प्रो0 योगेश अटल भारतीय स्वतंत्रता प्राप्ति के 55 वर्ष होने के पश्चात, और 21वीं शताब्दी में प्रवेश के तुरंत उपरांत, भारतीय नागरिक को सूचना ...
प्रो0 योगेश अटल
भारतीय स्वतंत्रता प्राप्ति के 55 वर्ष होने के पश्चात, और 21वीं शताब्दी में प्रवेश के तुरंत उपरांत, भारतीय नागरिक को सूचना का अधिकार मिला है। वैसे तो हमारे संविधान की धारा 19(1) के तहत हमें बोलने और अभिव्यक्त करने का मूलभूत अधिकार प्राप्त था। किन्तु उस अधिकार के दायरे में सूचना के अधिकार का स्पष्ट उल्लेख नहीं था। समाजवादी नेता राजनारायण ने इसी कारण सर्वोच्य न्यायालय में याचिका देकर 1976 में यह प्रश्न उठाया था। उनका यह तर्क था कि यदि व्यक्ति को किसी चीज का पता ही नहीं है तो वह किस प्रकार अपनी बात व्यक्त कर सकता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर अपनी सहमति व्यक्त की और कहा कि सूचना का अधिकार संविधान की धारा 19 में सन्निहित है। सर्वोच्च न्यायालय का यह भी कहना था कि एक प्रजातंत्र में जनता ही सर्वेसर्वा होती है और इसलिए उसे यह जानने का अधिकार है कि सरकार किस प्रकार काम कर रही है। सरकार का सारा काम काज जनता द्वारा करों के रूप में दिये गए धन से संपादित होता है इसलिये करदाता का यह अधिकार बनता है कि वह यह जाने कि उसके द्वारा दिये गये धन का किस प्रकार उपयोग किया जा रहा है। संविधान की इस धारा विशेष की सर्वोच्च न्यायालय द्वारा व्याख्या किये जाने पर भी जन साधारण राजकीय विभागों में उपलब्ध सूचनाओं तक नहीं पहुंच पाता था। सर्वोच्च न्यायालय के महत्त्वपूर्ण निर्णय के बाद भी 25 वर्षों तक स्थिति यथावत् बनी रही। कुछ जनप्रतिनिधियों के अथक प्रयास से देश के नौ राज्यों ने सूचना के अधिकार के अधिनियम बनाये। बाद में अक्तूबर 2005 में जाकर केन्द्र सरकार ने भी सूचना के अधिकार का अधिनियम पारित किया और शीघ्र ही वह क्रियान्वित हुआ। भारत आज विश्व के उन 65 देशों में से एक है जहां सूचना का अधिकार प्रचलन में है। भारत में इस दिशा में एक जनमत तैयार करने में स्वर्गीय श्री एच.डी.शोरी की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही हैं। जनहित में न्यायालयों में याचिकाएं प्रेषित करने की दिशा में भी उनके प्रयास सराहनीय रहे हैं। अपने अधिकारों के प्रति सजगता जागृत कर सूचना क्रान्ति के इस युग में भारतीय प्रजातंत्र को मजबूती देना उनके जीवन का लक्ष्य बन गया था। इस अवसर पर उन्हें स्मरण करना और उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करना आवश्यक है।
सन् 1976 में राजनारायण जी ने जो प्रश्न उठाया था वह बड़ा समीचीन था। ज्ञान का समाजशास्त्र मानता है कि ज्ञान में शक्ति होती है। ज्ञान का कलेवर सूचानाओं से बनता है। जिनके पास सूचनाएं होती हैं वे शक्ति संपन्न होते हैं। अंग्रेजों की परतंत्रता में भारतीयों की शक्तिहीनता का कारण सूचना का अभाव था। सूचना संपन्न अंग्रेजी शासन और उनके अधीनस्थ अफसर और बाबू आम आदमी का शोषण और दमन कर सकते थे। यातायात और संचार के माध्यमों का हमारी दासता के युग में विस्तार करने का कारण भी यही था। शासक की आवश्यकता थी कि अपने शासित प्रदेशों के बारे में खुफ़िया जानकारी जल्दी से जल्दी उनके पास पहुंच सके और उसके आधार पर उनके आदेश और फरमान त्वरित गति से भेजे जा सके। उस समय उनके लिये 'गोपनीयता' बनाये रखना आवश्यक था। इसीलिये कानून 1889 में बनाया गया जिसका 1923 में संशोधन किया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी सरकारी विभाग इसी अधिनियम का सहारा लेकर सूचना को गुप्त रखते हैं। फाइलों में बंद और मशीनों के अभाव में मानवीय श्रम द्वारा उन्हें जमा करना और ढूँढ निकालना बड़ा कठिन कार्य है : समय और श्रम दोनों ही दृष्टियों से। फोटो कॉपी की सुविधा के अभाव में रजिस्ट्रार के दफ्तर में रजिस्टर किये जाने वाले दस्तावेजों को अहलकार लोग हाथों से अपनी पंजी में लिखते थे। सब कुछ बड़ा श्रमसाध्य था। आज भी कई कार्यालयों में यही प्रथा प्रचलित है।
स्पष्ट है कि ऐसी व्यवस्था से लालफीताशाही बढ़ती गई। जो सूचनाओं को सहेज कर रखते थे उनकी महत्ता बढ़ जाती थी। सूचना देने से मना करने में परपीड़न का सुख तो मिलता ही था, पर एक छोटे कर्मचारी को रिश्वत लेकर सूचना बेचने का मौका भी मिल जाता था। 'गोपनीयता' के बहाने अधिकारी अपने कार्यकलाप में बेईमानी, धोखाधड़ी और जालजासी भी कर सकता था। यही कारण है कि ब्यूरोक्रेसी का अर्थ आम लोगों के संज्ञान में देरी, कानूनी दावपेच, परपीड़न और अकुशलता का पर्याय बन चुका है। नियमों की आड़ में सूचना को पहुँच से परे रख कर नौकरशाह बाधा के बंधुर खड़े कर देते हैं। ऐसा नहीं है कि सभी नौकरशाह अकुशल या बेईमान हेाते हैं। किन्तु उनकी यही आम छवि बन गई है। यदि कोई अफसर इस परंपरा का उल्लंघन करता है तो उसे अपने सहयोगियों की आलोचना का आखेट बनना पड़ता है। इतना होते हुए भी कुछ नये विचारों के अधिकारियों ने इस तंत्र को बदलने की चेष्टाएँ की और उसका ही परिणाम है कि आज सूचना का अधिकार एक यथार्थ बन पाया है। ऐसे कई उदाहरण खोजे जा सकते हैं जहाँ अधिकारियों ने ही तंत्र बदलने के लिये कदम उठाए और उसके लिए कष्ट भी सहे। ऐसे अफ़सरों को, जिन्होंने रिकार्डों को ठीक से पंजीकृत करने की दिशा में कदम उठाये, बार बार तबादलों का सामना करना पड़ा और सजा स्वरूप उन्हें महत्वहीन पदों या स्थानों पर भेज दिया गया ताकि उन्हें शक्तिहीन होने का आभास हो। और उनके स्थानांतरित होने के बाद तुरंत ही पुराना ढर्रा फिर से स्थापित कर दिया गया।
कुछ दम खम वाले अधिकारियों ने फिर भी इस प्रक्रिया में सेंध लगाने में सफलता पाई। 1985 में कर्नाटक राज्य के करवार जिले के कलेक्टर ने साहस कर वाहन खरीदने के लिये आवंटित धन की कुछ राशि लेकर अपने कार्यालय में कम्प्यूटर खरीदे और उनका उपयोग उसने अपने निरीक्षण कार्य से जुड़ी रिपोर्टों को रिकार्ड करने के लिये किया। इससे जिले के विकास कार्यो को 'मॉनीटर' करने में बड़ी सहायता मिली और कार्यकुशलता में वृद्धि हुई। उनके प्रयोग के अनुभव के आधार पर CRISP नाम का प्रोजेक्ट तैयार हुआ। यह ComputerÁed Rurel Information System Project अन्य क्षेत्रों में भी दुहराया गया।
महाराष्ट्र के एक जिले में, और मध्य प्रदेश में कुछ सरकारी विभागों ने, Photocopy की सुविधा का प्रयोग आरंभ किया जिसके माध्यम से जनता अपने उपयोग के लिये दस्तावेजों की फोटो कॉपी करवाने लगी। राजस्थान में एक आई.ए. एस. अधिकारी ने अपने पद से त्यागपत्र देकर एक NGO खड़ा किया और उसके माध्यम से पंचायतों के कामकाज पर निगरानी रखने के लिये सूचना के अधिकार की मांग रखी। पंचायत स्तर पर विकास कार्यों के लिये आवंटित धन के गड़बड़ घोटालों को रोकने के लिये सूचना का अधिकार एक महत्वपूर्ण अधिकार था। इस मांग का विरोध न केवल विभागीय अधिकारियों ने किया वरन् जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों ने भी किया क्योंकि वे स्वयं भी भ्रष्टाचार के प्रमुख हिस्सेदार थे।
सूचना के अधिकार का मुख्य ध्येय सरकार के कामकाज को पारदर्शी बनाना है। 'गोपनीयता' की आड़ में सरकारी कर्मचारी आम आदमी को अपने कार्य में हस्तक्षेप करने से रोकते हैं और उसे कई प्रकार से प्रताड़ित करते हैं। इस चलन को विराम सूचना के अधिकार के माध्यम से ही दिया जा सकता है।
सरकार के पास जो सूचनाएं रहती हैं, या सरकार जो सूचनाएं एकत्र करती है, वे सरकार की कार्यकुशलता और क्षमता बढ़ाने में सहायक होती है। सूचनाओं के माध्यम से ही सरकारें शासन-भार संभालती हैं। किन्तु सूचनाओं का सहारा लेकर सरकारें सुशासन भी कर सकती हैं और कुशासन भी। यदि सरकार के पास ही सूचना का एकछत्र अधिकार हो तो फिर उसका उपयोग जन-साधारण को शोषित और पीड़ित करने के लिये किया जा सकता है। ऐसी सरकारें अप्रजातांत्रिक होती हैं।
प्रजातंत्र में, इसके विपरीत जनता सर्वोपरि होती है। राज्य कर्म में रत लोग जनता के सेवक होते हैं, और इस कारण सरकार के काम काज पर नजर रखना जनता का अधिकार होता है। यह भूमिका सूचना के अभाव में संपादित नहीं की जा सकती। सरकार के पास जो सूचनाएँ रहती हैं वे मोटे रूप में निम्न वर्गों में बांटी जा सकती हैं :
1. राज्य स्तरीय सूचनाएँ
० जो सुरक्षा से संबंधित हैं।
० जो सामाजिक-आर्थिक सांख्यकी के रूप में हैं।
० जो राजकीय विधि-विधान के निर्माण और अनुपालन से संबंधित हैं।
2. व्यक्ति विशेष से संबंधित विशिष्ट सूचनाएँ
० जो सुरक्षा हित में गोपनीय है।
० जो निर्णय लेने के लिये आधारभूत है।
० जो किसी प्रक्रिया का इतिहास-स्वरूप है।
समय समय पर सरकार उन सूचनाओं को, जो प्रसारित होने योग्य होती है, प्रकाशित करती रहती है। क्या प्रकाश्य है और क्या नहीं, यह सरकार स्वयं तय करती है। वार्षिक प्रतिवेदनों, सर्वेक्षणों, अभिलेखों द्वारा ये सूचनाएँ नियमित रूप से प्रकाशित-प्रसारित होती है। देश की संसद राष्ट्र हित से जुड़ी समस्त सूचनाओं की मांग कर सकती है। इनमें क्या जोड़ा जाय इसका निर्णय चुने हुए प्रतिनिधि करते हैं।
सूचना का अधिकार इसी दिशा में एक नया चरण है जो आम नागरिक को सशक्त बनाने के उद्देश्य से पारित किया गया है। मीडिया के माध्यम से भी जन-समाज देश में होने वाली प्रतिनिधियों से अपने को अवगत कराता रहता है। मीडिया के इस अधिकार पर जब कोई सरकार अंकुश लगाती है तो उसके विरूद्ध भी आंदोलन होता है, क्योंकि यह सूचना के अधिकार का हनन माना जाता है।
सूचना के अधिकार के लिये जो आंदोलन था वह उन सूचनाओं के लिये था जो जनहित में होते हुए भी उपलब्ध नहीं कराई जाती थी। इनमें एक तो ऐसी थी जो नीचे स्तरों पर राजकीय कार्यों की समीक्षा करने के लिये आवश्यक थी। दूसरी वे जो आम आदमी की निजी समस्याओं से जुड़ी है। अपने किसी कार्य के लिये एक व्यक्ति द्वारा दी गई अर्जी पर क्या कार्यवाही हो रही है, कहां विलंब हो रहा है और क्यों हो रहा है इसे जानने का आम नागरिक के पास अधिकार नहीं था। और गोपनीयता की आड़ में भ्रष्ट कर्मचारी रिश्वत लेकर सामान्य नागरिक को तंग करते थे, और अब भी करते है। इस अधिकार से यह संभावना बढ़ी है कि नागरिक को व्यर्थ पीड़ित नहीं किया जायेगा।
इस अधिकार के उपयोग के कई उदाहरण समाचार पत्रों में यदा कदा प्रकाशित होते रहते हैं, किन्तु इसका उपयोग अभी भी सीमित मात्रा में ही है। इसका भी आकलन करना पड़ेगा कि इस अधिकार का प्रयोग कौन लोग करते हैं और किन संदर्भों में करते हैं।
सरकारी कर्मचारियों की प्रतिक्रिया को भी समझना आवश्यक है। चूंकि इस अधिकार से उनकी प्रभुसत्ता को चोट पहुँची है, यह स्वाभाविक है कि वे इसका स्वागत नहीं करते और सूचना के अधिकार का उपयोग करने वाले को रूष्ट दृष्टि से देखते हैं। वे यह भी शिकायत करते हैं कि इससे उनके काम में रूकावट पड़ती है। यह भी शिकायत है कि लोग बिना सोचे समझे इस प्रकार की सूचना मांगने लगे हैं।
अभी पिछले माह ही किसी ने भारतीय लोकसभा में 1951 से लेकर अब तक हुई सारी डिबेटों की कॉपी मांगी है। यह सही है कि आवेदक कॉपी करने के पूरे खर्च को वहन करने के लिये तैयार है पर इतनी भारी मात्रा में दस्तावेजों की कॉपी करना भी आसान नहीं है।
सूचना के अधिकार का उपयोग करने का एक अन्य उदाहरण राजस्थान के गुर्जर आंदोलन से संबंधित है। राजस्थान सरकार द्वारा गठित जांच समिति का सदस्य होने के नाते मैं उसका प्रत्यक्षदर्शी हूँ। यहाँ सूचना के अधिकार का उपयोग सरकार की अपनी फाइलों के संबंध में नहीं किया गया। वरन् आंदोलन का विरोध करने वाले पक्षधरों की ओर से यह मांग की गई थी कि गुर्जरों द्वारा समिति को समर्पित समस्त सामग्री का निरीक्षण करने की उन्हें अनुमति दी जाये।
समिति ने अपने गठन के तुरंत पश्चात् एक लोक सूचना ज्ञापित कर साधारण जनता को अपनी राय, अभ्यावेदन, संगत दस्तावेज आदि भेजने के लिये आमंत्रित किया। इसके प्रत्युत्तर में समिति को कुल मिला कर 14,625 अभ्यावेदन, 32,615 शपथ पत्र, 250 वीडियो सी डी व आडियो केसेट्स एवं दो फोटो एलबम प्राप्त हुए। अभ्यावेदनों में 73.32 प्रतिशत गुर्जरों की मांग के पक्ष में थे और 26.55 प्रतिशत उसके विरोध में थे।
गुर्जर मांग का विरोध करने वाले और अनुसूचित जनजाति के प्रवर्ग से संबंधित मीणा नेताओं ने समिति द्वारा गुर्जरों से प्राप्त दस्तावेजों और अन्य सामग्री का सूचना के अधिकार के अधीन निरीक्षण करने के लिये समिति से अनुज्ञा चाही। इसकी प्रतिक्रिया में गुर्जरों ने भी विरोधी पक्ष द्वारा प्रस्तुत दस्तावेजों का निरीक्षण करने की मांग रखी। समिति के विशेष सत्र में दोनों पक्षों ने सुप्रीम कोर्ट के, तथा राजस्थान हाई कोर्ट के अधिवक्ताओं के माध्यम से अपने अपने तर्क प्रस्तुत किये जिनके आधार पर समिति ने सूचना के अधिकार के अधीन दस्तावेजों के निरीक्षण की अनुज्ञा प्रदान की।
किन्तु गुर्जरों ने उनके द्वारा प्रेषित डी.वी.डी तथा सी.डी को निरीक्षण करने पर आपत्ति व्यक्त की। कानूनी जिरह और बहस के बाद उन्हें देखने की अनुमति इस आधार पर नहीं दी गई कि वे केवल परामर्श के लिये, न कि लोक प्रदर्शन के लिये समिति को उपलब्ध कराई गई है। कॉपीराईट एक्ट (प्रतिलिप्याधिकार विधि) के अंतर्गत उस श्रव्य-दृश्य सामग्री की गोपनीयता की सुरक्षा के लिये प्रेषकों ने याचना की थी।
यह दृष्टान्त सूचना के अधिकार की महत्ता को दर्शाता है। साथ ही इससे जुड़ी समस्याओं को भी अनावृत्त करता है। गुर्जरों ने यह आरोप लगाया कि इस अधिकार की आड़ में विरोधी पक्ष समिति के कार्य में विलंब डालने की चेष्टा कर रहा था। एक सीमित अवधि के कार्यकाल वाली समिति के लिये प्रत्येक दिन महत्व का था। समिति को इतनी ढेर सारी सामग्री को पंजीकृत कर वर्गीकृत करना था और साथ ही विभिन्न सत्रों में पक्षकारों के पक्ष की सुनवाई करनी थी। कुल मिलाकर 47-48 हजार दस्तावेजों का निरीक्षण - और वह भी दोनों पक्षों द्वारा - करना कोई सहज कार्य नहीं था। पर समिति को यह सब करना पड़ा। इस प्रक्रिया से यदि कार्य में बाधा और विलंब की दुविधाएँ आई तो साथ ही आंदोलनकारी समिति की निष्पक्षता के प्रति आश्वस्त भी हुए। प्रगट रूप से तो याचकों का अभिप्रेत यही था कि वे समिति को प्रस्तुत दस्तावेजों की विश्वसीनयता को जांचे, किन्तु साथ ही समिति के कार्य को लंबा खींचने की अप्रगट योजना भी इसके पीछे रही होगी, ऐसा कई टीकाकारों का अनुमान था।
इस समिति के कार्य में एक प्रमुख बाधा थी सूचना का अभाव। समिति के गठन का उद्देश्य था कि गुर्जरों को आदिवासी वर्ग में सम्मिलित करने का औचित्य। इसमें यह भी जानना आवश्यक था कि गुर्जर लोग राजस्थान में कहाँ कहाँ है, वे क्या करते हैं, वे पिछड़े हैं या नहीं। जब समिति ने सरकारी कार्यालयों से गुर्जर संबंधी जानकारी प्राप्त करने की चेष्टा की तो सभी ने इसमें अपनी असमर्थता जताई। उनका कहना था कि वे जातिगत सूचनाएँ एकत्र नहीं करते क्योंकि वह संविधान के विरूद्ध हैं। यदि ऐसा है तो फिर गुर्जरों से संबंधित सूचनाओं का आकलन सरकारी विभागों के माध्यम से किया ही नहीं जा सकता। गुर्जरों का यह आरोप था कि एक जन-जाति विशेष को आरक्षण का इतना लाभ मिला है कि उसके सदस्य राज्य और केन्द्र सरकार के ऊँचे ऊँचे पदों पर काफी संख्या में आसीन है।
इसकी तुलना में गुर्जरों की स्थिति क्या है? इसके आंकड़ें कहां से जुटाए जायें? जनजातियों और अनुसूचित जातियों की गणना तो उनके नाम से होती है, और यह सूचना उपलब्ध है, पर जो जातियां अब जन जाति, पिछड़े वर्ग, या अनुसूचित जनजाति में सम्मिलित होने का दावा करती है उनके बारे में सूचनाएं कहां से संजोयी जाय? जातिगत आरक्षण और जाति के उन्मूलन के प्रयासों में यह जो द्वन्द है उस ओर संभवतः सूचना के अधिकार के कारण कुछ प्रकाश पड़ सकता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अब जो 'क्रीमी लेयर' (मलाई की परत) को हटाने की बात की जा रही है, उससे यह आशा बढ़ती है कि 'जाति की राजनीति' को शायद विराम मिल जाय।
वैश्वीकरण के इस दौर में भारत ही नहीं सारा विश्व आज सूचना की अद्भूत क्रान्ति के कारण एक भिन्न स्थिति में पहुँच गया है। कम्प्यूटर की सहायता से सूचना का आकलन, उसका भंडारण, उसकी पुनःप्राप्ति, और उसके विभिन्न समायोजन आज संभव हो गए हैं। सूचना के स्रोतों की भी कमी नहीं है। एक तरह से सूचना का एकाधिपत्य ही समाप्त हो गया है। शिक्षा के निरंतर विकास से आज जागरूकता भी बढ़ रही है और जागरूक नागरिकों की संख्या भी बढ़ रही है। एक निरक्षर नागरिक को न तो इस बात का पता होता है कि उसके अधिकार क्या हैं, न वह यह जानता है कि कौन सी सूचना कहां से प्राप्त की जा सकती है, और न ही वह प्राप्त सूचना के उपयोग के बारे में ही आश्वस्त होता है। किन्तु ऐसे व्यक्तियों की संख्या निरंतर घट रही है, और शिक्षित वर्ग अपने अधिकारों के प्रति सजग हो रहा है। इससे यह आशा बंधती है कि आने वाले वर्षों में अधिकाधिक लोग सूचना के अधिकार का प्रयोग करेंगे। इस संभावना से शायद सरकारी कर्मचारी भी थोड़े सचेत हो जाएं और लालफीताशाही के कुतंत्र से बाहर आए, विलंब की नीति को त्यागे, और राष्ट्र की संपत्ति का निजी स्वार्थ पूर्ति के लिये दुरुपयोग न करे। इस सबसे भ्रष्टाचार में भी कमी आ सकती है।
आवश्यकता इस बात की है कि आम नागरिक भी अपने अधिकारों के प्रति सजग हो, और वह उनका समुचित उपयोग करें। ऐसा होने पर ही हमें अपनी औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति मिल पाएगी।
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राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, मानवाधिकार संचयिका से साभार
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