डॉ दीपक आचार्य दुनिया में खूब सारे लोग हैं जिनके पास तन ढँकने को कपड़े नहीं हैं, खाने को अन्न नहीं है और रहने को छत नहीं है। इन लोगों की ...
डॉ दीपक आचार्य
दुनिया में खूब सारे लोग हैं जिनके पास तन ढँकने को कपड़े नहीं हैं, खाने को अन्न नहीं है और रहने को छत नहीं है।
इन लोगों की दयनीय जिंदगी की कल्पना की जा सकती है।
लेकिन बहुत सारे लोग हैं जिनके पास सब कुछ है फिर भी कपड़े-लत्ते पाने की भूख मरते दम तक बनी रहती है।
शादी-ब्याह से लेकर कोई सा मांगलिक आयोजन हो, उपहार में कपड़े पाने का शौक हमारी पुरातन परंपरा या तलब ही बन चुका है।
इन आयोजनों का औचित्य और सफलताओं का पैमाना भी उपहार में दिए जाने के वाले कपड़े ही रह गए हैं, यह कहना भी बुरा नहीं होगा।
शादी-ब्याहों, साल भर आने वाले विभिन्न प्रकार के पर्व-उत्सवों, त्योहारों और आणों आदि में कपड़ों का लेन-देन ही सर्वापरि होकर रह गया है, बाकी सब कुछ गौण।
यहाँ तक कि संबंधों का आधार भी अब कपड़े ही होकर रह गए हैं।
कुछ को छोड़ दिया जाए तो बाकी सारे के सारे लोग कपड़ों के आधार पर वैवाहिक और दूसरे कार्यक्रमों का मूल्यांकन करते हैं।
शादी के मामले में तो कपड़ों का लेन-देन ही रिश्तों की शुरूआत का मूल आधार होता है।
कोई कितना ही सम्पन्न क्यों न होे, वह सामने वालों से कपड़ों की मांग ही करेगा ।
भले ही वे कपड़े उनके लिए पहनने में कभी काम न आएँ।
जो जितने अधिक कपड़े देगा, वह संबंधी अच्छा, जो न दे उसके बारे में खूब चर्चाएं चलती रहेंगी, जब तक बेचारा जिन्दा रहेगा।
कई इलाकों में इसे ‘हारवा’ कहा जाता है। इसी प्रकार ‘मामेरा’ शब्द भी सुनने में कितना अच्छा लगता है लेकिन इसका घातक असर हर समाज अर्से से भुगतता रहा है।
ये ‘हारवा’ ही हैं जो हर किसी संबंधी को जिन्दगी भर के लिए हारने को मजबूर कर दिया करते हैं।
कोई सा वैवाहिक कार्यक्रम हो, यह परंपरा ही बन चुकी है।
कपड़ों की माँग खूब होगी, इतनी कि दादा-परदादा से लेकर पोते-पोतियों तक के लिए कपड़ों की सूची पहले ही थमा दी जाती है।
साथ ही ठोक बजाकर कह भी दिया जाता है कि इतनी संख्या में तो कपड़े करने ही करने हैं।
इक्कीसवीं सदी में जीने या पैदा होने का गर्व करने वाले लोग भी कपड़ों के मामले में जिद्दी और लेने ही लेने वाले हैं।
शर्मनाक तथ्य यह है कि इन कपड़ों के लेन-देन में दो प्रकार के कपड़े आते हैं। एक तो पहनने लायक उम्दा किस्म के, जिनका पहनने में उपयोग संभव है।
दूसरे हैं करने लायक यानि की दिखावा ही दिखावा।
ये कपड़े सिर्फ पाने और दूसरों को देने का मौका आने तक संभालने भर के लिए होते हैं। इनका कोई उपयोग नहीं होता।
इन कपड़ों के मामले में यह भी अजीब परंपरा है कि शादी-ब्याह और विभिन्न मांगलिक अवसरों पर सारे सगे-संबंधी उपहार में कपड़े देते हैं, और आयोजन निपट जाने के उपरान्त दूसरे कपड़े उपहार के रूप में वापस सारे संबंधियों को लौटाने की परंपरा बनी हुई है।
पता नहीं एक जगह से आए कपड़ों को स्लिप लगा-लगाकर दूसरों के हाथों में दे दिए जाने से हम लोगों को क्या हासिल होता है।
शादी-ब्याह के मामले में कहीं-कहीं एक और रोचक परंपरा बनी हुई है जिसमें विवाह तय होने की आरंभिक अवस्था में काफी दिनों पहले लड़के वाले लड़की वालों के यहाँ और इसके बाद लड़की वाले लड़के वालों के यहाँ कपड़े पहनने जाते हैं।
उपहारों के आदान-प्रदान तक तो यह बात ठीक है लेकिन कपड़ों के आधार पर हैसियत और प्रतिष्ठा को नापना तथा उपहारी कपड़ों को लेकर चर्चाएं करना फिजूल ही है।
जमाना कहाँ जा रहा है, और हम आज भी पुरानी सदियों में जीते हुए कपड़ों की राजनीति में उलझे हुए हैं और कपड़े-लत्तों के आधार पर दूसरों को आँकने में लगे हुए हैं।
कपड़ों की गणित का यही मायाजाल शादी-ब्याहों की शुरूआत से लेकर कई-कई दिनों और माहों तक सामाजिक क्षेत्रों में चर्चा का विषय बना रहता है।
खासकर महिला जगत में यह चर्चाएं अक्सर गर्म रहा करती हैं।
इस प्रथा की वजह से विवाहों के मौसम में शहरों में कपड़ों की दुकानों पर पूरे के पूरे परिवार के साथ खरीदारों की इतनी अधिक भीड़ छायी रहती है जैसे कि मेला लगा हो।
फिर पसंदगी और नापसंदगी का दौर दिन भर इस कदर चलता रहता है जैसे कि कोई बहुत बड़ा स्वयंवर हो रहा हो।
कपड़ों के मामले में लोग इतने अधिक संवेदनशील और गंभीर होते हैं कि कुछ कहा नहीं जा सकता।
पता नहीं हम सभी लोग कपड़ों के पीछे कब तक इस तरह पड़े रहेंगे।
हमें पता ही नहीं है कि हमारे भीतर गहरे तक समाये उपहारी कपड़ों के मोह में कितने परिवार कर्ज के बोझ में दब कर जीवन भर मानसिक दबावों, तनावों और यंत्रणाओं में जीते हैं और पीढ़ियों तक कर्ज चलता रहता है।
लेकिन हमें इससे क्या लेना-देना।
हमारी सारी मानवीय संवेदनाएं इतनी लुप्त हो चुकी हैं कि हमें दूसरों से कुछ भी लेना-देना नहीं है, हमें अपने मौज-शौक पूरे करने से ही मतलब रह गया है, चाहे दूसरे लोगों का कुछ भी हश्र क्यों न हो।
यों तो हम समाजसुधार की बातें करते हैं।, मंचों पर अतिथि बनने, शॉल ओढ़ने और साफे पहनने का शौक पालने वाले हम लोग पूरे जोर से भौंकते हैं, फिजूलखर्ची रोकने की बातें करते हैं और समाजसुधार के नारों से आसमान गुंजा देते हैं।
इसके बावजूद दशकों से हम वहीं के वहीं ठहरे हुए हैं, और जमाना कितनी तेजी से आगे बढ़ता जा रहा है, इसका हमें भान ही नहीं है।
हमारी कुप्रथाओं और सामाजिक बुराइयों की वजह से हम सभी लोग कपड़ों को ही जीवन विकास का आधार मानकर बैठ गए हैं, पता नहीं हमारा क्या होगा।
समाज में कोई सुधार आ भी पाएगा या नहीं, या कि उपहारों के लेन-देन में ही जिन्दगी गुजार देंगे।
कुछ समझ में नहीं आने वाली बात है।
मौजूदा सामाजिक दुरावस्था उन लोगों के लिए बड़ी चुनौती है जो कि सामाजिक संगठनों और समाजसुधार के मंचों व माईक की शोभा बनते हुए अपने आपको महान समाजसुधारक समझ बैठे हैं लेकिन इतना दम नहीं है कि समाज उनकी बात को मानें।
अभी नहीं चेते तो समाज वहीं अटका रहकर समाप्त हो जाएगा और समय बहुत तेजी से आगे सरक जाएगा।
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डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
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