सीमा स्मृति हाइगा प्रभुदयाल श्रीवास्तव बाल कविताएँ बड़े बेशरम कचरा फेंका बीच सड़क पर ,बड़े बेशरम | टोकनियों में लाये भर भर...
सीमा स्मृति
हाइगा
प्रभुदयाल श्रीवास्तव
बाल कविताएँ
बड़े बेशरम
कचरा फेंका बीच सड़क पर ,बड़े बेशरम |
टोकनियों में लाये भर भर ,बड़े बेशरम |
दफ्तर की सीढी पर थूका ,पान चबाकर |
बीड़ी फेंकी गलियारे में ,धुंआं उड़ाकर |
फेंकी पन्नी चौराहे पर ,बड़े बेशरम |
मूंगफली खाकर छिलकों को ,छोड़ दिया है |
बीच सड़क पर एक पटाखा फोड़ दिया है |
कागज फेंके घर के बाहर बड़े बेशरम |
इतनी तेज चलते गाड़ी डर लगता है |
चिड़िया घर के जैसा आज शहर लगता है |
बीच सड़क पर मोबाइल पर बड़े बेशरम |
आफिस से आये हो घर में, हाथ न धोये |
चप्पल जूते किचिन रूम तक सर पर ढोये|
नहीं रहा अम्मा का अब डर,बड़े बेशरम |
आओ चिड़िया
आओ चिड़िया आओ चिड़िया ,
कमरे में आ जाओ चिड़िया।
पुस्तक खुली पड़ी है मेरी ,
एक पाठ पढ़ जाओ चिड़िया।
नहीं तुम्हें लिखना आता तो ,
तुमको अभी सिखा दूंगा मैं।
अपने पापाजी से कहकर ,
कापी तुम्हें दिल दूंगा मैं।
पेन रखे हैं पास हमारे ,
चिड़िया रानी बढ़िया बढ़िया।
आगे बढ़ती इस दुनियां में ,
पढ़ना लिखना बहुत जरूरी।
तुमने बिलकुल नहीं पढ़ा है ,
पता नहीं क्या है मजबूरी।
आकर पढ़ लो साथ हमारे।
बदलो थोड़ी सी दिनचर्या।
चिड़िया बोली बिना पढ़े ही ,
आसमान में उड़ लेती हूँ।
चंदा की तारों की भाषा ,
उन्हें देखकर पढ़ लेती हूँ।
पढ़ लेती हूँ बिना पढ़े ही,
जंगल पर्वत सागर दरिया।
धरती माँ ने बचपन से ही,
मुझे प्राथमिक पाठ पढ़ाये।
उड़ते उड़ते आसमान से ,
स्नातक की डिग्री लाये|
पढ़ लेती हूँ मन की भाषा ,
हिंदी उर्दू या हो उड़िया।
तुम बस इतना करो हमारे ,
लिए जरा पानी पिलवा दो।
भाई बहन हम सब भूखे हैं,
थोड़े से दाने डलवा दो।
हम भी कुछ दिन जी लें ढंग से
अगर बदल दें लोग नजरिया।
-------------.
पापा तुमने कार मंगाई
पापा तुमने कार मंगाई|
बीस लाख में घर आ पाई।
मुझको तो गाडी यह पापा ,
बहुत बहुत छोटी लगती है।
अपने घर के सब लोगों के ,
लायक नहीं जरा दिखती है।
फिर भी जश्न मना जोरों से ,
घर घर बांटी गई मिठाई।
कार मंगाना ही थी पापा ,
तो थोड़ी सी बड़ी मंगाते।
तुम, मम्मी ,हम दोनों बच्चे ,
दादा दादी भी बन जाते।
सोच तुम्हारी क्या है पापा
मुझको नहीं समझ में आई।
माँ बैठेगी ,तुम बैठोगे ,
मैं भैया संग बन जाऊँगी।
पर दादाजी दादीजी को ,
बोलो कहाँ बिठा पाउंगी।
उनके बिना गए बाहर तो
क्या न होगी जगत हंसाई?
मम्मी पापा उनके बच्चे ,
क्या ये ही परिवार कहाते
दादा दादी चाचा चाची ,
क्यों उसमें अब नहीं समाते !
परिवारों की नई परिभाषा ,
तोड़ रही है अब घर भाई।
-------------.
गप्पी
गप्पी
सुबह सुबह से उठे रामजी ,
पर्वत एक उठा लाये|
नदी पड़ी थी बीच सड़क पर ,
उसे जेब में भर लाये।
फिर खजूर के एक पेड़ पर ,
हाथी जी को चढ़वाया।
तीन गधों को तीन चीटियों ,
से आपस में लड़वाया।
पानीपत के घोर समर में ,
गधे हारकर घर भागे|
किन्तु चीटियों ने पकड़ा ,
तो हाथ पैर कसकर बांधे|
अपने इसी गधे पन से ही ,
गधे गधे कहलाते हैं।
डील डॉल इतना भारी पर,
चींटी से डर जाते हैं।
पूछा -गप्पी, इन बातों में,
क्या कुछ भी सच्चाई ही|
बोले- गप्पी, मुझको तो ,
बाबा ने बात बताई है।
बाबा के बाबा को भी तो ,
उनके बाबा ने बोला।
इसी बात को सब पुरखों ने ,
सबके कानों में घोला|
बाबा के बाबा के बाबा ,
पक्के हिंदुस्तानी थे।
झूठ बोलना कभी न सीखा,
वे सच के अनुगामी थे।
-----------.
अगर ट्रेन घर तक आ जाये
क्यों न कुछ ऐसा हो जाए,
ट्रेन हमारे घर तक आए,
टीटी टिकट काटकर लाए,
मन पसंद की सीट दिलाए।
सागर से बीना जाने का,
टिकट रूपये पंद्रह लगता है,
पर घर से स्टेशन तक का,
सौ रुपया देना पड़ता है।
सौ रूपये में बीना तक के,
चक्कर तीन लगा सकते हैं,
पर ऑटो में स्टेशन के,
इतने पैसे क्यों लगते हैं?
घर के छोटे बच्चों को यह,
बात समझ बिल्कुल न आए।
अगर ट्रेन आ जाती घर तक ,
भाग-दौड़ से हम बच जाते ,
भीड़-भाड़ का डर न होता ,
झट पट डिब्बे में चढ़ जाते ।
हाथ पकड़कर मम्मी पापा,
को भीतर तक हम ले जाते।
लंबी चादर बिछा बर्थ पर,
ओढ़ तानकर उन्हें सुलाते।
टीटी से हम कहते हमको ,,
खिड़की वाली बर्थ दिलाये ।
अगर ट्रेन घर तक आ जाती ,
रिक्शे के पैसे बच जाते।
उन पैसों से निर्धन बच्चों ,
की हम कुछ सेवा कर पाते|
उन्हें किताबें लेकर देते ,
कागज़ पेन कलम दे आते।
उनकी ड्रेस सिलाकर देते ,
उनकी फीस चुकाकर आते।
हम बच्चों की बात किसी को ,
भी तो काश समझ आ जाए।
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शेर सिंह
मेहनतकश
ठंडे पड़े हैं
फुटपाथ, डिवाईडर पर बनाए
ईटों के अस्थाई चूल्हे
लेकिन दिख रही हैं
अब भी उनमें
उड़ी राख
अधजली लकड़ियाँ ।
गए हैं
अपने देश, गाँव को
त्योहार पर मिलने, भेंटने
रिक्शा, ठेला खींचने
और बूट पालिश से
कमाये अपनी
कमाई को लेकर ।
पालिथीन, प्लास्टिक की
बदरंग शीटों से
ढके पड़े हैं
उनके गूदडनुमान बिस्तर
और पत्थर से दबे पड़े हैं
रोटी की जुगाड़ के
सामान उनके ।
आएँगे वापस
अपने आत्मीयों से
मिल- भेंट कर
फिर जलेंगे चूल्हे
फिर खुलेगी
पालिथीन से ढकी गठरियाँ
फिर जुट जाएँगे
रोटी की जुगाड़ में ।
अपने सिर पर फैले
खुले आसमान के नीचे
सितारों को ताकते
अथवा कड़ी धूप में
सूरज को टक्कर देते
जीवन का इतिहास बनने में
बिताते हैं दिन-रात
एक-एक दिन का हिसाब
उँगलियों पर गिनते ।
मूल्यों से फिर
आएगी रोटी की महक
फिर शुरू होगी
जुगत
दाँतों से पकड़ने की
एक-एक पैसा
ताकि जा सकें
फिर से अपने गाँव, देश
आशा की डोर थामे
आत्मीयों से मिलने
उनकी उम्मीदों की
ली को
जलाये रखने के लिए ।
लखनऊ
चारबाग से गुडम्बा
लालबाग, केसर बाग से गुडम्बा
गुडम्बा से आलम बाग
बाग तो कहीं
दिखता नहीं
अलबत्ता गुडम्बा, गुडम्बा है ।
न नाज, न नजाकत
न पहले आप, पहले आप
भीड़ है, पर फुरसत में
दिखती है
शान है, शौकत है
अलबत्ता लखनबी नवाब, नवाब हैं ।
लोहिया पथ, अंबेडकर पार्क
कांशीराम, मायावती मुलायम हैं
हर राह, बाजार में
बाकी बचे-खुचे में
बाजपेयी हैं।
हाथी है
साइकिल है
जरा-सा हाथ है
गोमती में कमल
खिलने-खिलने को है
अलबत्ता शाने अवध, अवध है।
सड़क चौड़ी
फुटपाथ संकरी
ऊँचे भवन
तगं गलियाँ
फ्लाईओवर, फुटब्रिज
अलबत्ता भूलभुलैया, भूलभुलैया है।
हैं नजरों में
हजरतगंज, इंदिरानगर, गोमतीनगर
ऐशबाग भी है
लेकिन
न बाग है
न ऐश है
अलबत्ता दुबग्गा, दुबग्गा है।
शेर सिंह
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित ।
एक कविता संग्रह : ' मन देश है, तन परदेश '
प्रकाशित तथा एक कहानी -संग्रह : शीघ्र प्रकाश्य ।
पुरस्कार: राष्ट्र भारती अवार्ड सहित कई
पुरस्कार एवं सम्मान ।
संप्रति : एक राष्ट्रीयकृत बैंक में
वरिष्ठ प्रबंधक ( राजभाषा) ।
संपर्क
17261 -ए, विराम खंड गोमती नगर
लखनऊ- 226०1० ( उम्र.)
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बृजेश नीरज
तरही ग़ज़ल
२२१ २१२१ १२२१ २१२
अब खेल इस जहाँ के सभी जान तो गया
पर पेट की ही आग में ईमान तो गया
ठहरी है ज़िंदगी में अमावस की रात यूँ
इस स्याहपन में भोर का अरमान तो गया
बदली हुई सी इस मेरी सूरत के बाद भी
‘मुझको वो मेरे नाम से पहचान तो गया’
इक चाँद की फिराक में फिरता था वो चकोर
इस आशिकी के फेर में नादान तो गया
परछाइयों के साथ पे इतरा रहा था मैं
सूरज ढला जो साथ का यह भान तो गया
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सीताराम पटेल
अश्वत्थामा
मानस विहीन और मस्तिष्क विहीन होकर
आज भी जीवित है अश्वत्थामा
सूंघ रहा है सुलेशन
पी रहा है गांजा और शराब
खेल रहा है सट्टा
किसी एड्स रोगी के साथ
सो रहा है फुटपाथ पर
मवाद और घाव से लथपथ तन
सिर पर जटाजूट
माथे पर बड़ा फोड़ा
लग रहा हो जैसे नाक का जोड़ा
हाथ पांव हैं ठूंठ
मांग रहा है भीख गाड़ी पर
खांसी से परेशान
कंकाल का ढांचा मात्र
आंखें नारियल कटोरी सी गड़ी
मांस है थुलथुल थुलथुल
नजर से है लाचार
मृत्यु से डराता
फिर भी जीने को लाचार
कर रहा जीवन से प्यार
फेंके हुए माल के लिए
छीना झपटी कुत्तों सा
या फिर कुत्तों से ही छीना झपटी
बिलबिलाते नाली से बीन रहे हैं
रोटी का टुकड़ा
खाते ही मानव और पशुओं में भेद मिटा
शिश्नोदर के लिए जी रहे हैं लोग
खा रहे हैं छप्पन भोग
भोग रहे हैं छप्पन भोग
कर रहे हैं भोग
या फिर भोग रहे हैं मालूम नहीं
संवेदनाएं सब शून्य
रख रहा सबको दायरा संदिग्ध
भाई भाई की लड़ाई
सभी कर रहे अपने को सही सिद्ध
लूट रहा है बेटी बहन मां की अस्मत
अर्थ के पीछे भाग रहा है हर कोई
प्रकृति को नष्ट कर रहा हर भाई
पहन लिया है कोट पेंट टाई
लूट रहा है अपना सहोदर बहन भाई
मार रहा है अपने ही मां बाप को
वह क्या समझेगा प्रकृति के श्राप को
आज घूम रहा है वह खुले आम
और कर रहा है अत्याचार
पति का काट दे रहा है *ग
और पत्नी के *नि में घुसेड़ दे रहा कटार
आज बढ़ गया है यहां नशा का व्यापार
नशा ही करवाता है
सबसे निम्न कोटि का काम
फिर नशा वह चाहे किसी का भी हो
धन का, जमीन का, पद का,
ज्ञान का, विज्ञान का
गांजा का, चरस का, भांग का
पर करता है वह अत्याचार
धर्म अफीम की तरह बरगलाता है
और मानव में अधर्म फैलाता है
आज कोई भी किसी का नहीं है
किसी का नहीं है यहां आज कोई
भाग रहे हैं सभी नशा के पीछे
आज आपस में मची है लूट
जो जितना चाहता है उतना लूट
जल थल नभ में मची है लूट
धरा का कोश हो चुका है अब रिक्त
लूट ले रहा है बेटा मां बाप को
तो मां बाप भी कहां छोड़ रहे हैं बेटा को
अश्वत्थामा होकर जीने को मजबूर है हर भाई
देना नहीं चाहता बहन को मां बाप की कमाई
आज लड़ रहे हैं यहां हर भाई
आज मीडिया में अश्वत्थामा ही छाया है
पिता द्रोण ने ही प्रक्षेपास्त्र बनाया है
सोते को मार काट करने में हैं माहिर
ये मानव को सुलाना ही जानते हैं
आज हमारा ज्ञान का मंदिर जा रहा किस ओर
विकास की ओर या फिर विनाश की ओर
वासना का मंदिर बना फंसे कुत्ता कुतिया सा
अश्वत्थामा पढ़ रहा है अपने ही छात्रा के साथ
पागल की किताब
पोर्न पिक्चर देख रहा है आग ताप
जो देखते है सिर्फ पोर्न पिक्चर
संसार में भरे पड़े हैं अनगिनत अश्वत्थामाएं
जो समझ रहे हैं अपने को पहलवान गामाएं
अश्वत्थामाएं पैदा कर रहा है और अनेक अश्वत्थामा
-----------.
आराध्या
जिसको मिलना होता है
मिल लेते हैं
हम चाहकर भी मिल नहीं पाते हैं
वृन्दावन तुम आई
फिर चली गई
कुछ समय पश्चात् मैं आया
मुझे कहते हैं जहां से मैं गया
फिर वहां वापस नहीं आया
झूठ कहते हैं लोग
झूठे हैं जो ऐसा कहते हैं
सच बताउं मेरी आराध्या
मैं यहां से कभी गया ही नहीं था
क्या कभी तेरे मन से गया हूं
अगर गया होउंगा तो कहना मेरी आराध्या
जब जब तुमने मुझे याद किया है
तब तब मैं तेरे पास आया हूं
तुमने कहा था मेरा कान्हा
निहत्था महाभारत में क्या कर रहा है
सच बताउं मेरी आराध्या
मैं महाभारत में तुम्हें याद कर रहा था
प्रेम क्या कभी भूलने की चीज है आराध्या
प्रेम ही शक्ति है
जिसे मैंने सारा जीवन
अपना तन मन धारण किया है
कोई भी अस्त्र शस्त्र मेरे पास से गुजरते
पर मुझे कुछ नहीं कर पाते थे
वे प्रेम के आगे झुक जाते थे
नमन करके चले जाते थे
मेरी आराध्या
प्रेम कहां निहत्था होता है
प्रेम की शक्ति अस्त्र शस्त्र की शक्ति को
शक्तिहीन कर देते हैं
लोग मेरे मुस्कुराते हुए चेहरे को देखते
और उनका शर झुक जाता था
तुम्हीं बताओ मेरी आराध्या
मुस्कुराते हुए चेहरे किसे अच्छे नहीं लगते
तुम्हारी मुस्कुराहट मेरे हृदय में अंकित है
तुम इतनी गोरी की पूनम की चांद भी
तुम्हें देखकर लजा जाता है
उसमें पाटल रंग की साड़ी
खूब जंच रहा थ तुम्हें
तुम्हारी नयन मेरे नयन से मिले हुए थे
और तुम मुस्कुरा रही थी
तुम्हारी मुस्कुराहट मेरे तन बदन को
रांेमांचित कर रहेे थे
मेरे तन बदन रस से सराबोर हो रहे थे
एक बार फिर मेरी आराध्या
उस रस से सराबोर होना चाहता हूं
यमुना के श्याम सलिल में
जब तुम डुबकी लगाती
तो मेरा मन हरित हो जाता था
कदंब के डाली में छुपा बैठा रहता
तुझे स्नान करते बहुत गौर से देखता
तो मेरा हृदय बाग बाग हो जाता है
तुम्हारे संग जो छोटा सा पल जीया है
मेरी आराध्या वे मेरे जीवन के सबसे अनमोल पल है
उसे मैं अपनी मृत्यु तक भूल नहीं सकता
कैशोर्य के वो मधुर पल
कैसे अपने जीवन से जल्दी ही
गुजर गए मेरी आराघ्या
क्या सुख के पल बहुत क्षणिक होता है
या फिर सुख के क्षण बहुत क्षणिक होता है
जब अपने को तिल तिल मरते देखता हूं
ते मरते हुए प्राणियों के चित्र
मेरे सामने खड़े हो जाते हैं
कितने विवश, कितने लाचार
नहीं जाना चाहते
फिर भी जाते हैं उस पार
अंतिम पल तक ओ सब काम करना चाहते हैं
जो जीवन में कर नहीं पायें हैं
बृहद जीवन गुजार दी हमने
सिर्फ तुम्हारे अनमोल क्षण को समेटने में
लोग प्रेम कों जीवन से पलायन कहते हैं
पर इसी पलायन में सुख मिलता है
चाहे जीवन में कठिन से कठिन परिस्थिति
पर हम इस पल को कभी भुला न पाए
मेरी आराध्या तुम्हारे संग
रात भर रास खेलना चाहता हूं
ये मेरे जीवन के सबसे अनमोल पल है
तुम्हारी गगरिया को फोड़ना
गोरस से तुम्हारा तन बदन भीगना
तुम्हारे भीगे हुए बदन को चाटना
अद्भुत आनंद से तुम्हारा सिहरन
तुम्हारा मिलकर भी न मिलना
हमारा न मिलकर भी मिलना हो जाता है
प्रेम का प्रकाश दोनों के दिल में प्रकाशित है
जिस प्रकाश को हम दोनों स्वर्ग से यहां लाये हैं
उस प्रकाश को बादल क्यों ढंक रहे हैं
आओ मेरी आराध्या मिलकर
इस बादल को दूर भगा दें
---------------.
पिनाकजयी की हार
मेरा दाहिना आंख फड़का, संग दिल भी धड़का
तब प्रिये तुम मुझको बहुत याद आये
पर तुम रावण की अशोक वाटिका में कैद हो
तुम मेरी अर्द्धांगिनी होकर दशानन तुम्हें कैद करे
धिक्कार है मेरी पिनाकजयी इस जीवन को
क्या प्रिये तुम्हें भी रावण की पसंद है अशोक वाटिका
वहां इतने दिन रहने के पश्चात्
रास आ गया तुम्हें भी उसका अशोक विहार
क्या तुम मुझे एक पल के लिए भी याद नहीं करती
तुम एक पल भी मेरे दिल से अलग नहीं हो सकती
प्रिये तुम मेरे दिल ए मंदिर में निवास करती हो
हम तुम दोनों मिले थे विदेह की वाटिका में
पहली बार तुम्हें देखा और मेरा हृदय तुम्हारा हो गया था
मैं राघव तुम्हें पाने के लिए किया शिवशक्ति की आराधना
और सफल हो गया, पिनाकजयी कहलाया
तुमने मुझे और मैंने तुम्हें मूंदरी पहनाया
उस अर्थ पिशाच का महल जलाने के लिए
काफी है हनुमान का पूंछ
उसे भेज रहा हूं मूंदरी के साथ
जिसे तुमने मुझे सगाई के दिन पहनाया था
उसे खाने पीने को दे देना
वरना ओ उद्बसिया है, बहुत उतपात मचायेगा
हनुमान तो श्रीलंका को जलायेगा
पर मेरे दिल में जो जल रहा है, उसे कौन बुझायेगा
मैंने तो गौतम को समझा बुझा कर मना लिया
पर मुझे कौन मनायेगा, कौन समझा पायेगा
श्रीराम के नारी को रावण हरण कर लिया
फिर सीता को अपने दिल में जगह दे पाउंगा
अहिल्या पर की स्त्री थी
मैंने गौतम को अच्छा समझा दिया
अहिल्या निर्दोष है, निःपाप है
इन्द्र ने धोखे से अहिल्या का बलात्कार किया है
अहिल्या मन से तुम्हें प्यार करती है
क्यूं न इन्द्र ने उसके तन को भोगा हो
गौतम तो मान गया मैं कैसे मानूं
पर उपदेश कुशल बहुतेरे
मेरी पत्नी रावण के वश में है
मेरे गुरू शिव ने सती को अग्निस्नान करवाया
तब उसे चैन आया
चूंकि उसने सीता का रूप धारण किया था
तो क्यों न मैं भी इसे अग्नि स्नान करवाउं
और मैं भी मन की इस झंझट से छुटकारा पाउं
पर हाय हृदय मैं तुम्हें कितना चाहता हूं
तुम्हारे बिना मेरे अस्तित्व की कल्पना नहीं कर सकता
हा! क्यूं कोई किसी को इतना चाहता है
मस्तिष्क की कौन सी रासायनिक क्रिया
तुम्हें मुझसे जुदा करना नहीं चाहता
तुम्हारी एक एक कर्म मेरे हृदयपटल में अंकित है
हम सबसे पहले आपके पिताजी के फुलवारी में मिले थे
हमको हमारे गुरूजी ने पूजन हेतु सुमन मंगवाया था
और मैं सूर्यवंशी राजकुमार तुम्हें अपना मन दे बैठा
तुम भी तो अपना दिल मुझे दे दी थी
इसलिए हमारे नयन परस्पर कर रहे थे योग
तुम नीचे नयन करके मुस्कुरा रही थी
तुम्हारी मोहक मुस्कान मेरे दिल के आरपार हो रहे थे
मेरी दिल की धड़कन तेज हो गया था
मैं बहुत कुछ कहना चाह रहा था
पर मैं मौन था, तुम मौन थी
क्या मौन प्रणय की भाषा है
पर आज मेरे मन में अन्तद्र्वन्द्व क्यों
शक को जीतना बहुत ही कठिन है
क्यों न वह पुरूषोत्तम राम हो
जागृत देवी
संवत् 2023 की शरद पूर्णिमा को मेरी मां बनी तुम
उस दिन पूरे परिवार को सहस्रधारा में स्नान कराने के पश्चात्
मुझे इस भवसागर में लायी
और जब तू 1जनवरी 2011 को गई
तो भी पूरे परिवार को भगवद् कथा सुनाने के बाद गई
तूने परिवार को जान बूझकर कभी भी कष्ट नहीं दिया
तुम्हारे कारण किसी को कोई कष्ट हुआ हो
तो उनके नासमझी के कारण हुआ होगा
तुम्हारी जीवित रहने तक लगता रहा
मैं मां और पिताजी में पिताजी को ज्यादा चाहता हूं
पर अब लगता है मां
मैं सिर्फ तुम्हें सिर्फ तुम्हें ही ज्यादा चाहता हूं
तू हमेशा यथार्थ से टकराती रही
और पिताजी पलायन कर मजा लूटते रहे
तू कड़ा कर्कश और कठोर कहलाई
और वो फकीर बनता रहा
सत्यवादी का ढोंग रचता रहा
तूने दूध और ममता के साथ साथ
सच्चाई का कड़वा घूंट भी पिलाया था
मां एक बार फिर बचपन में उतर रहा हूं
वो कौन सा कारण है, याद नहीं आ रहा है
मैंने खपरैल से पिताजी को मारा
खपरैल आंख के पास लगा
पिताजी क्रोधित होकर मुझे ढ़ूंढ़ने लगे
मैं चुपचाप दसना अरोना में लेटा था
मेरी मां मुझे देखी और मेरे उपर लुंगी डाल दी
पिताजी ढ़ूंढ़ते रहे और मैं मार खाने से बच गया
मां की ममता ने मुझे मार खाने से बचाया
घर में पैसा मां ही मांगकर लाती
मां ही हमें तिनका तिनका जोड़कर पढ़ाई है
मां और पिताजी दोंनो को किसी का
अहित चाहते हुए नहीं देखा है
मेरी दृष्टिकोण में मेरी मां संहारती नहीं संहारती देवी थी
ईश्वर को संपूर्ण में तो देखता हूं
पर उसे एक में देखना चाहता हूं
तो मां और पिताजी का चेहरा नजर आता है
वे हमारे जागृत देवी देवता थे
sitarampatel.reda@gmail.com
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रमेश चौहान
कल और आज (दोहे)
1.नई पुरानी बात में, किसे कहे हम श्रेष्ठ ।
एक अंध विश्वास है, दूजा फैशन प्रेष्ठ ।।
(प्रेष्ठ-परमप्रिय)
2. तना खड़ा है मूल पर, लगे तना पर फूल ।
रम्य तना का फूल है, जमे मूल पर धूल ।।
3. पानी दे दो मूल को, तना को है कबूल ।
नीर तना पर सींचये, सूखे पेड़ समूल ।।
4. अनुभव कहते हैं किसे, बता सके है बाल ।
जोश होश छोड़ कर, बजा रहें हैं गाल ।।
5. क्रंदन ठाने भूत है, मतलब रखे न आज ।
चिंता भविष्य है करे, कैसे होगी काज ।।
6. कल तो कड़वी औषधि, मीठी विष है आज ।
आज और कल मेल कर, समझ सके ना राज ।।
-रमेश चौहान
मिश्रापारा, नवागढ
जिला-बेमेतरा छ.ग.
मो. 9977069545
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प्रतिभा अंश
आधारशिला तुम जीवन के
मेरे पति तुम मेरे प्रियवर
आधारशिला तुम जीवन के
मेरे पति मेरे प्रियवर
आधार तुम्हीं से जीवन का
कल बाबा के आँगन में
घर-घर खेला करती थी
वो घर वो सपनों का जीवन
डाला तू ने झोली में
मेरे पति मेरे प्रियवर
आधार तुम्हीं से जीवन का
आयी जब जीवन में तेरे
मुझको कई आयाम मिले
मान मिला सम्मान मिला
मातृत्व का अभिमान मिला
मेरे पति मेरे प्रियवर
आधार तुम्हीं से जीवन का
आयेगी सांझ जीवन की
मिल साथ में हम फिर
कुछ खट्टी कुछ मीठी बातें
साझा करेंगे दोनों मिल के
मेरे पति मेरे प्रियवर
आधार तुम्हीं से सीखा
सुनो प्रियवर तुम मेरी बातें
जो मैं कभी न कह पायी
एक-एक करके सब दूर हुए पर
तुम दूर न हो जीवन से
जीवन के इस अग्नि पथ पे
छोड न जाना मुझको प्रियवर
विरह की ज्वाला में जलके
फिर तुझसे मिलने आऊँगी
मेरे पति मेरे प्रियवर
आधारशिला तुम जीवन के
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मैं ही प्रतिभा भारत की
मैं हूँ अभिलाषा भारत की
नित्य करती हूँ आराधना जिसकी
वे कल्पना है, नव-भारत की
बचपन से पाठ-पढा,
मैं सदा ही गीता का ,
कर्म करो ,सिर्फ कर्म करो ।,
अपना तेज रह तरफ फैलाव
भरत ही नहीं , विश्व में सारे ।
भारतीय प्रतिभा व्याप्त होगी।
आदित्य और विवेक का भी ,
सान्निध्य मेरे साथ है।
ले रही है आकार कल्पना
अपने नव-भारत का ,
करना है साकार कल्पना ,
अपने नव-भारत का
बाबूजी का वे सपना प्यार
स्वर्ग से सुंदर भारत अपना
वे सपना ही तो अभिलाषा है,
मेरे इस भारत का ,
सुबोध होगा हर भारतवासी को
अपने नव-निर्मित भारत का
मैं ही प्रतिभा भारत की
मैं ही अभिलाषा भारत की
करती मैं आराधना ,जिसकी
वे साकार कल्पना हैं, भारत की ।
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किरण मिश्रा
क्यों
+++
क्यों कोई कोई दिन
इतना बोझिल होता है
कि खिड़की से गुजरती हवा
खुले कपाट बंद कर देती है,
और दिन अंधेरों में सहम कर छिप जाता है
क्यों सूरज खिड़की के कपाट नहीं खोलता
ठिठक कर आँगन में खड़ा रहता है
और हर ख़ुशी किनारे के पार नज़र आती है
क्यों ये बोझिल दिन
सिद्धार्थ की सीमाओं से निकल कर बुद्ध नहीं बन जाता ?
--
Dr Kiran Mishra
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कुमार अनिल
कविता (अब जिंदगी ऑनलाइन हो गई)
अब जिंदगी एक लाइन हो गई, पहले ऑफ थी अब ऑनलाइन हो गईं,
लिखते थे खत पहले खून से, फिर स्याही भी अब ऑफलाइन हो गईं,
टाइपराइटर का जमाना हुआ अब पुराना, अब दोस्ती की कहानी एक लाइन हो गईं।
पहुंचते-पहुंचते वक्त की घड़ी भी थक जाती थी, पर समय पर चिट्ठी भी नहीं पहुंच पाती थी,
इंतजार की कहानी अब पुरानी हो गई, अब जिंदगी ऑनलाइन हो गईं,
अन्तर्देशी, पोस्टकार्ड अब दुर्लभ हो गये, लैंडलाइन फोन भी अब गुम हो गये,
अब पहुंचती नहीं है तार से कोई खबरें, फेक्स की मशीन भी अब पुरानी हो गई,
अब व्हाट्स ऐप की एक लाइन हो गई, और ई मेल की खबरें पुरानी हो गईं ।
अब जिंदगी एक लाइन हो गईं, पहले ऑफ थी अब ऑनलाइन हो गईं ।
मिलने और बिछुड़ने के किस्से और कहानी हो गईं,
कल और आज आने की खबरें अब पुरानी हो गईं,
शाम डलते ही चिड़ियों की चहचहाहट भी अब पुरानी हो गईं,
रोज जगाते थे मंदिर, मस्जिद, चर्च और गरुद्वारे,
मोबाइल की धण्टी के सामने, कौवा की आवाज भी अब पुरानी हो गईं ।
अब जिंदगी की एक ही कहानी हो गईं, पहले ऑफ थी अब ऑनलाइन हो गईं ।
अब घर की टीवी भी एलईडी हो गई, टीवी की छोड़ो अब विडियो भी एचडी हो गई,
जमाना वो पुराना था, जब खपरैल का जमाना था, घर की चार दिवारी भी अब कहानी हो गईं,
सीढ़ी उतरने चढ़ने की अब पुरानी हो गईं, अब जिंदगी लिफ्ट की दीवानी हो गई,
मोड़ भी बहुत थे रास्ते में पर अब जिंदगी एक लाइन हो गई।
अब जिंदगी एक लाइन हो गई, पहले ऑफ थी अब ऑनलाइन हो गई ।
सुने थे नाम सड़कों के, जिनमें लिखे थे स्लोगन धीरे चलने के,
पर अब सौ की स्पीड के सामने धीरे चलने की कहानी हो गई।
सुने थे सड़कों पर अधिक मोड़ों के किस्से, पर अब रोड़ अपनी एक लाइन हो गई।
अब जिंदगी एक लाइन हो गई, पहले ऑफ दी अब ऑनलाइन हो गई ।
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कविता-
बेकार में हंसता रहा
हर हार पर हंसता रहा , हर जीत पर हंसता रहा,
पर सनम इस हार ने जख्म ऐसे हैं दिये, कि अपने आप पर हंसता रहा,
में मानता हूं कि हर हार के बाद ही जीत होती है,
पर सनम इस हार ने, जख्म ऐसे हैं दिये, कि इस हार के हर गुनहगार पर हंसता रहा।
रोज सुनते थे कहानी हर बड़ी उस जीत की,
पर सनम इस हार ने, जख्म ऐसे हैं दिये, कि इस हार के इंकलाब पर हंसता रहा।
में मानता हूं कि ये है पछाड़ उस दहाड़ की,
पर हमें दूरी पता नहीं थी उस पहाड़ की, पर सनम इस हार की हर मार पर हंसता रहा,
हर हार पर हंसता रहा, हर जीत पर हंसता रहा, पर सनम इस हार ने जख्म ऐसे हैं दिये, कि अपने आप पर हंसता रहा।
रोज सुनते थे कहानी हर बड़ी उस प्रीत की, पर सनम इस प्रीत की झंकार पर हंसता रहा। हर गली मसगूल थी, देश की आवाज थी, पर सनम इस हार के दीदार पर हंसता रहा,
हर हार पर हंसता रहा, हर जीत पर हंसता रहा, पर सनम इस हार ने जख्म ऐसे हैं दिये,
कि हर मार पर हंसता रहा।
हर मार का वो पहर मुझे याद था, इस पहर के सामने हर पहर बेकार था,
रोज की हमने गलती सही, पर इस पहर के सामने हर पहर बेकार था।
ना समझ था में सही, पर सनम इस हार के हर समझदार पर हंसता रहा।
हर ताल पर हंसता रहा, दुश्मन के हर जाल पर हंसता रहा, खेल पर हंसता रहा,
पर सनम इस हार के, उस मेल पर हंसता रहा।
रात काली थी सही, पर समय का खेल था, मैं ना समझा था सही, पर सनम इस हार के, इंतजार पर हंसता रहा।
हर रोज में सहता रहा, हर रोज में हंसता रहा,
हर हार पर हंसता रहा , हर जीत पर हंसता रहा,
अब सनम मुझे याद है,
बेकार में हंसता रहा।
anilpara123@gmail.com
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हरीश कुमार
गर्मियां एक बार फिर लौट आई हैं
पंखो ने धूल झाड़ नाचना शुरू कर दिया हैं
गर्म कपड़े प्यार में धोखा खाए अलमारियों में दुबक गए हैं
ठंडा पानी घर आँगन बाथरूम में ब्रेकिंग न्यूज की तरह पसरा है
माली नए पौधे लेकर गलियों में हरियाली बुनने निकला है
मुझे बागीचे में रंग मुस्कुराते हुए पुकारते हैं
नीम शहतूत की छाया अपनी गोद पसारे फैली है
बगीचे की खुरपी फावड़ा मेरा हाथ पकड़ने को लालायित हैं
वे नयी क्यारियों को रचना चाहते हैं मेरा साथ चाहते हैं
कद्दू भिन्डी तुरई टमाटर टिंडे मिर्ची के बीज कितने उत्सुक हैं
स्कूल के नए सत्र की नयी किताबों जैसे खुश्बूनुमा
अशोक पर आते नए पत्तों जैसे खिलना चाहते हैं
बेरंग घास और पापी के फूल नयी आई जवानी की तरह खिले हैं
सुबह और शाम के बीच दोपहर चाँद में दाग सी हैं
पर उसके बिना दोनों ही खाली सी बारिश को पुकारती लगती हैं
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बारिश में क्या खेलें होली
फसल भीग गयी भीगी झोली
अन्नदाता के होश उड़ गए
इंद्र देवता अधिक बरस गए
उड़ा हुआ चेहरे का रंग
होरी हरिया सब है दंग
फसल खेत में धराशायी
कैसे जुटेगी रोटी को पाई
कौन उमंग और कैसा रंग
यह तो उसमें पड़ी है भंग
बच्चे तो पिचकारी मांगें
गुजिया पापड़ कल्पना में
शहरी पापा का भी हाल
महंगाई ने करा बेहाल
युवा तो अब भी खूब मस्त हैं
रोजगार से ही पस्त हैं
फिर भी घूमें बना के टोली
बुरा न मानो आई होली।
हरीश
हरीश कुमार
गोबिंद कालोनी
गली न -२ ,नजदीक विजय क्लाथ हाउस ,बरनाला ,पंजाब
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देवेन्द्र सुथार
मेरे गांव मेँ......
खुशीहाली के लिखेँ है गीत
बैलोँ की रुनझून संगीत
प्रेम का न्यौता देते मनमीत
आओ लौटे गांवोँ के अतीत
कृषक की कुदाली
कोयल की मीठी बोली
लहलहाती है सरसोँ सुहानी
खेतोँ मेँ चलती हवा मनभावनी
शांति और सूकून का संदेश
न कोई दुख है न क्लेश
गांव भारत की आत्मा कहत गांधी
झोकेँ आते आती खुशीहाली की आंधी
घनन घनन मेघा गरजते
और तेज गति वे बसरते
चली जाती बारिश के वक्त
घर की बिजली
लालटेन की रोशनी मेँ लगती रात दीवाली
लहंगा चोली ग्रामीण परिधान
आज भी गांवोँ मेँ है मेरा हिँदूस्तान॥
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न कलम बिकती है
न कलमकार बिकता है
खबरोँ के गुलदस्ते मेँ
अखबार बिकता है
क्योँ सोच की तंग
गलियोँ से निकलते नहीँ
सराफत के बाजार मेँ
हाल चाल बिकता है
दुनिया मेँ कभी पलट कर
पूछा है तो बताओ
बस कह कर रह जाते हो
पत्रकार बिकता है
कितना जलकर देते है
दुनिया भर की खबर
कलेजे वाला इंसान ही
अखबार मेँ टिकता है
-बालकवि देवेन्द्र सुथार
गांधी चौक,आतमणावास,बागरा,जिला-जालोर,राजस्थान। 343025
ईमेल-devendrasuthar196@gmail.com
मेरी रचना को स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार!
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