डॉ सुभाष शर्मा सूचना का अधिकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का विस्तार और शासन की पारदर्शिता का अविच्छिन्न अंग है। यह एक आधुनिक अवधारणा है। मगर...
डॉ सुभाष शर्मा
सूचना का अधिकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का विस्तार और शासन की पारदर्शिता का अविच्छिन्न अंग है। यह एक आधुनिक अवधारणा है। मगर शासन-प्रशासन पर जनता के विवेकसम्मत नियंत्रण और पारदर्शिता एवं उत्तरदायित्व के नाना रूप प्राचीन काल में भी प्रचलित थे। उदाहरणार्थ, मनुस्मृति में कहा गया है :
क्षत्रियस्य परो धर्मः प्रजानामेव पालनम्।
निर्दिष्ट फल भोक्ता हि राजा धर्मेण युज्जते।।
अर्थात् राजा का सर्वोच्च कर्तव्य अपनी प्रजा का संरक्षण है; जो राजा अपनी प्रजा से कर प्राप्त करता है तथा उसका संरक्षण करता है, वह धर्म के अनुसार कार्य करता है। इसीलिए भारतीय परम्परा में 'राजधर्म' की अवधारणा मौजूद है। कल्हण ने 'राजतरंगिणी' (जो संस्कृत भाषा में कश्मीर का इतिहास है) में स्पष्ट उल्लेख किया है कि शासन द्वारा किसी नागरिक की जमीन उसकी सहमति के बिना नहीं ली जाये, यहां तक कि मंदिर निर्माण के लिए भी नहीं ली जाये। वहीं दूसरी ओर भू-अर्जन अधिनियम 1894 के तहत (जिसे ब्रिटिश शासन ने औपनिवेशिक हितों की पूर्ति हेतु बनाया था) आजकल 'लोक उद्देश्य के नाम पर भूस्वामी की सहमति की परवाह किये बिना औद्योगिक घरानों, भवन निर्माताओं और अन्य निजी प्रतिष्ठानों के लिए औने-पौने दाम में किसानों की जमीन का अधिग्रहण राज्य सरकार द्वारा कर लिया जाता है भले किसान प्रतिरोध करते हैं (जैसे नन्दीग्राम और सिंगूर में)।
अथर्ववेद में राजा और प्रजा दोनों पर नियंत्रण की बात कही गयी है- 'ब्रह्मणचर्मेणा तपसा राजा राष्ट्रं विरक्षति'। फिर 'महाभारत' में कहा गया है 'न हि मनुषात्परतरं किंचिदस्ति' (मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है)। 'कौटिल्य ने 'अर्थशास्त्र' में विस्तार से कहा है :
प्रजा सुखे सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते हितम्।
नात्मप्रियं हितं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं हितम्।।
अर्थात् प्रजा के सुख में राजा का सुख होता है और प्रजा के हित में राजा का हित। जो अपने को प्रिय हो, वह राजा का हित नहीं है। जो प्रजा को प्रिय हो, वही उसका हित है। इससे वह ध्वनित होता है कि नागरिकों को पर्याप्त अर्थिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक अधिकार प्राप्त होने चाहिए।
प्राचीन भारत में 'सभा' और 'समिति' जैसी जन संस्थाए (वैशाली के गणतंत्र में) विद्यमान थीं जहां बौद्धिक, राजनैतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक विचार -विमर्श निरंतर होते रहते थे। वहां शासक के कृत्यों की समालोचना आम बात होती थी। राजा जन संस्थाओं से परामर्श लेकर ही तमाम निर्णय करता था। सम्राट अशोक महान के द्वारा लिखवाये गये शिलालेख शासक का जनता के प्रति उत्तरदायित्व का अप्रतिम उदाहरण है।
प्राचीन और मध्यकाल में अधिकतर राजाओं-बादशाहों के यहां जनता दरबार जनता की समस्याओं को सुनने के लिए आयोजित किये जाते थे। 'दीवाने आम' और 'दीवाने-खास' ऐसी शासन-व्यवस्थाओं में मौजूद होते थे। अकबर जैसे योग्य शासकों के दरबार में कोई भी व्यक्ति रस्सी खींचकर घंटा बजाकर अपनी फरियाद बादशाह से सीधे कर सकता था और बादशाह व्यस्तता के बावजूद उसे तत्काल सुनने का उपक्रम करता था अर्थात् आम आदमी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी न किसी रूप में मिली थी। प्राचीन और मध्यकाल में भी गाँवों में पंचायतें कार्यरत थीं अर्थात् गाँव के लोगों द्वारा चुने हुए पाँच पंचों की सभाएं किसी समस्या का समाधान निकालती थीं। यह 'ग्राम लोक-राज्य का शासन' था (महात्मा गाँधी) मगर ब्रिटिश शासन ने कठोर कर पद्धति से इस स्थानीय व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया। उसे पुनर्जीवित करने का प्रयास 1921 में कांग्रेस के कार्यकर्ताओं/समाजसेवियों ने किया था। मगर नैनीताल जैसे कुछ क्षेत्रों में पंचायतें बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों पर भी फैसले देने लगीं जिसे सुनकर महात्मा गाँधी परेशान हो गये। सो उन्होंने ग्रामसेवकों के मार्गदर्शन के लिए दस नियम सुझाये ('ग्राम स्वराज्य') :
(क) प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी की लिखित इजाजत के बिना कोई पंचायत कायम न की जाये।
(ख) कोई भी पंचायत पहले-पहल ढिंढोरा पिटवाकर बुलाई गई सार्वजनिक सभा में चुनी जानी चाहिए।
(ग) तहसील कमेटी द्वारा उसकी सिफारिश की जानी चाहिए।
(घ) ऐसी पंचायत को फौजदारी मुकदमे चलाने का अधिकार नहीं होना चाहिए।
(ड) वह दीवानी मुकदमे चला सकती है यदि दोनों पक्ष अपने झगड़े पंचायत के समक्ष रखें।
(च) किसी भी पंचायत को जुर्माना करने की सत्ता नहीं होनी चाहिए; उसके दीवानी फैसलों के पीछे एकमात्र बल उसकी नैतिक सत्ता, कड़ी निष्पक्षता और संबंधित पक्षों का स्वेच्छापूर्ण पालन ही है।
(ज) अपराध करने वालों का कुछ समय के लिए सामाजिक या दूसरी तरह का बहिष्कार नहीं होना चाहिए।
(झ) हर एक से यह आशा रखी जायेगी कि वह :
(प) अपने गाँव के लड़के-लड़कियों की शिक्षा की ओर ध्यान दे;
(पप) गाँव की सफाई का ध्यान रखे;
(पपप) गाँव की दवा आदि की जरूरत पूरी हो;
(पअ) गाँव के कुओं या तालाबों की रक्षा और सफाई का काम करे;
(अ) तथाकथित अस्पृश्यों की उन्नति और दैनिक आवश्यकताएं पूरी करने का प्रयत्न करे।
(ञ) जो पंचायत बिना किसी सही कारण के अपने चुनाव के छः महीनों के भीतर नियम में बताई गई शर्तें पूरी न करे या दूसरी तरह से गाँव वालों की सद्भावना खो दे या प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी में उचित मालूम होने वाले किसी कारण से निन्दा की पात्र ठहरे, तो उसे तोड़ दिया जाये और उसकी जगह पर दूसरी पंचायत चुन ली जाये।
महात्मा गाँधी जी 'मेरे सपनों का भारत' में ऐसी व्यवस्था चाहते थे, जिसमें गरीब से गरीब लोग भी यह महसूस करेंगे कि वह उनका देश है जिसके निर्माण में उनकी आवाज का महत्व है।' यह आवाज अभिव्यक्ति, असहमति और सूचना के अधिकार की द्योतक है। जब यह आवाज उठे, तो सत्ता उसे ध्यान से सुने और उस पर न्याय-सम्मत कार्रवाई करे। गांधी जी जब 'स्वराज' शब्द को प्रयोग करते थे तो उसके चार प्रमुख आयाम थेः पहला, शासन लोकसम्मति के अनुसार हो, लोकसम्मति का निश्चय देश के सभी वयस्क मतों के जरिये हो, मगर वे शारीरिक श्रम करते हों और मतदाता सूची में उनके नाम पर दर्ज हों। सच्चे स्वराज की प्राप्ति सत्ता के दुरूपयोग का 'प्रतिकार करने की क्षमता' से संभव है अर्थात् जनता में इस बात का ज्ञान पैदा करके स्वराज प्राप्त किया जा सकता है कि 'सत्ता पर कब्जा करने और उसका नियमन करने की क्षमता' उसमें है। गांधी जी ने बार-बार स्पष्ट किया था कि असली स्वराज का अर्थ है 'सरकारी नियंत्रण से मुक्त होने के लिए लगातार प्रयास करना' चाहे वह नियंत्रण विदेशी सरकार का हो या स्वेदशी सरकार का क्योंकि अपनी सभ्यता की आत्मा को अक्षुण्ण रखना है। दूसरा, स्वराज का अर्थ' आत्मसंयम और आत्मशासन' भी है। अंग्रेजी का 'इंडिपेंडेंस' शब्द निरंकुश आजादी या स्वच्ंछदता को बोध देता है, वैसा अर्थ स्वराज का नहीं है। तीसरा, स्वराज का तात्पर्य 'सब लोगों का राज्य, न्याय का राज्य है।' पूर्ण स्वराज का मतलब वह राजा-प्रजा, स्त्री-पुरूष, अमीर-गरीब, हिन्दू मुस्लिम आदि सबके लिए समान होगा। गांधी जी मानते थे कि जनता को अपने सच्चे हित का ज्ञान होना चाहिए। चौथा, सच्ची लोकसत्ता या जनता का स्वराज कभी भी असत्यमय और हिंसक साधनों से नहीं आ सकता। गांधी जी के शब्दों में, ''अहिंसा पर आधारित स्वराज में लोगों को अपने अधिकारों का ज्ञान न हो, तो कोई बात नहीं, लेकिन उन्हें अपने कर्तव्यों का ज्ञान अवश्य होना चाहिए।'' उनके अनुसार सच्चे अधिकार वे ही हैं जो अपने कर्तव्यों का उचित पालन करके प्राप्त किये गये हों। उनका मानना थाः 'अहिंसक स्वराज में न्यायपूर्ण अधिकारों का किसी के भी द्वारा कोई अतिक्रमण नहीं हो सकता और उसी तरह किसी को कोई अन्यायपूर्ण अधिकार नहीं हो सकते।'
गांधी जी का स्पष्ट मानना था कि 'लोकतंत्र में लोगों को चाहिए कि वे सरकार की कोई गलती देखें, तो उसकी तरफ उसका ध्यान खीचें और संतुष्ट हो जायें। अगर वे चाहें, तो अपनी सरकार को हटा सकते हैं। कहने का आशय यह है कि जनता जागरूक और सतर्क रहे। वह सरकार के कार्यों की निगरानी रखे और सरकार से सवाल करे कि कोई चीज/घटना क्यों और कैसे हो रही है ? यदि वह सरकार के जवाब से संतुष्ट न हो, तो वह सरकार को गिरा सकती है?
इसीलिए गांधी जी कहते थे-' सच्ची लोकशाही केन्द्र में बैठे हुए बीस आदमी नहीं चला सकते। वह तो नीचे से हर एक गांव के लोगे द्वारा चलायी जानी चाहिए।' ('हरिजन', 18 जनवरी 1948) इस प्रकार वह ग्रामीण समाज के आम लोगों की सत्ता में भागीदारी के पक्षधर थे। मगर यदि बहुसंख्यक जनता ही नीतिभ्रष्ट और स्वार्थी हो जाये तो सरकार अराजकता की स्थिति पैदा करेगी।
यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि गांधी जी के सक्रिय राजनीति में भाग लेने के बाद ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने लाहौर अधिवेशन (1930) में 'पूर्ण स्वराज' को अपना लक्ष्य घोषित किया और यह संकल्प लिया कि 26 जनवरी को प्रतिवर्ष 'स्वतंत्रता दिवस' मनाया जायेगा। उस अधिवेशन में अहिंसात्मक तरीके से स्वाधीनता और पूर्ण विकास के अधिकार पर जोर दिया गया। अगले साल कराची अधिवेशन (1931) में कांग्रेस ने बीस अधिकारों के संकल्प के साथ वाणी एवं प्रेस की स्वतंत्रता को मूलाधिकार घोषित किया। वहीं यह भी प्रस्ताव पारित किया गया कि पंच फैसले के द्वारा विवादों के निपटारे के लिए उपयुक्त तंत्र विकसित किया जाये। जाहिर है यह गाँवों में पंचायतों की स्थापना की ओर संकेत था। इसके अलावा सैनिक खर्च को आधा करने एवं नागरिक प्रशासन के विभागों के व्यय में कमी करने के भी प्रस्ताव पारित किये गये। उन प्रस्तावों में एक महत्वपूर्ण मूलाधिकार यह भी था कि कानून की विहित रीति के अलावा अन्य तरीके से किसी भी व्यक्ति को स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जायेगा; उसके आवास/सम्पत्ति में न प्रवेश किया जायेगा और न उसे जब्त किया जायेगा।
यहां यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि 1970 के दशक से ही कई स्वैच्छिक संस्थाएं-लोकसत्ता, पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स, पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स कॉमनवेल्थ हयूमन राइट्स, इनिशियेटिव, कॉमन कॉज, मजदूर किसान शक्ति संगठन आदि-शासन के विभिन्न स्तरों (केन्द्र, राज्यों, स्थानीय) के कार्यकलापों के बारे में जनता जानने के हक के बारे में संघर्ष करती रही हैं। उनका यह मानना रहा है कि जब तब आम लोगों को यह नहीं मालूम होगा कि शासन प्रशासन क्या कर रहा है, क्यों कर रहा है, कैसे कर रहा है, किसके लिए कर रहा है, कब करता है और कब नहीं करता, तब तक लोकतंत्र महज औपचारिक रहेगा और 'तंत्र' 'लोक' पर हावी रहेगा। अर्थात् सत्ता में जनता की सहभागिता नहीं होने से वह शासन लोग शाही नहीं बन सकेगा। शासन-व्यवस्था तभी जनोन्मुखी मानी जायेगी तब सत्ता लोगों से छिपाने की बजाय सूचनाएं साझा कर, उनकी पसन्दों और प्राथमिकताओं को अपनी नीतियों में शामिल करें। सूचना प्रथमतः और अन्ततः शक्ति होती है और जो ऐसी शक्ति का सही समय, स्थान और सन्दर्भ में उपयोग करता है, वह सच्ची स्वतंत्रता का आनंद उठाता है। इसीलिए प्रो. अमर्त्य सेन ने पाँच स्वतन्त्रताओं की बात की है :
(क) सामर्थ्यदायी स्वतंत्रता (इनेबलिंग फ्रीडम)
(ख) राजनैतिक स्वतंत्रता (पोलिटिकल फ्रीडम)
(ग) आर्थिक स्वतंत्रता (इकोनॉमिक फ्रीडम)
(घ) पारदर्शिता स्वतंत्रता (ट्रांसपैरेंसी फ्रीडम)
(ड़) सुरक्षा स्वतंत्रता (प्रोटेक्शन फ्रीडम)
शायद इसी भाव को महाकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर 'गीतांजलि' में इस तरह कह रह थेः
'मन हो जहाँ स्वतंत्र
और हो मस्तक ऊँचा
.................................. स्वतंत्रता के उस स्वर्ग में
मेरे पिता !
जगने दो मेरे देश को।'
उल्लेखनीय है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के विध्वंस के बाद जब विश्व के तमाम देशों ने वैचाारिक मंथन के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की, तो उसके प्रथम सत्र (1946) में ही सूचना की स्वतंत्रता को मौलिक मानवाधिकार घोषित किया गया उसे ही स्वतंत्रता की कसौटी बनाया गया। बाद में संयुक्त राष्ट्र के 'मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा' (1948) में सुस्पष्ट किया गया कि प्रत्येक को, सीमांतो के बावजूद, विभिन्न माध्यमों से सूचनाएं और विचार माँगने, पाने और देने का अधिकार होगा। तत्पश्चात् 1966 में 'नागरिक एवं राजनैतिक अधिकारों की अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदा' में स्पष्ट किया गया कि भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत सूचना का अधिकार अन्तर्निहित है। इसी तरह उत्तर प्रदेश शासन बनाम राजनारायण (1975), मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) तथा एस.पी. गुप्ता बनाम भारत संघ (1982) में भारतीय सर्वोच्चय न्यायालय ने यह व्याख्या दी कि भारतीय संविधान की धारा 21 में वर्णित 'जीने के अधिकार' में सूचना का अधिकार सम्मिलित है। सर्वोच्य न्यायालय के इन निर्णयों में निम्नलिखित व्याख्याएं दी गई :
पहली, जिस शासन-व्यवस्था में जनता के सभी प्रतिनिधि अपने कार्यों के लिए उत्तरदायी हैं, वहां शायद ही कोई चीज गोपनीय हो सकती है।
दूसरी, जनता को प्रत्येक सार्वजनिक कार्य को, प्रत्येक चीज को, जो सार्वजनिक रूप में सार्वजनिक कर्मचारियों द्वारा की जाती है, जानने का अधिकार है।
तीसरी, अधिकारियों द्वारा अपने कार्यों की व्याख्या करना या उसे उचित ठहराना, अत्याचार और भ्रष्टाचार के विरूद्ध उनका मुख्य बचाव है।
चौथी, जिस समाज ने लोकतंत्र को सैद्धांतिक आस्था के रूप में स्वीकार किया है, उस समाज के सभी नागरिकों को यह जानने का अधिकार है कि उनकी सरकार क्या कर रही है।
पाँचवी, यदि सरकार के कार्य संचालन में गोपनीयता बरती जायेगी तथा जनता को छानबीन करने की गुंजाइश नहीं होगी, तो उत्पीड़न, भ्रष्टाचार तथा सत्ता के दुरूपयोग को बढ़ावा मिलेगा।
छठवीं, अपवादस्वरूप, भारत की अखंडता, सम्प्रभुता एवं सुरक्षा से संबंधित मामलों, कैबिनेट के कागजात, सरकारी नीतियों के निर्धारण से संबंधित कागजात का खुलासा जनहित के कागजात, सरकारी नीतियों के निर्धारण से संबंधित कागजात का खुलासा जनहित में नहीं किया जा सकता। इन निर्णयों के अलावा राजस्थान में 1997 में अरूणा राय के नेतृत्व में मजदूर किसान शक्ति संगठन ने स्थानीय स्तरों पर गाँवों-पंचायतों में सार्वजनिक निर्माण कार्यों का स्थल-निरीक्षण किया, तो मालूम हुआ कि उनकी गुणवत्ता खराब होने और अधिक व्यय होने के साथ-साथ ऐसे कई मजदूरों के द्वारा काम करने और मजदूरी पाने के कागजात बनाये गये थे जिन्होेंने न तो उनमें काम किया था और न कोई मजदूरी प्राप्त की थी। इस फर्जी श्रमिक सूची (मस्टर रोल) का भंडाफोड़ होने से गाँव के लोगो की आँखें खुली कि एक ओर वांछित गुणवत्ता का कार्य नहीं हुआ और दूसरी ओर गलत भुगतान भी हुआ। बाद में जगह-जगह 'जन सुनवाई' हुई और उससे कई पोलें खुलाीं जिनमें भ्रष्टाचार ने शिष्टाचार का रूप ले लिया था, या अधिकारियों/जन-प्रतिनिधियों ने अपने अधिकारों के दुरूपयोग किया था, अथवा किसी नागरिक को उसका हक पाने से वंचित किया गया था आदि। अथवा किसी नागरिक का पुलिस प्रशासन द्वारा उत्पीड़न किया गया था, सो उसने एक नारा लगाया गया- 'हमारा पैसा, हमारा हिसाब' स्थानीय जनता को मिलना चाहिए और तभी शासन-प्रशासन उत्तरदायी बनाया जा सकता है। इसके फलस्वरूप भ्रष्टाचार कम होगा और जनता का सशक्तिकरण भी होगा। कालान्तर में चारों ओर बढ़ते जन दबाव के कारण 2002 में सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम पारित हुआ मगर उसके नियम नहीं बनाये गये थे, सो उसका कार्यान्वयन सरजमीं पर नहीं हुआ। सो 2004 में उसे नयी सरकार ने रद्द करते हुए सूचना का अधिकार अधिनियम (2005) बनाया जो ज्यादा व्यापक, शक्तिशाली एवं कारगर रहा है। उसे 12 अक्तूबर, 2005 से पूरे देश में (जम्मू कश्मीर को छोड़कर) लागू कर दिया गया। इसकी धारा 2 (एफ) के तहत लोक प्राधिकार की परिभाषा में भारतीय संविधान, संघ सरकार या राज्य सरकार द्वारा निर्मित किसी कानून या सक्षम सरकार द्वारा निर्मित अधिसूचना या आदेश के तहत गठित सभी प्राधिकारों, निकायों, स्वशासन संस्थाओ आदि को शामिल कर लिया गया। इसमें सक्षम सरकार द्वारा जिन निकायों या स्वैच्छिक संस्थाओं को पूर्णतः या अंशतः निधि प्रदान की जाती है, उन्हें भी शामिल कर लिया गया है। इस कानून की विशेषता है कि कोई भी नागरिक मात्र 10 रुपये का शुल्क देकर बिना कारण बताये सार्वजनिक प्राधिकार से कोई सूचना ले सकता है।
पंचायतों को संविधान में 73वें और 74वें संशोधनों के जरिये तमाम आर्थिक एवं प्रशासनिक अधिकार दिये गये तथा उन्हें केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों से हटकर स्थानीय स्वशासन के रूप में शासन के तीसरे स्तर पर मान्यता और शक्ति प्रदत्त की गई है। तभी महिलाओं को पंचायतों में एक तिहाई आरक्षण दिया गया। इसका मुख्य उद्देश्य यह है कि सत्ता का विकेन्द्रीकरण हो और जनता को छोटे-छोटे हितोें की पूर्ति के लिए दर-दर, दूर तक और देर तक न भटकना पड़े। दूसरे, त्रिस्तरीय ढाँचे में ग्राम पंचायत, ब्लॉक पंचायत समिति और जिला पंचायतों में चुने गये जन-प्रतिनिधियों (क्रमशः मुखिया/प्रधान/सरपंच, ब्लॉक प्रमुख और अध्यक्ष) के नेतृत्व में उत्तरदायी प्रशासन से तमाम सुविधाएं समय पर प्राप्त हो सकें। ऐसा पाया गया है कि जन प्रतिनिधियों के न रहने पर स्थानीय सरकारी कर्मचारी जनता का दोहन-शोषण करते रहे हैं। जैसा कि जॉन स्टुअर्ट मिल ने (1861 में) ठीक ही कहा था :- जनता दूरस्थ तानाशाह की अपेक्षा स्थानीय अत्याचारी के हाथों ज्यादा शोषित होती है।
जहां तक पंचायतों से सूचनाएं प्राप्त करने का सवाल है, इसमें निम्नलिखित कठिनाइयाँ सामने आती हैं। पहली समस्या यह है कि हिंदी प्रदेशों में ग्राम पंचायतों का अस्तित्व सक्रिय रूप से नहीं दिखता। प्रायः उनके भवन निर्मित नहीं हैं। यदि कहीं निर्मित भी हैं, तो वे दैनिक कार्यों के सक्रिय केंद्र नहीं बन सके हैं। वहां ग्राम प्रधान/मुखिया/सरपंच और पंचायत सचिव नियमित रूप से उपस्थित नहीं होते। इसके अलावा वहां अभिलेखों का रखरखाव नहीं है। फटे-पुराने अभिलेख जैसे कुटुम्ब पंजी, योजना पंजी, अद्यतन नहीं है। प्रायः योजनाओं का लेखा-जोखा भी न तो अद्यतन रहता है और न ही सही रहता है। यह भी उल्लेखनीय है कि राज्यों के पंचायती राज विभाग (जो कहीं-कहीं स्वतंत्र है, तो कहीं-कहीं ग्रामीण विकास विभाग के साथ संबद्ध हैं) से राज्यादेश, सर्कुलर आदि जिला पंचायत को प्रायः विभिन्न योजनाओं की निधियों को दुरूपयोग करते हैं। सो व्यवहार में वे सही सूचनाएं नहीं देते हैं। मुझे अपने गांव (उत्तर प्रदेश) का खास अनुभव हैं जहां और उसमें ग्राम पंचायत के मुखिया, पंचायत सचिव, सरकारी अधिकारी-कर्मचारी तथा दलाल के हिस्से होते हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने ऐसे फर्जी पेंशनधारियों के बारे में स्वयं स्वीकार किया है और कई लोगों के विरूद्ध कार्रवाई भी की है जबकि कई अभी भी अवैध और अनैतिक रूप से पेशन ले रहे हैं। सूचना का अधिकार इस मामले में ज्यादा कारगर सिद्ध नहीं हुआ।
ऐसा महसूस किया जाता है कि सूचना का अधिकार सही मायने में पंचायतों में लागू करने के लिए निम्नलिखित कदम उठाये जाये :
(क) केंद्र या राज्य के सभी विभागों के जिन कार्यों का कार्यान्वयन किसी गांव में शुरू किया जाये, उनकी लिखित जानकारी (विस्तृत ब्योरे के साथ) संबंधित ग्राम पंचायतों को अनिवार्य रूप से विभागों द्वारा दी जाये और ग्राम पंचायते उन्हें एक पंजी में संधारित करें।
(ख) ग्राम पंचायतें स्थानीय सूचना केंद्र के रूप में भी कार्य करें जहां से नागरिक सभी जरूरी सूचनाएं समय-समय पर ले सकें।
(ग) सभी ग्राम पंचायतों का स्थायी भवन बनाया जाये, उसमें ग्राम प्रधान/मुखिया/सरपंच एवं पंचायत सचिव नियमित रूप से उपस्थित होकर कार्य करें और सूचन देने के लिए दिन निर्धारित हो।
(घ) ग्राम सभा की बैठकें नियमित रूप से और पारदर्शी तरीके से आयोजित की जाये। पूरे राज्य स्तर पर सभी ग्राम सभाओं की आम सभा की त्रैमासिक तिथियां निर्धारित हों- कोई छुट्टी पड़ने पर अगले कार्यदिवस में उक्त बैठक आयोजित देने की प्रक्रिया की जाये।
(ड) सूचना के अधिकार के सही उपयोग के लिए स्वैच्छिक संस्थाएं प्रचार-प्रसार करके जनजागरण करें। वे अनपढ़ और गरीब लोगों को आवेदन देने की प्रक्रिया आदि में सहायता दें।
(च) जिला और ब्लॉक स्तर पर बनी वेबसाइटों पर पंचायतों की निधियाँ, योजनाओं आदि का अद्यतन ब्योरा हो।
(छ) ग्राम पंचायतों द्वारा चलायी जा रही सभी विकास योजनाओं के स्थल पर कार्यों के प्राक्कलनों का ब्योरा बोर्ड पर लिखा जाये।
(झ) स्व सहायता समूहों, ग्राम पंचायतों और स्थानीय/प्रशासन के बीच खुला एवं कारगर समन्वय एवं संवाद कायम हो जिससे सूचना के अधिकार को व्यवहार में सही तरीके से लागू किया जा सके।
(ट) प्राप्त सूचनाओं के आधार पर मिली गड़बड़ियों के लिए दोषी जन-प्रतिनिधियों, अधिकारियों-कर्मचारियों, दलालों आदि के विरूद्ध प्रशासन कड़ी कार्रवाई कालबद्ध और पारदर्शी तरीके से करे। ऐसे प्रधानों/सरपंचों/मुखियों के वित्तीय अधिकार छीनने से लेकर उन्हें पदच्युत करने और फिर से चुनाव कराने की पारदर्शी एवं त्वरित प्रक्रिया शुरू की जानी चाहिए।
'मनरेगा' (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) में आये दिन नाना प्रकार की गड़बड़ियाँ उजागर हो रही हैं जिनमें कार्य की गुणवत्ता की कमी, फर्जी मस्टर रोल, न्यूनतम मजदूरी का भुगतान न होना, भुगतान मे विलम्ब होना या कटौती करना, बिना काम किये राशि हड़पना, स्थानीय बेरोजगार युवकों को न रोजगार उपलब्ध कराना और न बेरोजगारी भत्ता देना आदि प्रमुख कमियाँ हैं। विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि केंद्र और राज्य सरकार की विभिन्न विकास योजनाओं के कार्यान्वयन को सबसे पहले ब्लॉक के अधिकारियों/कर्मचारियों के जिम्मे किया गया जिससे वे प्रमुखतः 'ठेकेदार' बन गये। बाद में उनका विकेन्द्रीकरण ग्राम पंचायतों के स्तर पर जनप्रतिनिधियों को शक्तियां देकर किया गया सो अधिकतर ग्राम प्रधान/मुखिया/सरंपच 'नये ठेकेदार' बन गये हैं। पहले जब ग्राम पंचायतों को वित्तीय अधिकार नहीं दिये गये थे, और उनके जरिये विकास योजनाओं का कार्यान्वयन नहीं कराया जा रहा था, तो उन्हें ज्यादा सामाजिक प्रतिष्ठा मिलती थी और वे ससम्मान गांव के झगड़े सुलझा देते थे। मगर जब से उन्हें कई वित्तीय-प्रशासनिक अधिकार मिल गये और विकास योजनाओं में कमाने-खाने का सुअवसर (या 'कुअवसर') मिल गया, तब से वे गाँव के झगड़े या तो निपटाने के लिए कोशिश नहीं करते अथवा उसके लिए भी 'मेहनताना' (कभी-कभी दोनां पक्षों से) वसूलने में कोर-कसर नहीं छोड़ते। सो देश के कई भागों में उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा और साख में तेजी से गिरावट आयी है। इसे सूचना का अधिकार रोकने में सफल नहीं हो सका है। यहां विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि देश के कई हिस्सों में करीब एक दर्जन सूचना के अधिकार कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई है जिनमें ग्राम पंचायत के प्रधान लेकर ऊपर के अधिकारी या कर्मचारी, दलाल आदि शामिल रहे हैं। सूचना के अधिकार को प्रभावकारी तरीके से लागू करने के लिए कम से कम तीन प्रकार के प्रतिमानी बदलाव की जरूरत है :
पहला, मौजूदा गोपनीयता की संस्कृति के बदले पारदर्शिता की संस्कृति।
दूसरा, प्राधिकारियों की व्यक्तिगत निरंकुशता के बदले उत्तरदायित्व की प्रवृति।
तीसरा, एकतरफा निर्णय करने की प्रवृति के बदले सहभागी सुशासन की प्रवृति।
सन् 2005 से लागू सूचना के अधिकार कानून का अनुभव खट्टा-मीठा दोनों रहा है। द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग , 'प्रिया' नामक स्वैच्छिक संस्था और 'पैक्स' (पुअरेस्ट एरिया सिविल सोसाइटी) प्रोग्राम आदि के स्थल-अध्ययनों से मांग पक्ष के अंतर्गत जनचेतना की कमी, आवेदन देने और अभिलेखों के निरीक्षण में कठिनाइयां, विभिन्न राज्यों मे विभिन्न विभागों में लोक सूचना अधिकारियों के पदनाम में एकरूपता नहीं होना, तथा दी गई सूचना अधूरी और कम गुणवत्ता की होना आदि समस्याएं हैं। दूसरी ओर पूर्ति पक्ष में लोक उद्देश्य स्पष्ट करने की बाध्यता न होने से आवेदनों की संख्या बहुत ज्यादा होती है। दूसरे, उस सूचना पाने के लिए उपयुक्त राशि निर्धारित नहीं करने से सार्वजनिक कार्यालय का काफी पैसा सूचना देने में खर्च होता है। शैलेश गांधी (केन्द्रीय सूचना आयोग) द्वारा किये गये मूल्यांकन (दिसंबर, 2008) में पाया गया कि सरकार एक सूचना के अधिकार आवेदन का निष्पादन करने में लगभग दस हजार रुपये खर्च करती है। इसलिए सूचना प्राप्त करने वाले व्यक्ति की नेकनामी और अधिकारिता जरूरी होनी चाहिए, मांगी गई सूचना अर्थपूर्ण होनी चाहिए तथा उसका लोक उद्देश्य स्पष्ट होना चाहिए। इसके अलावा उसे कुल खर्च का अधिकांश वहन करना चाहिए। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि वर्तमान कानून में किसी लोक सूचना अधिकारी के यहां आवेदन दिया जा सकता है, भले संबंधित सूचना उसके पास हो या न हो। इसके कारण उसे सही लोक सूचना अधिकारी का पता लगाने, पहचान करने और उसे भेजने की कार्रवाई करनी पड़ती है जिसमें काफी समय, श्रम और धन खर्च होता है। अस्तु, आवश्यक संशोधन करके संबंधित लोक सूचना अधिकारी को ही आवेदन देने का प्रावधान सुनिश्चित करना चाहिए। तीसरी बात यह है कि अभी हर हालत में तीस दिनों के अंदर सूचना उपलब्ध करानी है, अन्यथा 250/- प्रतिदिन की दर से जुर्माना किया जा सकता है जो 25000/- रुपये तक अधिकतम हो सकता है। मगर कई विषम परिस्थितियों यथा विधि-व्यवस्था की समस्या, प्राकृतिक आपदा, सार्वजनिक अवकाश, अधिकारी/कर्मचारी के लंबे अवकाश पर रहने, चुनाव होने, जनगणना जैसी महत्वपूर्ण प्रक्रिया चलने आदि के कारण उक्त समय-सीमा के तहत सूचनाएं देना संभव नहीं हो पाता। अस्तु, इनके लिए अपवादस्वरूप समय बढ़ाया जाना चाहिए (लगभग दो माह)। चौथी बात यह है कि सूचनाएं देने के लिए फोटो प्रति या सॉफ्ट प्रति की सुविधा न होने से समय सीमा के तहत ऐसा करना संभव नहीं है। फिर मनरेगा, सर्वशिक्षा, अभियान, ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, भारत निर्माण, संपूर्ण स्वच्छता अभियान आदि का कार्यान्वयन स्थानीय निकायों द्वारा कराया जाता है सो उनके बारे में सूचना प्राप्त करने के आवेदनों का अंबार लगा रहता है, जबकि मात्र एक पंचायत सचिव होता है। यदि वह इन आवेदनों के निष्पादनों को प्राथमिकता देता है तो उसके दैनिक कार्य पिछड़ जाते हैं। सो अंशकालिक स्टाफ की नई वैज्ञानिक विधि दी जानी चाहिए। छठवीं बात यह है कि अभिलेखों के रखरखाव में नई वैज्ञानिक विधि की जरूरत है जैसे माइक्रोफिल्म, स्कैनिंग आदि। सातवी, अधिकारियों-कर्मचारियों के प्रशिक्षण की भी विशेष जरूरत है जिससे वे क्षमता में वृद्धि करके कम समय में ज्यादा कार्य निष्पादन कर सकें। इसके साथ-साथ उन्हें प्रोत्साहित करने तथा रुख में बदलाव लाने हेतु प्रेरणा देने की भी जरूर है। अंत में, विभिन्न चौकों, चौराहों, हाट-बाजारों आदि में 'इ-सूचना केन्द्रों की स्थापना की जानी चाहिए जिससे अधिक से अधिक जानकारी बिना विभिन्न कार्यालयों में दौड़े एक स्थान पर आसानी से मिल सके। इस प्रकार पंचायतों को विधि कार्य एवं कर्मचारी दिये जाने चाहिए जिससे वे स्वयात्त हो सके और उनके अधिकार क्षेत्र में केन्द्र राज्य सरकार, विधायिका का न्यायपालिका दखल न दे सके। उन्हें स्थानीय संसाधनों पर पूरा अधिकार हो। निःसंदेह सूचना का अधिकार ग्राम पंचायतों से लेकर राज्य और केन्द्र सरकारों द्वारा सुशासन लाने में, पारदर्शिता और उत्तरदायित्व लाने में, कुछ हद तक कारगर रहा है। यह एक साथ सभी के लिए चुनौती और सुअवसर दोनों है। मगर सूचना का अधिकार सभी बीमारियों की एक मात्र कारगर दवा न है और न हो सकती है। इसकी शक्ति है, तो सीमा भी है। इस सूचना के अधिकार को सही भावसे पंचायतों में लागू करने के लिए अभी कई कोसों दूर चलना है। मगर हजार कोसों की यात्रा की शुरूआत पहले कदम से ही होती है। और यह शुभ लक्षण है कि भारत में पहला कदम उठ चुका है। ' ' ' '
(मानव अधिकार संचयिका, राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग से साभार प्रकाशित)
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