करें कि वे निर्दोष हैं। मिस्र में जारकर्म की दोषी महिलाओं को कारागार में कैद करने, कोड़े लगाने या अंग-भंग करने की सजा दी जाती थी। प्राचीन चीन में जारकर्म वाली महिलाओं के सिर के बाल उनके पति काट डालते थे और उन्हें हाथियों से कुचलवा दिया जाता था। प्राचीन पर्सिया में जारकर्म वाली महिलाओं को जीते जी कुएं में ढकेल दिया जाता था। लातीनी अमरीका की कुछ आदिम जनजातियों में जारकर्म वाली महिलाओं का अंग-भंग कर दिया जाता था और उनके शरीर की बोटी-बोटी काट दी जाती थी । आगा खान विश्वविद्यालय की प्रो. ताहिरा साइद खान का मानना है कि 'कुरान' में इज्जत के लिए हत्या का कोई जिक्र नहीं है, बल्कि 'कुरान' जीवन के अधिकार की बात करता है ।
मगर विभिन्न वर्गों, धार्मिक एवं प्रजातीय समूहों में नकारात्मक रुख देखने को मिलता है जो महिलाओं को महज अधिकारहीन 'सम्पत्ति' के रूप में देखता है : एक ऐसे उत्पाद के रूप में जिसका विनिमय किया जा सकता है, जिसे खरीदा-बेचा जा सकता है । कुछ दकियानूसी कठमुल्ले 'कुरान' की गलत व्याख्या करते हैं और प्रचारित करते हैं कि इस्लाम इज्जत के लिए हत्या करने वालों को माफी देता है, और उनका समर्थन करता है । शायद इसीलिए जोर्डन के 20: लोग विश्वास करते हैं कि इस्लाम में ऐसी हत्या करना जुर्म नहीं है,-क्योंकि अक्षत कुँवारापन और 'मेहर' जैसे धार्मिक प्रावधान इज्जत को सर्वोपरि मानते हैं। तुर्की के प्रधानमंत्री के मानवाधिकार निदेशालय ने 2008 में स्वीकार किया था कि गत पाँच वर्षों में वहाँ 1000 हत्याएं इज्जत के नाम पर की गई। 2009 में तुर्की में महज दो दिन के नवजात शिशु की हत्या इसलिए कर दी गई कि उसकी माँ के तलाकशुदा होने पर उसका जन्म हुआ था। उसकी माँ ने पुलिस को बयान दिया था कि उसके परिवार ने इज्जत के नाम पर हत्या करने का निर्णय लिया था। इसी प्रकार 2008 में सउदी अरब में एक लड़की की हत्या उसके पिता ने इसलिए कर दी कि वह 'फेसबुक' पर एक पुरुष से गपशप (चैटिंग) कर रही थी। लेबनान में प्रति वर्ष चालीस से पचास हत्याएं इज्जत के नाम पर की जाती हैं। इसी प्रकार यूरोप और सं.रा. अमरीका में 90: इज्ज्त के लिए हत्याएं मुस्लिम परिवारों से संबंधित होती हैं - एक मुसलमान पुरुष एक मुसलमान स्त्री की हत्या करता है क्योंकि उसका सत्य धर्म के खिलाफ माना जाता है। मगर सरकारों और जनसंचार माध्यम इन घटनाओं को ज्यादा प्रचारित नहीं करते जिससे उन्हें 'सांस्कृतिक रूप से असंवेदनशील' न मान लिया जाये । इस प्रकार स्पष्ट है कि पवित्र धार्मिक ग्रन्थों में इज्जत के लिए हत्या का प्रावधान न होते हुए भी कठमुल्ले गलत व्याख्या करते हैं और शुद्धता के नाम पर, इज्जत के नाम पर हत्या करने के लिए उकसाते हैं ।
लातीनी अमरीका में इज्जत के नाम पर हत्या को 'दहेज-हत्या' और 'बहू-दहन' की भी संज्ञा दी जाती है। भारत के तमाम इलाकों में ऐसी घटनाएं आये दिन घटती रहती हैं। पेरू में 70: महिलाओं की हत्याएं उनके पतियों या पुरुष-मित्रों द्वारा की जाती हैं जिनमें स्त्रियों का चरित्रहीन होने का संदेह प्रमुख कारण होता है । ब्राजील में 1991 तक पत्नी की हत्या करना, इज्जत के लिए हत्या करना कोई अपराध नहीं था-उस साल 800 पत्नियों की हत्याएं वहाँ की गई थीं। 1980 तक कोलम्बिया में कोई भी पति अपनी पत्नी की हत्या जारकर्म करने के कारण वैधानिक रूप से कर सकता था। पाकिस्तान में इज्जत के लिए हत्या को 'करो-करी' कहा जाता है।
वहाँ पारम्परिक विवाह न मानने पर या विवाहेतर संबंध से गर्भधारण करने पर महिलाओं की हत्या कर दी जाती है। 1991-2004 के दौरान 4000 से अधिक हत्याएं वहाँ इज्जत के नाम पर कर दी गईं। 2005 में यह संख्या दस हजार हो गईं। इन हत्याओं को आत्महत्या या दुर्घटना में हुई हत्या का नाम दे दिया जाता है। वहाँ एक ओर महिलाओं को सम्पत्ति या वस्तु के रूप में देखने तथा दूसरी ओर उन्हें इज्जत का रूप मानने के कारण ऐसी हत्याएं होती हैं जिन्हें सरकार और पुलिस नजरअन्दाज करती है ।
भारत में इज्जत के नाम पर हत्या के कई रूप हैं जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं :
(क) जाति के बाहर विवाह करना
(ख) धर्म के बाहर विवाह करना
(ग) गोत्र के भीतर विवाह करना (मनोज बनवाला और बबली का विवाह, कैथल, करनाल, हरियाणा में) (घ) गाँव के भीतर विवाह करना
(ड) पारम्परिक विवाह न करना
(च) दहेज-हत्या
(छ) बलात्कार की गई स्त्री ञया चरित्रहीन होने के संदेह परट का परिवार द्वारा बहिष्कार/हत्या
(ज) भ्रूण हत्या
(झ) समलैंगिकता के कारण हत्या
ऐसी प्रथा उत्तर भारत के राज्यों यथा पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड आदि में ज्यादा प्रचलित है जबकि दक्षिण भारत और पश्चिमी भारत यथा गुजरात और महाराष्ट्र में नगण्य है। जाट जाति में यह समस्या सबसे ज्यादा गंभीर है। इसका कारण यह है कि जाति, धर्म, गोत्र, स्थान जैसे पारम्परिक बन्धन उत्तर भारत में ज्यादा व्याप्त हैं और समाज में आधुनिक चेतना का अभाव है। मोटे तौर पर यह हिन्दी भाषा-भाषी पट्टी है जहाँ सामाजिक/धार्मिक सुधार अपेक्षाकृत काफी कम हुए हैं। यह क्षेत्र आर्थिक रूप से भी पिछड़ा हुआ है और शैक्षिक रूप से भी। पूर्वी भारत, खासकर पश्चिम बंगाल में इज्जत के नाम पर हत्याएं पहले होती थीं मगर उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में वहाँ जोरदार सामाजिक सुधार आन्दोलन हुए जिनमें विवेकानन्द, राजाराममोहन राय, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर आदि का योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।
समाजशास्त्रीय विश्लेषण करने से यह स्पष्ट होता है कि उत्तर भारत में विवाह रूपीवृत्त की परिधि सीमित एवं संकुचित है : सबसे पहले जाति की परिधि आती है अर्थात् जाति के भीतर ही विवाह किया जाना चाहिए । इसीलिए जाति को 'विवाहयोग्य' (इंडोगैमस) समूह कहा जाता है । दूसरी बृहत्तर परिधि धर्म की है-धर्म के भीतर ही विवाह करना है, बाहर नहीं । तीसरी परिधि गोत्र की है जो 'अविवाहयोग्य' समूह माना जाता है क्योंकि पारम्परिक धारणा के अनुसार यह रक्तसंबंध वाला समूह है यानी गोत्र के सारे स्त्री-पुरुष भाई-बहन हैं अतः उनके साथ लड़का या लड़की का शारीरिक सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता अर्थात् विवाह नहीं किया जा सकता। कई समुदायों में माँ और पिता दोनों के गोत्रों में शादी नहीं हो सकती। अन्य समुदायों में माँ-पिता की सात पीढ़ियों तक शादी नहीं होती। चौथी परिधि गाँव की है जिसके भीतर विवाह नहीं किया जा सकता क्योंकि गाँव के लड़के-लड़कियाँ भाई-बहन होते हैं-इसे 'गाँव की नातेदारी' (विलेज किनशिप) कहा जाता है । पाँचवीं परिधि है परिवार के माँ-बाप, दादा-दादी जैसे बुजुर्गों की आशा के अनुरूप, उनके द्वारा चयनित लड़के/लड़की से विवाह करना । यहाँ बुजुर्गों का प्राधिकार अहमियत रखता है । यह 'पारम्परिक विवाह पद्धति' है जिसके अनुसार विवाह महज दो व्यक्तियों के बीच संबंध मात्र नहीं हैं, बल्कि दो परिवारों के बीच रिश्ता है जो उनकी पवित्र इच्छा, प्रतिष्ठा, 'ज्ञात' जानकारी और खानदानी शुद्धता पर आधारित है। इसके अलावा पारम्परिक विवाह हिन्दुओं में एक 'संविदा' नहीं माना जाता (जबकि मुस्लिम और ईसाई विवाह एक संविदा होता है) जिसे इच्छानुसार तोड़ा जाये बल्कि इसे दो परिवारों के बीच सात जन्मों का पवित्र बन्धन माना जाता है ।
इज्जत के लिए हत्या के वृहत्तर अर्थ में 'दहेज-हत्या' भी शामिल है क्योंकि प्रायः वर पक्ष के परिवार वाले ज्यादा/मनचाहा दहेज अपनी इज्जत और शान-शौकत बढ़ाने के लिए माँगते हैं और न देने पर बहू की हत्या कर दी जाती है । निःसंदेह लालच और उपभोक्तावादी प्रवृत्ति इसके पीछे काम करती है मगर यह भी सच है कि अक्सर नयी पीढ़ी के ब््याहे युवक नए-नए शौक पूरे करना चाहते हैं जबकि बेरोजगारी या अर्ध-बेरोजगारी या योग्यता से कमतर नियोजन के कारण वे अपनी मनोकामनाएं पूरी नहीं कर पाते, सो वे अधिकतम दहेज चाहते हैं। फिर पर्याप्त दहेज न मिलने पर बहुओं को प्रताड़ित किया जाता है और कई बार उनकी हत्या भी कर दी जाती है।
मगर पुलिस समय पर जरूरी साक्ष्य नहीं जुटाती और अभियोजन तथा न्यायपालिका के पीठासीन पदाधिकारियों की संवेदनशीलता कम होने के कारण दहेज-हत्या में अधिकतर मामलों में सजा नहीं हो पाती। दूसरी ओर यह भी कटु सत्य है कि बहुत सारे झूठे मामले दहेज के लिए प्रताड़ित करने के बाबत दर्ज कराये जाते हैं जबकि दो व्यक्तियों के व्यक्तित्वों की टकराहट, भिन्न दृष्टिकोण, अपेक्षा और व्यवहार में अन्तर या अन्य कारणों से भी पति-पत्नी या सास-बहू, ननद-भाभी आदि में मतभेद और मनभेद होते हैं ।
यह विडम्बना है कि महिलाओं पर होने वाले अपराधों की संख्या बढ़ रही है जबकि अभियुक्तों की सजा का फीसद घट रहा है : 1973 में भारत में कुल बलात्कारों की संख्या 2919 थी जो 2010 में बढ़कर 20,262 हो गई । 1973 में बलात्कार के मामलों में सजा पाने वालों का फीसद 44-28 था जो 1983 में घटकर 36-83, 1993 में 30-30, 2003 में 26-12 और 2010 में 26-54 हो गया जबकि इस दौरान पुलिस का प्रशिक्षण और अनुसंधान की सुविधाएं काफी बढ़ीं । कई राज्यों में बलात्कारियों की सजा का फीसद राष्ट्रीय औसत से बहुत कम है । उदाहरणार्थ, 2010 में महाराष्ट्र में 13-9:, आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल में 13-7:, कर्नाटक में 15-4: और जम्मू कश्मीर में मात्र 2-6:। दूसरी ओर उत्तर पूर्वी राज्यों में बलात्कार के अभियुक्तों की सजा अपेक्षाकृत अधिक है-नागालैंड में 73-7:, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम में 66-7:, मेघालय में 44-4: और मिजोरम में 96-6: ।
दूसरी ओर हत्या के मामले 1973-2010 के दौरान 10754 से बढ़कर 35531 हो गये और उनके अभियुक्तों की सजा का प्रतिशत 47-14 से घटकर 38-74 हो गया मगर यह घटोत्तरी बलात्कार के अभियुक्तों की सजा में हुई घटोत्तरी से कम है। उससे सिद्ध होता है कि इन कांडों का अनुसंधान करने वाली पुलिस, अभियोजन तंत्र तथा न्यायपालिका हत्या के मामलों में ज्यादा संवेदनशील है और बलात्कार के मामलों में कम संवेदनशील है। मगर कम सजा होने का दूसरा कारण यह भी है कि भारत में अधिकतर बलात्कारी परिवार के सदस्य, रिश्तेदार, मित्र या परिचित होते हैं-90: संपूर्ण भारत में और 96-6: दिल्ली में। 2007 में भारत सरकार द्वारा किये गये एक सर्वेक्षण में पाया गया कि 53: लड़कियों ने स्वीकार किया कि वे एक या अधिक बार यौन हिंसा की शिकार हुईं। तीसरा कारण यह है कि पुलिस बल में कमी भी है-133 पुलिस बल प्रति एक लाख जनसंख्या (2010) पर जबकि इसे 250 पुलिस बल प्रति लाख जनसंख्या होना चाहिए। विशेषकर इज्जत के नाम पर हत्या रोकने तथा सामान्य रूप से महिलाओं के विरुद्ध हिंसा/अपराध रोकने के लिए त्वरित/द्रुत न्यायालयों की स्थापना आवश्यक है जो तीन-चार माहों में निर्णय दें ।
इज्जत के लिए हत्या रोकने के लिए कुप्रथाओं और सामन्ती सोच के विरुद्ध चेतना भी जागृत करने की जरूरत है, दोषी व्यक्तियों के खिलाफ कालबद्ध ढंग से सजा सुनिश्चित करने की आवश्यकता है, अन्तर-जातीय एवं अन्तर-धार्मिक विवाहों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है, पारम्परिक जाति पंचायतों/खाप पंचायतों एवं समाज के तथाकथित ठेकेदारों के अलोकतांत्रिक निर्णयों के लिए उनके खिलाफ द्रुत एवं कठोर कानूनी कार्रवाई करने की आवश्यकता है, विभिन्न पाठ्यक्रमों में रक्त, गोत्र या जाति की शुद्धता की अवैज्ञानिकता को शामिल करने की जरूरत है जैसा कि भारत के मानवशास्त्रीय सर्वेक्षण ('भारत के लोग' श्रृंखला) में पाया गया है कि भारत में चार हजार से अधिक समुदाय हैं और उनमें पाये जाने वाले रक्त मिले-जुले हैं तथा पूर्ण रक्त शुद्धता और जातिगत शुचिता कोरी कल्पना मात्र है। किसी भी देश/प्रदेश का निवासी, किसी भी भाषा का बोलने वाला, किसी भी धर्म का अनुयायी, अथवा किसी भी जाति या गोत्र का सदस्य पूरी निष्ठा से यह दावा नहीं कर सकता कि उसका रक्त पूर्णतः पवित्र या शुद्ध है। मगर यह भी सच है कि जाति के आधार पर सेवाओं और शैक्षिक संस्थाओं में आरक्षण किये जाने के कारण अन्तर-जातीय विवाह की मुहिम को गहरा धक्का लगा है तथा जातिगत पंचायतों और सभा-सम्मेलनों को फलने-फूलने का नया मौका मिला है। अस्तु, इज्जत के नाम पर हत्या करना अपराध ही नहीं, अवैज्ञानिक एवं अनैतिक भी है जिसकी घोर निन्दा ही नहीं की जानी चाहिए, बल्कि उसे जड़ से मिटाने के लिए भी मनसा-वाचा-कर्मणा हरसंभव प्रयास हर स्तर पर और हर जगह किया जाना चाहिए ।
यह कैसी विडम्बना है कि एक ओर भूमंडलीकरण का शोर प्रायः सभी देशों में है, एक देश का व्यक्ति दर्जनों देशों में बने हुए भोजन, कपड़ों, इलेक्ट्रॉनिक सामानों, 'चलबोला' ञमोबाइलट, टी.वी., इंटरनेट (अंतरजाल) आदि का उपयोग कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर दकियानूसी सामन्ती विचार एवं कुप्रथाएं लोगों को दिग्र्मित कर रही हैं और शासन-प्रशासन तन्त्र, कानून और न्याय के मोटे-मोटे ग्रन्थ तथा उन पर आश्रित तमाम लोग ऐसे आपराधिक तत्वों का बाल बाँका नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे माहौल में न्यायपालिका, कार्यपालिका, व्यवस्थापिका, स्वयंसेवी संस्थाओं (जो दुर्भाग्यवश बाह्य सहायता पर ज्यादा आश्रित हो गये हैं) को एकजुट होकर सक्रिय भूमिका निभानी है क्योंकि इन मानवाधिकारों का उल्लंघन सम्पूर्ण मानवता का अपमान है। अस्तु, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भी खुलकर और डटकर ऐसी बुराइयों का सामना करना अनिवार्य एवं वांछित है।
कालिदास ने एक श्लोक में कहा है : न तो सभी पुरानी चीजें खराब होती हैं और न सभी नयी चीजें अच्छी होती हैं (विवेकशील लोग अच्छे-बुरे का निर्णय अपने विवेक से करते हैं। इसलिए परम्पराओं को विवेक की कसौटी पर कसकर ही देशकाल की प्रासंगिकता के आलोक में अपनाने की जरूरत है, न कि अंधानुकरण (ंकंचजए दवज ंकवचजद्ध प्रगतिशील परम्पराओं को प्राथमिकता दी जाये और प्रतिगामी परम्पराओं को त्याग दिया जाये। 'संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने' (तुलसीदास) ।
फ्रेडरिक एंगेल्स का यह मानना सही है कि इतिहास में अंतिम निर्णायक तत्व जीवन का उत्पादन और पुनरुत्पादन ञरिप्रोडक्शनट है। मगर एक ओर जीवन के आवश्यक साधनों (भोजन, वस्त्र, मकान) और इन चीजों के लिए आवश्यक औजारों का उत्पादन होता है, तो दूसरी ओर मनुष्यों का उत्पादन होता है। इस प्रकार सामाजिक व्यवस्था इन दोनों प्रकार के उत्पादनों (श्रम के विकास की अवस्था और परिवार के विकास की अवस्थाट से निर्धारित होती है। श्रम का विकास और उत्पादन की मात्रा जितनी कम होती है, और इसीलिए समाज की सम्पदा जितनी सीमित होती है, समाज-व्यवस्था में रक्त-सम्बन्धों का प्रभुत्व उतना ही अधिक जान पड़ता है। मगर भारत में हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश अपेक्षाकृत विकसित (आर्थिक दृष्टि से) इलाके हैं, फिर भी विवाह आदि के मामले में वहाँ जाति, गोत्र आदि के पारम्परिक नियमों का कड़ाई से पालन होता है तथा भ्रूण हत्या होने के कारण लिंगानुपात संतोषजनक नहीं है। मेरी समझ से इसका एक कारण कुछ जातियों का सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक एवं राजनैतिक प्रभुत्व भी है क्योंकि हरियाणा, पंजाब और पश्चिम उत्तर प्रदेश में जाट जाति का दबदबा है और वहां के राजनीतिक प्रतिनिधिगण भी इन जाति/खाप पंचायतों से डरते हैं।
कहने की जरूरत नहीं कि भारत नाना प्रकार के विरोधाभासों का देश है :
(क) सामाजिक विरोधाभास-बालक-बालिका में फर्क, सास-बहू में फर्क, वृद्धों का बढ़ता रुतबा बनाम वृद्धों की बेचारगी/उपेक्षा, संयुक्त परिवार बनाम एकल परिवार
(ख) आर्थिक विरोधाभास-शहर एवं गाँव में बढ़ता फर्क, अमीर और गरीब वर्गों में बढ़ता फर्क, नियोजन में इंजीनियरिंग/प्रबन्धन तथा सामाजिक विज्ञान/मानविकी में बढ़ता फर्क-दुनिया में हर 25 अरबपतियों में एक अरबपति (1 अरब डालर, 50 अरब रु.) भारतीय है। फोर्ब्स (2012) सूची में 1226 अरबपतियों (डालर) में 48 भारतीय हैं ।
(ग) सांस्कृतिक विरोधाभास-परम्परा बनाम आधुनिकता, परम्पराओं का आधुनिकीकरण, आधुनिकता का पारम्परीकरण, देशज बनाम विदेशज, निष्पक्ष जनसंचार बनाम बिका हुआ जनसंचार (पेड न्यूज)
(घ) राजनैतिक विरोधाभास-चुनाव बनाम वंशवाद, लोकतंत्र बनाम दलगत/व्यक्तिगत तानाशाही (अध्यक्ष से आलाकमान), स्वतंत्र चुनाव बनाम मतों की खरीदगी, खुली/निर्वाचित ग्राम पंचायत बनाम नामांकित जाति/खाप पंचायत ।
(ड) बहुआयामी विरोधाभास-आर्थिक सम्पन्नता बनाम सामाजिक विपन्नता (हरियाणा, दिल्ली, गुजरात, पंजाब में लिंगानुपात असंतोषजनक, भ्रूण हत्या, कन्या शिशु हत्या, पंजाब-हरियाणा में इज्जत के लिए हत्या)-हरियाणा में बालिकाओं के प्रति नकारात्मक रवैया मगर राष्ट्रकुल खेलों में जीती हुई बालिका खिलाड़ियों का उनके गाँव/पंचायत में भव्य सम्मान।
अन्त में कहा जा सकता है कि भारत के संक्रमणशील समाज में रक्त सम्बन्धों (जाति, गोत्र, वंश, परिवार) को ज्यादा तरजीह अब भी दी जा रही है और विधि का शासन सही मायने में लागू नहीं है। यद्यपि संविधान तथा कतिपय कानूनों में स्वतंत्रताओं/अधिकारों के न्यायप्रद प्रावधान किये गये हैं अर्थात् हमारा राज्य लोकतांत्रिक और पंथ-निरपेक्ष है मगर हमारा समाज लोकतांत्रिक/पंथ-निरपेक्ष नहीं बन सका है। इसीलिए इज्जत के नाम पर महिलाओं की हत्याएं की जा रही हैं। मगर दूसरी ओर पश्चिमी देशों में संयुक्त परिवारों का विघटन होने से एकल/नाभिक परिवार (पति, पत्नी, बच्चे) का प्रचलन हुआ और बाद में अकेले रहने (परिवारहीन) की प्रवृत्ति बढ़ी है जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता की पराकाष्ठा है मगर सामाजिकता को नकारना उचित नहीं है । संयुक्त राज्य अमरीका में 28:, स्वीडन में 47:, ब्रिटेन में 34:, जापान में 31:, इटली में 29:, कनाडा में 27:, रूस में 25:, दक्षिण अफ्रीका में 24: लोग एकाकी जीवन (बिना परिवार का) व्यतीत कर रहे हैं जबकि भारत में 3:, ब्राजील में 10:, और केन्या में 15: लोग एकाकी जीवन जी रहे हैं। यह पाश्चात्य एकाकी जीवन प्रणाली भारत जैसे विकासशील देशों के लिए अनुकरणीय नहीं है क्योंकि परिवार सामाजीकरण की प्राथमिक इकाई है जिससे मनुष्यता की नींव बच्चे में पड़ती है।
अस्तु, व्यक्तिगत स्वतन्त्रता एवं सामाजिक सरोकार के बीच न्यायप्रद संतुलन बनाने की महती आवश्यकता है ।
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राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, मानवाधिकार संचयिका से साभार
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