मिट्टी लौरी बेकर हिंदी अनुवाद – अरविन्द गुप्ता लौरी बेकर का जन्म 1917 में बरमिंघम, इंग्लैन्ड में हुआ। 1937 में उन्होंने बरमिंघम...
मिट्टी
लौरी बेकर
हिंदी अनुवाद – अरविन्द गुप्ता
लौरी बेकर का जन्म 1917 में बरमिंघम, इंग्लैन्ड में हुआ। 1937 में उन्होंने बरमिंघम स्कूल ऑफ आरकीटेक्चर से स्नातक की डिग्री पाई, और उसके बाद वो आर आई बी ए (रीबा - रायल इंस्टीट्यूट आफ ब्रिटिश आरकीटेक्ट) के सदस्य बने। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान वह एक डाक्टरी टोली के साथ चीन गए, जहां उन्होंने कुष्ठरोग के इलाज और रोकथाम का काम किया। इंग्लैन्ड वापस जाते वक्त उन्हें अपने जहाज के इंतजार के लिए बम्बई में तीन महीने रुकना पड़ा तभी उनकी भेंट गांधीजी से हुई। इस भेंट का उन पर गहरा असर पड़ा। उन्होंने भारत लौटकर आने और काम करने का निश्चय किया। 1945-66 के दौरान श्री बेकर स्वतंत्र रूप से भवन डिजायन के साथ-साथ कुष्ठरोग अस्पतालों के प्रमुख आरकीटेक्ट भी रहे। इस दौरान उन्होंने उत्तर प्रदेश के एक पहाड़ी गांव में काम किया। 1966 में श्री बेकर दक्षिण में केरल गये जहां उन्होंने पीरूमेदी आदिवासियों के बीच काम किया। 1970 में वह त्रिवेन्द्रम आए और तब से वह सारे केरल में भवनों के डिजसयन और निमार्ण का काम कर रहे हैं। उन्होंने हुडको के संचालक, योजना आयोग की आवास कमेटी, और राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर की कई विशेषज्ञ समितियों के लिए काम किया है। वह नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजायन, अहमदाबाद के संचालक मंडल के सदस्य भी रहे हैं। 1981 में नीदरलैन्ड के रॉयल विश्वविद्यालय ने तीसरी दुनिया के देशों में विशिष्ट काम करने के लिए उन्हें सम्मानित किया। 1990 में श्री बेकर को भारत सरकार ने पद्य-श्री से सम्मानित किया।
प्रस्तावना
इस पुस्तक को उठा कर और इसके पन्ने उलट कर शायद आपको कुछ अचरज तो जरूर हुआ होगा। भला ‘मिट्टी’ जैसा विषय भी इतना गम्भीरता से लिया जा सकता है कि उस पर एक पूरी किताब लिख डाली जाए। हो सकता है कि आपकी रुचि महज एक सतही उत्सुकता हो। यह भी संभव है कि आप मिट्टी के बारे में कुछ और जानना चाहते हों।
मिट्टी के बारे में कुछ और लिखने से पहले मैं आपको यह बता दूं कि मैं मिट्टी को महत्वपूर्ण क्यों समझता हूं। क्योंकि आप इस पुस्तक को पढ़ पा रहे हैं, इसका मतलब है कि आप शिक्षित हैं और एक सामान्य घर में रहते हैं। हो सकता है कि मकान एकदम आपकी रुचि के माफिक न हो। फिर भी घर की छत और दीवारें आपको कुछ-न-कुछ निजी सुरक्षा तो प्रदान करती ही होंगी। आंकड़ों से पता चलता है कि अपने देश में 2-3 करोड़ परिवारों के पास मकान तो दूर कोई झोपड़ी तक नहीं है। काश, न केवल सरकार, परंतु हम सभी लोग इस समस्या के निदान के बारे में सामूहिक रूप से सोचते, और इस कलंक को हटाने के लिए कुछ कदम उठाते। दुख की बात यह है कि आज हम में से बहुत से लोग यह सोचने लगे हैं कि अच्छे और टिकाऊ मकान लोहे की सरिया, सीमेंट-कंक्रीट और पक्की ईंटों के बगैर बन ही नहीं सकते। परंतु लोहे और सीमेंट के उत्पादन में बहुत सारी ऊर्जा खर्च होती है। इसका मतलब यह है कि लोहे और सीमेंट के उत्पादन और ढुलाई में बहुत सारा ईंधन खर्च होता है। सच्चाई यह है कि अपने देश में सबके लिए पक्के मकान बनाने लायक सीमेंट है ही नहीं। काफी सीमेंट कोरिया से आयात करना पड़ता है। देश के बहुत से इलाकों में ईंटों को पकाने के लिए लकड़ी का इस्तेमाल होता है।
बहुत से लोगों को इस बात का आभास नहीं है कि एक सामान्य, मध्यम वर्ग के मकान में लगी ईंटों को पकाने भर के लिए दो या तीन पेड़ों को ईंधन के लिए काटना पड़ेगा। परंतु यह सभी जानते हैं, और अगर नहीं जानते हैं तो सबको जानना चाहिए, कि पेड़ और जंगल लुप्त हो रहे हैं। हम पेड़ काट अधिक रहे हैं, उगा कम रहे हैं। पश्चिम बंगाल जैसे इलाकों में बाढ़ आने का एक मुख्य कारण पेड़ों का काटना है। एक ओर तो हमें मकान बनाने के लिए विदेशों से मंगाए मंहगे साधन और सामान नहीं इस्तेमाल करने चाहिए। दूसरी ओर हमें ऐसे सामान नहीं उपयोग करने चाहिए जिससे हमारे प्राकृतिक साधन - जैसे पेड़ ईंधन के लिए काटे जाएं। ऐसे सामानों की सूची आजकल प्रचलित और फैशनेबिल समझी जाने वाले सीमेंट, स्टील, कंक्रीट, ईंटों और इमारती लकड़ी तक ही सीमित नहीं है। इस सूची में कांच, अल्युमिनियम, ऍसबेस्टास और जस्ता चढ़ी लोहे की चादरें भी शरीक हैं। इन सभी सवालों और समस्याओं पर यह टिप्पणी स्वाभाविक होगी, ‘तो हम किन साधनों का इस्तेमाल करें?’
किस इमारती सामान को बनाने में कम ईंधन खर्च होगा?’ इसका एक उत्तर तो यह हो सकता है कि हम मकान बनाने में ज्यादा-से-ज्यादा पत्थर का प्रयोग करें। परंतु कई हिस्सों में इमारती पत्थर लगभग नहीं के बराबर है। दूसरा उत्तर यह हो सकता है कि मकान बनाने में हम मिट्टी का उपयोग करें। और आप यकीन करें या न करें, परंतु राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार देश में मिट्टी से बने मकानों की संख्या, अन्य किसी सामान से बने मकानों से ज्यादा है।
हमने मिट्टी के घर बनाना बंद क्यों कर दिया? दरअसल, हमने मिट्टी का इस्तेमाल बंद नहीं किया है। बहुत से ग्रामीण परिवार और गरीब लोग अभी भी मिट्टी के घर बनाते हैं। परंतु सरकारी आवास योजनाएं और मध्य-वर्ग घर निर्माण में मिट्टी को नहीं छूते। इसके कई कारण हैं - एक तो लोग आजकल चीजों को खुद अपने हाथों से नहीं बनाते। लोग खुद तो नौकरी करते हैं और मजदूरों से अपने घर बनवाते हैं और खेत जुतवाते हैं। क्योंकि बच्चों को आजकल स्कूल का बोझा ढोना होता हैं इसलिए उनसे भी मदद नहीं मिलती। दरअसल, खुद अपने हाथों से घर बनाने के लिए लोगों के पास अब वक्त ही नहीं है। आज से पचास साल पहले जो हुनर गांव में सभी जानते थे, वह आज बहुत कम लोग जानते हैं। इसके अलावा, आजकल हमें अपनी आर्थिक स्थिति का भी अच्छा-खासा भान है। मिट्टी के कच्चे घरों को लोग ‘गरीब’ और ‘गंवारू’ आदिवासी जीवनी से जोड़ने लगे हैं। ‘अगर मैं मिट्टी के घर में रहूंगा तो मेरी बेटी से शादी कौन करेगा?’
सैकड़ों सालों से मिट्टी के घर बन रहे हैं। यह लम्बा अरसा मिट्टी के लगातार इस्तेमाल के पक्ष में एक ठोस सबूत है, जबकि सीमेंट-कंक्रीट सौ वर्ष पुराना भी नहीं है। मेरे विचार में मिट्टी को हम सफलतापूर्वक अच्छे-से-अच्छे घर बनाने में इस्तेमाल कर सकते हैं। इक्कीसवीं शताब्दी में कदम रखने से पहले अगर हम चाहते हैं कि हरेक देशवासी के सर पर छत हो, तो हम इस संकल्प को मिट्टी के मकान बनाकर ही पूरा कर पाएंगे। इस पुस्तक में इन्हीं कुछ विचारों का उल्लेख है।
इस छोटी सी पुस्तक में मैंने मिट्टी का मात्र परिचय भी दिया है। मैंने पुस्तक की भाषा और चित्रों को एकदम सरल बनाने का प्रयास किया है। वैसे मिट्टी के गुणों को समझने का एक वैज्ञानिक नजरिया भी हो सकता है। पर मेरी राय में अधिक महत्व इस बात का है कि हम मिट्टी का इस्तेमाल करें और उसका मजा लें। हम यह बात तो एकदम भूल जाएं कि मिट्टी के घर केवल गांव के गरीबों के लिए हैं। दुर्भाग्य से मैंने कई चित्रों में मिट्टी के मकानों को गांव के परिवेश में दर्शाया है - जैसे कि घास-फूस की बनी छत, आदि। पर असलियत यह है कि अगर हम ठीक तरह से समझ-बूझ कर इस्तेमाल करें तो नतीजे एकदम अव्वल आएंगे। मैं व्यक्तिगत तौर पर यही चाहता हूं कि जो भी निर्माण का सामान मैं इस्तेमाल करूं वह खुद ही अपनी खासियत को जाहिर करे। मिसाल के तौर पर एक ईंटों के मकान को, मेरी राय में, एक ईंटों का मकान ही दिखना चाहिए, और उसे एक पत्थर के मकान से अलग दिखना चाहिए। आजकल आमतौर पर सभी लोग दीवारों पर पलस्तर कराते हैं या रंग पोतते हैं।
दीवारों को ढंकने के लिए टाइल्स या कुछ और आवरण लगाते हैं, इसलिए यह एकदम मुमकिन है कि यह लोग मिट्टी के साथ भी ऐसा ही बर्ताव करें। उदाहरण के लिए, आस्ट्रेलिया में बहुत सारे मकान बुनियादी रूप में केवल मिट्टी के बने होते हैं। परंतु उन पर चढ़े आवरण से उनके असली रूप को पहचान पाना कठिन होता है। मेरी बस यही आशा है कि हरेक इंसान चाहें वह गरीब हो या अमीर, इस बात को पहचाने और स्वीकार करे कि मकान बनाने के लिए मिट्टी एक अच्छा, मजबूत और टिकाऊ माध्यम है। मिट्टी से बनी इमारतें अगर हजारों साल नहीं तो कम-से-कम सैकड़ों साल तो टिकी ही हैं। हरेक निर्माण सामान की अपनी-अपी सीमा होती है। मिट्टी की भी अपनी सीमाएं हैं। इसलिए सबसे पहले मिट्टी की कमियों और दोषों को जानना जरूरी है। हम निर्माण करते समय मिट्टी की सीमाओं को मद्देनजर रखें, और जहां कहीं भी संभव हो उन कमियों को दूर करने की कोशिश करें। मिट्टी को किसी आकार में ढालने से पहले उसे गीला करना पड़ता है। पर मिट्टी की दीवार तभी उठ पाएगी और तभी मजबूत होगी जब उसका पानी सूख जाएगा। सूखी मिट्टी की दीवार का सबसे बड़ा दुश्मन पानी है। इसलिए मिट्टी की दीवार को हमेशा नमी और पानी से बचाना चाहिए। यही मिट्टी की सबसे बड़ी कमी है और हमें इसे कभी नजरंदाज नहीं करना चाहिए। केरल और आसाम की भारी बारिश से मिट्टी को कैसे बचाया जाए, यह इस पुस्तक में बताया गया है। हो सकता है कि मिट्टी बाहरी दीवार के लिए उपयुक्त न हो, फिर भी हम मिट्टी से अंदर की दीवारें तो बना ही सकते हैं। और ऐसा करने से हम निश्चित ही कुछ ऊर्जा और ईंधन की बचत कर सकेंगे।
मिट्टी के मकान बांधने के हुनर और गुर हजारों सालों के प्रयोग और परीक्षण के बाद विकसित हुए हैं। आज हमें शायद वह अवैज्ञानिक लगें। परंतु सच्चाई यह है कि दुनिया के कई देशों में (जिनमें कई विकसित मुल्क शामिल हैं) बहुत सारे घर मिट्टी से बनते हैं। इनमें बहुत से मकान पचास या सौ वर्ष से भी ज्यादा पुराने हैं।
मिट्टी की दीवारों की बारिश से सुरक्षा करनी चाहिए
बहुत कम घर केवल एक तरह के माल से बनते हैं। उदाहरण के लिए, केवल बहुत घने जंगलों में, जहां पेड़ बहुतायत में मिलते हैं, वहीं पर मकानों की नींव, छत, फर्श, दीवारें सभी लकड़ी की बनती हैं। कंक्रीट के घर में अक्सर फ्रेम और छत का स्लैब कंक्रीट के होते हैं, परंतु दीवारें ईंट, लकड़ी या कांच की बनी होती हैं। ईंटों के घर का मतलब है कि उसकी सिर्फ दीवारें ही ईंटों की बनी होती हैं, किन्तु छत और फर्श किसी दूसरे माल का बना है। इसलिए मिट्टी के मकान की कल्पना करते हुए यह न समझिए कि पूरा मकान ही मिट्टी का बना होगा (वैसे यह भी संभव है)। ईंटों को पकाने में बहुत सारा ईंधन लगता है। पत्थर को खोदना, तराशना और आकार देना पड़ता है। कंक्रीट - यानी सीमेंट और स्टील के निर्माण में बहुत सारी ऊर्जा खर्च होती है। कंक्रीट के इस्तेमाल के लिए बहुत कुशल कारीगर चाहिए। परंतु दुनिया के कई हिस्सों में मिट्टी, निर्माण स्थल के एकदम करीब में ही मिल जाती है। केवल कुछ मेहनती हाथों की जरूरत होती है, जो जमीन की मिट्टी को उठाकर एक दीवार बना दे। घर की यही दीवार आपको सहारा और सुरक्षा देगी।
मिट्टी का मकान कैसा लगता है?
क्या आपके दिमाग में ऐसी तस्वीर उभरती है?
ऊपर दिए गए चित्र में जो घर है, क्या वह भी भी मिट्टी का घर है?
हाँ यह भी मिट्टी का घर है? यह बहु-मंजिला है और इसकी कंक्रीट की छत है!
अगले पचास वर्षों में ऊर्जा और ईंधन की समस्या बहुत ही गंभीर बन जाएगी। मुश्किल उस हद तक होगी जिस हद तक हम मुफ्त ऊर्जा वाले सामान जैसे मिट्टी को इस्तेमाल कर पाएंगे। भारत जैसे देश में एक प्रमुख काम है, ढाई करोड़ बेघर परिवारों को मकान उपलब्ध कराना। इस समस्या का निदान हम तभी कर पाएंगे जब हम अपनी बीसवीं शताब्दी की वैज्ञानिक जानकारी और तकनीकों को बाबा-आदम के जमाने से जानी-पहचानी मिट्टी पर आजमाएंगे। इस तरह ऊर्जा समस्या को और अधिक जटिल बनाए बगैर ही बेघरों के लिए मकान बना पाएंगे। मिट्टी पुराने फैशन की चीज नहीं है। अगर आप चाहें तो मिट्टी से एकदम फैशनेबिल घर बना सकते हैं।
देश में सभी जगहों पर किसी-न-किसी प्रकार की मिट्टी अवश्य मिलती है। हो सकता है कि ऊपरी सतह की मिट्टी दीवार बनाने के लिए ठीक न हो, परंतु नीचे की मिट्टी ठीक हो सकती है। हो सकता है कि मिट्टी में कुछ अन्य चीजें - जिन्हें ‘स्टेबिलाइजर’ कहते हैं, मिला देने से यह काम चलाऊ बन जाए। इस स्थिति की तुलना आप ईंट उद्योग से करिए। देश के कुछ थोड़े से ही हिस्सों में अच्छे किस्म की मिट्टी मिलती है, जिसको पका कर पुख्ता ईंट बनाई जा सकें।
इसलिए सबसे अच्छा यही होगा कि आप अपने प्लाट के आसपास ही मिट्टी खोजें। अगर यह संभव न हो तो मिट्टी को सबसे कम दूरी से लाएं। हो सकता है कि आपको कोई स्थानीय ‘स्टेबिलाइजर’ मिल जाए जिसे मिला देने से आपकी मिट्टी अच्छी हो जाए।
250 वर्ग मीटर जमीन के प्लाट पर 25-वर्ग मीटर क्षेत्रफल के बने मकान की दीवारों में करीब 60-घन मीटर मिट्टी लगेगी।
मकान के निचले क्षेत्रफल को छोड़कर अगर आप पूरे प्लाट के टुकड़े को केवल ण्266-मीटर (यानी साढ़े-दस इंच) गहरा खोदें तो आपको घर बनाने के लिए पर्याप्त मिट्टी मिल जाएगी।
मिट्टी कहां से आयेगी?
यह बहुत मुमकिन है कि आपको घर बनाने के लिए अच्छी मिट्टी जमीन की एकदम ऊपरी सतह पर ही मिल जाए। गड्ढा खोदने पर आपको मिट्टी की अलग-अलग तहें दिखेंगी। हो सकता है कि मिट्टी की ऊपरी सतह में बहुत सारे पत्ते, खाद आदि हों। ऐसी तह के नीचे बालू हो और उसके नीचे चिकनी मिट्टी हो। इसलिए अपनी जमीन में दो-चार गड्ढे खोदकर और निचली तहों का मुआयना करके ही आप अपनी मिट्टी के बारे में कोई निर्णय लें। अक्सर दो-तीन दबी हुई तहों को मिलाने से अच्छी मिट्टी की दीवार बनती है।
ऊपर की मिट्टी को अलग रखें
ऊपर की मिट्टी को अलग रखें - गड्ढा खोदने पर आपको मिट्टी की अलग-अलग तहें दिखेंगी। ऊपरी तहों में तमाम सड़े पत्ते, खाद आदि होगी। उसमें निचली तहें बालुई और चिकनी मिट्टी की होंगी।
-सड़े पत्तों वाली ऊपरी मिट्टी मकान बनाने के लिए ठीक नहीं है।
इसको अलग एक ढेर बना कर रख दें।
-अब रेतीली और चिकनी मिट्टी को मकान की दीवार बनाने के लिए खोदें। बाद में सड़े पत्तों वाली ऊपरी मिट्टी को प्लाट पर वापिस फैला दें। यह मिट्टी पेड़-पौधे उगाने के लिए एकदम उम्दा होगी।
अलग-अलग तरह की मिट्टियां
आमतौर पर पांच अलग-अलग किस्म की मिट्टियां होती हैं।
रोड़ीः इसमें पत्थर के छोटे टुकड़े होत हैं। यह आकार में मटर के दाने जितने छोटे या अंडे जितने बड़े होते हैं।
जिसे आप रोड़ी समझ रहे हैं, वह अगर पानी में 24 घंटे भीगने पर अगर घुल जाए तो वह रोड़ी नहीं है।
मोटी रेतः पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़े जिनका साइज एक मटर के दाने से कम होता है, परंतु हरेक दाना अलग नजर आता है।
बारीक रेतः रेत से कहीं अधिक बारीक। इसके कण इतने छोटे होते हैं कि उन्हें अलग से देख पाना संभव नहीं है।
चिकनी मिट्टीः ऐसी मिट्टी जो गीली होने पर चिपकती है, परंतु सूखने पर एकदम कड़क हो जाती है। सामान्यतः ऐसी मिट्टियां सूखने पर सिकुड़ती हैं, और गीली होने पर फैलती हैं। पर कुछ अन्य चिकनी मिट्टियों में ऐसा नहीं होता।
पत्तों वाली ऊपरी मिट्टीः इस मिट्टी का ज्यादातर हिस्सा सड़ी पत्तियों या पेड़ों के बचे अवशेषों का होता है। गीली स्थिति में यह स्पंज जैसी होती हैं। इसमें अक्सर सड़े पत्तों की खुशबू आती है। इसका रंग गहरा होता है और अक्सर यह नमी पकड़े होती है।
मिश्रणः अक्सर अलग-अलग मिट्टियां एक-दूसरे के साथ जुड़ी हुई पाई जाती हैं। इन मिश्रणों को अलग-अलग नामों से पुकारते हैं जैसे ‘रेतीली चिकनी मिट्टी’, ‘रोड़ी मिली चिकनी मिट्टी’ आदि। मिश्रण में किस हिस्से की मात्रा ज्यादा है, इसका हमें पूरा ध्यान रखना चाहिए। उदाहरण के लिए ‘रेतीली रोड़ी’ का मतलब है कि उसमें अधिकांश रोड़ी है जिसमें थोड़ी सी रेत मिली है। जबकि ‘रोड़ी वाली रेत’ का मतलब होगा ऐसी रेत जिसमें थोड़ी बहुत रोड़ी भी हो।
मिट्टियां
रोड़ी
मोटी रेत
बारीक रेत
चिकनी मिट्टी
पत्तों वाली मिट्टी
अलग-अलग मिट्टियों के उपयोगः
रोड़ीः अपने आप में मिट्टी की दीवार बनाने के लिए बेकार। पत्थर के छोटे टुकड़ों को आपस में बांधे रखने के लिए इसमें कुछ भी नहीं है।
मोटी रेतः लगभग मिट्टी जैसी ही। अपने आप में इस मोटी रेत से दीवार नहीं उठ सकती। परंतु चिकनी मिट्टी और मोटी रेत का मिश्रण मिट्टी की दीवार बनाने के लिए एमदम उम्दा है।
बारीक रेतः अपने आप में दीवार बांधने के लिए अनउपयुक्त। रेत की दीवार खड़ी तो रहेगी परंतु मजबूत न होगी। क्योंकि रेत दबेगी नहीं इसलिए उसे दबाकर ब्लॉक्स भी नहीं बनाये जा सकते। रेत में अगर मजबूती के लिए चूना या सीमेंट मिला दिया जाए तो उससे अच्छे और मजबूत ब्लॉक्स बन सकते हैं।
चिकनी मिट्टीः चिकनी मिट्टी को गूंथा और दबाया जा सकता है, परंतु सूखने के बाद वह सिकुड़ जाती है। बारिश में नमी पकड़कर वह फूल जाती है और उसमें दरारें पड़ जाती हैं।
लैटराइटः यह एक लाल रंग की मिट्टी होती है जिसमें लोहा और अल्युमिनियम मिला होता है। इसके ब्लॉक्स को जमीन में से काट-काट कर निकाला जाता है। हवा से सूखकर ये ब्लॉक्स और मजबूत हो जाते हैं। हम लैटराइट को एक किस्म का पत्थर मानते हैं, पर दरअसल यह दीवारों के लिए एक बेहतरीन सामान है। मिट्टी के बारे में स्थानीय मान्यताओं को मानना ही सही है। कुछ तरह की मिट्टियां मकान बनाने के लिए उपयुक्त नहीं पाई गई हैं। स्थानीय लोगों ने इन्हें सैकड़ों बरसों से जांचा-परखा है। धीरे-धीरे उन्होंने इन खराब मिट्टियों का इस्तेमाल बंद कर दिया है।
पत्तों वाली मिट्टीः दीवार बनाने के लिए यह मिट्टी एकदम बेकार है। एक नियम यह है कि अगर कोई मिट्टी, पेड़-पौधे उगाने के लिए अच्छी है तो वह दीवार बनाने के लिए बेकार होगी।
मिश्रणः पहले यह देखें कि मिश्रण में कौन-कौन सी अलग-अलग मिट्टियां हैं। इन मिट्टियों का क्या अनुपात है? यही उनकी उपयोगिता तय करेगा।
अपने इलाके की पुरानी इमारतों को ध्यान से देखें। इससे आपको पता चलेगा कि उनमें किस तरह की मिट्टी उपयोग में लाई गई थी। इस तरह आप उनके टिकाऊपन या उसकी कमियों का अंदाज लगा सकते हैं।
रोड़ी - बेकार
अकेली रेत - बेकार
रेत और चिकनी मिट्टी - अच्छी
पत्तों वाली मिट्टी - बेकार
अकेली चिकनी मिट्टी - बेकार
चिकनी मिट्टी और रेत - अच्छी
सिगार या लोई टेस्ट
मिट्टी की एक लोई बनाएं। उसे अपनी मुट्ठी में दबाएं और देखें कि टूटने पर उसकी लम्बाई कितनी है।
सिगार टेस्टः
एक मुट्ठी भर मिट्टी से (जिसमें उसके चिपकने भर के लायक पानी मिला हो) लोई का आकार बनाएं। अब अपने अंगूठे और उंगली की मदद से लोई को दबाएं जिससे लगभग चौथाई इंच मोटाई का तार निकलने लगे। अब आप यह देखें कि तार कितना लम्बा होने के बाद टूट कर जमीन पर गिरता है।
1 अगर लोई को तार का आकार देना मुश्किल है और तार बार-बार टूट कर गिर जाता है, इसका मतलब है कि मिट्टी में रेत की मात्रा बहुत अधिक है, और चिकनी मिट्टी का अंश कम है। इसको इस्तेमाल करने के लिए या तो आपको थोड़ी चिकनी मिट्टी मिलानी पड़गी अथवा कोई ‘स्टेबिलाइजर’।
2 अगर मुट्ठी दबाने से तार आठ-नौ इंच तक लम्बा बन जाता है, तो इसका मतलब है कि आपकी मिट्टी में रेत और चिकनी मिट्टी का अनुपात लगभग सही है। ऐसी मिट्टी घर बनाने के लिए अच्छी होगी।
3 अगर मुट्ठी को दबाने से तार आठ-नौ इंच तक लम्बा बन जाता है, तो इसका मतलब है आपकी मुट्ठी में ज्यादा चिकनी मिट्टी है। इसका इस्तेमाल करने से दीवार में सिकुड़न और दरारे आयेंगी। इसे ठीक बनाने के लिए आपको इसमें रेत अथवा अन्य ‘स्टेबिलाइजर’ मिलाने पड़ेगे।
रोड़ी तो आपस में चिपकेगी ही नहीं, लोई बनाने की बात तो दूर की रही। पत्तों वाली ऊपरी मिट्टी की अगर कोई लोई बन भी जाए तो भी वो घर बनाने के लिए ठीक नहीं होगी। पर यह न भूलिए कि इसी मिट्टी के नीचे ही आपके काम की मिट्टी दबी पड़ी है।
मिट्टी की सरल जांचः
वैसे मिट्टी की सही वैज्ञानिक जांच भी की जा सकती है। परंतु आप चाहें तो कुछ सरल से परीक्षण करके खुद अपनी मिट्टी के बारे में काफी कुछ जान सकते हैं। सबसे अच्छा वैसे यही होगा कि आप अपने इलाके में घूम कर उन लोगों से कुछ जानकारी हासिल करें, जो खुद मिट्टी के घरों में रहते हैं। कई इलाकों में सत्तर-अस्सी बरस पुराने मिट्टी के घर अभी भी बरकरार हैं। उन्होंने मिट्टी की जो जांच की होगी उसका ठोस सबूत प्रत्यक्ष आपके सामने होगा।
बिस्कुट टेस्ट
थोड़ी सी नमी लिए मिट्टी से दो इंच व्यास और लगभग चौथाई इंच मोटाई का एक बिस्कुट बनाएं। अब इस बिस्कुट को धूप में अच्छी तरह सुखा लें।
1 अगर बिस्कुट उठाते वक्त टूट जाता है, या उंगलियों के बीच जल्दी टूट जाता है तो इसका मतलब है कि घर बनाने के लिए यह मिट्टी ठीक नहीं है।
2 पर अगर उसे तोड़ने में थोड़ा बल लगता है, तो शायद घर बनाने के लिए यह अच्छी मिट्टी होगी। 3 परंतु अगर बिस्कुट ऊपर से कड़क है और उसे तोड़ना भी मुश्किल है, या अगर वह एक झटके में ज्यादा पके, कड़क बिस्कुट जैसा टूट जाता है, तो भी ऐसी मिट्टी बेकार है इसमें रेत या अन्य ‘स्टेबिलाइजर’ मिलाने होंगे।
बिस्कुट टेस्ट
बिस्कुट टेस्टः मिट्टी का एक बिस्कुट बनाएं -
उसे धूप में सुखाएं - और फिर उसे तोड़ कर देखें।
हाथ-धोकर परखना
गीली मिट्टी को हाथ में लेकर तब तक खेलें जब तक आपके हाथ एकदम गंदे न हो जाएं। उसके बाद अपने हाथों को पानी से धोएं।
1 अगर आपके हाथ जल्दी साफ हो जाते हैं, इसका मतलब है कि मिट्टी एकदम रेतीली है, और वो घर बनाने के लिए ठीक नहीं रहेगी।
2 अगर आपको हाथ साफ करने में थोड़ी देरी लगती है ओर ऐसा अहसास होता है जैसे आप आटे या मैदा में सने हाथ धो रहे हों तो आपके हाथों में एकदम बारीक रेत थी। इसमें कुछ ‘स्टेबिलाइजर’ मिलाने पड़ेंगे।
3 अगर आपके हाथों को साबुन का अहसास हो रहा हो और वह फिसल रहे हों तो जरूर आपके हाथों में चिकनी मिट्टी है। इसमें रेत मिलाने के बाद ही आप इसका इस्तेमाल कर पायेंगे।
कई मरतबा मिट्टी परीक्षण में यह सभी चीजें मिली होती हैं। आप रेत के कणों के साथ-साथ फिसलती चिकनी मिट्टी को महसूस कर सकते हैं। इसका मतलब यह होगा कि आपके पास घर बनाने के लिए उम्दा मिट्टी होगी। रंग से परखनाः मिट्टी का रंग ही आपको उसके बारे में काफी कुछ जानकारी दे सकता है। अक्सर मिट्टी के रंग से ही आप जान सकते हैं कि मिट्टी ठीक है या खराब। अगर मिट्टी गहरी पीली, नारंगी या लाल या गहरी भूरी है तो इसका मतलब है कि उसमें लोहे के अंश हैं। ऐसी मिट्टी मकान बनाने के लिए अच्छी होगी।
चिकनी मिट्टी अक्सर सिलेटी, हल्के भूरे, या गंदे सफेद रंग की होती है। थोड़ा हरापन लिए भूरी मिट्टी में अक्सर सड़ें पत्तों आदि की अधिक मात्रा होती है।
हाथ धोकर परखनाः अपने हाथों से मिट्टी को मलें। फिर हाथ धोकर देखें कि वे कितनी आसानी या मुश्किल से धुलते हैं।
‘स्टेबिलाइजर’
अगर कोई सामान कमजोर है और खुद अपने वजन से ढह जाता है, तो वह टिकाऊ और स्थाई नहीं होगा। मिसाल के तौर पर केवल रोड़ी, रेत या चिकनी मिट्टी को अकेले इस्तेमाल करके दीवार खड़ी करना मुमकिन नहीं है।
इसका यह मतलब नहीं है कि इनका कोई उपयोग ही नहीं है। इस कमजोरी को कुछ और माल मिलाकर ठीक किया जा सकता है। अब इस मिश्रण के ब्लाक या दीवार मजबूत बनेगी। इस ‘कुछ और माल’ को ही हम ‘स्टेबिलाइजर’ कहते हैं।
आज जब लोग मिट्टी को मजबूत बनाने की सोचते हैं तो उनका ध्यान केवल सीमेंट की ओर ही जाता है। पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सारी दुनिया में हजारों सालों से लम्बी उम्र तक टिकने वाले मिट्टी के मकान बन रहे हैं, जबकि ‘पोर्टलैंड सीमेंट’ का आविष्कार केवल इसी बीसवीं शताब्दी में हुआ है। हमारे पूर्वजों ने काफी जांच-पड़ताल के बाद अनेकों ‘स्टेबिलाइजर’ खोज निकाले थे। सदियों के बाद भी उनमें से सबसे अच्छे आज भी हमारे बीच हैं। इस परम्परागत ज्ञान से कुछ नहीं सीखना बेहद मूर्खता होगी।
स्टेबिलाइजर की जरूरत
सीमेंट
आज के जमाने में, सीमेंट एक आधुनिक ‘स्टेबिलाइजर’ है। परंतु सीमेंट का सब जगह मिल पाना, उसकी कीमत, और उसे बनाने में खर्च अत्याधिक ऊर्जा आदि सवाल भी अहम हैं। खासतौर पर सीमेंट की सही मात्रा और अनुपात का अंदाज लगाना कठिन है। मिसाल के लिए अगर हमें 5 प्रतिशत ‘स्टेबिलाइजर’ चाहिए तो इसका मतलब होगा कि 19-भाग मिट्टी में एक भाग सीमेंट मिलाना होगा। तो अगर आपको 100-घन मीटर मिट्टी की आवश्यकता है, तो उसके लिए आपको 5 घन मीटर सीमेंट चाहिए होगा। पर हो सकता है कि आप आनी मिट्टी की जांच के बाद पाएं कि उसको टिकाऊ बनाने के लिए मात्र 2 प्रतिशत सीमेंट, यानी केवल 2-घन मीटर सीमेंट लगेगा। कहां 125 बोरे, और कहां केवल 50 बोरे सीमेंट में काम चल सकता है। पैसों की काफी बचत हो सकती है। इसलिए शुरू में मिट्टी की जांच-परख बेहद जरूरी है। इस तरह कम-से-कम सीमेंट इस्तेमाल होगा।
मिट्टी के गुणों के बारे में एकदम सही जानकारी का अभाव है। यह भी एक कारण है कि जिस वजह से इंजीनियर और ठेकेदार, मिट्टी को नहीं अपनाते। अगर आप उनसे कहें कि 5ण्7362 प्रतिशत सीमेंट मिलाओ तो वे बहुत खुश होंगे। परंतु यह कहना कि ‘एक से पांच प्रतिशत के बीच मिलाओ’ उनको एकदम अस्पष्ट सा लगेगा। विज्ञान में एकदम सही आंकड़े चाहिए। अंदाज और जुगाड़ से विज्ञान को चिढ़ है। बहुत रेतीली या बहुत चिकनी मिट्टी को मजबूत और टिकाऊ बनाने के लिए 3 से 12-प्रतिशत सीमेंट की जरूरत होती है। परंतु मैं अक्सर सीमेंट से दूर ही रहता हूं। जब कोई और विकल्प न हो मैं तभी सीमेंट इस्तेमाल करता हूं।
सीमेंट
चूना
चूना भी लगभग उन्हीं पदार्थों से बनता है जिनसे सीमेंट बनता है। परंतु चूना हजारों साल पुराना है और उसे कहीं भी आसानी से बनाया जा सकता है। चूना बनाने में सीमेंट की अपेक्षा बहुत कम ऊर्जा खर्च होती है। मिट्टी को स्थाई और टिकाऊ बनाने के लिए चूना एक उम्दा स्टेबिलाइजर है। वैसे बुझे और अनबुझे दोनों तरह के चूनों से काम चल सकता है, परंतु बुझे चूने से मजदूरों के हाथ और पैरों में कम तकलीफ होती है।
‘स्टेबिलाइजर’ की मात्रा मिट्टी की क्वालिटी के ऊपर निर्भर करेगी। अगर मिट्टी में बहुत अधिक रेत या बहुत अधिक चिकनी मिट्टी है, तो इसका मतलब है कि स्टेबिलाइजर भी अधिक लगेगा। चूने को 2 से 6-प्रतिशत के बीच मिलाया जा सकता है। अक्सर 3-प्रतिशत पर्याप्त होता है।
कई दफा मिट्टी में मजबूती की दृष्टि से सीमेंट या चूना मिलाने की जरूरत नहीं होती। परंतु केवल मिट्टी से बना घर जल्दी ही पानी और नमी सोख लेता है। मिट्टी पानी न सोखे इसलिए कभी-कभी केवल थोड़ा सा स्टेबिलाइजर मिलाने से काम चल जाता है।
अगर आपको जल्दी में घर बनाना है तो आप जरूर सीमेंट और चूने का उपयोग करें। चूना धीरे-धीरे जमता है और कड़क होता है, परंतु उसमें थोड़ा सा सीमेंट मिला देने से वो जल्दी ही सेट हो जाता है। ऐसे मिश्रण में अक्सर 2-प्रतिशत चूना और 1-प्रतिशत सीमेंट मिलाया जाता है।
चूना
चूना सबसे अच्छा और सबसे ज्यादा इस्तेमाल किए जानेवाला स्टेबिलाइजर है। चूना बनाने के लिए सीप, शंख या चूना पत्थर को मिट्टी की भट्टी में जलाया जाता है।
ग्रामीण ‘स्टेबिलाइजर’
परम्परागत मकानों में कई प्रकार के ‘स्टेबिलाइजर’ इस्तेमाल किए जाते रहे हैं। कुछ प्रचलित और आम इस्तेमाल में आने वाले ‘स्टेबिलाइजर’ इस प्रकार हैं :
पुआलः इस ‘स्टेबिलाइजर’ में कोई रासायनिक गुण नहीं है। पुआल की वजह से मिट्टी में दरारें कम पड़ती हैं। पुआल की वजह से गीले ब्लाकों को अधिक आसानी से उठाया जा सकता है। पुआल की तरह ही लोग भूसे और अन्य रेशों का भी इस्तेमाल करते हैं।
गोबरः परम्परागत रूप से मिट्टी के लगभग सभी तरह के काम में गोबर उपयोग में लाया जाता है।
पेशाबः पेशाब भी इस्तेमाल किया जाता है। इसमें मिली यूरिया, गोंद जैसे जोड़ने का काम करती हे।
गोंदः पेड़ों से निकलने वाले गोंद / रोजिन भी पकड़ के लिए और पानी से बचाव के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं।
शीराः गुड़ बनाते समय निकला शीरा मिट्टी में पकड़ बनाए रखता है। इसमें मिले रेशों से भी लाभ होता है।
टैनिक अम्लः कुछ ग्रामीण उद्योगों से निकला टैनिक अम्ल भी अच्छे ‘स्टेबिलाइजर’ का काम करता है।
तेलः केरल में मिट्टी की दीवारों को पानी से बचाने के लिए उन पर बाहरी ओर से नारियल का तेल पोत दिया जाता था। वैसे तो किसी भी तेल का उपयोग किया जा सकता है। परंतु आजकल जले इंजिन-आयल का अधिक प्रचलन है। पानी से बचाव के लिए उसका इस्तेमाल सीमेंट-कंक्रीट और मिट्टी दोनों के लिए उपयुक्त है।
ग्रामीण स्टेबिलाइजर
कई तरह की मिट्टियों में उच्च तकनीक भी इनसे अधिक कारगर नहीं।
भूसा
पुआल
गोबर
पेड़ों का रस
कई पेड़ों में से सफेद दूध जैसा रस निकलता है - जैसे पोइनसेटिया, कैक्टस, सन (अम्बाडी) आदि। इनको मिलाने से पकड़ तो अच्छी होती ही है, साथ-साथ पानी से भी बचाव होता है।
पेड़ों से निकले कई तरह के रस में रोजिन होता है और वो वाटर-प्रूफिंग के लिए अच्छा होता है। लेकिन क्योंकि कई बार यह पानी में नहीं घुलता इस वजह से उसे मिट्टी में मिलाना मुश्किल होता है।
स्थानीय लोग जो चीज इस्तेमाल करें, अक्सर वही सबसे सरल हल होता है।
कोलतारः कोलतार एक अच्छे ‘स्टेबिलाइजर’ का काम करता है, परंतु ईमानदार आदमी को इसका मिलना बहुत मुश्किल होता है। अगर कहीं आपको कोलतार मिले, तो समझें कि उसे पी डब्लू डी से चुराया गया है।
अक्सर सबसे आम और कारगर ‘स्टेबिलाइजर’ मिट्टी ही है। अगर मिट्टी बहुत रेतीली है तो उसमें चिकनी मिट्टी मिला दें। अगर आपकी मिट्टी चिकनी है तो उसमें रेत मिला देना ‘स्टेबिलाइजर’ का काम करेगा।
आधुनिक ‘स्टेबिलाइजर’ जैसे सीमेंट मंहगे होते हैं और उन्हें बनाने में बहुत अधिक ऊर्जा खर्च होती है। कई परम्परागत और स्थानीय ‘स्टेबिलाइजर’ प्राकृतिक चीजों पर आधारित होते हैं - कई तो फेंकी जाने वाली चीजों से बनते हैं। इसलिए वे सस्ते होते हैं और उनमें लगभग नहीं के बराबर ऊर्जा खर्च होती है।
भारत के कई हिस्सों में मिट्टी या मिट्टियों के मिश्रण को बगैर किसी ‘स्टेबिलाइजर’ मिलाए सीधा इस्तेमाल किया जा सकता है। केवल प्रयोग करके और परखने के बाद ही आप यह जान पाएंगे कि ‘स्टेबिलाइजर’ की जरूरत है या नहीं।
पेड़ों के रसों से बने स्टेबिलाइजरः
सन, कैक्टस आदि।
अब तक हमने अलग-अलग तरह की मिट्टियों के बारे में कुछ जाना है। हमने देखा है कि मिट्टी को पानी से किस तरह सुरक्षित किया जा सकता है, और उसे मजबूत बनाने के लिए कभी-कभी स्टेबिलाइजर भी मिलाए जा सकते हैं। अब हमें मिट्टी को इस्तेमाल करना सीखना है जिससे कि उसकी पकड़ बनी रहे।
मिट्टी के मकान बनाने की कई पद्धतियां हैं। अक्सर किसी जिले में दीवार बनाने की एक ही पद्धति प्रचलित होती है। इसका पहला उद्देश्य तो दीवार को कम-से-कम एक इंसान की ऊंचाई तक ऊपर उठाना है। दूसरी ओर दीवार इतनी मजबूत तो जरूर हो कि खुद खड़ी और टिकी रहे और साथ-साथ छत का भार भी झेल सके।
कौब - ऊंचाई के अलावा यह अन्य सभी कामों के लिए उपयुक्त है। यह तरीका खासतौर पर गोलाई ली हुई दीवारों के लिए अच्छा है। ‘पिसे’ या मिट्टी-ठोकना यह मजबूत है और एक-मंजिल के चौकोर मकानों के लिए आदर्श तरीका है।
अडोबी या धूप में सूखी ईंटेंः इस तरीके से आसानी से दो-मंजिले मकान बनाए जा सकते हैं।
मशीन में दबाकर बनाई ईंटें चिकनी और बहुत मजबूत होती हैं। इनसे तीन-मंजिले मकान बनाए जा सकते हैं।
वाटल और डौब भूकम्प वाले इलाकों के लिए उपयुक्त हैं। बांस और केन वाले इलाकों में इनसे सुंदर मकान बनते हैं।
तीन-चार कतारें एक-दूसरे पर चढ़ाने के बाद दीवार को समतल और चिकना किया जाता है, जिससे कि सारे छिद्र और दरारें भर जाएं।
सबसे पहला, पुराना और सरल तरीका ‘कौब’ कहलाता है। इसमें, बहुत थोड़े से पानी में मिट्टी को कड़ा गूंथ कर एक बड़ा लौंदा बनाते हैं - इतना बड़ा, जिससे कि दोनों हाथों से उठ सके। फिर उसे धीरे-धीरे एक अंडे का आकार देते हैं। उसका माप आमतौर पर 12 से 18-इंच (30 से 40-सेमी) लम्बा और इसका व्यास लगभग 6-इंच (15-सेमी) होता है।
इसके ऊपर मिट्टी के लौंदों की दूसरी कतार रखी जाती है। ऊपरी कतार के लौंदे निचली कतार के लौंदों के बीच गड्ढों में रखे जाते हैं।
थोड़ी सावधानी और अनुभव से - और शायद एक धारदार चाकूनुमा औजार की मदद से एक सपाट और चिकनी सतह बनाई जा सकती है।
कौब मिट्टी के इन लौंदो को एक-दूसरे से सटाकर और दबाकर एक कतार में रखते हैं।
अभी तक मैंने लौंदो को एक-दूसरे पर रखने की बात की है, परंतु असलियत में लौंदे को निशाना लगाकर जोर लगाकर बलपूर्वक फेंका जाता है। इस तरह लौंदो के बीच छेद और दरारें लगभग नहीं के बराबर रह जाती हैं। आप जल्द ही यह सबक सीख जाते हैं कि मिट्टी को कड़क रखना जरूरी है। अगर मिट्टी में अधिक पानी होगा तो जैसे-तैसे दीवार ऊपर उठेगी वह बीच में फूलेगी और फैलेगी। ऐसी भी संभावना है कि दीवार ढह जाए और एक मिट्टी का ढेर बन जाए।
वैसे दीवार धीरे-धीरे करके ही बनाना अच्छा है। घर के सभी ओर लौंदो की दो या तीन तहें चढ़ाने के बाद थोड़ा ठहरना अच्छा होेगा। पहले की तहों के सूखने के बाद ही अगली दो-तीन तहें चढ़ाएं। लौंदो की दीवार को सीधा और सपाट रखना भी कठिन है। इसके लिए दीवार बनाते वक्त उसके साथ सटकर खड़ा रहना चाहिए।
अगर दरारों और छेदों को केवल हाथ से भरा गया है तो दीवार की सतह थोड़ी खुरदरी होगी। दीवार के बनने के तुरंत बाद आप उसकी सतह को एक कन्नी या धारदार चाकू से समतल और चिकना कर सकते हैं। एक बार अगर आपको ‘कौब’ तरीके में मिट्टी की सही परख आ गई तो आप पाएंगे कि यह तरीका एकदम सीध ा-सरल है। कोई भी इंसान इसे जल्दी से सीख सकता है। गोल या गोलाकार दीवारें बनाने के लिए यह तरीका एकदम आदर्श है। खिड़कियों और दरवाजों के लिए खाली जगह छोड़ना एक समस्या है। इसके लिए स्थाई लकड़ी के तख्ते इस्तेमाल कर सकते हैं।
रिक्त स्थानों को भरने के लिए मिट्टी के तेल के पुराने टिन या पीपे भी उपयुक्त हैं।
मिट्टी के लौंदों से दीवार बनाने के तरीके का सबसे बड़ा फायदा ये है कि कोई भी इंसान इसे बना सकता है। इससे कोई विशेष औजार या सांचे की जरूरत नहीं पड़ती। अगर बच्चों जैसे आप मिट्टी का पेड़ा बना सकते हैं, तो आप कौब - यानी लौंदों की दीवार भी बना सकते हैं।
‘कौब’ से बनी दीवारों की मोटाई को एक-समान बनाने के लिए ही ‘पिसे’ या मिट्टी ठोक दीवार विकसित हुई। मिट्टी को ठोकने से दीवार की ताकत और बढ़ जाती है। इसको ‘रैम्ड अर्थ’ यानी मिट्टी ठोक तरीका कहते हैं।
असल में इसमें दो लकड़ी के तख्ते होते हैं, जो एक-दूसरे के समानान्तर होते हैं। इनके बीच एक-समान दूरी बनाए रखने के लिए लोहे की छड़, क्लिप और नट-बोल्ट इस्तेमाल किए जाते हैं। थोड़ी सख्त मिट्टी को इन दोनों तख्तों के बीच फेंका जाता है, फिर उन्हें लकड़ी या लोह के धुरमुस से कूट कर दबाया जाता है। जब एक हिस्सा पूरा होकर सूख जाता है तब दोनों तख्तों को आगे सिरकाकर अगला हिस्सा बनाया जाता है। इस तरह घर की दीवारों की पहली और निचली तह पूरी की जाती है। इसके बाद तख्तों को ऊपर उठाकर इसी तरह दूसरी तह, पहली के ऊपर ठोकी जाती है। यह सिलसिला पूरी दीवार उठने तक जारी रहता है। ईंटों की चिनाई की तरह ही मिट्टी में भी चिनाई का एक नमूना होता है। इसमें भी एक तह का खड़ा जोड़ दूसरी तह के खड़े जोड़ पर नहीं आना चाहिए। नहीं तो इन खड़े जोड़ों में एक लम्बी दरार पड़ने का खतरा रहेगा। इन तख्तों को मजबूती से अपने बीच की दूरी बनाए रखने के लिए, और उन्हें सरकाने और ऊपर उठाने के लिए काफी जुगाड़ लगती है।
फिर खिड़की और दरवाजे की खाली जगह पर या दीवार के कोनों के लिए तख्तों को आगे-पीछे करने के लिए एक लचीली व्यवस्था चाहिए। ‘कौब’ तरीक से शायद हरेक कोई दीवार बना लेता। लेकिन ‘मिट्टी-ठोक’ तरीके के इस्तेमाल में थोड़ी कुशलता चाहिए। परंतु कोई भी मजदूर या मिस्त्री इसे जल्दी ही सीख सकता है। जिससे दीवार में दरारें न पड़ें, इसलिए सरल बंधाई की जानकारी भी जरूरी है।
इसमें कोई शक नहीं है कि ‘मिट्टी-ठोक’ दीवार बहुत मजबूत होती है, और बहत अर्से तक चलती है। यह आराम से दो या तीन मंजिलों का बोझ सह सकती है। दुनिा के कई हिस्सों में इस तरह की सैकड़ों साल पुरानी इमारतें मिलती हैं।
रैम्ड अर्थ या मिट्टी-ठोक दीवार
इस तीसरे तरीके को सारी दुनिया में ‘अडोबी’ के नाम से जाना जाता है। भारत में लोग इसे धूप में सुखाई कच्ची ईंटों के नाम से जानते हैं। मिट्टी की दीवारें बनाने का यह सबसे प्रचलित तरीका है। कोई भी मिट्टी की ईंटें या ब्लाक्स बना सकता है और सुखाने के बाद में उन्हें संभाल कर गोदाम में रखा जा सकता है। जब काफी ईंटे इकट्ठी हो जाएं तब घर बनाया जा सकता है।
अडोबी या धूप में सूखी ईंटें
इसमें सांचे के लिए एक लकड़ी या धातु का डिब्बा इस्तेमाल होता है। सांचे में थोड़ी सख्त मिट्टी ठोक-कर भरी जाती हैं फिर उस ईंट को निकालकर उसे धूप में हल्के-हल्के सूखने दिया जाता है। इन कच्ची ईंटों को किसी भी साइज में बनाया जा सकता है। वह या तो साधारण पकी ईंटों के नाप की हो सकती है (जैसे 9-इंच, 4 से 5-इंच, 3-इंच) या अगर मोटी दीवार बनाती हो तो इनका साइज बड़ा हो सकता है (जैसे 12-इंच, 6-इंच, 4-इंच)। छोटी ईंटों में दरारें कम पड़ती हैं। अगर ईंटों को सावधानी से हल्के-हल्के करीब एक महीने तक सुखाया जाए, और अगर दीवार को सामान्य ठीक तरीके से बनाया जाए तो काफी मजबूती और बिना दरारों की दीवार बन सकती है। यह दीवारें दो या तीन मंजिले मकानों का बोझ उठा सकती है। हां, दीवार में ईंटों को सामान्य बंधन के नमूने में सजाना चाहिए, और दीवार की हमेशा पानी से हिफाजत करनी चाहिए। मिट्टी की दीवार बहुत अर्से से बनती आ रही हैं। इनमें न तो कोई खतरा है, और न ही इन्हें गंवारू समझना चाहिए। यही एक मात्र हल है करोड़ों बेघर लोगों के लिए घर बांधने का। इसमें कोई ईंधन और ऊर्जा नहीं लगती।
अगर सांचे की दीवारें समानांतर न होकर हल्के से कोण पर हों तो ईंट सांचे में से आसानी से बाहर निकल आती है।
मिट्टी के ब्लाक्स के लिए सांचे
किसी भी साइज में बनाए जा सकते हैं, परंतु बहुत बड़े ब्लाक्स को उठाना मुश्किल होता है।
आप कई खानों वाला एक बड़ा सांचस बना सकते हैं। इस तरह एक बार में कई ब्लाक्स बन जाएंगे। सामान्य पकी ईंट का साइज अच्छा है। तब राज-मिस्त्रियों को विशेष ट्रेनिंग की जरूरत भी नहीं थी।
यह चौथी तकनीक मिट्टी की ईंट बनाने जैसी ही है। परंतु इसमें ईंटों को एक सरल सी मशीन में जोर से दबाया जाता है। 1987 में यह मशीन लगभग रुपए 4000-5000 की मिलती थी। इस मशीन से निकले दबे ब्लाक बहुत मजबूत होते हैं। और मिट्टी में थोड़ा स्टेबिलाइजर मिला हो तो इस मशीन से बनी ईंटे लगभग पकी ईंटों जितनी मजबूत होती हैं।
इस तरह से बने दबे ब्लाक्स को भी धीरे-धीरे सुखाना चाहिए। इनको भी पानी से बचाने की सावधानी बरतनी चाहिए।
कई लोग इन ईंटों को पसंद करते हैं क्योंकि इनकी सतह एकदम साफ और चिकनी होती है। परंतु इन दबे ब्लाक्स को बनाने में काफी मेहनत और मशक्कत करनी पड़ती है। इन मशीनों के निर्माता इनकी क्षमता को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर बखान करते हैं। उनके हिसाब से एक दम्पत्ति के लिए एक दिन में 1,000 से 5,000 ब्लाक्स बनाना संभव है। परंतु अगर कोई दम्पत्ति एक दिन में 1,000 ब्लाक्स बनाएगा तो अगले दिन उनकी हालत एकदम खस्ता होगी। अगर वह अस्पताल में न हुए तो कम-से-कम खाट पर जरूर पड़े होंगे!
दबी मिट्टी के ब्लाक्स
वाटल और डौब
यह मिट्टी की दीवार बनाने की पांचवी पद्धति है। इसमें थोड़ी-थोड़ी दूरी पर जमीन में लकड़ी के खम्बे गाढ़ते हैं। फिर चिरे बांस, केन, या पतली डंठलों का ताना-बाना बुनकर एक चटाई बनाते हैं। अब इस चटाई पर दोनों ओर से मिट्टी का पलस्तर करते हैं। इस तरीके को ‘वाटल और डौब’ कहते हैं। यह पद्धति उन इलाकों में बहुत लोकप्रिय है जहां बांस और केन प्रचुर मात्रा में मिलता है। जैसे आसाम, उत्तर-पूर्व के राज्य, बंगाल और अंडमन द्वीप।
अक्सर फ्रेम और ढांचा छत का भार ढोता है। कभी जब मूसलाधार बारिश होती है या फिर तूफान आता है, तो छत की सुरक्षा के बावजूद पानी के छपाके साधारण मिट्टी की दीवार को गिरा देते हैं। परंतु ‘वाटल और डौब’ में पानी के छपाकों से केवल दीवार पर लिपी मिट्टी धुल जाती है, परंतु बांस का ताना-बाना और ढांचा बरकरार रहता है। इस फ्रेम पर दुबारा मिट्टी लीपी-पोती जा सकती है।
जब भूकम्प का झटका आता है तो कभी शायद कोई खम्बा टेढ़ा हो जाएगा, परंतु ढांचा नहीं गिरेगा। फ्रेम की थोड़ी सी मरम्मत के बाद घर दुबारा रहने काबिल हो जाएगा।
वाटल और डौब
बहुत से स्थानीय तरीकों में मिट्टी से अन्य चीजें आपस में जोड़ी जाती हैं। मिसाल के तौर पर देश के कई इलाकों में छोटे-छोटे पत्थर पाए जाते हैं। परंतु इनसे थोड़ी भी लम्बी और ऊंची दीवार बना पाना संभव नहीं है। इसलिए इन पत्थरों को अक्सर मिट्टी के लौंदों, मिट्टी-ठोक दीवार या धूप में सूखी ईंटों के बीच भर दिया जाता है। कई पहाड़ी इलाकों में जान-बूझ कर मिट्टी की दीवार के आधार में पत्थरों को इस्तेमाल किया जाता है। यह पत्थर बारिश के छपाकों से दीवार की अच्छी सुरक्षा करते हैं।
कई एक या दो मंजिले मकानों में ईंटों या पत्थरों की जुड़ाई के लिए भी मिट्टी को आराम से प्रयोग में लाया जा सकता है। अक्सर जुड़ाई के लिए चूना, चूना और सीमेंट, या सीमेंट का मसाला इस्तेमाल किया जाता है। परंतु अगर दीवार, बाहर निकली छत या सनशेड से सुरक्षित हो तो ईंटों या पत्थरों के बीच टीप भरने की आवश्यकता नहीं है।
मिट्टी की दीवार की पत्थरों की नींव
मिट्टी के मसाले से पकी ईंटों की जुड़ाई
यह बहुत जरूरी है कि आप अपना मिट्टी का मकान सही स्थान पर बनाएं। कई बार शायद आपके पास चुनने के लिए कोई विकल्प ही न हो। हो सकता है कि आपका प्लाट ही बहुत छोटा हो, और उसके आसपास कई और मकान हों। तब शायद मकान का सड़क की ओर मुंह करने के अलावा आपके पास अन्य कोई चारा ही न हो। पर अगर आप घर बनाने की जगह को चुन सकते हों तो सबसे पहला नियम है कि आपके प्लाट का सबसे ऊंचाई वाला हिस्सा, शायद मिट्टी का घर बनाने के लिए सबसे उपयुक्त जगह हो। अगर आपका प्लाट ढलान पर हो तो ऊपर की ओर नाली जरूरी बनाएं, जिससे बारिश का पानी घर से दूर बह जाए। किसी भी हालत में घर को किसी गड्ढे या निचले इलाके में न बनाएं। अगर आपके जिले में किसी एक दिशा (संभवतः दक्षिण-पश्चिम) से तेज बारिश आती हो तो घर का खाका चौकोर की बजाए आयताकार बनाएं। आयत की छोटी दीवार को बारिश की दिशा में रखें।
अगर आपके इलाके में बहुत बारिश होती हो और अगर आपका प्लाट बहुत खुला हो तो शायद बाहर से प्लास्तर करना उचित होगा। या फिर मकान को पकी ईंट, पत्थर या लैटराइट से बनाना ठीक होगा। मकान का हरेक हिस्सा मिट्टी से ही बने यह जरूरी नहीं।
मिट्टी के घर के लिए स्थान चुनना
मिट्टी के ब्लाक्स को सुखाना
मिट्टी की सभी चीजों में तब कम दरारें पड़ेंगी जब उन्हें धीरे-धीरे छांव में और न कि धूप में सुखाया जाए। मिट्टी के ब्लाक्स बनाने के बाद उन्हें इस तरह से चुनना चाहिए कि उनके बीच में झरोखे हों जिनमें से हवा बह सके। ब्लाक्स की सुरक्षा की दृष्टि से उन्हें निर्माण स्थल से थोड़ा दूर बनाना चाहिए।
पहले ब्लाक्स को गीली बोरी या पत्तों या पुआल से ढंक देना चाहिए। एक-दो हफ्ते बाद ऊपर के गीले बोरे, या पत्ते हटाकर ब्लाक्स को किसी पेड़ या बरामदे की छांव में सूखने देना चाहिए। यहां पर उन्हें दो या तीन हफ्ते सूखने दें। पांच या छह हफ्तों के बाद ब्लाक्स को पूरी तरह धूप में सूखने दें।
कुछ मजदूर ब्लाक्स बनाने के एक हफ्ते बाद ही घर का निर्माण शुरू कर देते हैं। वैसे इसमें कोई खास बुराई नहीं है। पर गीले ब्लाक्स उठाते-रखते समय टूट सकते हैं।
ब्लाक्स कैसे सुखाए
मिट्टी के ब्लाक्स को एक या दो हफ्ते के लिए गीले बोरोें, पुआल या पत्तों से ढंक कर रखें उसके बाद दो हफ्तों के लिए छांव में सुखाएं।
गारा या मसाला
गारे या मसाले के लिए वही मिट्टी प्रयोग करें जिसके आपने ब्लाक्स बनाए हैं। इस बात का ध्यान रखें कि मसाले में ज्यादा चिकनी मिट्टी न हो, नहीं तो दरारें पड़ सकती हैं। सूखी मिट्टी को छान लें। इससे रोड़ी और छोटे पत्थर छन जाएंगे। छनी मिट्टी से चिकना और अच्छा गारा बनेगा। अगर मिट्टी के ब्लाक्स बनाने में आपने किसी स्टेबिलाइजर का इस्तेमाल किया है तो गारे में भी आपको स्टेबिलाइजर मिलाना पड़ेगा। मिसाल के लिए अगर ब्लाक्स की मिट्टी में आपने 5 प्रतिशत सीमेंट मिलाया है तो गारे में भी आप 10 प्रतिशत सीमेंट (1:10) मिलायें। गारा या मसाला
गारा या मसाला मिट्टी को छानकर उसमें से रोड़ी अलग कर दें। प्लास्तर
धूप में सूखी ईंटों, मिट्टी के लौंदों या मिट्टी-ठोक कर बनाई दीवार की सतह अक्सर खुरदुरी होती है। इस पर आप मिट्टी, या स्टेबिलाइजर युक्त मिट्टी जैसे गोबर, चूना या सीमेंट से प्लास्तर कर सकते हैं। प्लास्तर अच्छी तरह पकड़े इसके लिए ईंटों के बीच के मसाले को खुरदुरा ही छोड़िए। मशीन में दबाकर बने मिट्टी के ब्लाक्स बाहर से काफी चिकने होते हैं। और उन पर प्लास्तर करना मुश्किल होता है। इन पर या तो दो-तील तह चूने की पुताई कर सकते हैं या फिर छनी मिट्टी, चूने या सीमेंट के मिश्रण का घोल पोत सकते हैं। इसमें हम चाहें तो शौक से कोई रंग भी मिला सकते हैं। अक्सर मशीन से बने ब्लाक्स के ऊपर प्लास्तर करना मुश्किल होता है। अगर तेज बारिश ब्लाक्स की निचली दीवार को नुकसान पहुंचा रही हो तो ब्लाक्स पर मुर्गी के दबड़े वाली जाली कीलों से ठोक दें। इस जाली पर प्लास्तर आराम से टिकेगा और चटकेगा नहीं। इस तरह से प्लास्तर केवल उस दीवार पर करना आवश्यक है जिस पर बारिश की सीधी बौछार पड़ती हो। घर की सभी दीवारों पर इस तरह का प्लास्तर अनावश्यक है। मशीन से बने ब्लाक्स पर प्लास्तर
मुश्किल से टिकता है। प्लास्तर टिके, उसके लिए मुर्गी के दबड़े वाली जाली को दीवार के निचले हिस्से में कीलों से लगाएं।
मिट्टी तो दीमक का प्राकृतिक घर है। इसलिए दीमक वाले इलाकों में बने घरों में खास सावधानी बरतनी पड़ेगी, जिससे दीमक दीवार पर चढ़कर लकड़ी की चौखट न खा जाए।
1 मकान की नींव या पूरे आधार पर एक इंच मोटी अच्छे मसाले (एक भाग सीमेंट और तीन भाग रेत) की तह बिछाएं। इससे सीलन और दीमक दोनों से बचाव होगा।
2 इससे भी अच्छा है कि दीवार के चारों ओर पकी ईंटों या पत्थर (या मिट्टी को ठोक कर) का एक ढलान वाला कवच बनाएं। इस पर अच्छे मसाले से प्लास्तर करें। इस तरह बारिश की छींटों से भी दीवार सुरक्षित रहेगी। 3 किसी भी धातु की चादर को पूरी नींव की दीवार पर इस तरह बिछाएं कि वह तीन इंच बाहर को निकले और झुकी रहे। यह जुगाड़ मंहगी अवश्य है परंतु बहुत कारगर है। 4 बाजार में उपलब्ध कीटनाशकों का भी प्रयोग किया जा सकता है।
दीमक
धातु की चादर
दीमक को दीवार में घुसने से रोकता है।
नींव या आधार
अक्सर घर की दीवार तो मिट्टी से आसानी से बन जाती है। परंतु नींव या आधार के लिए कोई कठोर और मजबूत मटेरियल चाहिए। अगर पत्थर आसपास मिलता है तो उसका उपयोग किया जा सकता है। बहुत मरतबा बिल्डर लोग गहरी और चौड़ी खाई खोदते हैं। उसमें कंक्रीट भरने के बाद वे नींव या आधार को ऊपर उठाते हैं। उसके बाद बची हुई खाई को दुबारा मिट्टी से पाटते हैं। छोटे सामान्य घरों के लिए यह सब फिजूलखर्ची बेकार की बात है। एक 18-इंच (45-सेमी) चौड़ी पत्थर की दीवार नींव के आधार के लिए पर्याप्त होती है। ऐसी नींव आसानी से दीवार, छत और ऊपरी मंजिलों का भार सह लेगी। खाई को नींव की दीवार जितना चौड़ा ही खोदना चाहिए, जिससे कि बाद में खाई की पटाई की जरूरत ही न पड़े। इस तरह पानी कम रुकेगा और पानी के रिसनपे से ऊपर की मिट्टी की दीवार को कम नुकसान होगा।
बारिश
कई मरतबा मिट्टी की नींव भी पर्याप्त हो सकती है। हो सकता है कि ऊपरी सतही मिट्टी मुलायम हो परंतु निचली मिट्टी इतनी कठोर हो कि आराम से एक-मंजिले मिट्टी के मकान के घर का भार संभाल सके।
इसके लिए पहले तो आप एक सामान्य खाई खोदें, जैसा कि पत्थर या ईंटों की नींव के लिए खोदते हैं। अब खोदी हुई मिट्टी को थोड़े से पानी में गूंथ कर उसे खाई में 6 से 9-इंच की ऊंचाई तक पाट दें। इस गीली मिट्टी को धुरमुस से खूब ठोकें। फिर थोड़ी गीली मिट्टी डालें और दुबारा ठोकें। यह तब तक करें जब तक पूरी खाई भर न जाए। अगर आपके इलाके में बांस (अच्छा और पका बांस) मिलता हो, तो बांस को चीरकर उसकी लम्बी खपच्ची बना लें। खाई में शुरू की 6-इंच मिट्टी भरने और ठोकने के बाद चिरे बांस को बिछाएं। इसे तब तक दोहराएं जब तक खाई भर न जाए।
मैंने इस पुस्तक के शुरू में ही कहा था कि मिट्टी की दीवारों का सबसे बड़ा दुश्मन पानी और सीलन है। अपनी दीवार को सूखा रखने के लिए आपको कोई इंजीनियर या आर्कीटेक्ट होना जरूरी नहीं है। इसके लिए आपको सिर्फ सामान्य ज्ञान की जरूरत है। आधुनिक, फैशनेबिल, घनाकार घरों के लिए मिट्टी की दीवारें ठीक नहीं हैं। किसी भी दीवार को बारिश या धूप से बचाने का सबसे अच्छा तरीका है कि छत काफी दूरी तक दीवार के बाहर लटके। सपाट छतों की बजाए ढलान वाली छतें ज्यादा अच्छी होती हैं क्योंकि उनमें दीवार का इतना ऊंचा होना जरूरी नहीं है।
बारिश से बचाव
छत को दीवारों के बाहर लटका होना चाहिए।
अगर आपकी छत दीवारों के काफी बाहर तक निकली है और लटकी भी है, तब भी छत से नीचे गिरने वाला पानी समस्या पैदा कर सकता है। पानी के छींटे दीवार के निचले हिस्से को धीरे-धीरे खा जाएंगे।
इस तरह के ग्रामीण घर पूरे देश में कहीं भी देखे जा सकते हैं। हम को पानी की छीटों से बचाव के लिए कुछ कदम उठाने चाहिए।
अगर आप मिट्टी के घर की निचली दीवारों को पानी की छीटों और बौछार से नहीं बचाएंगे, तो धीरे-धीरे दीवार से मिट्टी कट-कट कर बह जाएगी और दीवारें ऐसी दिखने लगेंगी।
बारिश के गिरते पानी और छींटों से बचाव का एक रास्ता और भी है। गौर से देखें कि बारिश का पानी कहां पड़ता है, और वहीं पर एक नाली खोद दें। अब बारिश का पानी सीधा नाली में गिरेगा और केवल नाली की दीवारों से टकराएगा। उसके बाद पानी नाली में से होकर कहीं दूर बह जाएगा। इस तरह पानी घर के पास नहीं रिसेगा, और घर की नींव गीली और कमजोर नहीं होगी।
तेज बारिश से सुरक्षा
घर के चारों ओर पक्की नालियां बनाएं जिसमें पानी सीधा गिरे और दूर बह जाए।
तेज बारिश के पानी से बचाव का एक और तरीका है। घर के चारों ओर एक ढलुआ दीवारनुमा कवच बनाएं। आप इसे मिट्टी ठोक कर बना सकते हैं या मिट्टी की ईंटों से बना सकते हैं। ढाल के ऊपर पतले और अच्छे मसाले से प्लास्तर करें। इसके लिए साधारण पकी ईंटों या पत्थर का इस्तेमाल करें। परंतु मिट्टी की तुलना में यह तरीका अधिक मंहगा पड़ेगा।
तेज बारिश से सुरक्षा
दीवार के नीचे एक ढलान वाला कवच बनाएं।
रिसती छत
ऐसी छतें जिनमें से पानी चू-कर गिरता हो, मिट्टी की दीवारों के लिए बहुत खराब है। चू-कर गिरता पानी मिट्टी की दीवारें सोखती हैं और कमजोर हो जाती हैं। अगर कभी आपको दीवार के ऊपर कोई छोटा भी सीलन का चकत्ता दिखे, तो तुरंत आप छत के ऊपर देखें कि वहां कोई कबेलू खिसक या चटक तो नहीं गया है। या छत की फूस चिड़ियों या कीड़ों ने उखाड़ तो नहीं दी है। जिस भी कारण से पानी चू-कर गिरता हो, उसे रोकना जरूरी है। चिमनी के अंदर से भी पानी घर में आ सकता है। इससे अन्य दीवार भीगकर कमजोर हो सकती है। इसलिए चिमनी के ऊपर छत जरूरी है। दूसरी ओर चिमनी जहां छत से मिलती है वहां से भी बारिश का पानी रिसकर अंदर आ सकता है। उससे भी हिफाजत चाहिए।
छत की दीवारों और मुख्य दीवार के बीच कुछ वाटर-प्रूफिंग यानी पानी से हिफाजत जरूरी है, नहीं तो रिसकर पानी नीचे आएगा और मुख्य दीवार को कमजोर बनाएगा। छत का पानी बह जाने के लिए नाली में जो पाइप लगे होते हैं वो कई बार बहुत छोटे होते हैं। उनमें से बहता पानी कई बार हवा के झोंको से वापिस दीवार से टकराता है। इससे दीवार गीली और कमजोर होती है।
खिड़की के छज्जे से भी पानी रिसकर दीवार को गीला कर सकता है। इसके लिए जरूरी है कि छत दीवार से थोड़ा बाहर को निकली हो। खिड़की की चौखट को दीवार की बाहरी सतह के समतल लगाएं। खिड़की का ओटा अधिक बाहर को न निकले क्योंकि वहां से पानी रिसने की गुंजाइश है।
नमी या सीलन दीवार पर नीचे से चढ़ सकती है, जिससे नुकसान हो सकता है। सीलन से बचाने के लिए नीचे कुछ वाटर-प्रूफिंग करना जरूरी है।
मिट्टी के मकानों में भी गुसलखाने की दीवारों की सुरक्षा ग्लेज्ड टाइल्स या वाटर-प्रूफ सीमेंट से की जा सकती हे। मिट्टी की दीवार की भी इसी तरह सुरक्षा करना जरूरी है। गुसलखाने के फर्श और थोड़ी ऊंचाई तक दीवारों को भी वाटर-प्रूफ बनाना जरूरी है जिससे पानी रिसकर दीवार की नींव को कमजोर न कर सके।
नींव या आधार
भूकम्प के क्षेत्र दो तरह के होते हैं। एक तो वो इलाके जहां समय-समय पर भीषण भूकम्प आते हैं, जो एकदम तबाही लाते हैं। इन ऐतिहासिक दुखद घटनाओं में सभी इमारतों को नुकसान पहुंचता है और सभी मकान चाहें वे पक्के हों या कच्चे गिर जाते हैं। दूसरी ओर अन्य इलाकों में - मिसाल के तौर पर दिल्ली (उत्तर-पश्चिम) और अंडमन द्वीप (दक्षिण-पूर्व) भूकम्प के कम-प्रभाव (5 से कम) के क्षेत्र में आते हैं। इन इलाकों में लोगों को मालूम भी नहीं पड़ता कि भूकम्प कब आया और गया। इन हालातों में अक्सर पक्के मकानों को कच्चे मकानों की अपेक्षा ज्यादा नुकसान पहुंचता है। इसका एक कारण यह भी है कि पक्के प्लास्तर वाले मकानों में दरारें एकदम छिंटकती हैं, और उन्हें ठीक कराने के लिए तुरंत राज-मिस्त्री और पेंटर को बुलाना पड़ता है। जबकि मिट्टी के लौंदो या ‘वाटल और डौब’ या मिट्टी-ठोक कर बने घरों में पड़ी दरारों को घर की औरतें थोड़ी सी मिट्टी और गोबर से लीप देती हैं। थोड़ी सी देर में दरार का कोई निशान भी नहीं रहता! ‘वाटल और डौब’ तकनीक भूकम्प वाले इलाकों के लिए शायद मिट्टी के घरों में सबसे श्रेष्ठ है।
बाढ़ वाले इलाके
बाढ़ वाले इलाकों में सिर्फ मिट्टी के मकान बनाना मूर्खतापूर्ण होगा। अगर बाढ़ 20 साल में एक बार भी आती है तो इसका मतलब होगा कि बीसवें साल में अवश्य प्रलय आएगी। पश्चिम बंगाल में बाढ़ के समय मिट्टी के घरों से बने गांव के गांव ध्वस्त हुए दिखाई देते हैं। पर जो मकान ‘वाटल और डौब’ तकनीक से बने हैं उनका ढांचा बरकरार रहता है। उनका सिर्फ मिट्टी का प्लास्तर धुल जाता है।
भूकम्प
मिट्टी के घर बनाते वक्त एक और बुनियादी समस्या आड़े आएगी। आपका मिट्टी का घर कौन बनाएगा? अगर आपके पास वक्त हो और आपकी रुचि हो तो आप स्वयं ही मिट्टी का घर बना सकते हैं। नहीं तो आपको उन लोगों को खोजना पड़ेगा जो परम्परागत मिट्टी के घर बनाते हैं। यह समस्या ग्रामीण इलाकों और छोटे शहरों में शायद इतनी गंभीर न हो, परंतु बड़े शहरों में यह समस्या काफी विकराल रूप धारण कर सकती है। हो सकता है कि शहरी विकास प्राधिकरण आपको मिट्टी में निर्माण की इजाजत ही न दे।
आपसे कई लोग यह भी कहेंगे कि शहर में मिट्टी कहां से लाओगे, इसलिए शहर में मिट्टी के मकान बनाने का इरादा छोड़ दो। इन लोगों को यह याद दिलाना पड़ेगा कि शहर में सीमेंट, पक्की ईंट और स्टील भी नहीं बनता है। अगर आप यह सब सामान बाहर से ला सकते हैं तो निश्चित ही मिट्टी भी ला सकते हैं।
अब देश में ऐसी कई संस्थाएं हैं, जिनमें नौजवान और उच्च शिक्षा प्राप्त वैज्ञानिक काम कर रहे हैं। इन लोगों को निर्माण की तकनीकों की कुछ वास्तविक जानकारी भी है। यह लोग करोड़ों बेघर लोगों को घर उपलब्ध कराने की नियत से वैकल्पिक तकनीकों को खोज रहे हैं। इस पुस्तक के प्रकाशक - ‘कास्टफोर्ड’ या नई दिल्ली में ‘हुडको’ या ‘कपार्ट’ आपको उन संस्थाओं के सम्पर्क सूत्र बता देंगे जो मिट्टी के घर बनाने में आपकी मदद कर सकते हैं।
कौन बनाएगा आपके लिए मिट्टी का घर?
मिट्टी की एक बेहद खूबसूरत और अच्छी बात यह है कि अलग-अलग मिट्टियों में बहुत विविध ता है, और हरेक मिट्टी का अपनर कोई खास गुण है।
सारी मिट्टी भगवान की देन है। और न कि मशीन निर्मित जिस पर क्वालिटी का मानक ठप्पा लगाया जा सके। मिट्टी का भंडार भी अपारए अपरम्पार है। इसलिए कई विशेषज्ञों को, खासकर इंजीनियरों को मिट्टी से प्यार तो दूर, बेहद बौखलाहट है। इसका कारण है कि हरेक को अपनी मिट्टी की पूरी जानकारी होनी चाहिए और उन्हें मिट्टी को इस्तेमाल करना आना चाहिए। हरेक महिला की आंखें सुंदर और बाल आकर्षक होते हैं। हरेक महिला के होंठ खूबसूरत होते हैं। पर आदर्श आदमी की हैसियत से आपको अपनी विशिष्ट महिला के साथ प्यार, मुहब्बत और समझदारी के साथ रहना सीखना होगा।
मिट्टी के साथ अगर आप अपनी बीबी जैसा बर्ताव करेंगे तो आपके पास सारी जिंदगी के लिए एक खूबसूरत घर होगा।
--
(अनुमति से साभार प्रकाशित)
COMMENTS