"एक कोशिश रोशनी की ओर" में रोशनी की तलाश :- हिन्दी व राजस्थानी भाषा की सुविख्यात साहित्यकार , कवयित्री जिनका जन्म राजस्थान की धोरो...
"एक कोशिश रोशनी की ओर" में रोशनी की तलाश :-
हिन्दी व राजस्थानी भाषा की सुविख्यात साहित्यकार , कवयित्री जिनका जन्म राजस्थान की धोरों की धरती व सुप्रसिद्ध पर्यटन स्थल ओसियाँ जी में हुआ हो, बचपन छतीसगढ़ के हरे-भरे छोटे से कस्बे बिल्हा में बीता प्रारम्भिक शिक्षा भी वंही हुई , बाकि की स्कूली शिक्षा ओसियाँ में पूरी हुई तथा बाद की शिक्षा-दीक्षा राजस्थान के प्रमुख शिक्षा-केंद्र जोधपुर में सम्पन्न हुई हो, ऐसी कवयित्री की कविताओं में अवश्य ही 'यायावरी व विभिन्न संस्कृतियों' के समावेश का पुट नजर आना स्वाभाविक है । ऐसी कवयित्री श्रीमती आशा पांडेय 'ओझा' से मेरी पहली मुलाक़ात झीलों की नगरी उदयपुर से सौ किलोमीटर दूर अरावली पर्वत-माला की सुरम्य पहाड़ियों में स्थित वीरांगना हाड़ीरानी के त्याग-स्थल वाली पुण्य व ऐतिहासिक भूमि सलूम्बर में देश की सुविख्यात साहित्यकार विमला भण्डारी की सलिला संस्था व राजस्थान साहित्य अकादमी के सौजन्य से आयोजित राष्ट्रीय बाल साहित्यकार सम्मेलन -2014 के पुरस्कार वितरण समारोह के दौरान हुई ।
वह गहरे लाल रंग की चुनरी और घाघरा वाले पारंपरिक राजस्थानी परिधान में राजस्थानी फिल्मों की किसी तेजस्वी क्षत्राणी नायिका जैसी नजर आ रही थी । शायद राजस्थानी संस्कृति, भाषा व साहित्य के अथाह प्रेम तथा हाड़ीरानी की बलिदान भूमि सलूम्बर ने कवयित्री को उस हद तक प्रभावित कर दिया है कि इस वैश्वीकरण व परिवर्तन के युग में भी वह स्वयं एक एम्बेसेडर के रूप में राजपूताना के पुरातन गौरव का संवाहक बन इस विश्व-विख्यात संस्कृति को अक्षुण्ण रखने के लिए कृत-संकल्प हो। पहली नजर में तो मेरे मन में यह ख्याल आया था कि वह सलूम्बर राजघराने के वर्तमान वंशज की कोई संभ्रांत महिला होगी , तभी तो इतनी जल्दी सारे राष्ट्रीय-स्तर के साहित्यकारों से घुल मिलकर बातें कर रही है । एक संवेदनशील साहित्यकार के सिवाय और कौन हो सकता है ! जो हाड़ीरानी की प्रतिमा पर साहित्यकारों द्वारा पुष्पांजलि समर्पित करते समय अकस्मात अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज करवा सके ! बाद में पता चला कि वह अजमेर के जितेंद्र पांडेयजी , राजस्थान प्रशासनिक अधिकारी की धर्मपत्नी है और अब उप-जिलपाल के रूप में उनकी नियुक्ति मेरी जन्म-स्थली सिरोही के पिंडवाड़ा तहसील में है । ओसियां के धोरों को लांघकर , छतीसगढ़ की माटी के सौंधी-सुगंध से सुवासित होकर वीर दुर्गादास की जन्मभूमि जोधपुर में संस्कार अर्जित कर मेरे बचपन के स्पंदनों की स्मृति को तरोताजा करने वाली धरती को जिसने अपनी साहित्य साधना का केंद्र बिन्दु बनाया हो, अगर उसकी साहित्यिक संवेदनाओं से परिचित होने का अवसर आपको मिलता है तो आप किसी विशिष्ट सौभाग्यशाली इंसान से कम नहीं हो सकते ।
जब सलूम्बर का वह राष्ट्रीय बाल साहित्यकार समारोह अपने समापन के ओर अग्रसर हो रहा था, तब मेरा सारा ध्यान सिरोही की ओर आकर्षित हो रहा था , जहां मुझे अपनी वृदधा माँ से मिलना था । माँ की ममता ही कुछ ऐसी होती है , जो आपको दुनिया के किसी कोने से अपने पास खींचकर ले जाती है । आदिगुरु शंकराचार्य तो अपनी माँ को अंतिम समय में मिलने के लिए सूक्ष्म वायवीय शरीर का सहारा लेकर बनारस या और किसी जगह के शास्त्रार्थ से केरल की धरती पर पहुंचे थे । मुझे भी सलूम्बर की धरती में माँ नजर आ रही थी और एक अदृश्य शक्ति सिरोही प्रस्थान करने के लिए प्रेरित कर रही थी । वहाँ जाना तो पूर्व से तय था , फिर सलूम्बर इतना नजदीक ! कुछ ऐसे ही विचार मेरे मन में चल रहे थे कि आशा ने मुझसे पूछा, "आप सिरोही के रहने वाले हो ?' " "हाँ", मैंने उत्तर दिया और बात आगे बढ़ाई । "आप पिंडवाड़ा (सिरोही रोड )की हो न ?" "नहीं, पिंडवाड़ा में उनकी पोस्टिंग है। रहने वाली में जोधपुर की हूँ ।
अगर आप सिरोही जाना चाहे तो मेरे पास गाड़ी है ।सिरोही रोड तक आपको छोड़ दूँगी, मगर......." कहते-कहते वह कुछ पल के लिए चुप हो गई । " मगर... ? " मैंने पूछा । मेरे मन के भावों को समझकर वह कहने लगी, "ऐसी कोई बात नहीं हैं । विमला दीदी ने कुछ महिला साहित्यकारों को उदयपुर रेलवे स्टेशन तक छोड़ने का आग्रह किया है । आप उदयपुर तक अपनी व्यवस्था कर लेते तो ?...." फिर प्रश्नवाचक ? विमला दीदी ने तो पहले ही मुझे कहा था कि आपको उदयपुर तक जाने के लिए चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है । मैं सारा बंदोबस्त कर दूँगी । आयोजन समाप्त होने के बाद सभी साहित्यकार अपने-अपने गंतव्य स्थानों की ओर जाने लगे थे, एक दूसरे से भावभीनी विदा लेते हुए । आस-पास के इलाकों जैसे भीलवाडा , कोटा , पाली और बांसवाड़ा वालें अपनी-अपनी निजी कारों में , सलूम्बर और उदयपुर वाले साहित्यकार अपनी-अपनी बाइकों पर और देश के दूर-दराज राज्यों के कोने-कोने से आए साहित्यकार सलिला संस्था के सौजन्य से सुविधानुसार टैक्सी या कार में उदयपुर रेल्वे-स्टेशन की ओर प्रस्थान कर रहे थे । दो दिन की इस संगम-स्थली में पता नहीं ऐसा क्या जादू था , कि सभी की आंखे विदा होते समय नम लग रही थी । शायद बाल-साहित्यकार कुछ ज्यादा ही भावुक होते हैं ! बच्चों की तरह अकृत्रिमता व नैसर्गिक भोलापन , जिसमें सिवाय 'वसुधैव कुटुंबकम' की भावना के और कुछ नजर नहीं आता हो । दिल्ली, अलमोड़ा , नैनीताल , रानीखेत और हल्द्वानी के आस-पास के इलाकों से पधारे दिविक रमेश, उदय किरौला , मनु चमौली, विमला जोशी व अन्य बाल- साहित्यकारों के , भले ही अल्प-काल के लिए ही सही , मगर सार्थक सम्पर्क ने मानों मुझे बचपन की दुनिया झाँकने के लिए विवश कर दिया हो ।
सिरोही का पैलेस-रोड , रामझरोखा व सारणेश्वरजी का मंदिर और वहाँ भरने वाला पशु-मेला, कालकाजी के तालाब से दिखने वाली माउंट-आबू की वह चिकनी गोल चट्टान , सरूपविलास का कलेक्टर-ऑफिस जहां पिताजी कभी बाबू थे , बग्गीखाना स्कूल , सरकेपी स्कूल और न्यू बिल्डिंग साइंस स्कूल , जिला-पुस्तकालय , पेवेलियन , सिरोही का किला सभी एक-एककर सब आँखों के सामने एक चलचित्र की तरह घूमने लगे । एक-एक जगह , जहां कभी बचपन गुजरा हो । 'तारक मेहता का उल्टा चश्मा' सब टीवी के हास्य-धारावाहिक का 'शैलेश लोढ़ा' , चाणक्य सीरियल के निर्माता 'डॉ चन्द्रप्रकाश द्विवेदी' , फिल्म-संगीतज्ञ 'नदीम' , हीरोइन 'मुमताज़', पावापुरी के निर्माता हीरों के व्यापारी 'के॰पी॰ सिंघवी' , प्रसिद्ध इतिहासज्ञ 'स्वर्गीय पंडित हीरालाल ओझा' , विख्यात कवि 'दिनेश सिंदल' , गांधीवादी नेता ' स्वर्गीय गोकुल भाई भट्ट ' आदि के चेहरे स्मृति-पटल पर उभरने लगे । शैलेश लोढ़ा और नदीम तो सहपाठी रह चुके है । अब जीवन के दीर्घ बयालीस साल का लंबा समय पार हो गया था और जिस जगह को जीविकोपार्जन के लिए छोड़े हुए एक स्वर्ण-जयंती बीत चुकी हो । वहाँ की आबोहवा में आज भी वह आकर्षण है , जो बाइस सौ किलोमीटर दूर ओड़िशा के सम्बलपुर की धरती से राजस्थान के सलूम्बर तक का सुहाना हवाई सफर तय करने के बाद सिरणवा पर्वत की शृंख़लाओं की तलहटी में बसी सिरोही के लिए "जननी जन्मभूमि स्वर्गादापि गरियसी" की उक्ति चरितार्थ कर रही थी । कभी तो यह भी लग रहा था की सलूम्बर से मेरा कुछ पुनर्जन्म का रिश्ता रहा होगा और विमला दीदी से तो शत-प्रतिशत । उनके हाथ से सम्मान पाना मेरे लिए किसी सपने से कम नहीं था । समापन समारोह के उद्बोधन-सत्र में मैंने अपने हृदयोद्गार स्वत: इस तरह प्रस्फुटित हुए थे , "विमला दीदी न केवल मेरी मार्गदर्शक है , वरन वह मेरी प्रथम साहित्यिक गुरु है । जिस प्रकार एक माँ अपने बच्चे को उंगली पकड़कर चलना सिखाती है, ऐसे ही साहित्य की बारीकियों को वैयाकरण बनकर उन्होंने मुझे सिखाया था , मेरी भूलों का सुधार कर साहित्य के उत्कृष्ट मार्ग की आगे बढ्ने के लिए प्रोत्साहित किया था । वे दिन कैसे भूले जा सकते है, जब कुछ कारणवश मेरा साहित्य से मोह भंग हो रहा था और मैं टूटता जा रहा था , तब विमला दीदी ने कृष्ण की तरह मुझे कर्मयोग की शिक्षा प्रदान की और मेरा संबल बढ़ाया , मुझे टूटने से रोका ।आज जो कुछ भी हूँ , उनका योगदान मेरे जीवन सर्वोपरि है ।यहाँ तक कि मेरे पहले अनूदित उपन्यास "पक्षीवास" का प्राक्कथन भी आपने लिखा था ।" आखिरकर दीदी ने मुझे आशा के साथ जाने के लिए कहा । लगभग एक-दो घंटे का सफर था सलूम्बर से उदयपुर का । आशा हमसें हमारे जीवन के अनुभवों को जाने के साथ साथ अपने जीवन की कहानियाँ, अपने संघर्ष, के बारे में बताती जा रही थी । अपने ब्लॉग 'अंबुधि - पयोधि' के बारे में , अपनी गैर सरकारी संस्था त्रिसुगंधी के बारे में , अपने कविता-संग्रह "जर्रे-जर्रे में वो है" के बारे में , और बीच-बीच में वह अपने परिवार खासकर अपने पिताजी से अटूट लगाव के बारे में बताना नहीं भूल रही थी । मैं चुपचाप सुनते जा रहा था । पिछली सीट पर बैठी डॉ॰ प्रभापन्त हामी भरते जा रही थी । उनकी रिसर्च स्कॉलर सहेली पास खिड़की पर सिर टिकाए क्लांत-मन से सोई हुई थी । पता नहीं , वह तंद्रावस्था में बातें सुन भी रही थी या गहरी नींद के आगोश में स्वपनदर्शी बनकर अपने किसी शोधपत्र के बारे में सोच रही थी । यह बात तो मैं जान चुका था कि आशा को कंप्यूटर की अच्छी-खासी जानकारी थी , ब्लॉग, फेसबुक, ट्विटर , ऑरकुट , यू-ट्यूब से लेकर सोशल मीडिया के सभी अद्यतन प्रणालियों की उसे जानकारी थी । जब मैंने उसका कारण जानना चाहा तो वह कहने लगी, " पहले मैं वकालात कर रही थी, मगर बाद में पारिवारिक उत्तरदायित्वों की ओर ध्यान देने के लिए नौकरी छोड़कर आजकल मैं अपनी सारी ऊर्जा सामाजिक गतिविधियों के साथ-साथ महिला-उत्थान और पर्यावरण जागरूकता संबन्धित ज्वलंत मुद्दों के क्रियान्वयन पर खर्च करती हूँ । इसलिए मुझे लोगों से जुड़ना अच्छा लगता है और आधुनिक युग में सूचना-क्रांति ने सारी दुनिया को ग्लोबल-विलेज बना दिया है।अनेक विश्वस्तरीय साहित्यिक जानकारियाँ भी मिलती है इन्टरनेट के माध्यम से बड़े-बड़े लेखकों से दोस्ती होती है फेसबुक पर, और तो और एक बहुत बड़ा पाठक समूह भी मिलता है आपको ।" आशा की इस बात पर डॉ॰ प्रभापन्त निरुत्तर रही । साफ जाहिर था, उनकी फेसबुक व इन्टरनेट में खास रुचि नजर नहीं थी । जितनी अच्छी कवयित्री थी वह, उतनी ही अच्छी गायिका और उतना अच्छा व्यक्तित्त्व भी । उस आयोजन में उन्होंने बच्चों के लिए बहुत ही मधुर गाना गाया था । वह कहने लगी, "क्या जरूरी है सभी लोग फेसबुक से जुड़े ? इन्टरनेट और फेसबुक वास्तव में समय की बरबादी के कारण है । साहित्य-सृजन के लिए शांत वातावरण के साथ साथ शांत-मन भी होना चाहिए । जितना ज्यादा कूड़ा-करकट सामने आएगा , मन उतना ही विशुद्ध व असंवेदनशील होता जाएगा । तब आप लिखोगे क्या ? बाहर तो वही आता है जो भीतर होता है ।"
बहुत गूढ बातें कही थी डॉ प्रभापंत ने । यह तो वैज्ञानिकों ने भी सिद्ध किया है कि फेस-बुक और इंटरनेट का ज्यादा एडिक्शन बच्चों में एक प्रकार का मानसिक विकार पैदा करता है, जिसे लोग "मेंटल सिंड्रोम" कहते है । वह बच्चा समाज से कटता जाता है और यथार्थ दुनिया को छोड़कर एक आभासी दुनिया में जीने लगता है । एक वर्च्युल वर्ल्ड जिसमें एक इमोशनल बॉन्ड दूर-दूर अलग-थलग लोगों को एक साथ मिलाकर एक नए समाज की स्थापना करता है ।" मगर आशा इस बात को मानने वाली कहाँ थी , मैं आंशिक रूप से दोनों से सहमत था । हिन्दी-साहित्य में भी बहुत कुछ बदलाव आया है । संपादकों की मोनोपोली समाप्त हो गई । नई-नई प्रतिभाएँ सामने आने लगी । तकनीकी परिवर्तन के साथ-साथ जमाने के हिसाब से लेखकों की विचारधाराओं में बदलाव आने लगा । भारतेन्दु , प्रेमचंद , हजारी प्रसाद द्विवेदी, धर्मवीर भारती , धीरेन्द्र वर्मा , कमलेश्वर , महादेवी वर्मा , राजेन्द्र यादव , मन्नू भण्डारी की जगह लेने लगे कुछ टेक्नोक्रेट लेखक व लेखिकाएँ 'अभिव्यक्ति-अनुभूति' की पूर्णिमा वर्मन , 'परिकल्पना' के रवीन्द्र प्रभात , 'कविता-कोश' के ललित कुमार , 'हिन्दी-नेस्ट' की मनीषा कुलश्रेष्ठ , 'सृजनगाथा' के जयप्रकाश मानस व 'युगमानस' के डॉ जयशंकर आदि । आशा को वेब-पत्रिकाओं की अच्छी जानकारी थी । उसकी आँखों में क्रिस्टल-सी चमक दिखाई देने लगी । असहमति का भाव जताते हुए वह सिर हिलाकर कहने लगी , "मेरा साहित्य - संसार की विपुलता का एक मात्र कारण कंप्यूटर और इन्टरनेट है । फेसबुक ने मुझे कई दुर्लभ और महान साहित्यकारों से जोड़ा । मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा । मैंने तो आपके ब्लॉग'सरोजिनी साहू की श्रेष्ठ कहानियाँ " तथा सरोजिनी साहू के ब्लॉग "सेन्सुलियटी एंड सेंसिबिलिटी "से आंचलिक ओड़िया कहानियों व नारी-विमर्श पर काफी जानकारी अर्जित की ।" आशा के तर्क अकाट्य थे । सही थी उसकी बातें । मैं मन ही मन सोच रहा था कि मेरा साहित्यिक कर्म या साहित्य के क्षेत्र में जो कुछ भी पहचान बनी, उसका कारण भी तो कंप्यूटर का ज्ञान ही था । आधुनिक सूचना , तकनीकी के सहयोग को तो नकारा नहीं जा सकता था । डॉ॰ विमला भंडारी , डॉ॰ जय प्रकाश मानस , इला प्रसाद, नन्द भारद्वाज , नन्द किशोर आचार्य सभी से मेरा संपर्क इन्टरनेट की वजह से हुआ । ओड़िशा के किसी दूरस्थ ब्रजराजनगर और तालचर प्रांत में बैठे-बैठे इतने लोगों से जुड़ना , सलाह - मशविरा करना , उनकी राय लेना और मार्ग-दर्शन प्राप्त करना सब तो केवल 'माउस' व ' की बोर्ड ' का कमाल था । मेरे अनुवाद की मार्केटिंग, प्रभावी-सम्प्रेषण और विस्तार भी तो कंप्यूटर के माध्यम से हुआ था । रचनाकार, कविताकोश , गद्यकोश , हिन्दी-समय , सृजनगाथा , अनुभूति-अभिव्यक्ति, परिकल्पना , स्वर्गविभा सभी ने तो मुझे प्रकाशित किया ।यहाँ तक कि राजपाल पब्लिकेशन, नई दिल्ली ने मेरे ब्लॉग "सरोजिनी साहू की श्रेष्ठ कहानियाँ" को "रेप तथा अन्य कहानियाँ" और उनके "डार्क अबोड़" का हिन्दी अनुवाद " बंद-कमरा" के नाम से नाम से दो पुस्तकें प्रकाशित की । बहुत कुछ आभारी हूँ मैं नेट का । , , , ,
कार द्रुत-गति से उदयपुर रेल्वे-स्टेशन की ओर भागे जा रही थी । अरावली पर्वत-शृंखलाओं में वृक्षों के झुरमुट ठंडी-ठंडी हवा के झोंकों में हँसते हुए नजर आ रहे थे । सड़क के दूसरी तरफ पहाड़ों के घेरे में बनी किसी मानवीकृत झील की विपुल जलराशि अनंत-ब्रह्मांड की सर्जनात्मक रहस्यमयी शक्ति का परिचय दे रही थी । मेरी नजरें ओड़िशा की विश्व - विख्यात चिलिका झील को खोजने लगी । कभी आकाश में उड़ते विहगों में साइबेरियन सारस तो कभी पानी में तैरती-फुदकती डाल्फिनों को । मगर सिवाय दिवा-स्वप्न के कुछ नहीं था ।
तभी ट्रैफिक के शोरगुल और जनारण्य की ऊंची-आवाजों ने मेरी तंद्रा भंग की । उदयपुर रेलवे स्टेशन आने वाला था । डॉ प्रभापन्त और उनकी रिसर्च स्कॉलर सहेली को हल्द्वानी जाने के लिए यहाँ से ट्रेन पकडनी थी । आशा एक उच्च प्रशासनिक अधिकारी की धर्मपत्नी अवश्य थी , मगर अफसरगिरी का बिलकुल अहंकार नहीं था । वह स्वयं अपने हाथों से डॉ॰ प्रभापन्त का सामान पकड़कर रेल्वे-प्लेटफॉर्म तक जाने के लिए तैयार हो गई और मेरी तरफ देखते हुए कहने लगी "आप प्लेटफॉर्म टिकट ले आइए, हम मेहमानों को भीतर तक छोड़ आते हैं । "
वास्तव में साहित्यकार कुछ ज्यादा ही सुसंस्कृत व भावुक होते हैं । शायद यही संवेदनशीलता उन्हें आम लोगों से पृथक करती हैं और उनकी यह सूक्ष्म-अनुभूति उनके मन में साहित्य-सर्जन का कारण बनती है । कहीं ऐसा न हो कि आप उनके साथ सफर करो तो उनके सृजन के किरदार न बन जाओ । जैसे ही हम लोग रेलवे प्लेटफॉर्म तक पहुंचे तो सामने दिखाई पड़ा उदय किरौला, विमला जोशी , प्रभापन्त का उत्तराखंडी दल । सभी को अभिवादन कर हमने उनसे विदा ली ।
अब हमारी कार सिरोही-रोड की ओर दौड़ने लगी ।वह बातों-बातों में गाँधी जी व उनके सिद्धांतों की बात निकली पूछने लगी , "आपने 'गिरमिटिया ' उपन्यास पढ़ा है?'
"नहीं" मैंने जवाब दिया , "मगर क्यों पूछ रही हो ?" " गांधीजी का नारियों के प्रति दृष्टिकोण क्या था ? यह जानना चाहती थी । मैंने पढ़ा है , गांधीजी अपनी पत्नी कस्तूरबा को बहुत परेशान करते थे । एक निरीह नारी पर अत्याचार ढहाने वाला किस तरह महात्मा बन गया ? " मैं निरुत्तर रहा । वह आगे कहने लगी , " एक बार तो उन्होंने कस्तूरबा को अपने विदेशी मित्र का पाखाना को साफ करने के लिए कहा । और जब कस्तूरबा ने इंकार कर दिया तो उसे ठिठुरन भरी सर्द-रात में अपने मकान का भीतर से दरवाजा बंद कर बाहर खड़ा रहने के लिए विवश कर दिया था । सुबह तक तो वह पूरी तरह से अकड़ गई थी ।"
मुझे लगा कि वह विश्व की महान हस्तियों की व्यक्तिगत जिंदगी में झाँककर नारीवाद के अनछुए पहलुओं को उजागर करना चाहती है । फिर भी मैंने जिज्ञासावश उससे पूछा , "मगर, आप यह सब कैसे जानती हो ? मैंने तो गांधीजी और गांधीवाद पर काफी कुछ पढ़ा है । यहाँ तक कि मैंने उनकी किताब "सत्य के साथ मेरे प्रयोग" तो दो-तीन बार पढ़ चुका हूँ। ऐसा तो कोई प्रसंग उसमें नहीं आता है | और ऐसे भी , गांधीजी ने खुले हृदय से अपनी कमजोरियों को निर्भयता-पूर्वक स्वीकार किया हैं | जब गांधीजी ने 40 साल की उम्र में ब्रह्मचर्य-व्रत का आजीवन पालन करने का संकल्प किया था और अपनी मानवीय कमजोरियों को इंगित करते हुए कस्तूरबा के प्रति जाने-अनजाने में दुख पहुंचाने की बात की स्वीकार करते हुये अफसोस प्रकट किया था | तभी तो वह क्षुद्र आत्मा न होकर महान आत्मा बने । " मैंने अपना पक्ष रखा | आशा निरुतर रही कुछ समय के लिए | फिर कहने लगी , " गांधीजी ने अपने परिवार के प्रति कभी ध्यान नहीं दिया , बल्कि घोर-अवहेलना की |"
मेरे लिए उस विषय से हट जाना ही उचित था | इसीलिए मैंने बात को दूसरी तरफ घुमाया , "आपने रवीन्द्रनाथ टैगोर के गीत , "जन-गन-मन अधिनायक" की ट्रेजेडी के बारे में सुना है ? वास्तव में, यह जार्ज आरवेल का स्वागत-गीत था, जिसे हमने राष्ट्र-गीत बना दिया | टैगोर साहब तो खुद नहीं चाहते कि यहा राष्ट्रगीत बने , मगर नेहरू की जिद्द थी | गांधीजी तो' विश्व विजयी तिरंगा प्यारा ......' को राष्ट्र-गीत बनाना चाहते थे |" पता नहीं क्यों , मुझे इस बात का दु:ख अवश्य लग रहा था कि हमारी नई पीढ़ी के आदर्श गांधी नहीं है ? गांधीजी के त्याग-बलिदान , जीवन के सार्वभौमिक मूल्यों के प्रतिपादन को उचित सम्मान दिए बगैर नाथुराम गोडसे की पुस्तक " व्हाय आई किल्ड गांधी ?" और एक अन्य पुस्तक "फूल और शूल" में न केवल गांधीजी के व्यक्तिगत जीवन वरन गांधीवाद पर भी एक बहुत बड़ा प्रश्नवाचक खड़ा किया है । क्या "गिरमिटिया" पुस्तक भी इस तरह की है ? या फिर बड़े नेता लोगों के साथ अक्सर ऐसा क्यों होता है ? शायद उनके निर्णय का प्रभाव-क्षेत्र बहुत व्यापक होता है | और जब हम अपने घर में दो-चार लोगों को संतुष्ट नहीं कर पाते हैं तो अरबों-खरबों की जनसंख्या वाले देश में हर किसी को संतुष्ट करना क्या संभव है?ऐसी ही कुछ बातें मेरे मन-मस्तिष्क में घूम रही थी | मुझे मेरा वांछित उत्तर नहीं मिल पाया गांधीवाद के प्रति |
मुझे याद आने लगा मेरा प्रबंध-प्रशिक्षु का वह समय जब एक संगोष्ठी चल रही थी , "क्या नेता पैदा होते हैं या बनाये जाते हैं ?'' विषय पर । कुछ लोगों का मानना हैं , नेता नैसर्गिक होता है | कुछ प्रबंधन गुरु कहते हैं , वातावरण व सोचने का ढंग व्यावहरिक तौर पर नेता का निर्माण करता है | क्या गांधीजी जन्मजात नेता थे ? या उनके साथ घटित हुई परिस्थितियों ने उन्हें इतने बड़े देश का नेता बनाया ? और अगर उनमें नेतृत्व के गुण नहीं होते तो क्या वे विश्व-पटल पर एक सक्षम नेता की छाप छोड़ पाते ? लीडरशिप की कक्षा में यह सिखाया गया था कि नेता बनने के लिए निःस्वार्थ भावना होना जरूरी है। मगर आज की नेतागिरी तो स्वार्थ के स्तम्भ पर ही टिकी है , तभी तो शायद जुगनू के चमक की तरह पल भर में जनता की आँखों के सामने से वे विलुप्त हो जाते है । शायद विषय कुछ ज्यादा गंभीर हो रहा था । बातों में न केवल गाम्भीर्य वरन दर्शन-शास्त्र व समाज-शास्त्र की जटिलताओं का आभास होने लगा ।
मैंने गंभीरता को कुछ कम करने के अंदाज से कहा , " उदयपुर रहने के लिए बहुत सुंदर जगह है | है न ? " "उदयपुर में मेरा फ्लैट है , मगर मैं अपना घर या तो पाली मैं बनाऊँगी या फिर आबूरोड़ में |" "जोधपुर में क्यों नहीं ? " फिर भी मैंने जिज्ञासावश पूछा , " मेरे हिसाब से जहां बहुत ज्यादा रिश्ते_नातेदार, परिचित रहते हो , वहाँ हमें नहीं रहना चाहिए | इधर-उधर के रिश्तों को तमाम उम्र निभाते-निभाते खत्म हो जाती है जिंदगी | अपने लिए या मित्रों के लिए या अन्य सामाजिक कार्यों या कुछ सृजनात्मक काम करने के लिए वक्त कहाँ मिल पायेगा ? और जोधपुर के बारे में तो कहना ही क्या , आप खुद जानते ही हो । कितना झंझट वाला काम है रिश्ते बनाए रखना किसी खांडे की धार पर चलने से कम नहीं , आप सौ बार उनके काम आओ एक बार न आ पाए तो सारा किया कराया चौपट हो जाता है |"चाणक्य-नीति के किसी सूत्र की तरह स्पष्टीकरण दिया था आशा ने | इधर साँझ ढलने लगी थी | आसमान में अंधेरा अपने पांव पसारने लगा था | दूर-दराज जगहों से बिजली के खंभों पर टिमटिमाती रोशनी नजर आने लगी और सुदूर किसी सीमेंट प्लांट के बंकर, कनवेयर-बेल्टों तथा दूसरे कार्यालयों पर लगी हुई बत्तियाँ मानो दीपावली के शुभागमन का संदेश दे रही हो | हो न हो , वह प्लांट जे॰के॰ सीमेंट फैक्टरी का होगा । पहाड़ों को काट कर बनाई गई लंबी सुरंग से होती हुई 'फॉर-लेन' वाली चौंडी सड़क पर दौंडती हुई कार से बाहर का नजारा बहुत ही खूबसूरत नजर आ रहा था | अवश्य ही, इन ऐतिहासिक घाटियों ने बहुत कुछ देखा होगा - प्रागैतिहासिक घटनाएँ, ज्वालामुखी के प्रस्फुटण , जुरैसिक युग के डाइनासोर औंर बहुत कुछ प्रकृति के छुपे रहस्य | कभी महाराणा प्रताप भी अपने चेतक पर आरूढ़ होकर भाला ताने आखेट की खोज में पगडंडियों को नापते हुए आगे बढ़े होंगे | कभी अकबर की सेना ने इसी रास्ते से हल्दी- घाटी की ओर कूच किया होगा ।
आज इन सड़कों पर कार , ट्रक , बड़े-बड़े वाहन दौड़ रहे हैं । जे॰ के॰ लक्ष्मी सीमेंट फैक्ट्री नजदीक आती जा रही थी । सिरोही रोड आने वाला था । आस-पास के पेड़-पौधों में बबूल की झाड़ियों में , वादियों में , आबो-हवा में यहाँ तक कि घुवदार सड़कों में भी एक अपनापन अनुभव हो रहा था । कोई जमाना था , जब यहाँ कभी छोटी टूटी-फूटी सड़कें हुआ करती थी, मगर अब अंतर्राष्ट्रीय स्तर की बड़ी-बड़ी ऑक्टोपसनुमा सड़कें अपनी भुजाएँ फैलाकर आपका स्वागत कर रही थी । आशा ने अपने घर पर फोन लगाकर हमारे घर पहुँचने का संदेश दे दिया था । आशा ने अपनी साहित्यिक अवदान में अपने पति के सहयोग , मार्ग दर्शन तथा नई-नई तकनीकियों से परिचित करने वाला गुरु बताया था ।सृजनधर्मिता में लेखक-दंपति ज्यादा सफल होते हैं । विमला भंडारी और जगदीश भंडारी, सरोजिनी साहू और जगदीश मोहंती ; आशा पाण्डेय ओझा और जितेंद्र पांडेय आदि जोड़ियाँ अनोखी और बिरली हैं , जिन्होंने एक-दूसरे के सहयोग से साहित्य के नए आयाम छूने में सफलता अर्जित की ।
देखते-देखते आशा का घर आ गया । पुराने जमाने का एक सरकारी क्वार्टर । आँगन में एक बोलेरों गाड़ी । घर में घुसते ही दाईं ओर बिना दरवाजे किताबों से खचाखच भरी तीन आले वाली अलमारी । जितेंद्र पांडेय साहब ने मुस्कराते हुए मेरे नमस्कार का जबाव देते हुए भीतर आने के लिए आमंत्रित किया । सबसे पहले मैंने अपना परिचय देते हुए सलूम्बर के राष्ट्रीय बाल-साहित्यकार सम्मेलन में अंश-ग्रहण करने का उद्देश्य बताया । वे सोते-सोते सारी बाते सुन रहे थे ।, कुछ ही समय पहले उनका छोटा सा आपरेशन हुआ था । चाय नाश्ते के बाद आशा ने मुझे अपने दो कविता संग्रह ' जर्रे जर्रे में वो है ' तथा 'एक कदम रोशनी की और ' समीक्षार्थ भेंट की । कविताओं को समझने की भाव-प्रवणता तो बचपन से मेरे अंदर कूट-कूट भरी हुई थी मगर समीक्षा ? और वह भी कविताओं की ? कविताएं तो स्वतः प्रवाह होती हैं किसी कल-कल करते झरने की तरह । उसके प्रवाह को रोककर बांध बनाना एक दुष्कर कार्य है । किताब के प्रथम पृष्ठ पर नाम लिखा हुआ था 'आशा पाण्डे ओझा '। पहला सवाल मन मेँ उठा द्विगुणित उपनाम क्यों ?सरोजिनी साहू प्रसिद्ध ओड़िया लेखक स्वर्गीय जगदीश मोहंती की विधवा है , मगर जब मैंने उनसे पूछा था कि आप अपने उपनाम मेँ मोहंती क्यों नहीं लगाती ? उनका स्पष्ट उत्तर था "क्या भारत मेँ स्त्रियों के उपनाम की स्वतंत्र पहचान नहीं होना चाहिए ? अपनी पहचान बनाने के लिए क्या यह जरूरी है कि अपने पति का उपनाम ही ग्रहण किया जाए । और मेरे उपनाम मेँ ऐसी क्या खराबी है जो मैं अपने नाम का अस्तित्व खोकर पति का उपनाम ही ग्रहण करूं ?
जहां विश्व-प्रसिद्ध नारीवादी लेखिका सरोजिनी साहू अपने नाम के महत्ता को अपने अस्तित्व के साथ जोड़कर देखती है , वहाँ आशा दोनों नामों को एक साथ ग्रहण कर पति - पत्नी के संपूरक होने के साथ-साथ दो अस्तित्वों की पारस्परिक घुलनशीलता के रूप मेँ प्रस्तुत करती है। मगर मेरी जिज्ञासा कुछ और थी । जंपा लेहरी का बहु-चर्चित उपन्यास "नेमसेक" नाम व उपनाम दोनों की अर्थहीनता को प्रदर्शित करते हुए 'कर्म ही पूजा है ' के वेद-वाक्य को उजागर करता है । अगर पुरुषवादी दृष्टिकोण के बारे में सोचा जाए तो क्या कोई पुरुष अपने उपनाम मेँ पत्नी का गौत्र जोड़ते हुए देखना पसंद करता है ? शायद नहीं । फिर क्या किसी नारी पर हो रहे शारीरक , आर्थिक व मानसिक उत्पीड़न , प्रताड्ना और शोषण की तरह उनके नामों को रिश्तों के आभासी आवरण जैसे माँ , भाभी चाची आदि से ढककर उपनाम का भी अपहरण कर लिया जाता है? पूत के पाँव पालने में पहचाने जाते हैं । इस मुहावरे की तरह द्विगुणित नामकरण का अहसास कराने वाली कवयित्री की कविताएं अवश्य कुछ अलग होगी ? उनका कविता - संग्रह "जर्रे जर्रे में वो है " उर्दू शब्दों का पूट ज्यादा है , और यह कविता-संग्रह अपने पिताजी को समर्पित है । मुझे याद हो आया अपने पिता को अंतिम कंधा न देने पाने के दुख से मर्माहत जिस तरह मैंने अपने मन को गीता के श्लोक 'न हन्यते हन्यमाने शरीर 'से अपने स्वर्गीय पिताजी को जीवित अनुभव करता आया था । भले ही, पिताजी परलोक सिधार गए हो , मगर आज भी मैं उन्हें अपने इर्द - गिर्द अनुभव करता हूँ । ठीक उसी तरह, शायद आशा भी 'जर्रे जर्रे मेँ ' कविताओं के माध्यम से अपने पिताजी की आत्मा को खोज रही है ? क्या किसी रचनाकार को अपनी संवेदनाएँ पैनी करने के लिए अपने प्रियजन को खोकर अदम्य और असह्य पीड़ा को झेलना जरूरी है?
क्या तुलसीदास के जन्म होते ही अपनी माँ-पिता को खोने का परिणाम है "रामायण" । कोई भी साहित्यकार दुख की अनूभूतियों को अतिशीघ्र आत्मसात कर लेता है । श्रीमती आशा पांडेय 'ओझा ' का दूसरा कविता संग्रह "एक कोशिश रोशनी की ओर " इसी बात का संदेश देती है । कवयित्री की अनुभूतियों का आरंभ अंधेरे से होता है और रोशनी पाने की ललक वेद-सूक्त 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' (अंधेरे से उजाले की ओर) की अभिधारणा पर आधारित है । यह संग्रह कवयित्री की विभिन्न विचारधाराओं का एक अद्भुत सम्मिश्रण है । जिसमें आध्यात्मिक , सामाजिक , मनोवैज्ञानिक , मार्क्सवादी और राष्ट्रप्रेम की झलक देखने को मिलती है । 'प्रार्थना' कविता , गीता की तरह मान -अपमान , हानि-लाभ , राग-द्वेष जैसे झकझोरने वाले अंतरद्वन्द्वों में 'स्थितप्रज्ञ' रहने का आध्यात्मिक संदेश देती है ।
सामाजिक सम्बन्धों के गूढ़ार्थ को प्रस्तुत करती कबिता 'माँ ' एक आलौकिक कल्पना है यहाँ तक कि स्वंयभू की नारी की कोख से जन्म पाने की अभिलाषा में प्रतिपल आतुर है | 'एक ऐसा स्वर्णिम सवेरा ' में जहां आशावाद की झलक दिखाई देती है, वहीं ' कहने को'कविता जातिवाद के खिलाफ खुला आव्हान है | 'टूटते परिवार : सागर से गहरा ', 'औरत', बेटों की माएं, 'मैं चिड़कली (बेटी)' , 'अनाथ ' विधवा 'तथा ' वो आदमी ' आदि कविताओं में कवयित्री की गहरी सामाजिक अंतर्दृष्टि की झलक मिलती है |
'टूटते परिबार : सागर से गहरा' कविता में एक खुशहाल विशाल परिबार के टूटने की पीड़ादायक अनुभूति का मर्मांतक वर्णन है मानो किसी एक सागर में भयंकर तूफान आया हो और एक निमिष में सब कुछ बिखेर कर चला गया हो :- अचानक जाने कहाँ से
आया इक दिन इक तूफान
एक-एक करके टूट गए
मेरे सभी किनारे
उसी तरह 'औरत' कविता में औरत होने की वेदना, प्रताड़ना द्रवित होना और खिलौना बनकर अजीबन जिल्लतें झेलने का कष्ट मानो कवयित्री ने स्वयं की अनुभूतियों के आधार पर शब्दों में पिरोया हो |
कितना नाचेगी यूं बनी खिलौना ?
और कितनी सदियों का रोना ?
ये तम की रात क्यों नहीं ढलती ?
फिर क्यों मोम-सी है पिघलती ?
"बेटों की माएँ" कविता में जब किसी स्त्री के बेटों का जन्म होता है तो उसके चेहरे पर खिले आत्म-संतोष , गर्व की अनूभूति, महारानी जैसा रौब, एवरेस्ट पर विजय पाने , मैराथन में अव्वल आने या सारी दुनिया को जीत लेने का दंभ का अद्भूत मनोवैज्ञानिक चित्रण है ।जैसे :- ऐसी ही कई बेटों की माएँ
देखती मुझे द्या भाव से
कहती है मुझसे बार-बार
एक बेटा तुम भी कर लो
आधुनिक युग में लिंगभेद को उजागर करती यह कविता अपने आप में प्रचलित सामाजिक व्यवस्थाओं पर एक करारी चोट है । जबकि "मैं चिड़कली" कविता में गौरेया चिड़िया को बिम्ब बनाकर उछलती, मचलती, फुदकती, दाना चुगती , पंख फडफड़ाती चिड़िया के आस-पास के वातावरण से अनभिज्ञ अन्य किसी घरौंदें में जाकर अपने अधिकारों की तिलांजलि देकर सारा जीवन अपने कर्तव्यों की आहूति देती एक बेटी की दीन-हीन भावना का हृदय-स्पर्शी वर्णन मिलता है । जबकि 'विधवा' कविता में एक विधवा महिला के आँखों की चमक , अधरों का माधुर्य, यौवन की सुघडता, जीवन जीने की उमंग और जिजीविषा के पूरी तरह ध्वस्त हो जाने विधवा के निबिड अंधकारमय जीवन का जीवंत चित्रण आपके संवेदनशील हृदय को पिघलाए बिना नहीं रह सकता :-
फिर उसी निबिड अंधकार में तेरी दीवानी खो गई फिर से
तुम क्या खो गए , मेरी ज़िंदगानी खो गई फिर से
यह ही नहीं, कवयित्री में अपने इर्द-गिर्द के समाज , वातावरण और दूर से ही किसी का चेहरा देखकर उसके मन की बात जानने की अनोखी कला है । 'भावों का पानी', 'ये आँसू', 'संवेदना के घने बादलों को', 'मन के संबंध', 'जीवन का फेरा' 'मन के जंगल' आदि कुछ ऐसी कविताएं है । इन कविताओं में कवयित्री का एक मनोवैज्ञानिक पहलू भी उनके व्यक्तित्त्व का एक सुषुप्त झरोखा है, जिसे खोलकर संस्कार, आदर्श, प्रीत, रिश्ते, आदर-सत्कार, मान-मनुहार, नफरत, स्वार्थ, छल-कपट, मजबूरी, करुणा, शांति, शीतलता, तपन, गतिशीलता, ठहराव, छिछलापन और उन्मुक्तता जैसी मानवीय संवेदनाओं के दृश्यों को देखा जा सकता है ।
उनकी कुछ कविताओं में मार्क्सवाद की चिंतन-धारा स्पष्ट दिखाई दे रही है , तो कहीं वर्गभेद को उजागर करती 'कहीं धूप में', तो कहीं नंगी-भूखी दुनिया को देखकर ईश्वर के प्रति अनास्था भाव प्रदर्शन करने वाली कविता 'ये दुनिया किसने बनाई?" , ऐसे ही बाहरी चमक-धमक देखकर एक सीधे-सादे आदमी के बदलते व्यवहार को उजागर करती कविता 'गाँव का आदमी' और एक गरीब आदमी के दुख दर्द, रंज, वेदना, आँसू, चिंता, बेबसी, अभाव , दुत्कार , अंधेरे व भूख का यथार्थ चित्रण करती कविता 'गरीब का जीवन' आदि मार्क्सवादी विचारधारा से ओत-प्रोत है ।
जब कवयित्री के व्यक्तित्त्व में अनेक पुट और अनेक रंग मिले हो तो देशभक्ति के भाव कैसे पीछे रह सकते है ! भारत के यशोगान का अत्यंत ही मृदुभाषा में छंदमय प्रगीत की तरह कविता 'देशभक्ति' अपने आप में अनुपम है ।
"मधुर मनभावन है , जहां बोली पावन हर रिश्ता-नाता
जिसका अभिननदान कर कर एनआईटी हर्षित होते विधाता
सुंदर सलोनी भोली भाली वो है अपनी भारत माता ।
" अंत में , यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि आशा पांडेय 'ओझा' के इस कविता-संग्रह में भावों की मौलिकता और विषयों की विविधता है । यह काव्यकृति हिन्दी साहित्य के लिए एक अमूल्य वरदान साबित होगी और जनमानस के अन्तर्मन को सचेतन करने का सार्थक प्रयास करेगी ।
प्रस्तुति - दिनेश माली
। प्रकाशक :- अंबुतोष प्रकाशन , अजमेर
संस्करण :- 2010
मूल्य :- 120/- ```
शीर्षक :- एक कोशिश रोशनी की ओर (कविता-संग्रह)
कवयित्री :- श्रीमती आशा पांडे (ओझा )
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