दीपक आचार्य इन दिनों हर तरफ शादी-ब्याहों का मौसम परवान पर है। कोई शादी करने को उतावला है तो दूसरे शादी करवाने को बेचैन होकर घूम रहे हैं।...
दीपक आचार्य
इन दिनों हर तरफ शादी-ब्याहों का मौसम परवान पर है। कोई शादी करने को उतावला है तो दूसरे शादी करवाने को बेचैन होकर घूम रहे हैं।
शादीशुदा लोग किसी को कुँवारा रहने देना नहीं चाहते, सब को अपनी बिरादरी में शामिल करने के लिए जी भर कर मेहनत कर रहे हैं।
कुँवारों की रातों की नींद और दिन का चैन इस चिंता में हवा होता जा रहा है कि कब विवाह हो। पूरी दुनिया स्वतंत्रता चाहती है और ये कुँवारे हैं कि परिणय बंधन को स्वीकार करके भी खुश हो रहे हैं।
दोनों तरफ कुछ न कुछ हो ही रहा है। शादीशुदा और कुँवारों के तटों के बीच ये अबूझ सावे केवट की नौका, अद्र्ध या पूर्ण कुंभ अथवा राम सेतु ही हो गए हैं जहाँ हर तरफ इस बात के पक्के प्रयास जारी हैं कि दोनों तटों के बीच कोई अंतर नहीं रह जाए।
कुँवारों की तमन्ना है कि सारे के सारे कहीं न कहीं दाम्पत्य के बंधन में बंध जाएं, और शादीशुदाओं के सामने एकमेव लक्ष्य यही रह गया है कि कोई कुँवारा रह जाने का दुस्साहसी दंभ न भर सके।
इन दिनाें गाँव-कस्बों-शहरों से लेकर महानगरों तक सभी जगह विवाहों का मौसम चरम यौवन पर है। न किसी को भीषण गर्मी की फिकर है, न और किसी मौसमी परिवर्तन की। विवाहों के मौसम से बढ़कर ब्रह्माण्ड भर में कोई संक्रमण काल नहीं हो सकता।
शादी-ब्याहों की वर्तमान स्थिति को देखा जाए तो यह संस्कार की बजाय दिखावा, फिजूलखर्ची और आडम्बरी औपचारिकताओं का निर्वाह मात्र होकर रह गया है। और औपचारिकता भी ऎसी कि जिसमें आनंद और उल्लास सिर्फ मन के वहम और बाहरी कृत्रिम दिखावा हैं जिसके तमाशबीनों की भीड़ हर तरफ छायी हुई है।
शादी-ब्याह अब वह रस्म अदायगी होकर रह गए हैं जिसके बाद जो आनंद देता है उसका आनंद छीन जाता है और जो लोग दो-चार घण्टों या दिनों का आनंद पा लेते हैं उनकी भूमिका बाद में तमाशबीन में बदल जाती है।
कई मामलों में हम पोंगापंथी, हद दर्जे के दकियानुसी और परंपरावादी ही बने हुए हैं और कई मामलों में महा आधुनिक और फैशनपरस्त।
शादी-ब्याह की छोटे गणेश से लेकर विदाई तक की सारी रस्मों को देखें तो साफ पता चल जाएगा कि हम सारे के सारे लोग कितनी फिजूलखर्ची कर रहे हैं, कितनी परंपराओं को बिना वजह से पाल रहे हैं। और जो कुछ कर रहे हैं उसे देख लगता है कि हम सारे लोग कबीलाई संस्कृति और जंगलों की ओर तो नहीं लौट रहे हैं।
घोड़े-घोड़ियों के जमाने पुरानी सदियों की बातें हो गई हैं। उस जमाने में वाहन नहीं हुआ करते थे, आज वाहनों की भरमार है। लेकिन हमने कसम खा रखी है कि घोड़े-घोड़ियों पर नहीं बैठे तो वो शादी क्या। घोड़े और घोड़ियां ही हमारी दाम्पत्य यात्रा पर मुहर लगाने लगी हैं।
फिर बैण्ड-बाजों की बात। कितनी तेज आवाजों में हम तरह-तरह के कानफोडू संगीत के साथ जीवन का सफर शुरू करते हैं, और कामना करते हैं दाम्पत्य जीवन शांत बना रहे।
पटाखों के भयावह शोर के साथ मण्डप की ओर जाते हैं। इस शोर से जाने कितने परिन्दों को बेघर होना पड़ता है, और हम हैं कि परिन्दों की शांति और घर छीन कर घर बसाने और शांतिपूर्ण जीवन की चाह रखते हैं।
फिर मण्डप में संस्कारों की जहाँ बात आती है वहाँ पण्डित से कहते हैं जल्दी-जल्दी सारी रस्में पूरी करवा दो। ऎसे में ग्रह-नक्षत्रों, देवी-देवताओं का आवाहन, पूजा-अर्चना और अग्नि की साक्षी में फेरों से लेकर वैवाहिक संस्कार तक पूरे नहीं होते। इस स्थिति में हम यह कामना करें कि हमारा वैवाहिक जीवन सुखमय हो, संतति अच्छी निकले, जीवन में कोई कमी नहीं रहे, मस्ती बनी रहे, यह कैसे संभव है जबकि हमें विवाह संस्कारों के लिए मण्डप में दो-चार घण्टे बैठने तक में मौत आती है।
फिर आती है खाने की बात। नाम देंगे प्रीतिभोज जैसे कि क्रिकेट का मैत्री मैच हो, जिसमें मित्रता या प्रीति के लिए भोजन रखा गया हो। विवाह के निमित्त भोज कहने में हमें शर्म आती है। और खाने के नाम पर भी असंख्य आईटम। जैसे कि मिष्ठान्न भण्डार, नमकीन भण्डार और भेलपूरी, आईसक्रीम और जात-जात की खान-पान की दुकानों का कोई उद्योग मेला ही लगा हो।
खड़े-खड़े खाओ, भारी मात्रा में झूठन छोड़ो और चलते बनो। यहीं आकर लगता है कि हम सारे लोग सिर्फ और सिर्फ खाने-पीने के लिए ही बने हैं। अपनी थालियों में इतनी भारी मात्रा में झूठन छोड़ते हुए हमें शर्म नहीं आती। हमें वे लोग नहीं दिखते जिन्हें दो वक्त की सूखी रोटी तक नसीब नहीं है, भूखों मर रहे हैं और हम हैं कि झूठन छोड़ने में अपनी शान समझ रहे हैं।
शादी-ब्याहों में भोजन का एकमेव उद्देश्य अपने परिचितों, संबंधियों आदि के साथ सामूहिक भोज का आनंद तो मिले ही, नव दम्पत्ति के वैवाहिक जीवन में संभावित ग्रह-नक्षत्रों और दूसरी तमाम प्रकार की बाधाओं का शमन भोजन से प्राप्त के पुण्य से हो जाए।
लेकिन अब विवाहों के भोजन में पुण्य प्राप्ति का रास्ता समाप्त ही हो गया है। जो आता है वह लिफाफा देकर चला जाता है और इस प्रकार भोजन और पैसों का लेन-देन होटलों में खाने जैसा हो गया जहाँ पैसा मिल गया, इसलिए पुण्य की बात सोचना निरर्थक है।
फिर इसे नाम हम देते हैं आशीर्वाद समारोह का। भोजन का लेकर आशीर्वाद पाने की कामना व्यर्थ है। यह भोज तो होटलों के मांगलिक संस्करण से ज्यादा कुछ नहीं हैं।
फिर जो लोग खड़े-खड़े खाते हैं उन सभी के बारे में साफ मान लें कि ये बीमार हैं अथवा भावी बीमारी की ओर जा रहे हैं, जहाँ उनकी बीमारी किसी के रुके रुकने वाली नहीं, आज का खड़ेश्वर भोजन कल कुर्सियों और बिस्तरों में जकड़ कर ही रहेगा।
फिर ऎसे लोगों के लिए हृदय, लीवर, घुटनों, पेट आदि के रोगों के साथ ही डायबिटिज जैसी बीमारियों का होना सामान्य बात है। जो लोग खड़े होकर भोजन करते हैं, जिनके पाँवों के अंगूठे भोजन के समय बूटों में बंद होकर गर्म बने रहते हैं उन लोगों को शुगर होगा ही।
इनसे भी बड़ी बुराई है कपड़ों, संसाधनों, द्रव्यों और उपहारों का लेन-देन। चाहे इसे दहेज का नाम न भी दिया जाए तब भी शादी-ब्याहों में जो कुछ दिया जाता है उसमें निन्यानवें फीसदी कपड़े लत्ते, सामान और उपहार आदि सब कुछ कर्ज लेकर ही दिया जाता है।
यह शादी-ब्याह के आयोजन ही हैं जिनमें बड़े-बड़े, कुलीन और महान लोगों के भिखारी और भूखे-नंगे होने का सच सामने आता है। यही कारण है कि बेटी जब विदा होती है तब रोते हुए उसे पीहर से दूर होने का उतना रंज नहीं होता जितना रोना पिता के कर्जदार हो जाने का होता है।
सब सोचें, हम कहां जा रहे हैं, हमसे बड़े भिखारी और भूखे-नंगे और कौन होंगे जो वैवाहिक उत्सवों को भी मांग-लेन का जरिया बना लेते हैं। शर्म करो, सुधर जाओ।
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- डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
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