-धनपत राय झा कवि शब्द-ब्रह्म का उपासक होता है। उसके लिए शब्द ही ब्रह्म है और शब्द ही योनि है. इसी पुरुष और प्रकृति के खेल में विभिन्न व...
-धनपत राय झा कवि शब्द-ब्रह्म का उपासक होता है। उसके लिए शब्द ही ब्रह्म है और शब्द ही योनि है. इसी पुरुष और प्रकृति के खेल में विभिन्न विचारों व्यवहारों एवं संस्कारो का जन्म होता है। जगत और समाज की इन्ही उलझनों और विद्रूपताओं की पगडण्डी पर उसकी जीवन यात्रा अनवरत चलती रहती है। अंधविश्वास की खाइयों, अहंकार के उत्तंग गिरि श्रृंगो और विकास के नारों पर मचलती चिल्लपों और विडंबनाओं के जाले में उलझता जीवन शायद जीवन का अर्थ, उसके उद्देश्य को पकड़ने का प्रयास करता है। यदा कदा संवेदनशील कवि-मन नवगीतों के हर छंद ताल पर भीगा भीगा सा महसूस करने लगता है। पुस्तक का शीर्षक ` भीग गया मन ' इस मायने में एक सार्थक प्रयास लगता है। केवल रोने रुलाने और भीगी पलकों की अभिव्यक्ति मन पर अनावश्यक बोझ डाल देती है जो कि मूलतः कवि का सम्प्रेषण नहीं हो सकता। शत्रु बन गए मित्र, आ बसे हृदय की बस्ती में अमृत विष के भेद मिट गए मगन भये मस्ती में मृदुजल कलश सँजोकर रखे, पी गए सागर खारे भीग गया मन प्रेम पगा, बुझ गए सब अंगारे आज की विसंगति पर नजर डाले तो मानव माधुर्य पूर्ण क्षणों को भी ज्ञान और विज्ञान के बोझ तले दबाने लगा है। तभी तो हर्ष और उल्लास के क्षणों में प्रेयसी के द्वारा फेके गए लाल गुलाबी रंग में भी प्रेमी नासमझी में ऐसी प्रतिक्रिया दे बैठता है कि प्रेयसी कह उठती हैं `ऐसा बोर सैयाँ ' रंग फेंका लाल गुलाबी वो ' वेवलेंथ ' की बात करने लगा बुद्ध नादान सैया आइंस्टीन को मात करने लगा समाज में ही राम और रावण दोनों का अस्तित्व है। मन की विद्रूपता से त्रस्त रावण अपनी महत्वाकांक्षा, व्यर्थ की मृगतृष्णाओं और अमरत्व की नायब आकांक्षाओं की ओट में अपने आप को छिपाने का प्रयास करता हैं। राम अब जंगल नहीं मांगेगा। धोबी के कहने पर सीता को नहीं त्यागेगा। लो, वृत्तियों की वानर सेना को मिला लंका दहन का काम अब भीतर ही लड़ लेंगे रावण और राम। जीवन की जटिलताओं के क्या कहने ? बैठे बिठाये एक दिन मिल गया उसकी भूतपूर्व पत्नी की शादी का निमंत्रण पत्र। क्या पता था अपने को पीड़ित कहने वाला खुद अपराधी निकलेगा! क्योंकि वह परले दर्जे की स्वार्थी है यह निमंत्रण कोई मुझे जलाने की तरकीब नहीं उसकी चालाकी है कि इस बहाने हमारे, पर अब केवल मेरे शिशु को साथ लाऊंगा और वह देख लेगी उसे जी भरकर अपनी आँखों से ` लगा पाएगी कलेजे से पकड़ा दिया है मुझे यह निमंत्रण निसंदेह कवि विषय की गहराइयों में उजाला खोजने की कोशिश में लगा है। उसके शब्दों के चयन में अभिधा लक्षणा और व्यंजना की मार्मिकता है। विभिन्न भाषाओं के शब्द चयन पर उसे आपत्ति नहीं है। माला में फूलों के वैविध्य से ही तो असीम सौंदर्य का सृजन होता है। अंग्रेजी और विज्ञान के शब्दों की भरमार लगा दी है- वेवलेंथ, न्यूरॉन, वेव पार्टिकल, शुगर, फायर प्रूफ, एंटेना आदि शब्दों के द्वारा कथ्य को अभिव्यक्त करता है। आज जब कवि साल मुबारक करने निकलता है तब भी क्या उसका मन किसी अनहोनी से आशंकित नहीं है? आज उसका अंतर्मन निस्संदेह किसी न किसी विभीषिका से भयभीत व त्रस्त है। यारों मुझे साल मुबारक कर लेने दो पल दो पल ख़ुशी में जी लेने दो तुम सच कहते हो कल किसी आतंकवादी बम से आसमान फट पड़ेगा तो मेरी तार तार कमीज़ से आसमान को भी सी दूंगा। अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उदघोष पूरे साहस के साथ करने के बाद भी समाज के दबावों से कितना त्रस्त है वह स्वयं ही जानता है। उसकी विवशता का एक नायाब उदाहरण है - गीता पढूं या नमाज़ कहाँ का कैसा समाज जो डाले मुझ पर दबाव यह मै और मेरा स्वभाव तभी उसे अपनी विवशताओं का भी ख़याल सताने लगता है - कि खुद अपनी इच्छा से बेटी के लिए दे रहा दहेज़ बड़े आये तुम हड्डी में कबाब कैसा और कौनसा दबाव अपना घर फूँक कर पितरों की शांति के लिए बुलाता पंडितों की फ़ौज शान से करवाता मृत्यु भोज भाड़ में जाए समाज सुधार उसे अपना स्टेटस और अहं याद आता है और फ़टाफ़ट भीगी बिल्ली बन कर उस दबाव को स्वीकार कर लेता है। अरे, एक दिन मंत्रीजी स्वर्ग सिधार गए- नरक के बजाये स्वर्ग में। क्या कहें चित्रगुप्त से भूल हुई या कम्प्यूटर से। रिश्वत की राशि का पैसा दान के अकाउंट में जमा हो गया। मंत्रीजी की छवि उभर गयी एक संत सी। पर जब उन्हें कढाई में उबाला गया तो वे स्वयं भी उबल पड़े चित्रगुप्त पर। क्या यही है तुम्हारा स्वर्ग ? नरक से भी बदतर? अब चित्रगुप्त का जवाब भी सुन लीजिये- मंत्रीजी याद कीजिये आपने देश के गद्दारों के साथ पकाई थी खिचड़ी आपको अभी कुम्भीपाक में पकाया जायेगा किये थे झूठे वायदे दिए थे झूठे आश्वासन बदले में ये नरक स्वर्ग से उल्टा स्वर्ग का शीर्षासन है ये मेनका-उर्वशी की छबियां केवल स्वर्ग का आश्वासन है कवि अपनी हृदय की अतुल गहराइयों तक जाकर समस्याओं को अनुभव करता है। जब वह इसे समाज के आगे अभिव्यक्त करता है तो लगता है कि वह समाज की विद्रूपता और उलझन का बिना घाव किये ही शल्य क्रिया प्रारम्भ कर देता है।व्यक्ति के चिंतन पर बिना हथौड़े के शब्द की चोंट करता है। शब्दों की चोंट तोप और तमंचो से भारी होती है। कंही एक पत्ता तक खड़कता या हिलता नहीं और एक महाविस्फोट से समाज और व्यक्ति में बदलाव की भूमिका तैयार कर लेता है। कवि की सशक्त अभिव्यक्ति निरंतर सचोट रहे उसकी धार पैनी से पैनी होती जाये और लेखनी अनवरत बिना थके अपनी सौगात देने में समर्थ हो इसी शुभकामना के साथ - धनपत राय झा नागरवाड़ा, बांसवाड़ा |
दिनांक ०१-०१-२०१५ |
भीग गया मन
रचनाकार: हरिहर झा प्रकाशक: हिन्द-युग्म, नई दिल्ली पृष्ठ - १६० मूल्य – २०० रू, १० डॉलर प्राप्ति स्थल: हिन्द-युग्म प्रकाशन |
"अंधविश्वास की खाइयों, अहंकार के उत्तंग गिरि श्रृंगो और विकास के नारों पर मचलती चिल्लपों और विडंबनाओं के जाले में उलझता जीवन शायद जीवन का अर्थ, उसके उद्देश्य को पकड़ने का प्रयास करता है। यदा कदा संवेदनशील कवि-मन नवगीतों के हर छंद ताल पर भीगा भीगा सा महसूस करने लगता है। पुस्तक का शीर्षक ` भीग गया मन ' इस मायने में एक सार्थक प्रयास लगता है।"
ISBN 9789381394892
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