कहानी - औरत एक दहलीज है

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विनिता राहुरीकर   अमित कार की डिग्गी से सामान निकाल कर बाहर रखते जा रहे थे। आदित्य और आशी बैग उठाकर घर के अंदर ले जाकर रख रहे थे। विभा पि...

विनिता राहुरीकर

 

अमित कार की डिग्गी से सामान निकाल कर बाहर रखते जा रहे थे। आदित्य और आशी बैग उठाकर घर के अंदर ले जाकर रख रहे थे। विभा पिछली सीट पर रखा छोटा-मोटा सामान समेटने लगी।

घर के अंदर आते से ही सबसे पहले विभा ने शॉल निकालकर एक ओर रख दिया। ये ठंड की शादियों में भी बड़ी मुसीबत है। हर ड्रेस के मैचिंग का स्वेटर शॉल अलग से रखो। चार लोगों के कपड़े जितने नहीं हुए उससे ज्यादा जगह तो इन गरम कपड़ों ने घेर ली। पूरे दो बैग भरकर तो बस ऊनी कपड़े ही हो गये। और बाकी कपड़े अलग। छः बैग हो गयी थी। घर की शादी थी। विभा की जेठ की लड़की की शादी। जाना भी तो पाँच दिनों के लिये था। अब शादी में सुबह से रात तक कोई एक ही कपड़े में तो रहता नहीं है तो एक दिन के दो जोड़ तो रखने ही पड़ते हैं। चारों के मिलाकर तो ढेर कपड़े हो गये। और उस पर ये ऊनी कपड़े।

कमरे में रखे बैग्स का ढेर देखकर विभा को थकान हो आयी। जाते समय तो उत्साह से भरे होने के कारण पैकिंग फटाफट हो जाती है लेकिन अब आने के बाद थकान के कारण उन्हीं बैग्स को खाली करके सामान वापस जमाने के नाम से रोना आ रहा है।

विभा ने आदित्य से बोलकर फिलहाल तो सामान बेडरूम में रखवा दिया। दोपहर को देखा जायेगा। उज्जैन से भोपाल आते हुए रास्ते में एक ढ़ाबे पर पेट भर नाश्ता करने के साथ ही विभा ने दोपहर के लिए सब्जी रोटी भी पैक करवा ली थी। पता था एक तो खुद भी थकी हुई थी तो आते साथ ही खाना बनाने की दम नहीं थी और अमित को भी जल्दी ही ऑफिस जाना था तो उतना समय भी नहीं था।

अमित नहाने चले गये और दोनों बच्चे अपने कमरे में जाकर सो गये। चार रातों से जगे हुए जो थे। विभा ने भी नहाकर झटपट गरमा-गरम चाय बना ली। अमित के लिये टिफिन में सब्जी रोटी रख दी

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अमित नहाकर आए तो दोनों टेबल पर बैठकर चाय पीने लगे। अचानक अमित को जैसे कुछ ध्यान आया विभा से पूछने लगा -

''नेहा के दोनों बच्चों को पैसे दिये थे ना तुमने हाथ में कि नहीं ?''

''हाँ दे तो दिये थे। आपके सामने ही तो पर्स से निकाले थे।''

''हाँ निकाले तो थे पर दिये कि नहीं ये मुझे क्या पता। मेरे सामने नहीं दिये ना।'' अमित ने ठंडे स्वर में कहा।

''तब आप कार में सामान रख रहे थे। और जब मैनें बच्चों को देने के लिए शगुन के पैसे निकाले थे तो दूंगी ही, वापस अपनी पर्स में तो नहीं रख लूंगी।'' विभा तुर्श स्वर में बोली।

''मैंने देखा नहीं इसलिये पूछा लिया।'' अमित का स्वर वैसा ही ठंडा था।

''जाओ तो अभी नेहा को फोन लगाकर पूछ लो कि मैंने उसके बच्चों को पैसे दिये कि नहीं।'' विभा के स्वर में तल्खी आ गयी। गले में चाय का स्वाद कड़वा हो गया।

अमित ने कुछ कहा नहीं चाय का खाली कप टेबल पर रखकर ऑफिस चला गया। विभा का मन अफसोस से भर गया। अमित ऐसा सोच भी कैसे सकता है। इसका मतलब है सुबह वहाँ से चलने के समय से ही अमित के मन में ये बैचेनी चल रही होगी। बच्चों के सामने पूछा नहीं लेकिन मौका मिलते ही मन का पाप बाहर आ गया।

मतलब पति को आज भी उस पर भरोसा नहीं है। उन्हें ऐसा लगता है कि उनके कहने के बावजूद वह उनके भाई की बेटी के बच्चों के हाथ में आशीर्वाद स्वरूप कुछ नहीं देंगी। इतना बड़ा लांछन ? पति को दिखाने के लिये वो पैसे बाहर निकालेंगी और फिर नजरें बचाकर वापस रख लेंगी क्या ?

अमित ने एक बार भी यह नहीं सोचा कि हजार रूपये बचाकर विभा कौन सा महल खड़ा कर लेगी। विभा पर ऐसा ओछा संदेह वो भी उस भाई के परिवार के कारण जिन्होंने रूपये के लेन-देन के मामलों में न जाने कितनी बार अमित को धोखा दिया होगा।

याद आया बीस बरस पहले जब शादी को कुछ ही माह हुए थे तब भी ऐसा ही एक सवाल पूछा गया था। ''श्याम को घी परोसती हो कि नहीं दाल में ?''

तब देवर साथ में ही रहता था। विभा ने उस समय दुःख और क्षोभ में खाना नहीं खाया था दो दिन तक। ऐसा तुच्छ विचार कि वह पति को दाल में घी परोसेंगी और देवर को नहीं, कभी भी उनके मन में नहीं आया, लेकिन जो सात फेरे लगाकर, सात जन्में का साथ निभाने का वचन देकर, महज विश्वास की एक नाजुक डोर से बांधकर हमेशा के लिए इस घर में लेकर आया है, उसी के मन में विभा, अपनी सहचरी को लेकर इतना संदेह। मन में पत्नी रूपी स्त्री के प्रति ऐसी सोच लेकर भी पुरूष उसके साथ पूरी उम्र गुजारता है, उसे अपनी संगिनी, सहधर्मिणी कहता है और इक्कीस वर्ष बाद भी वह दुराव वह संदेह आज भी मन में वैसा ही ताजा है, जबकि वह पूरी निष्ठा से अपने सारे कर्तव्य निभाती आयी है पतिगृह में।

आज उसे समझ आया माँ क्यों बार-बार कहती थी ''औरत एक दहलीज है।'' माँ का दुःख उसकी पीड़ा, उसके अंतर्मन का हाहाकार उसे आज समझ आया था।

बात एक चम्मच घी कि या हजार रूपये की नहीं मानसिकता की है, विश्वास की है, जिस पर आप अपना सर्वस्व अपनी पहचान तक न्यौछावर कर देते हो, जिसका घर बनाने में आप अपना जीवन उसकी नींव भरने में अर्पित कर देते हो, उसी की ऐसी..........।

कभी अपने घरवालों से नहीं पूछा होगा अमित ने कि विभा के लिए क्या किया।

याद नहीं करना चाहा हमेशा कड़वी बातों और घटनाओं को विभा ने थूक ही दिया, पर आज एक-एक कर ऐसे संशयों के कितने सारे नाग मन में फन उठाकर याद आने लगे। अमित के ऐसे व्यवहार, उपेक्षा, परायेपन के नाग।

घर में सामान, सोने, जमीन-जायदाद के बंटवारे हुए बेचे गये। अमित हमेशा अकेले जाते, क्या बिकता, कितने में बिकता किसको दिया जाता ना अमित ने ही कभी बताया ना विभा ने पूछा। दूसरी बहुओं की तरह कभी हिस्से के लिये झगड़ने नहीं गयी। उसे क्या करना, अमित जितना कमाते हैं उसके लिये वही बहुत है।

बात ज्यादा बड़ी नहीं थी मगर उसके पीछे के भाव इतने गहरे थे कि मन में बहुत गहराई तक धंस गये।

आज विभा को माँ की बहुत याद आ रही थी। कब उसने कुछ बैग खाली किये, बिना धुले और धुले कपड़े अलग किये, कब गहने सामान सहेजकर लॉकर में रखा उसे कुछ पता नहीं। उसके सामने तो बस माँ की वह मूर्ति ही जमकर बैठी थी। बचपन से ही विभा देखती आयी थी भरे-पूरे ठाठबाट संपन्न, समृद्ध घर में भी माँ कभी-कभी हताश सी साँस भरकर कहती थी ''औरत एक देहरी है बस देहरी, और कुछ नहीं।''

तब उस उम्र में विभा को बहुत आश्चर्य होता था, इतना बड़ा समृद्ध, सुखी घर परिवार, और फिर भी माँ कभी-कभी अचानक इतनी दुःखी इतनी अकेली सी क्यों लगती है। जब कभी माँ बरामदे की दहलीज की लकड़ी की चौखट को बड़े लाड़ और अपनेपन से सहलाती तब हँसी भी आती और अंदर ही अंदर दिल रोने को हो आता कि कहीं मेरी माँ पागल तो नहीं हो रही, और विभा दौड़ कर माँ के सीने से चिपट जाती।

इस उम्र में जाकर विभा को माँ का दुःख समझ आया शरीर पर लदे किलो भर सोने के गहनों से औरत सुखी नहीं होती, सुखी होती है अपने परिवार का विश्वसनीय हिस्सा बनकर, अपने घर में अपना अधिकार पाकर, अपने व्यक्तित्व की ठोस उपस्थिति जताकर। मगर कितनी औरतों को वास्तविक अर्थों में घर में उनकी जगह मिलती है।

अधिकांश तो अपने घर के भुलावे में ही उम्र काट देती हैं। घर की देहरी और माँ एक दूसरे की तत्सम् थी। दोनों घर के भीतर ना आ पाने के कारण दुःखी थी और सांझ की निःस्तब्ध बेला में दोनों एक दूसरे के साथ अपना दुःख बांटती थीं। घर की दहलीज जैसे कभी घर के अंदर नहीं आ पाती और उखड़कर बाहर भी नहीं जा पाती वैसे ही।

बरामदे के किवाड़ से सर टिकाकर बैठी विभा सांझ ढले तक आँखों से न जाने इक्कीस वर्ष की कितनी पीड़ाओं को बहाती रही। कंधे पर किसी का स्पर्श पाकर चौंक गयी। जल्दी से आँसू पोंछकर देखा, हाँथ में चाय की ट्रे लेकर आशी खड़ी थी।

आशी ट्रे नीचे रखकर विभा के कंधे पर सिर रखकर वहीं बैठ गयी। विभा की आँखें फिर से नम हो गयी। पिता विरासत में धन संपत्ती देता है, लेकिन माँ अपनी बेटी को विरासत में देहलीज का श्राप देती है। पिता के घर से उखड़कर पति के घर में चुन दी जाती है, औरत एक देहलीज है।

 

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रचनाकार: कहानी - औरत एक दहलीज है
कहानी - औरत एक दहलीज है
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रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2015/05/blog-post_74.html
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