डॉ. दीपक आचार्य इंसानों की आत्मकेन्दि्रत और स्वार्थपरक फितरत देख कर यह साफ-साफ कहा ही जा सकता है कि आजकल इंसान दो किस्मों में बँटे हुए नज़र...
डॉ. दीपक आचार्य
इंसानों की आत्मकेन्दि्रत और स्वार्थपरक फितरत देख कर यह साफ-साफ कहा ही जा सकता है कि आजकल इंसान दो किस्मों में बँटे हुए नज़र आने लगे हैं। सामाजिकता को अपनाने वाले सामाजिक प्राणी समाज या समुदाय में कुटुम्बियों और क्षेत्रवासियों के साथ हिल-मिल कर रहने में विश्वास करते हैं।
दूसरी किस्म के इंसान सामाजिक प्राणी तो कहे जाते हैं लेकिन उन्हें अपने ही कुटुम्बियों, क्षेत्रवासियों और आत्मीयों से दूरी बनाते हुए रहने और जीने में आनंद आता है।
इसका कारण यह है कि ये लोग अपने आनंद, उन्मुक्त भोग-विलास और स्वार्थों को प्राथमिकता देते हैं और जो कुछ जहाँ कहीं उपलब्ध है उसे अपने नाम करने और खुद के उपभोग में लाने के लिए दिन-रात प्रयत्नशील हैं।
इस प्रजाति के लोग दुनिया भर को अपने दायरे में लाने और मनवाने के लिए हरचन्द कोशिशों में लगे रहते हैं। इंसानी कुनबे में सामाजिकता की बजाय एकान्तवाद जबर्दस्त पसरने लगा है।.
पहले इसने भारतीय संयुक्त परिवार प्रणाली का खात्मा किया और अब एकान्तिक सुख-सुविधाओं और उपभोग की ऎषणाओं ने आदमी को आदमी से दूर करने में अहम भूमिका का निर्वाह करते हुए सभी को दूर-दूर छिटका दिया है।
हर आदमी अपनी ही ढपली बजाना चाहता है, अपने ही अपने लिए जीना चाहता है और अपने ही स्वार्थों को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक गिरने और जाने लगा है।
जो जहाँ हैं वहाँ अपने आपको सार्वभौम सम्राट मानते हुए किसी दूसरे को देखना तक बर्दाश्त नहीं करता। सब को लगता है कि जैसे यह पृथ्वी, इसके सारे संसाधन, सुविधाएं और भोग उसी के लिए बने हुए हैं और दूसरे सारे लोग उसकी सेवा-चाकरी के लिए ही पैदा हुए है।
अव्वल दर्जे की इस एकान्तिकता ने आदमी को आदमी ही नहीं रहने दिया है। आदमी को इतना असामाजिक बना डाला है कि उसे अकेला रहकर धरा का उपभोग करने में ही आनंद आता है।
हर कोई अपने-अपने बाड़ों और गलियारों का शेर हुआ जा रहा है। पहले अकेला शेर जंगल का राजा हुआ करता था आज जंगल के रास्ते लौटते हुए हम सारे के सारे अपने आपको राजा मानकर एकछत्र राज्य पाने की जुगत में हैं।
समय कितना खराब आ गया है। लोमड़ और सियार तक अपने आपको सम्राट मानते हुए जगह-जगह जमे हुए हैं और बेचारे शेर छोटी सी माँद में छुप कर बैठे हुए अपने भाग्य को कोस रहे हैं।
हम सारे अपने आपको लोकमंगलकारी, विकासपुरुष, युगपुरुष और लोकप्रिय कहते हुए चाहे समाजसुधारक की पदवी से विभूषित करते रहें, चाहे अपने आपको महान सामाजिक कहलाते रहें।
मगर हम सबकी जमीनी हकीकत यही है कि हम सभी अब सिर्फ नाम मात्र के सामाजिक रह गए हैं, सामाजिकता से हमारे तार जाने कब से ही टूट गए हैं। इस मायने में हम लोग इंसान की बजाय छोटे-छोटे द्वीप ही होकर रह गए हैं। और द्वीप भी ऎसे कि जिसका अपना कोई सौंदर्य नहीं है, ऊँची-ऊँची किलेनुमा दीवारों के बीच चंद फीट के घेरों में रहकर अपने आपको द्वीप का सम्राट मान कर इतराने लगे हैं।
दुनिया का कोई सा द्वीप हो, उसका अपना अद्भुत सौंदर्य होता है जो देखने लायक भी होता है और दिली सुकून का अनुभव कराने वाला भी। इस मामले में हम द्वीपों की स्थिति विचित्र है।
हम अपने आनंद में हमेशा मस्त रहना चाहते हैं और इसलिए नहीं चाहते कि और लोग हमारे करीब आएं और आनंद में व्यवधान डालें अथवा हमारे भाग का आनंद चुरा लें। अकेले रहने, चुपचाप खा-पी जाने और पूरी दुनिया का सुख खुद ही खुद भोगने की आदत ने हमें इतना लाचार बना डाला है कि हमें अपने माता-पिता, सास-ससुर, भाई-बहन और दूसरे कुटुम्बी भी बर्दाश्त नहीं होते। आतिथ्य सत्कार और सेवा की भावना तो हम में रही ही नहीं। भूले-भटके कोई मिलने आ भी जाता है तब हमें चिढ़ छूटती है और उनसे मुक्ति पाने के लिए भगवान से प्रार्थना करने लगते हैं।
हम इस बात को भुला बैठे हैं कि एकाकीपन और अकेले ही मौज मारने की इस मानसिकता के कारण भले ही हम अपने आपको मस्त मानते रहें लेकिन हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी में हमें अपनी एकान्तिक मानसिकता के कारण ही राई जैसे दुःख पहाड़ बनकर सताते रहते हैं और पहाड़ जैसे सुखों से राई जितना आनंद भी प्राप्त नहीं हो पा रहा है।
इस रहस्य को जानने की कोशिश किसी ने नहीं की अन्यथा हमारा जीवन सामुदायिक और कौटुम्बिक माधुर्य लिए हुए होता और पूरी जिन्दगी आनंद का सागर उमड़ता रहता।
अकेले ही अकेले जीवनयापन और खुद के लिए जीने की खुदगर्जी मानसिकता ने हमें इतना अधिक और घोर असामाजिक बना डाला है कि हम अब न परिवार के कहे जा सकते हैं, न सगे-संबंधियों के, न क्षेत्रवासियों के, और न ही समाज, क्षेत्र या देश के।
हमारे लिए दो-चार जनों का परिवार ही देश होकर रह गया है जिसके लिए पूरी जिन्दगी सिद्धान्तों, आदर्शों और नीतियों की बलि चढ़ा कर भी हम वैभवशाली होना और अपने आपको बड़ा दिखाना चाहते हैं।
हमारे पास न पारिवारिक और आनुवंशिक संस्कार बचे हैं, न समाज और राष्ट्र के प्रति कोई सरोकार। अपने आप में ही मस्ती के साथ जीते हुए हम सभी को भुला बैठे हैं। इस मामले में हमने असुरों और विदेशियों को भी पीदे छोड़ दिया है।
हम ऎसे द्वीप बन चले हैं जहाँ न सौंदर्य हैं, न कल-कल का आनंद, और न ही इंसानों की खुशबू। हममें से कईयों ने अपने आपको इतना अधिक असामाजिक घोषित कर रखा है, दूरियां बना डाली हैं कि कोई हमारे करीब आने और खैर खबर पूछने का साहस भी नहीं करता।
हमारे बारे में सार्वजनीन तौर पर माना जाने लगा है कि हम अपने ही अपने लिए जीते हैं, हम न किसी के काम आ सकते हैं, न किसी के काम करते हैं, हम केवल हमारे अपने लिए ही पैदा हुए हैं और जो समय मिला है उसमें जमीन-जायदाद का भण्डार जमा करके चले जाना है।
हमारा जन्म भोग-विलास में रमने और आने वाली पीढ़ियों के लिए जमा ही जमा करते रहने के लिए हुआ है। इसी चरम लक्ष्य को लेकर आए इंसानों की भीड़ आजकल सर्वत्र व्याप्त है और इन्हीं के आस-पास उन हजारों लोगों की आत्माएं भी भटक रही हैं जो अब तक मोक्ष नहीं पा सकी हैं।
प्रेतात्माओं के संसार में खुशी है तो इस बात की कि उनकी तादाद हर तरफ बढ़ती ही जा रही है। इन भूत-प्रेतों को पक्का भरोसा है कि आदमी जिस मानसिकता के साथ जी रहा है उसमें आने वाला समय प्रेतों का ही होगा।
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- डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
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