म हीन समाजिक छिद्रों को उघाड़ती कहानियां समाज का दर्पण साहित्य युगानुरूप प्रवृतियों की अभिव्यक्ति रहा है। कहानी विधा इसका सशक्त उदाहरण है। क...
महीन समाजिक छिद्रों को उघाड़ती कहानियां
समाज का दर्पण साहित्य युगानुरूप प्रवृतियों की अभिव्यक्ति रहा है। कहानी विधा इसका सशक्त उदाहरण है। कहानी में प्रवृतिगत आया परिवर्तन सदैव उसे शीर्ष पर स्थापित करता रहा है। नवीन प्रवृतियों के विपरीत कुछ सामाजिक प्रवृतियां साहित्य में ज्यों की त्यों बनी रहती है। 'दीपावली / अस्पताल कॉम' - नवीन तथा प्राचीन सामाजिक प्रवृतियों को आत्मसात करता, लम्बे समय से साहित्य सेवा में संलग्न डा0 मधु-संधु का दूसरा कहानी संग्रह है। इस कहानी संग्रह में संकलित कहानियां प्रसिद्ध पत्रिकाओं हंस, वागर्थ, साहित्य कुंज, गर्भनाल हिन्दी चेतना, अभिव्यक्ति, रचनाकार, मंथन, संचेतना आदि में प्रकाशित हो चुकी हैं। संग्रह दो भागों में विभाजित है। प्रथम खंड में कहानियां तथा द्वितीय खंड में लघुकथाएं संकलित हैं। संग्रह की अधिकतर कहानियां कुटिल विद्रूप सामाजिक सच्चाइयों का वर्णन करती है, तथा सामाजिक सत्य को प्रस्तुत करती है।
लेखिका लम्बे समय से साहित्य तथा शिक्षा जगत् से जुड़ी है। 'इंटलेक्चुअल', 'संगोष्ठी', 'ग्रांट', 'अवार्ड', हिन्दी दिवस', 'विमोचन', 'असिस्टैंट' आदि कहानियां शिक्षा जगत् के अघोषित कुटिल सत्य को उघाड़ती है। यहां दूर के ढोल सुहावनें का मुहावरा उचित बैठता हैं। 'इंटलेक्चुअल' के नायक अनिरूद्ध तथा 'अवार्ड' की नायिका की भांति कई छात्र तथा शोधार्थी शिक्षा जगत् के विद्धानों, नामी साहित्यकारों तथा सम्पदकों के हाथों का खिलौना बन कर रह जाते है। आत्मसीमित महत्वाकांक्षाओं से जुड़े शिक्षा विद् प्रतिभा को नगण्य कर देते है। यथा ''अगले दिन संगोष्ठी की सारी खबर अपने से खत्म और शुरू होते देख वे मुस्कराए बिन न रह सके। उन्हें अपनी चाण्क्य बुद्धि पर मान हुआ'' (65) 'ग्रांट' तथा 'हिन्दी दिवस' कहानियां जहां दिखावे का रंग दिखाती है वहीं हिन्दी दिवस पर विवश हिन्दी की दयनीय स्थिति प्रस्तुत करती हैं। कहानियां शिक्षा तथा साहित्य जगत् में धीरे धीरे बढ़ रहे छिद्रों का प्रतिबिम्ब हैं।
'परीक्षा और साक्षात्कार' 'शोध-तंत्र' तथा 'पैकेज' आदि कहानियां भूख, पेट हेतू संघर्षरत प्रतिभा सम्पन्न लोगों की मनोदशा प्रस्तुत करती हैं। यथा ''उससे कहीं कम अंक लेने वाले अच्छे-अच्छे पदों पर थे, यह परीक्षाओं और साक्षात्कारों के बीच की सच्चाई थी।'' (125) यहां नायक की मानसिक बौखलाहट दिखती है।
'पहिया जाम' 'ब्रीफ केस' तथा ' अनुशासहीन' कहानियां वह सत्य कहती हैं जो भारतीय सरकारी तंत्र की त्रासदी तथा आम आदमी के जीवन की विडम्बना बन चुका है। चांदी का जूता (रिश्वत) सर्वोपरि है। ' ब्रीफ केस' कहानी का कड़वा सत्य व्यंग्य भी है। सरकारी तंत्र में परिवर्तन है कार्य शैली का। रिश्वत लेने की परम्परा में थैले से बैग तथा बैग की जगह ब्रीफ केस आ जाने का परिवर्तन है। यहां केवल चलता पुर्जा ही सफल हो सकता है।
लेखिका ने मानवजीवन में बढ़ रहे बाजारवाद के महत्व को अभिव्यक्ति दी है। 'दीपावली / अस्पताल कॉम' 'कैटैरेक्ट' तथा 'गोल्डन व्यू' कहानियां मानव की बाजारवादी मनोवृति को प्रस्तुत करती हैं। बाजारवाद जीवन से ऊपर माना जा रहा है। यथा ''दुकानदार जरा से डिजाइनदार डिब्बो मे दो सौ का ड्राई फ्रूट डाल साढ़े चार सौ में बेच रहे थे और अस्पताल मे डॉक्टर मरीजों के गैर जरूरी ऑपरेशन कर, स्टेंट डाल, मरे हुओं को वेंटीलेटर में रख दीपावलीं मना रहे थे''। (58) बाजारवाद ने मानवीय भावनाएं समाप्त कर दी हैं। यहां यह बात सिद्ध होती है 'बाप बड़ा न भैया सबसे बड़ा रूपया' ।
कई तरह की सामाजिक विसंगतियों को प्रस्तुत करते हुए लेखिका खोखली, नीतिरहित भारतीय राजनीति का वर्णन करना नहीं भूली। 'बीजी' 'इमेज' 'बेचारा अलादीन' 'बोट नीति' आदि कहानियां राजनीतिक स्वार्थ का लेखा जोखा प्रस्तुत करती हैं। यथा ''उन्हें तब पता चला जब अगला चुनाव आने पर उन्हें बिठा दिया गया और उन्हीं के एक जिन्न को खड़ा कर दिया गया, जिताया गया, मंत्री बनाकर अलादीन बनाया गया'' (109) मोहरा बने अलादीन को राजनीति का जिन्न निगल जाता है। ''बीजी'' कहानी की बूढ़ी बीजी को भ्रष्ट नेता लालच से वोट हेतू ले जाकर अकेली छोड देता है। यहां राजनीति केवल नोट तथा वोट तक सीमित नीति बन कर रह गई है।
संग्रह में समाज की प्रमुख प्रवृति रूढियो के प्रति नारी संघर्ष तथा समाज द्वारा उसका दमन- लेखिका ने अत्यंत गहनता से प्रस्तुत किया है। 'कुमारिका गृह' 'सरंक्षक' 'फ्रैक्चर' 'लेडी डाक्टर' 'सती' 'बिगड़ैल औरत' 'डायरी' 'जीवन घाती' आदि कहानिया पिता, पुत्र, पति, भाई, समाज के ठेकेदारो की दृष्टि में स्त्री के स्थान तथा स्त्री संघर्ष को अभिव्यक्ति देती हैं। 'कुमारिका गृह' की नायिका ने भाई के संरक्षण से परे अपना बसेरा खोज लिया है। संरक्षक की पुत्री का पिता उसकी देह से अपने भक्षक पिता होने का कर्ज उतार रहा है। 'फ्रैक्चर' 'लेडी डाक्टर' तथा 'थैक्य'ू की नायिका पुरूष की मर्दवादी प्रवृति अंह का शिकार है। 'बिगड़ैल औरत' की नायिका प्राचीन समाधान से तुष्ट न होकर नवीन समाधान खोज रही है। यथा ''उसने कहा औरत पांव की जूती है, वह जगमग करते हीरों में बदल गई। अब पांव में डाले या गले में ... उसने गवार कहा वह विश्वविद्यालय में प्रथम आ फेलोशिप ले विदेश यात्रा कर आई'' (104) 'डायरी' की नायिका ने अकेलेपन मे जीना सीख लिया है कहती है ''मुझे कैक्टस और ग्लेडियस दोनो से प्यार है। क्या एक्वापंचर की चुभन से आशा और आनंद नही बंधा रहता''(79) परिवार से परे वह अस्तित्व रखती है।
स्त्री की भावनाओ को आहत करता तथा अपने जीवन में आधुनिकता की दुहाई देता पुरूष स्त्री संबंधी मानसिकता में आज भी सौ वर्ष पीछे ही सोचता है। 'संरक्षक' 'फ्रैक्चर' 'जीवनघाती' 'रिटायर्ड' 'सती' तथा 'शुभचिंतक' का पुरूष (मर्द, पति, भाई, बेटा) नारी पर आधिपत्य ईश्वर का वरदान मानता है। कहानियां कर्ता- धर्ता कहे जाने वाले अंहवादी रूढ़ पुरूष की कुटिल मानसिकता को नंग्न करती हैं। 'रिटायर्ड का पुरूष अपने बुढापे में भी अन्य औरतों के फिगर (देह) का खूब ध्यान रखता है। 'शुभचितक' का पुरूष अबला औरत की देह का संरक्षण चाहता है। यथा ''पर ऐसे फोन पहले कभी नहीं आए थे। उसके मरते ही इतने शुभ चिंतक? सभी मेरे खसम बने फिरते हैं''। (123) मर्द प्रवृति केवल औरत देह तक सीमित है। लेखिका ने वर्तमान नारी के पुरूष के प्रति विद्रोह को भी आवाज़ दी है।
संग्रह की कई कहानियां बदल रहे सामाजिक सरोकारों तथा रिश्तों को प्रस्तुत करती हैं। 'दी तुम बहुत याद आती हो' 'तन्वी' 'नवीकरण' 'संगणक' 'वसीयत' आदि में बदल रहे समाज का लेखा जोखा है।
स्त्री पुरूष के संबंधो में आज एक विशेष परिवर्तन देखा जा रहा है। यह प्रवृति 'लिवइन' 'सनराईज इंडसट्री' तथा 'मैरिज व्यूरो' कहानियों में देखी जा सकती है। युवा स्त्री पुरूष विवाह संस्था से परे इक्ट्ठे रहते हैं। जहां देह सुख से ऊपर किसी बंधन, कर्तव्य अथवा जुड़ाव का महत्व नही। स्त्री पुरूष बिन विवाह अपनी इच्छा हेतु शतरें की अनुपस्थिति में रहते है। जहां वैवाहिक वंधनो की जकडऩ नही होती।
संग्रह की सभी कहानियां समय की सार्थक अभिव्यक्ति हैं। वर्तमान सामाजिक मूल्यों की पड़ताल करते हुए लेखिका ने बदल रहे सामाजिक परिवेश को विभिन्न स्वरूपों में प्रस्तुत किया है। कहानियों की भाषा सहज, स्वाभाविक, समय, स्थान तथा पात्रानुकूल है। हिन्दी के अतिरिक्त कहानियों में अंग्रेजी शब्दों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ है। अपनी गहन अनुभव यात्रा में देखी समझी विसंगतियों वेदनाओं तथा संवेदनाओं को लेखिका ने सहज ढंग से चित्रित किया है। कहा जा सकता है कि कहानी संग्रह लेखिका की अत्यंत सूक्ष्म तथा पैनी दृष्टि का परिणाम है।
कहानीकार - डॉ0 मधु-संधु
प्रकाशक - अयन प्रकाशन
पृष्ठ संख्या - 128
मूल्य - 250रू
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समीक्ष - डॉ0 अनुराधा शर्मा
शिक्षा एम.ए, एम.एड,एम फिल, पी-एच.डी (प्रवासी कहानीकारों पर)
जन्म 1975
संप्रति- शिक्षा विभाग, पंजाब
संम्पर्क- kaushal.anu9@gmail.com
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