दीपक आचार्य का आलेख - खुद कुछ नहीं हैं हम सब कुछ है परायों का

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खुद कुछ नहीं हैं हम सब कुछ है परायों का मैं तो खम्भा हूँ सिर्फ लोग मुझे आदमी कहते हैं मैं अपने आप में कुछ नहीं, जो कुछ लोग कहते हैं, वह ब...

खुद कुछ नहीं हैं हम

सब कुछ है परायों का

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मैं तो खम्भा हूँ सिर्फ

लोग मुझे आदमी कहते हैं

मैं अपने आप में कुछ नहीं,

जो कुछ लोग कहते हैं, वह बन जाता हूँ,

खम्भे पर जो कुछ चढ़ा देते हैं लोग, वैसा ही हो जाता हूँ, दिखता हूँ,

खंभे पर जो जैसा कुछ कर जाता है, वैसा ही बर्ताव करता हूँ।

तकरीबन यही स्थिति आदमी की है। आदमी अब पहले की तरह नहीं रहा, उसमें न आत्मानुशासन रहा है, न कोई मौलिकता।

जैसा लोग चाहते हैं वैसा ही उठना-बैठना-पहनना और बर्ताव करना शुरू कर दिया करता है। जैसी बाहर की हवाएँ चलती हैं उधर गर्दन हिला-हिला कर हामी भरने लगता है।

अपनी खुद की न कोई सोच रही है, न कोई लक्ष्य। न हमें बाहर के लोग दिखते हैं, न अपने। हमें दिखता है सिर्फ हमारा ही हमारा अक्स सब जगह।

हम अपने ही लिए जीये जा रहे हैं, भले ही औरों के कितने ही अरमानों का कत्ल ही क्यों न करना पड़ जाए। खंभे से ज्यादा कुछ भी वजूद नहीं है अपना।

कभी मखमली घास और सुकून की आबोहवा देखकर खंभा मोटा-तगड़ा पसरकर एक जगह जम जाता है और तब तक जमा रहता है जब तक कि मुफत का आनंद मिलता रहे। 

कभी डण्डे की शक्ल में लोगों के हाथों में आ जाता है, कभी किसी इमारत पर चढ़ कर झण्डे को थामने लगता है, कभी किसी रैली या जुलूस में झण्डे का कद बढ़ाता लगता है और कभी कुछ और ही कारनामे करने लगता है।

कभी किसी बैनर को थाम कर एक दिन किसी एक विचारधारा को अपना लेता है, दूसरे दिन किसी और की विचारधारा अपना कर झण्डे का सहारा बन जाया करता है।  खंभे पर जब रंग-रंग की टोपियां चढ़ जाती हैं तब नेता हो जाता है, टोपियोें का असर पाकर औरों को  टोपियां पहनाने लग जाता है, टोपियां उछालने में रम जाता है।

कभी साफों और पगड़ियों को थाम कर अपने आपको जमाने भर का दूल्हा समझ कर उछलकूद करने लगता है। किसम-किसम के रंग-रंगीले झण्डों को थाम कर खुद को अवाम की आवाज समझ लेता है। 

रंगों की बदौलत अपने आपको रंगीन मिज़ाज़ बनाता हुआ जमाने भर को बदरंग करने को आमादा हो जाता है। कभी लाल-पीली और नीली बत्तियां लगाकर अपने आपको अधीश्वर समझता हुआ रौब झाड़ने लगता है, औरों की लाली छीन कर उनकी लाल करने के जतन करता रहता है।

बत्तियाँ लगाकर खुद बत्ता हो जाता है और दूसरों की जिन्दगी में बत्तियाँ करने लगता है। खंभा तो खंभा ही रहता है जिन्दगी भर, संवेदनहीन, जड़ और किसी काम का नहीं। वह दिखता भर ही है कि किसी के काम आएगा, लेकिन ऎसा होता नहीं वह। 

बहुत सारे खंभे हमेशा दौड़ में होते हैं। हर खंभा दूसरे को पछाड़ कर आगे बढ़ जाने की फिराक में रहता है, कभी लंगड़ी मारकर चुपचाप आगे बढ़ जाता है, कभी बेशर्म होकर ललकारता हुआ अपने आपको तीसमारखां समझते हुए सारे अनुशासन और जीवन की दौड़ से जुड़ी तमाम मर्यादाओं का हनन कर पीछे वालों को रौंद कर आगे बढ़ जाता है।

खूब सारे खंभे यहाँ-वहाँ हैं जो हमेशा किसी न किसी दिशा में कुछ न कुछ पाने के लिए हर क्षण लपकते ही रहते हैं। और जो लपकना जानता है वहीं जलेबी दौड़ का आनंद पा लेता है। कभी जलेबी तो कभी चाशनी का स्वाद पाता रहता है। उसके लिए क्या झूठन और क्या कुछ पराया, जो मिल जाए वही अपना और न मिल पाए वही पराया।

पदों के सहारे खंभों का कद बढ़ता है और ज्यों-ज्यों कद बढ़ता चला जाता है, त्यों-त्यों मद भी सातवें आसमान की ओर उछाले मारने लगता है।  मद भी कई तरह के हैं, पर हैं हाथियों के ही, कोई काला है, कोई सफेद और कोई जात-जात के रंग का, किसम-किसम के आकार-प्रकार और व्यवहार का।

अधीश्वरों के आस-पास कुण्डली मारकर जमे हुए खूब सारों को भीतर तक भ्रम हो गया है अपने ऎरावत होने का, और इसी उन्माद में सारे कानून-कायदों को धत्ता बता कर संस्कारों और अनुशासन के बड़े-बड़े विराटकाय पेड़ों को जड़ से उखाड़ कर इन्हें जो संतुष्टि मिलती है वही इनका स्वर्गीय आनंद है। 

उजाड़ने में इन्हें जितना मजा आता है उतना और किसी में नहीं। खंभों पर जब कभी कोई शॉल ओढ़ाता है तब खंभों का अहंकार इतना अधिक पसर जाता है कि वे किसी के बस में नहीं रहते, अपनी सारी उन्मुक्तता और उच्छृंखलता के साथ खंभे दसों दिशाओं में मुण्डी हिलाते हुए अपनी संप्रभुता के गीत गुनगुनाने लगते हैं।

हर खंभा अपने बाड़े में रहता हुआ दूसरों के बाड़ों पर नज़र रखता है और हर गतिविधि को कैद करने में जुटा रहता है।

अब तो खंभों की नई प्रजाति आ गई है जिसके पास कैमरे भी हैं और सोशल कही जाने वाली साईट्स भी, जहाँ हर असामाजिक बातों और चित्रों का समन्दर हमेशा किसी न किसी टोन के साथ लहरों की उछाल दर्शा ही देता है।

अपने आप में आदमी होना पहले गर्व की बात थी। आज आदमी खुद अपंग है, निःशक्त है और उसका अपना खुद कुछ भी वजूद नहीं। वह पहचाना भी जाता है तो बेजान बत्तियों, कुर्सियों, आलीशान चैग्बरों और पदों से, अपने थके हुए, अवधिपार आकाओं से।

हमें हमेशा बनी रहती है किसी सुरक्षित और स्नेहसिक्त माँद की तलाश। भेड़ों की तरह किसी न किसी रेवड़ का हिस्सा होकर सर झुकाये यों ही चलते चले जाते हैं, हाँ-जी, हाँ-जी कर दासत्व अंगीकार कर लिया करते हैं।

हमें चलना आए या नहीं, यह अलग बात है, लेकिन हमें चलाने वाले बहुत हैं। हमारे आस-पास भी कभी कोई कमी नहीं रही इन खंभों की, जो खुद कुछ नहीं कर सकते, सिर्फ काम लेना और कराना जानते हैं।

आदमी सिर्फ नाम रह गया है, नाम का आदमी रह गया है, इसके सिवा क्या कुछ बचा है आदमी में। खंभों की तरह रहने वाला आदमी कभी किसी चीरे के रूप में पूजे जाते हैं, कभी भूत-प्रेत के प्रतीक मानकर इत्र-फुलैल की सुगंध और जात-जात के भोग पाकर मस्त रहने लगे हैं।

ढपोड़शंखों को पूजने वालों की कहाँ कमी है हमारे यहाँ। आदमी सारे मामलों में पौराणिक काल के मायावी असुरों और जानवरों से भी बहुत आगे निकल चुका है, बस कमी है तो सिर्फ आदमीयत की, जिसकी तलाश हम सभी को है, किसी को कहीं मिल जाए तो सूचित करना

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- डॉ. दीपक आचार्य

9413306077

dr.deepakaacharya@gmail.com

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