हमें धूमकेतुओं के बारे में कैसे पता चला ? आइसक एसिमोव हिन्दी अनुवाद : अरविन्द गुप्ता आइसक एसिमोव एक गजब के कहानीकार हैं । साइंस-फिक्शन...
हमें धूमकेतुओं के बारे में कैसे पता चला ?
आइसक एसिमोव
हिन्दी अनुवाद :
अरविन्द गुप्ता
आइसक एसिमोव एक गजब के कहानीकार हैं । साइंस-फिक्शन लिखने वालों में वो सारी दुनिया में सुप्रसिद्ध हैं । विज्ञान के इतिहास के वो विशेषज्ञ हैं और वो उसे बेहद पठनीय तरीके से पेश करते हैं जिससे कि बच्चों से लेकर बडे भी उसका आनंद उठा पाएं । उनके लेख विज्ञान के तथ्यों से भरे होने के बावजूद उन्हें फिर भी मजेदार और रोचक कहानियों जैसे पढ़ा जा सकता है । धूमकेतुओं के बारे में वैज्ञानिक जानकारी प्राप्त होने से पहले उन्हें अशुभ घटनाओं का द्योतक माना जाता था । प्राचीन यूनानी धूमकेतुओं को ' एस्टर कॉमेट्स ' या ' वाला वाले तारे ' समझते थे । आधुनिक खगोलशास्त्रियों के लिए आज भी धूमकेतु एक पहेली हैं । आइसक एसिमोव इस पेचीदा और मुश्किल विषय को आसान और रोचक बनाते हैं ।
1. बालों वाले तारे
लोग हजारों सालों से रात के आकाश को निहारते रहे हैं) क्योंकि वो देखने में इतना सुंदर था ।
आसमान में हजारों तारे बिखरे होते हैं । इनमें कुछ तारे अन्य की अपेक्षा ज्यादा चमकीले होते हैं । तारे कुछ विशेष नमूनों में बिखरे होते हैं । यही नमूने आसमान की छतरी पर एक नियमित तरीके से लगातार घूमते रहते हैं ।
सबसे बड़ा तो चंद्रमा होता है । तारे बस एक बिन्दु जैसे दिखते हैं पर चंद्रमा उनसे बड़ा दिखता है । कभी चंद्रमा एकदम गोल होता है और कभी अर्थ-वृत्त या फिर मुड़ा हुआ । चंद्रमा तारों के बीच) रात-द्र-रात यात्रा करता है । मध्य-रात्रि के समय वो किसी विशेष तारे के पास हो सकता है और अगली रात वो उस तारे से बहुत दूर हो सकता है ।
रात के आसमान में पांच) तारे जैसे और पिंड हैं पर वे तारों से अधिक चमकीले हैं । उनके नाम बुध) शुक्र) मंगल) बृहस्पति और शनि हैं । यह पिंड भी तारों की पृष्ठभूमि में विचरते रहते हैं ।
प्राचीन लोगों ने इन पांच आकाशीय पिंडों को ' प्लैनिट्स ' का नाम दिया था । यूनानी में इस अर्थ होता है ' भटकना ' । और वाकई में यह ग्रह आकाश में इधर-उधर भटकते रहते हैं । शुरू में चंदमा और सूर्य को भी ग्रह माना गया था । इस प्रकार कुल मिलाकर सात ग्रह थे ।
हमारे पूर्वजों ने रात-दर-रात तारों का अध्ययन किया । उन्होंने ग्रहों को एक नियमित तरीके से घूमते हुए पाया । चंद्रमा आसमान में एक गोलाकर पथ पर चलता था । वो एक तारे से शुरू करके) एक पूरा चक्कर लगाकर) 27 दिनों से कुछ अधिक समय बाद) फिर उसी तारे के पास वापस आता था ।
इस सब में एक निश्चितता थी जिससे भविष्यवाणी करना सम्भव था । चंद्रमा उसी पथ पर दुबारा-दुबारा चलता था । इसलिए खगोलशास्त्री – वे लोग जो तारों का अध्ययन करते हैं) चंद्रमा के बारे में भविष्यवाणी कर सकते थे । वो बता सकते थे कि वो भविष्य में कहां होगा और उसका आकार क्या होगा ।
अन्य ग्रहों के पथ अधिक जटिल थे । कभी-कभी वे चंद्रमा की दिशा में चलते थे) पर कभी-कभी वे मुड़कर कुछ समय के लिए विपरीत दिशा में भी चल देते थे । ग्रह अलग- अलग गतियों से चलते और उनकी गति चंद्रमा की अपेक्षा बहुत धीमी होती थी ।
ग्रहों के गहन अध्ययन के बाद उनकी आकाशीय यात्रा में भी एक साफ नमूना दिखने लगा । कुछ समय बाद हरेक ग्रह की स्थिति और उसकी चाल की भविष्यवाणी करना सम्भव हो गया ।
अब कुछ असाधारण घटनाओं जैसे सूर्य और चंद्र-ग्रहणों की भविष्यवाणी भी कर पाना सम्भव हो गया ।
सूर्य-ग्रहण तब होता जब चंद्रमा उसके सामने आ जाता । ग्रहण कब आएगा? खगोलशास्त्री उसकी भविष्यवाणी करना सीख गए थे । चंद्र-ग्रहण तब होता था जब चंद्रमा और सूर्य दोनों पृथ्वी की विपरीत दिशाओं में होते थे । तब पृथ्वी की परछाईं चंद्रमा पर पड़ती थी । हमारे पूर्वज 3००० -साल पहले ही ग्रहणों की भविष्यवाणी करना सीख गए थे ।
यह सांत्वना की बात थी कि हर ग्रह आकाश में एक निश्चित पथ पर चलता था । इससे लगता था कि बृहमांड मशीनरी सुचारू) नियमित तौर पर चल रही थी । और अगर वो मशीनरी आसमान में सही-सलामत काम कर रही थी तो वो निश्चित रूप से पृथ्वी पर भी ठीक-ठाक चल रही होगी । पर कभी-कभी आसमान में कोई असाधारण घटना घटती थी? कोई ऐसी असामान्य घटना घटती जिसकी भविष्यवाणी करना मुश्किल होता । क्या बृहमांड की मशीनरी गड़बड़ा तो नहीं गई थी? क्या पृथ्वी पर कुछ विपत्ति तो नहीं आई?
ऐसा होता कि कभी-कभी कोई नया चमकीला पिंड रात के आसमान में नजर आता । वो ऐसी चीज होती जिसे लोगों ने आसमान में पहले कभी नहीं देखा था । वो अन्य तारों जैसे प्रकाश का बिन्दु और ग्रहों जैसी नहीं होती थी । वो सूर्य और चंद्रमा जैसी चमकीली चकती भी नहीं होती थी ।
वो तारों से बड़ा होती थी परन्तु उसकी बाहरी रेखा अस्पष्ट होती थी । वो एक चमकीली धुंध होती जिसकी एक बहुत लम्बी धुंधली पूंछ होती जो धीरे- धीरे और धुंधली होती जाती ।
वो एक धुंधला तारे जैसा था और उससे चमकीले बाल बौछार जैसे बाहर निकलते थे ।
प्राचीन यूनानियों ने उसे ' एस्टर कॉमेट ' बुलाया । उनकी भाषा में इसका अर्थ था ' बालों वाला तारा ' । पर यहां हम उस नाम का दूसरा भाग ही प्रयाग करेंगे और आसमान में इस असाधारण चमकीली वस्तु को सिर्फ ' कामेट ' या धूमकेतू बुलाएंगे ।
धूमकेतू के केंद्र में कभी-कभी तारे जैसा एक चमकीला बिन्दु होता है जिसे ' न्यूइक्लयस ' या नाभि कहते हैं । नाभि के चारों ओर धुंधली रौशनी को ' कोमा ' कहते हैं । और धुधले प्रकाश की लम्बी पूंछ को ' टेल ' कहते हैं ।
प्राचीन खगोलशास्त्री धूमकेतू कब प्रकट होंगे इसकी भविष्यवाणी नहीं कर पाते थे । न ही वो उसके पथ के बारे में कुछ पता था । उन्हें यह भी नहीं पता था कि धूमकेतू कब ओंझल होगा ।
तमाम आकाशीय पिंडों की गति के बारे में भविष्यवाणी करने के बावजूद धूमकेतू) खगोलशास्त्रियों के लिए बहुत समय तक एक पहेली बने रहे । धूमकेतू अनायास प्रकट होते) आसमान की सैर करते और फिर अचानक गायब हो जाते । बाकी आकाशीय पिंड बड़ी नियमितता से यात्रा करते) परन्तु धूमकेतुओं के अनायास आन-जाने से लोग भयभीत होने लगे । इसलिए जब कभी आकाश की शांतिपूर्ण मशीनरी के बीच धूमकेतू प्रकट होता तो लोगों को लगता कि सबकुछ गड़बड़ा जाएगा और जरूर कुछ-न-कुछ अशुभ होगा ।
सम्भवत : किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति की मृत्यु हो जाए) जंग छिड़ जाए या फिर महामारी आ जाए ।
और जब-जब धूमकेतू प्रकट हुए तब-तब पृथ्वी पर कुछ अनर्थ जरूर हुआ । और तब लोग कहते कि धूमकेतू ने हमें इस विपत्ति से पहले ही आगाह किया था । इससे जब दुबारा धूमकेतू प्रकट होता तो लोग और ज्यादा डरे होते ।
मिसाल के लिए ई पू 44 में आसमान में एक धूमकेतू. प्रकट हुआ । यह वही साल था जब रोमन सम्राट जूलियस सीजर की निर्मम हत्या की गई । उसके बाद एक धूमकेतू सन् 1०66 में दिखा । यह वो साल था जब नौरमैन्डी के विलियम ने इंग्लैन्ड पर हमला बोलकर उसपर कब्जा किया । यह अंग्रेजों के लिए तो बहुत बड़ी आपदा थी परन्तु विलियम के लिए बहुत शुभ था ।
जो लोग आसमान में हो रही घटनाओं के पीछे का विज्ञान नहीं समझते हैं वे आज भी धूमकेतू के आने से घबराते हैं । उन्हें लगता है कि धूमकेतू कोई विपदा लायगा जिससे दुनिया का कहीं अंत ही न हो जाए ।
दरअसल) धूमकेतू आसमान में अन्य आकाशीय पिंडो जैसे ही होते हैं ।
पृथ्वी पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है । जब तक लोग धूमकेतुओं के बारे में ज्ञान हासिल नहीं करते - वे कहां से आते हैं और कहां जाते हैं) और वे आसमान में आखिर क्यों प्रकट होते हैं) तब तक लोग उनसे भयभीत रहेगे ।
भाग्यवश) खगोलशास्त्रियों ने धीरे- धीरे करके धूमकेतुओं सम्बंधी तमाम प्रश्नों के उत्तर खोजे । इसके कारण शिक्षित लोगों को अब धूमकेतुओं से कोई डर नहीं लगता है ।
2. दूरी और परिक्रमा
2000 साल पहले यूनानी दार्शनिक अरिल्लू धूमकेतुओं का गम्भीरता से अध्ययन करने वाले पहले व्यक्ति थे । ई पू 35० उनका मत था कि क्योंकि आसमान में सभी पिंड कुछ नियम-कानून के अनुसार घूमते थे और क्योंकि धूमकेतु बिल्कुल अनियमित रूप से आते-जाते थे इसलिए वो आकाशीय पिंड नहीं हो सकते थे । उन्हें लगा कि असल में धूमकेतू हवा के बंडल थे जिनमें आग लग गई थी । ऐसे बंडल आसमान में धीमी गति से यात्रा कर अंत में नष्ट हो जाते थे । और जब वो नष्ट होत तो फिर धूमकेतू लुप्त हो जाते थे ।
अरिस्तु प्राचीन काल के सबसे दिग्गज और बुद्धिमान चिंतक थे । उनके विचारों को गम्भीरता से लिया जाता था । 18०० साल तक खगोलशास्त्री अरिस्तु की बात को मानते रहे कि धूमकेतू आकाशीय पिंड नहीं बल्कि जलती हवा के बंडल थे ।
प्राचीन यूनानियों के काल से लोग धूमकेतुओं से इतने भयभीत हो गए थे कि किसी ने उन्हें न तो ध्यान से देखा और न ही कोई बेहतर सुझाव दिया था ।
फिर 1473 में जर्मन खगोलशास्त्री रीजियोमौटेनस ने एक धूमकेतू देखा और फिर रात-द्र-रात वो आसमान में उसकी स्थिति नोट करता रहा । उसके कार्य से धूमकेतुओं पर आधुनिक शोध की नींव पड़ी ।
जब 1532 में एक धूमकेतू नजर आया तो दो खगोलशास्त्रियों ने उसका अध्ययन किया । उन्हें उसमें एक रोचक बात दिखी । उनमें एक खगोलशास्त्री इतालवी था और उसका नाम था गिरोलामो फ्रकैस्टैरो और दूसरा आस्ट्रियन था और उसका नाम था पीटर एपियन । दोनों ने एक बात गौर की - धूमकेतू की पूंछ हमेशा सूर्य के विपरीत दिशा में होती यो । जब धूमकेतू सूर्य के एक ओर से दूसरी ओर जाता तो उसकी पूंछ की दिशा भी बदल जाती । इसका मतलब बड़ा धूमकेतूओं और सूर्य के बीच में साफ था - जरूर कोई सम्बंध था ।
फिर 1577 में इससे भी ज्यादा आश्चर्यचकित करने वाली खोज हुई । उस साल आसमान में एक धूमकेतू प्रकट हुआ जिसका अध्ययन डेनिश खगोलशास्त्री टाईको बैही ने किया । टाईको बैही को वैसे उनके पहले नाम टाईको से ही जाना जाता है । टाईको न न केवल धूमकेतू की स्थिति नोट की परन्तु उसकी दूरी भी जानने की कोशिश की ।
आसमान में किसी पिंड की दूरी को मापन का एक तरीका है ' पैरेलैक्स ' । इसके लिए आकाशीय पिंड को दो भिन्न स्थानों से देखना पड़ता और उसकी बदली स्थिति को नोट करना होता है ।
इसे समझना आसान है । आप अपने हाथ को मुंह के सामने सीधा करके एक जंगली को खड़ा करें । पहले बायीं आँख बंद कर) उंगली को दांयी आँख से देखें । इससे आपको एक खास पृष्ठभूमि दिखाई देगी । फिर ऊंगली को बिना हिलाए अब दायीं आँख बंद कर उसे बायीं आँख से देखें । अब आपको ऊंगली की स्थिति कुछ हटी हुई दिखाई देगी ।
जंगली की स्थिति में हुआ बदलाव) आँख से ऊंगली की दूरी पर निर्भर करेगा । आप इसे खुद करके देख सकते हैं । आँख से ऊंगली जितनी ज्यादा दूर होगी) स्थिति में बदलाव ( यानि ' पैरेलैक्स ') उतना ही कम होगा । जो वस्तु आपकी औख से बहुत दूर होगी उसमें ' पैरेलैक्स ' (या शिफ्ट) नहीं के बराबर होगी ।
किसी बहुत दूर की वस्तु में ' पैरेलैक्स ' देखने के लिए) उसे आपको दो अलग- अलग स्थानों ( 1 -किलोमीटर दूर) से देखना पड़ेगा ।
अगर कोई वस्तु चंद्रमा जितनी दूर हो तो उसके लिए स्थानों के बीच 1 -किलोमीटर की दूरी भी पर्याप्त नहीं होगी । उसके लिए दोनों स्थानों को सैकड़ों किलोमीटर दूर होना पड़ेगा । दोनों स्थानों के बीच की दूरी और ' पैरेलैक्स ' (या शिफ्ट) की मात्रा से चंद्रमा की दूरी ज्ञात की जा सकती है ।
इस काम को प्राचीन यूनानी खगोलशास्त्रियों ने किया । ई पू 13० में हिपार्कस ने पृथ्वी से चंद्रमा की दूरी की गणना की और उसे 386000 किलोमीटर बताया ।
1577 में टाइको ने हिपार्कस जैसे ही धूमकेतू के ' पैरेलैक्स ' को जानने का प्रयास किया । अगर धूमकेतू हवा का ही एक हिस्सा था तो वो चंद्रमा की अपेक्षा पृथ्वी के बहुत करीब होगा और उसका ' पैरेलैक्स ' बहुत अधिक होगा । टाइको ने सैकड़ों किलोमीटर दूर बैठ एक जर्मन खगोलशास्त्री से एक रात) निश्चित समय पर) धूमकेतू की स्थिति नोट करने को कहा । बोहिमिया में एक अन्य खगोलशास्त्री) और टाइको ने डेनमार्क में अपनी वेधशाला से उसी क्षण) उस धूमकेतू की स्थिति दर्ज की ।
टाइको ने अपने नतीजों का अध्ययन किया । उन्होंने पाया कि चाहें कहीं से धूमकेतू की स्थिति नोट करो वो सितारों की पृष्ठभूमि में अपनी जगह अडिग रहता था । यानि उसमें कोई ' पैरेलैक्स ' (या शिफ्ट) नजर नहीं आया । धूमकेतू का पैरेलैक्स चंद्रमा से भी कम था ।
इससे स्पष्ट हुआ कि धूमकेतू) चंद्रमा से अधिक दूरी पर था । टाइको को गणना से लगा कि धूमकेतू) चंद्रमा की अपेक्षा 4 -गुना अधिक दूर था । और वो पृथ्वी से 15 -लाख किलोमीटर दूर था ।
यह कड़ा बहुत शुद्ध नहीं था । वास्तव में धूमकेतू उससे कहीं अधिक दूर था । पर टाइको के नतीजे फिर भी महत्वपूर्ण थे । उनसे इतना साफ हुआ कि धूमकेतू. जलती हवा का बंडल नहीं थे) और अरिल्लू का मत सरासर गलत था । धूमकेतू अन्य ग्रहों जैसे ही आकाशीय पिंड थे ।
अगर धूमकेतू भी आकाशीय पिंड थे तो वे आसमान में दिखने वाले अन्य पिंडों से इतने भिन्न क्यों थे? उस समय टाइको के पास इसका कोई उत्तर नहीं था । उस समय खगोलशास्त्री बृहमांड को एक नई वैज्ञानिक नजर से देख रहे उससे पहले खगोलशास्त्रियों का मानना था कि विभिन्न ग्रह) पृथ्वी की परिक्रमा करते थे । पर 1543 में) पोलिश खगोलशास्त्री निकोला कोपरनिकस ने चीजों को अलग निगाह से देखने का सुझाव दिया ।
उनके अनुसार केवल चंद्रमा ही पृथ्वी की परिक्रमा करता था । पृथ्वी स्वयं सूर्य का चक्कर काटती थी । बाकी सारे ग्रह भी) सूर्य के चारों ओर परिक्रमा लगाते थे । अगर खगोलशास्त्री इस मत को मानते तो सारे ग्रहों की चाल को समझना बहुत आसान हो जाता । (एक पिंड का दूसरे के चारों ओर चक्कर लगाने को ' आरबिट ' कहते हैं । लैटिन के इस शब्द का मतलब है ' चक्कर लगाना ') ।
जर्मन खगोलशास्त्री जोहैनस केप्लर कभी टाइको के सहायक थे । वो कोपरनिकस के सिद्धांत से कुछ मामलों में अहमत थे । 16०9 में उन्होंने आसमान में ग्रहों की परिक्रमा के अध्ययन के बाद कहा कि ग्रह) सूर्य के चक्कर गोलों में नहीं बल्कि अंडाकार ' एलिप्स ' में लगाते थे ।
एलिप्स या दीर्घवृन्त एक चपटे गोले की तरह होता है । बहुत कम चपटा होने पर वो बिल्कुल गोले जैसा ही दिखता है । अगर थोड़ा अधिक चपटा होने पर वो बिल्कुल अंडे जैसा दिखता है । और अत्यधिक चपटा होने पर वो बिल्कुल एक लम्बे सिगार जैसा लगता है ।
पृथ्वी की सूर्य के चारों ओर घूमने वाली कक्षा बहुत थोड़ी ही चपटी होती है । वो लगभग गोलाकार होती है । बुध की कक्षा अन्य सभी ग्रहों की अपेक्षा
सबसे ज्यादा चपटी होती है) पर फिर भी वो ज्यादा चपटी नहीं होती है । बुध की कक्षा भी लगभग ही गोल दिखती है ।
सूर्य) ग्रहों द्वारा चक्कर लगाने वाली अंडाकार कक्षाओं के एकदम केंद्र में नहीं होता है । पृथ्वी जब सूर्य का चक्कर लगाती है तो वो एक ओर सूर्य से 147250000 -किलोमीटर और दूसरी ओर सूर्य से 152078850 -किलोमीटर दूर होता है । यहां अधिक-दूरी और कम-दूरी में मात्र 4 -प्रतिशत का अंतर है ।
बुध की सूर्य के चारों ओर कक्षा ज्यादा अंडाकार होती है) इसलिए उसमें काफी अंतर होता है । बुध जब सूर्य के पास होता है तो उसकी दूरी 45000000किलोमीटर होती है । और जब वो सूर्य से दूर होता है तो उसकी दूरी 70800000किलोमीटर होती है । इसलिए अधिक-दूरी) नजदीकी-दूरी से 5० -प्रतिशत से भी अधिक होती है ।
केप्लर सभी ग्रहों की अंडाकार कक्षाओं की गणना कर पाया) पर धूमकेतू का क्या कक्षा होगी? आकाशीय पिंड होने के नाते क्या धूमकेतू की भी तो कोई कक्षा होगी?
केप्लर ने धूमकेतुओं की बदलती स्थितियों के बारे में सभी शोधपत्रों को पढ़ा । अंत में उसे लगा कि धूमकेतुओं को सीधी रेखा में चलना चाहिए । उसे लगा कि धूमकेतू बृहमांड में बहुत दूर से आकर) सूर्य के से गुजरकर फिर सीधी-रेखा में दूसरी दिशा में चले जाएंगे ।
धूमकेतू तभी दिखेंगे जब वे सूर्य के पास होंगे क्योंकि वे सूर्य की रोशनी में चमकेंगे सूर्य के पास आने से पहले धूमकेतू दिखाई नहीं पड़ते थे । और सूर्य से दूर जाने के बाद वे फिर से ओंझल हो जाते थे । केप्लर के अनुसार धूमकेतू हमारे सौर-मंडल के सदस्य नहीं थे । धूमकेतू कभी-कभार सौर-मंडल से होकर गुजरते थे और उसके बाद फिर कभी नहीं दिखते थे ।
इतालवी खगोलशास्त्री जियोवानी एल्फांसो बोरेली ने 1664 में दिखे धूमकेतू की स्थिति का सविस्तार अध्ययन किया । वो केल्पर के मत से असहमत थे । बोरेली के अनुसार धूमकेतू के पथ को केवल एक तर्क के आधार पर ही समझा जा सकता था - कि धूमकेतू सूर्य के पास से गुजरते समय अपनी दिशा बदलता था । वो सूर्य के पास लगभग एक सीधी-रेखा में आता । फिर वो सूर्य का
चक्कर लगाकर फिर लगभग एक सीधी-रेखा में वापस लौटता था । पर इस बीच उसकी दिशा बदल जाती थी ।
बोरेली के कहना का मतलब था कि एलिप्स बहुत चपटे भी हो सकते थे । वो एक लम्बे) पतले सिगार जितने चपटे भी हो सकते थे । कल्पना करें एक बेहद लम्बे और चपटे एलिप्स की । आपको वो इतना चपटा लगेगा जैसे वो अनंत तक फैला हो । ऐसा एलिप्स केवल अपने सिरों पर बंद होगा । अन्य दिशाओं में वो कभी भी बंद नहीं होगा और वो लगातार जारी रहेगा । एक-सिरे वाला एलिप्स जो दूसरी ओर से कभी बंद नहीं होता है को ' पैराबोला ' या परवलय कहते हैं ।
बोरेली इस निर्णय पर पहुंचा कि धूमकेतू की कक्षा एक परवलय होगी और सूर्य उसके बंद सिरे के बहुत पास होगा । धूमकेतू इस परवलय के एक ओर से आएगा) फिर सूर्य की ओर गुड कर दुबारा परवलय की दूसरी भुजा की दिशा में चला जाएगा ।
बोरेली का मत बहुत कुछ केप्लर के मत से मिलता था । फर्क इतना था कि केप्लर ने धूमकेतू की कक्षा को सीधी-रेखा माना था और बोरेली ने उसे परवलीय माना । बोरेली और केप्लर दोनों के अनुसार धूमकेतू शुरू में इतने दूर थे इसीलिए वो दिखाई नहीं पड़ते य । जैस-जैस धूमकेतू सूर्य के नजदीक आते वे दिखाई दने लगते थे । और सूर्य से दूर जाने पर व फिर से धुंधले होकर आखों से ओंझल हो जाते थे । बोरेली और केप्लर दोनों का मत था कि धूमकेतु हमारे सौर-मंडल के सदस्य नहीं थे । हरेक धूमकेतू बस सौर-मंडल में से होकर गुजरता था और फिर कभी भी वापस नहीं आता था ।
3. धूमकेतू जो वापस आया
अंडाकार कक्षाओं का केप्लर का सिद्धांत ग्रहों के लिए उपयुक्त था) पर फिर भी उसे लेकर अनेक प्रश्न थे । ग्रह) सूर्य की परिक्रमा अंडाकार कक्षाओं में ही क्यों लगाते थे) अन्य किसी वक्र में क्यों नहीं? सूर्य के पास आने पर ग्रह तेज क्या चलने लगते थे?
ऐसे अनेक प्रश्नों के उत्तर ब्रिटिश वैज्ञानिक आइसक न्यूटन ने दिए । 1687 में उन्होंने एक पुस्तक लिखी जिसमें उन्होंने अपने सिद्धांत ' थ्योरी ऑफ यूनिवर्सल ग्रैविटेशन ' का वर्णन किया । इस सिद्धांत के अनुसार बृहमांड में हर पिंड) हरेक अन्य पिंड को आकषित करता था । दो पिंडों के बीच आकर्षण की शक्ति उन दोनों पिंडों के मास (परिमाण) - यानि उनमें कितना पदार्थ था इस बात पर निर्भर करती थी । इस आकर्षण-बल की गणना) गणित की एक सरल समीकरण से की जा सकती थी ।
न्यूटन ने इस समीकरण को उपयोग कर) पृथ्वी के चारों ओर चंद्रमा) और सूर्य के चारों ओर ग्रहों की कक्षाओं की शुद्ध गणना की ।
इसी समीकरण ने यह भी समझाया कि ग्रह समय-समय पर तेजी और धीरे क्यों चलते थे) और कुछ ग्रह अन्य के मुकाबले तेजी से क्यों चलते थे ।
समीकरण ने ग्रहों का एक-दूसरे पर खिंचाव) आर सूर्य के अत्यधिक आकर्षण शक्ति को भी समझाया । समीकरण ने समुद्र में आने वाले ज्वार- भाटे और अन्य कई बातों को बहुत सटीक तरीके से समझाया ।
पर धूमकेतू नामक आकाशीय पिंड अभी भी एक पहेली बने थे । अगर धूमकेतू परवलीय कक्षाओं में घूमते थे) तो न्यूटन का सिद्धांत उन्हें भी समझा सकता था । मान लें कि उनकी कक्षाएं परवलीय नहीं थीं परन्तु लम्बी अंडाकर एलिप्स थीं जो एक सिरे पर बंद थीं ।
धूमकेतू को हम उसकी कक्षा के अंत में ही देख सकते थे । उस समय वो सूर्य के पास होता था । अगर कक्षा एक लम्बा एलिप्स होगी तो उस विशाल कक्षा का वो छोटा भाग एक सकरा वक्र होगा । अगर एलिप्स और लम्बा होगा तो यह आकार कुछ चौड़ा होगा । और अगर एलिप्स कभी बंद न होकर एक परवलय होगा तो वो आकार और भी चौड़ा होगा ।
कक्षा के छोटे से भाग के आकार में अंतर इतना नगण्य था कि न्यूटन के सिद्धांत द्वारा भी उसे पता करना कठिन था । धूमकेतू की कक्षा एक बहुत लम्बा एलिप्स थी या फिर वो एक परवलय थी? उस समय वैज्ञानिक यह पक्की तौर पर बता नहीं पाए ।
पर यह पता लगाना जरूरी था । अगर धूमकेतू को कक्षा परवलय होती) तो वो एक बार हमारे सौर-मंडल में आकर फिर दुबारा कभी वापस नहीं आता । और धूमकेतू की कक्षा एक एलिप्स होती तो धूमकेतू मुड़ कर दुबारा सूर्य की ओर आता । यानि धूमकेतू दुबारा वापस आता ।
खगोलशास्त्री धूमकेतू की कक्षा की पूरी लम्बाई ज्ञात करके वो कब वापस लौटेगा इसकी भविष्यवाणी भी कर सकते थे । इससे न्यूटन के सिद्धांत की पुष्टि और विजय होती । न्यूटन के एक युवा मित्र थे एडमंड हैली । हैली ने न्यूटन की पुस्तक के प्रकाशन में मदद की थी और वो धूमकेतु सम्बंधी समस्याओं में रुचि रखते थे ।
1682 में एक धूमकेतू प्रकट हुआ और हैली ने उसकी स्थिति और चाल का गहन अध्ययन किया । उसे धूमकेतू की कक्षा का जो भाग दिखाई दिया उसे देखकर यह कहना मुश्किल था कि वो कभी लौटेगा ।
उसे इतना अवश्य लगा कि अगर धूमकेतू लौटेगा तो वो नियमित समय के बाद लौटेगा और वो आसमान में हमेशा वही पुराना वक्र पथ लेगा । उसने पूर्व धूमकेतुओं को स्थितियों के बारे में हर सम्भव जानकारी एकत्रित की । 17०5 तक उसके पास अतीत के लगभग दो-दर्जन धूमकेतुओं की जानकारी इकट्ठी हुई और वो उनकी तुलना करने लगा ।
उसने पाया कि 1682 के धूमकेतू ने - जिसे उसने खुद देखा था) ने 16०7 के धूमकेतू के वक्र पथ पर यात्रा की थी । 1532 के धूमकेतू का भी वही पथ था (इसका अध्ययन फैकैष्ट्रो और एपियन ने किया था) । 1456 के धूमकेतू का भी वही पथ था ।
यह धूमकेतू 76 -वर्ष के बाद आए थे । यानि उनका ' पीरियड ' या काल 76 -वर्ष का था । क्या धूमकेतू हर 75 -वर्ष बाद दर्शन देता था?
हैली ने हर 75 -वर्ष बाद आने वाले धूमकेतू की कक्षा की गणना की जो 1682 के धूमकेतू के वक्र पथ पर यात्रा करता था ।
जो नतीजे आए वो चौका देने वाले निकले। हैली के काल में शनि ग्रह को सूर्य से सबसे अधिक दूर समझा जाता था। पर वो सूर्य से कभी भी 1500000000 किलोमीटर से अधिक दूर नहीं था। पर 1682 का धूमकेतू सूर्य से 5150000000 किलोमीटर दूर गया. उसने फिर मुड़कर दुबारा सूर्य की ओर अपने अंडाकार पथ पर यात्रा शुरू की। यानि यह धूमकेतू) शनि-ग्रह की तुलना में सूर्य से तीन-गुना दूर गया था। दूसरी ओर जब धूमकेतू सूर्य के पास स्थित एलिप्स के सिरे से गुजरा तो उस समय वो सूर्य से केवल 87000000-किलोमीटर की दूरी पर था। यह दूरी पृथ्वी से सूर्य की दूरी की आधी थी।
धूमकेतू की कक्षा की गणना करने के बाद हैली ने भविष्यवाणी की कि वो धूमकेतू दुबारा 1758 में प्रकट होगा और वो आसमान में एक विशिष्ट पथ पर यात्रा करेगा ।
हैली धूमकेतू की वापसी तक जीवित नहीं रहे । 1742 में 82 वर्ष की आयु में उनका देहांत हुआ । इसीलिए वो धूमकेतू की वापसी को देख नहीं पाया ।
पर अन्य लोगों ने धूमकेतू की वापसी को अवश्य देखा । फ्रेंच खगोलशास्त्री एलेक्सिस क्लाड क्लैराइट ने हैली द्वारा सुझाए पथ का अध्ययन किया । उसे लगा कि बृहस्पति) नेपज्यून जैसे बडे ग्रहों के गुरुत्वाकर्षण बल के कारण धूमकेतू के आगमन में कछ देरी होगी । वो 1759 तक सूर्य के पास से नहीं गुजरेगा ।
1758 में खगोलशास्त्रियों ने बहुत आतुरता से आसमान के उस हिस्से पर आँखें गढ़ाई जहां हैली ने उसके आने की भविष्यवाणी की थी । अब टाइको और अन्य खगोलशास्त्रियों जैसे उन्हें धूमकेतू को केवल आखों से देखने की आवश्यकता नहीं थी । 16०9 में टेलिस्कोप का आविष्कार हो चुका था ।
25 दिसम्बर 1758 को क्रिस्मस वाले दिन जर्मन किसान जौहान जार्ज पैलिस (एक शौकिया खगोलशास्त्री) को धूमकेतू दिखाई दिया । 1682 का धूमकेतू बिल्कुल हैली की भविष्यवाणी के अनुसार प्रकट हुआ और हैली द्वारा सुझाए पथ पर ही यात्रा कर रहा था । वो क्लैराइट द्वारा की गई भविष्यवाणी के समय पर ही सूर्य क पास पहुंचा था ।
वो 1682 वाला ही धूमकेतू था । इस बात को लेकर अब कोई विवाद नहीं था । इससे धूमकेतियो का कुछ रहस्य तो उजागर हुआ । धूमकेतू अन्य आकाशीय पिंडों के ही नियम-कानूनों का पालन करते थे । फर्क सिर्फ इतना था कि उनकी कक्षा बहुत ज्यादा अंडाकार थी ।
1682 का धूमकेतू जब 1759 में वापस लौटा तो हैली के नाम पर उसका नाम ' हैलीज कॉमेट ' पड़ा ।
आज भी दुनिया में ' हैलीज कॉमेट ' सबसे मशहूर है । यह वही धूमकेतू था जो 1०66 में प्रकट हुआ था जब नौरमैन्दी का विलियम इंग्लैन्ड पर आक्रमण कर रहा था । वो शायद ई पू 11 वीं शताब्दी में भी प्रकट हुआ - जब ईसा मसीह का लोगों के ' और बेथलेहम ' वही धूमकेतू था ।
जन्म हुआ । कुछ अनुसार स्टार पैलिस द्वारा पहली बार देखे जाना वाला हैली- धूमकेतू दो बार लौट चुका था । वो 1835 में वापस लौटा और मार्क दूनने के जन्म के समय आसमान मे चमका । मार्क दूनने एक मशहूर अमरीकी लेखक थे । ' हकलबेरी फिन ' और ' एडवेंचर्स ऑफ मार्क दूनने ' उनकी मशहूर पुस्तकें हैं । 1986 में वो धूमकेतू दुबारा वापस आएगा ।
हम भाग्यशाली हैं कि हैली- धूमकेतू की कक्षा छोटी है और वो हर 75 -वर्ष में वापस आता है । अगर उसकी कक्षा लम्बी होती तो क्या होता? तब वो सैकड़ों या हजारों साल बाद ही लौटता!
? धूमकेतू 1812) 1861 और 1882 में हुए । वे बहुत बडे और कछ प्रकट चमकीले थे । उनकी कक्षाएं इतनी लम्बी थीं कि अब वो शायद हजारों साल बाद ही दुबारा दर्शन दें । उससे पिछली बार जब वा प्रकट हुए थे तो शायद मनुष्य गुफाओं में रहते हों और उन्होंने धूमकेतुओं पर कुछ ध्यान नहीं दिया हो । भविष्य में जब वो धूमकेतू वापस आएंगे तब दुनिया का क्या हाल होगा) यह किसी को नहीं पता!
इन धूमकेतुओं की कक्षा की गणना हम उनके दिखने वाले छोटे हिस्से को देख कर नहीं कर सकते । जब धूमकेतू सबसे पहले प्रकट हुए तो दुनिया में उनका अध्ययन करने वाले खगोलशास्त्री ही नहीं थे । हम हैली- धूमकेतू जैसे उनकी कक्षाओं की तुलना नहीं कर सकते थे ।
चमकीले धूमकेतुओं में हैली- धूमकेतू की कक्षा सबसे छोटी थी । वो बहुत चमकीला धूमकेतू था और उसकी कक्षा और वापसी की बहुत शुद्धता से भविष्यवाणी की जा सकती थी ।
खगोलशास्त्री अब इतना अवश्य जानते थे कि धूमकेतू हमारे सौर-मंडल के ही सदस्य थे । उनकी कक्षाएं अंडाकार होती थीं और कक्षा का बहुत बड़ा भाग देखने के बाद ही हम उनकी सहो गणना कर सकते थे ।
4. धुंधले धूमकेतू
हैली की भविष्यवाणी कि 1682 का धूमकेतू वापस लौटेगा और उसके बाद 1759 में दुबारा लौटेगा के बाद से खगोलशास्त्री धूमकेतुओं पर और ध्यान देने लगे । अब उन्होंने चकमीले धूमकेतुओं का इंतजार करना छोड़ दिया - जो लम्बे अर्से तक वापस ही नहीं आते थे । अब टेलिस्कोपों की मदद से वे तमाम धुंधले धूमकेतूओं को खोज पाए । इन्हें सिर्फ आखों से देख पाना सम्भव नहीं था ।
इस प्रकार बहुत सारे धुंधले धूमकेतू मिले और कुछ धूमकेतू हर वर्ष मिलते हैं।
177० में स्वीडिश खगोलशास्त्री एंडर्स जीन लेक्सेल ने एक धूमकेतू देखा । उसने धूमकेतू के पथ का अध्ययन किया । वो उसकी कक्षा की आसानी से गणना कर पाया । वो एक दीर्घवृन्त एलिप्स में घूमता था जो हैली- धूमकेतू से बहुत छोटा था । असल में उसकी कक्षा इतनी छोटी थी कि वो हर 5.5 -साल में सूर्य के पास आता था ।
अगर धूमकेतू इतनी जल्दी-जल्दी सूर्य के पास आता था तो फिर अभी तक उसे किसी ने क्यों नहीं देखा? तब तक लेक्सेल के सुझाए पथ पर कोई भी धूमकेतू नहीं देखा गया था ।
वो धूमकेतू आसमान में पहले कहां था? लेक्सेल ने उसका पथ दर्ज किया । उसने पाया कि वो धूमकेतू बृहस्पति (जुपिटर) के पास से होकर गुजरेगा ।
वृहस्पति के इतने पास से गुजरने के कारण वो अवश्य उसके चार उपग्रहों के बीच से गुजरा होगा ।
लेक्सेल के अनुसार उस धूमकेतू की बहुत लम्बी अंडाकार कक्षा होगी । इसी वजह से वो आजतक किसी को नहीं दिखा होगा । वृहस्पति के पास से गुजरते हुए इस विशाल ग्रह के गुरुत्व बल ने धूमकेतू को उसके पथ से थोड़ा डिगा दिया होगा और इसी कारण वो दिखा होगा । फिर उसने एक नई और छोटी कक्षा की शुरुआत की होगी ।
धूमकेतू उस नई कक्षा भी नहीं रहा । लेक्सिल का धूमकेतू उसके बाद कभी नहीं दिखा । गणना से मालूम पड़ा कि 177० में सूर्य के पास आते समय वो धूमकेतू फिर बृहस्पति के पास से गुजरा । इससे वो अपनी पूर्व कक्षा से फिर बाहर निकला ।
इस बार उसकी कक्षा इतनी फैली और विशाल थी कि वो सिरे पर बंद ही नहीं हुई। वो परवलय से भी अधिक फैली थी। धूमकेतू की नई कक्षा का वक्र एक हाईपरबोला था।
वृहस्पति ने लेक्सिल-धूमकेत् को हमारे सौर-मंडल के बाहर ढकेल दिया था। इस तरह हमेशा ही कोई-न-कोई धूमकेतू खोता रहता है।
लेक्सिल-धूमकेत् का क्या अंत हुआ यह जानने के लिए धूमकेतू की कक्षा की गणना भी बहुत सावधानी से करनी पड़ी। धूमकेतू की कक्षा अक्सर ग्रहों द्वारा बदल जाती थी।
महत्वपूर्ण बात यह थी कि लेक्सिल-धूमकेत् बृहस्पति और उसके उपग्रहों के बीच से गुजरा और उसने उनकी कक्षाओं में कछु परिवर्तन नहीं किया। इसे समझना आसान था - लेक्सिल-धूमकेत् का भार बहुत कम था। इसलिए उसका गुरुत्वाकर्षण बल लगभग नगण्य था।
धूमकेतुओं को बहुत उस समय बड़ा और खतरनाक समझा जाता था । लोगों को लगता है कि धूमकेतू के टकराने से पृथ्वी नष्ट हो जाएगी ।
धीरे- धीरे खगोलशास्त्रियों को पता चला कि धूमकेतू असल में छोटे पिंड थे । वो चारों ओर ' कोमा ' से घिरे थे । कोमा बहुत सारा स्थान घेरती थी और धूमकेतू की पूंछ करोडों किलोमीटर लम्बी होती थी । पर असल में ' कोमा ' और पूंछ का कुल भार बहुत कम होता था । और भार बहुत महत्व रखता था । सौर-मंडल में खोजे जाने वाले सबसे पहले छोटे पिंड धूमकेतू थे।
1700 के खगोलशास्त्री एक बात को लेकर धूमकेतुओं से निराश थे । हैली द्वारा हैली- धूमकेतू की कक्षा की गणना के बाद वैज्ञानिकों को लगा कि बाकी धूमकेतुओं को कक्षाओं की गणना करना सरल होगा । परन्तु हैली के सौ बरस बाद तक अन्य किसी धूमकेतू की कक्षा की गणना नहीं हो पायी थी । कछ समय के लिए लेक्सिल को लगा कि वो इस काम में सफल हुआ लेकिन वो कक्षा भी अंत में बदल गई ।
1818 में फ्रेंच खगोलशास्त्री जीन लुई पेन्स ने एक धूमकेतू खोजा जो उसे बिल्कुल नया लगा । जर्मन खगोलशास्त्री जोहान फौज एन्के ने उसकी कक्षा का अध्ययन किया और पाया कि 1786) 1795 और 18०5 में कई अन्य धूमकेतुओं ने उस पथ पर यात्रा की थी ।
इस जानकारी के आधार पर एन्के ने उस धूमकेतू की कक्षा की गणना की और पाया कि वो एक बहुत छोटा दीर्घवृन्त था । वो हर 7. 5 -साल में सूर्य के पास आता था । वो एलिप्स इतना छोटा था कि वो बृहस्पति तक भी नहीं पहुंचता था । धूमकेतू ' एन्के- धूमकेतू ' । वो पहला धूमकेतू था जिसकी उस का नाम पड़ा कक्षा की गणना हुई और वो उसी पथ पर लौटकर वापस भी आया ।
एन्के- धूमकेतू का काल (पीरियड) बहुत छोटा था । एन्के- धूमकेतू के बाद से कई अन्य धूमकेतुओं की खोज हुई पर किसी का भी पीरियड इतना छोटा नहीं था और कोई भी सूर्य क इतनी जल्दी चक्कर नहीं मारता था । खगोलशास्त्रियों ने एन्के- धूमकेतू को सूर्य के पास जाते हुए पचास बार देखा था ।
क्योंकि एन्के- धूमकेतू बहुत धुंधला था इसलिए उसे केवल टेलिस्कोप की मदद से ही देखा जा सकता है । टेलिस्कोप से भी केवल उसका छोटा ' कोमा ' ही दिखता था पर पूंछ बिल्कल गायब होती थी । सूर्य के पास अनेक छोटे धूमकेतू काफी नियमितता से आते । पर सभी काफी धुंधले होते थे । हर बार जब ' कोमा ' बनता था तो वो तेज हवा से पूंछ में चला जाता था और फिर कभी वापस नहीं आता था । हर बार जब धूमकेतू वापस आता तो उसके ' कोमा ' आर पूंछ में और कम पदार्थ बचता । इसका अर्थ था कि सूर्य के प्रत्येक चक्कर में धूमकेतू और अधिक धुंधला होता था और अंत में ओंझल हो जाता था । लम्बी कक्षाओं वाले धूमकेतू जो बहुत लम्य अर्से के बाद सूर्य के पास आते) वही चमकीले होते थे ।
5. धूमकेतू जिसकी मृत्यु हुई
धूमकेतू जब धुंधला पड़ता था तब क्या होता था? एन्के- धूमकेतू से लगता था कि उसकी सिर्फ पथरीली नाभि ही बचो होगी ।
क्या हर बार ऐसा ही होता था? क्या हर बार पथरीला न्यूइक्लयस ही बचता था? इसका उत्तर 18०० में मिला ।
1826 में आस्टेरलियन खगोलशास्त्री विल्हेल्म फान बेयला को एक धूमकेतू दिखाई दिया । उसने धूमकेतू की स्थिति का रात-दर-रात अध्ययन किया । आकाश में उसके पथ के आधार पर उसे लगा कि उसकी कक्षा एक छोटा एलिप्स दीर्घवृन्त होगी । पर वो एन्के- धूमकेतू जितनी छोटी नहीं होगी ।
उसने गणना कर पता लगाया कि धूमकेतू 68 -सालों बाद सूर्य के पास वापस आएगा । यह धूमकेतू शायद पहले कई बारे देखा जा चुका होगा । 1772 में दिखाई दिया धूमकेतू असल में यही ' वेयला- धूमकेतू ' था ।
बेलया- धूमकेतू वो दूसरा छोटी कक्षा वाला धूमकेतू था जिसके पथ की गणना की गई थी । बेलया- धूमकेतू) एन्के- धूमकेतू जैसे ही बार-बार अपने नियमित काल के अनुसार ही वापस आने लगा ।
एक खगोलशास्त्री उससे भी एक कदम आगे गया । उसने गणना की कि बेलया- धूमकेतू 27 नवम्बर 1832 को सूर्य के सबसे नजदीक आएगा । और उसकी भविष्यवाणी एकदम सही निकली ।
उसके बाद बेलया- धूमकेतू 1839 में वापस आया । उस साल सूर्य और बेलया- धूमकेतू की स्थितियां ऐसी थीं कि धूमकेतू हमेशा सूर्य के पास नजर आता था । इन परिस्थितियों में उसे देख पाना बहुत मुश्किल था ।
पर खगोलशास्त्रियों को इसकी कोई परवाह नहीं थी । उन्होंने भविष्यवाणी की कि वो फरवरी 1846 को वापस लौटेगा और तब वो दिखेगा । सभी उस दिन का इंतजार कर रहे थे ।
दिसम्बर 1845 में बेलया- धूमकेतू इंतजार करते खगोलशास्त्रियों को दिखा । वो बिल्कुल अपने नियत समय पर आया ।
पर वो देखने में साधारण नहीं लग रहा था । एक अमरीकी वैज्ञानिक मैव्यू फौन्टेन मौरी को बेलया- धूमकेतू के साथ एक अन्य धुंधला धूमकेतू भी दिखा । उसके बाद दोनों धूमकेतू सूर्य की ओर बढे । फिर क्या हुआ?
शायद 1839 की अपनी यात्रा के समय जब धूमकेतू बहुत समय तक सूर्य के पास था और जब वो दिखाई नहीं दे रहा था तो उसका बहुत सारा पदार्थ गर्म होकर खींचा गया था और उसका आकार एक ' डमबैल ' - एक रेखा से जुडे दो गाले जैसा हो गया था । ' डमबैल ' टूटन के कारण अब एक की बजाए दो धूमकेतू दिखाई दे रहे थे ।
1852 में जब वो दुबारा सूर्य के पास वापस आया) तब क्या हुआ? उस समय उसे इतालवी खगोलशास्त्री पीटरो एंजेलो सेची ने देखा । उसे अभी भी दो धूमकेतू दिखाई दिए परन्तु वो अब एक-दूसरे से काफी दूर थे । आसपास के ग्रहों ने उन दोनों पर अलग-अलग प्रभाव डाला होगा। इस वजह से उनकी कक्षाएं भी अब अलग-अलग हो गई थीं। सेची की गणना के अनुसार दोनों धूमकेतुओं के बीच की दूरी ००-किलोमीटर थी।
इस धूमकेतू की अगली वापसी 1859 में होनी थी। पर इस बार फिर उसकी स्थिति ऐसी थी कि वो दिखाई नहीं देता। खगोलशास्त्री को 1866 तक इंतजार करना पड़ता और तब वो साफ दिखाई देता।
पर वास्तव में वो धूमकेतू कभी दिखा ही नहीं। 1866 का साल आया पर वेयला-धूमकेत् का कोई अतापता नहीं था। और उसके बाद से वो दुबारा कभी नहीं दिखा। वो लुप्त हो गया। बृहस्पति ग्रह उसे एक नई कक्षा में खींच कर नहीं ला सका। क्या यह सम्भव था कि 1859 में लौटने के बाद धूमकेतू का सारा पदार्थ अब कोमा' और पूंछ में परिवर्तित हो गया था और अब वो सदा के लिए लुप्त हो गया था।
ऐन्के-धूमकेतू के साथ ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ। इसका एक सम्भव कारण हो सकता था कि ऐन्के-धूमकेतू का मध्य भाग पथरीला था और वेयला-धूमकेत् में ऐसा नहीं था।
क्या वेयला-धूमकेत् के कुछ अवशेष बचे? यह प्रश्न हमें कहीं और ले जाएगा। आपने आसमान में भी श्हूइटैग-स्टार' या 'उल्काएं' मीटियौर्स) देखे होंगे। वो सचमुच के तारे नहीं होते। वो पदार्थ के टुकड़े होते हैं जो अंतरिक्ष से आते हैं और फिर पृथ्वी से टकराते हैं।
जैसे-जैसे यह पदार्थ वातावरण में बहुत तेज गति से चलता है, वो हवा के घर्षण सै गर्म होता है। फिर वो बहतु गर्म होकर चमकने लगता है और फिर आपको आसमान में एक प्रकाश-रेखा दिखाई देती है जो जल्द ही लुप्त हो जाती है। कभी-कभी पदार्थ का आकार इतना विशाल होता है कि वो पूरा का पूरा पिघलकर जलता नहीं है। बचा हुआ पदार्थ पृथ्वी से एक पत्थर जैसे टकराता है आर हम उसे 'उल्का' कहते हैं। इस प्रकार की 'उल्काएं' बहुत दुर्लभ होती हैं।
अधिकांश मीटियौर्स बहुत छोटे होते हैं और उनसे ' उल्का ' बनने की सम्भावना बहुत कम होती है । कुछ पिन के मत्थे जितने छोटे होते हैं । पदार्थ के इतने छोटे टुकड़े भी आकाश में दमक सकते हैं और प्रकाश्-रेखा बना सकते हैं । छोटी उल्काएं बहुत आम हैं । कभी-कभी हमारी पृथ्वी पिन के मत्थे जितनी छोटी उल्काएं को बादल में होकर गुजरती है । इसे ' उल्का-बौछार ' कहते है।
1833 में इसी प्रकार की एक अचरज भरी ' उल्का-बौछार ' अमरीका में देखी गई । कुछ लोगा ने जब यह नजारा देखा तो उन्हें लगा कि जैसे आसमान से तारे गिर रहे हों और दुनिया समाप्त होने वाली हो । पर ' उल्का-बौछार ' के खत्म होने के बाद आसमान में फिर पहले जैसे ही तारे दिखाई दिए ।
यह छोटे-छोटे पिंड हवा में पूरी तरह जल जाते हैं ।
' उल्का-बौछार ' चाहें कितनी भी सघन क्यों न हो) उनका कोई भी टुकड़ा पृथ्वी तक नहीं पहुंचता है ।
1833 की ' उल्का-बौछार ' के बाद से वैज्ञानिक कणों से बने इन बादलों के बारे में सोचने लगे क्योंकि पृथ्वी अक्सर इन बादलों में से होकर गुजरती थी । क्या यह बादल भी सूर्य के चार्रा ओर किसी निश्चित परिक्रमा में चक्कर काटते थे?
इतालवी खगोलशास्त्री जियोवानी वर्जिनियो शेरपराली ने इस बात को गहराई से सोचा । उसने ' उल्का-बौछारों ' के बारे में सभी जानकारी और तथ्य एकत्रित किए - वे कब आते थे और आसमान के किस भाग से आते थे?
186० में उसकी गणना से पता चला कि ' उल्का-बौछार ' भी सूर्य के चारों ओर एक कक्षा में घूमती थी । और यह पथ एक लम्बा दीर्घवृन्त एलिप्स होता था । उनकी कक्षाएं धूमकेतू की कक्षाओं से मेल खाती थीं । क्या उन ' उल्का-बौछारों ' और धूमकेतुओं में कुछ सम्बन्ध हो सकता था?
शेरपराली को उनमें सम्बन्ध दिखा । एक ' उल्का-बौछार ' अगस्त में आती और ' परसियस ' नाम के नक्षत्र से आती । इसीलिए उस ' उल्का-बौछार ' का नाम ' परसाइड्स ' पड़ा । शेरपराली ने दिखाया कि यह ' परसाइड्स ' टटिल नाम के धूमकेतू की कक्षा में ही घूमती थी । 1853 में अमरीकी खगोलशास्त्री चार्ल्स वेस्ले ने टटिल- धूमकेतू की खोज की थी । वो सूर्य के पास हर 14 -साल में आता था ।
ऐसा लगा कि धूमकेतू ऐसे पदार्थ के बने थे जो सूर्य की ऊष्मा में वाष्प या गैस बनकर उड जाता था । इस गैस में बहुत छोटे और बारीक पत्थर के टुकड़े भी होते थे । और गैसीय पदार्थ के उड जाने के बाद छोटे और महीन पत्थर सूर्य की रोशनी में चमकते थे । इन्हें धूमकेतू के ' कोमा ' अथवा ' पूंछ ' में देखा जा सकता था ।
शायद गर्म धूमकेतुओं के यही छोटे और महीन पत्थर के टुकड़े पृथ्वी के वातावरण में ' उल्का ' बनाते थे । हर बार कोई धूमकेतू सूर्य के पास से गुजरता तो छोटे पत्थरों के टुकड़े धूमकेतू से अलग होकर सूर्य के चारों ओर परिक्रमा लगाने लगते । धीरे- धीरे करके वो धूमकतू की सम्पूर्ण कक्षा में फैल जाते । वैसे वो धूमकेतू के पास अधिक मात्रा में मिलते थे और उससे दूर कम मात्रा में ।
और धूमकेतू की मध्य ' कोर ' में अगर पत्थर नहीं हुए तो फिर वो पूर्णत : एक कणों का बादल बन जाता था । वेयला- धूमकेतू के साथ यही हुआ होगा? शेरपराली ने दिखाया कि ' परसाइड्स ' ' टटिल- धूमकेतू ' द्वारा निर्मित थे । उसके बाद से खगोलशास्त्रियों ने वेयला- धूमकेतू को भी उसी निगाह से देखना शुरू किया । उन्हें वेयला- धूमकेतू की कक्षा मालूम थी और उन्हें लगा कि वो पथ पर बहुत सी ' उल्काएं ' होंगी । और धूमकेतू के असली स्थान पर तो ' उल्काओं ' का बहुत सघन बादल होगा ।
वे उस समय का इंतजार करते रहे जब पृथ्वी उस बिन्दु क निकट होगी । एक खगोलशास्त्री ई वाईज ने भविष्यवाणी की कि 28 नवम्बर 1872 को उल्काओं की बौछार होगी । उसने एक दिन की गल्ली की क्योंकि यह घटना 27 नवम्बर को घटी ।
उस ' उल्का बौछार ' को ' बीलियाइड्स ' कहते हैं । वो बौछार कई बार हुई पर अंत में लुप्त हो गई । उसके बादल के कण पूरी कक्षा में फैल गए परन्तु वो बहुत विरल तरीके से फैले । वो कहीं भी इतने सघन नहीं थे कि उनसे ' उल्का बौछार ' हो ।
6. धूमकेतू क्या हैं?
195० में डच खगोलशास्त्री जैन हान्ँडमक ऊर्ट ने सुझाया कि सूर्य से ' छोटे पिंडों ' की पट्टो थी लाखों-करोड़ी किलोमीटर होने के बहुत दूर एक । दूर कारण बहुत शक्तिशाली टेलिस्कोप से भी उन्हें पृथ्वी से देख पाना सम्भव नहीं होगा । इस दूर-दराज की पट्टी में शायद करोडों ' छोटे पिंड ' हों । यह छोटे पिंड सूर्य के पास आते समय धूमकेतुओं में परिवर्तित हो जाते थे ।
अमरीकी खगोलशास्त्री फेड लौरेंस विपिल के सुझाव के अनुसार दूर अनंत अंतरिक्ष में इतनी ठंड थी और धूमकेतू मुख्यतौर पर उन पदार्थो के बने थे जो पृथ्वी पर गैसे होतीं । ' अमोनिया ') ' मीथेन ' और ' सायनोजिन ' ( कार्बन और नाईट्रोजन का मिश्रण) जैसे पदार्थ अनंत अंतरिक्ष में ठोस बर्फ जैसे होंगे और धूमकेतू ऐसे ही पदार्थो से बने होंगे । इसलिए धूमकेतुओं में ठोस बर्फ जरूर होगा । और इस बर्फीले पदार्थ के बीच में छोटे-छोटे पत्थर के कण बिखरे होंगे । केंद्र में पत्थर की ' कोर ' हो सकती है या नहीं भी ।
कभी-कभी दूर-दराज के धूमकेतुओं की पूंछ पर सूर्य से निकली तेज हवा सोलर-विंड का प्रभाव होता है । जब धूमकेतू सूर्य का बड़ा चक्कर लगाता है तो वो साफ दिखाई देता है । गति का कम होना शायद दो पिंडों के बीच टक्कर के कारण से हो सकता है) या फिर वो किसी दूर स्थित तारे के खिंचाव के कारण हो सकता है ।
फिर धीमा हुआ धूमकेतू एक नई कक्षा में सूर्य की परिक्रमा लगाएगा । और उसका पथ एक बहुत लम्बा दीर्घवृन्त एलिप्स होगा । वो ग्रहों से होता हुआ सूर्य के पास से गुजरेगा और तब वो चमकेगा और हम उसे देख पाएंगे । उसके पाएंगे वो फिर सूर्य का चक्कर मारकर दुबारा अंतरिक्ष में दूर चला जाएगा । अपनी नई कक्षा में वो शायद लाखों-करोडों साल बार ही दुबारा सूर्य के पास आए ।
जब धूमकेतू सूर्य के पास इस प्रकार आएगा तो जिस बर्फीले पदार्थ का वो बना है वो पिघलकर वाष्प बन जाएगा । इससे उसका पथरीला भाग मुक्त होगा और उससे ' कोमा ' बनेगा ।
1958 में अमरीकी वैज्ञानिक यूजीन नॉरमन पार्कर ने दिखाया कि सूर्य में से अणुओं से भी छोटे कण लगातार निकल रहे थे । यह कण तेज गति से सभी दिशाओं में फैलते थे । इन कणों को ' सोलरविंड ' कहते थे । यह ' सोलरविंड ' धूमकेतू के काम। से टकराती थी और उसे सूर्य से दूर ले जाकर धूमकेतू की पूंछ बनाती थी ।
जो धूमकेतू पहली बार सूर्य के पड़ोस में आता था वो बहुत विशाल काम। निर्माण करता था जो सूर्य से भी अधिक स्थान घेर सकता है । और भूमक. की पूंछ लाखोंकरोडों किलोमीटर लम्बी हो सकती थी ।
कभी-कभी ऐसे धूमकेतू की कक्षा किसी बडे ग्रह - विशेषकर वृहस्पति क प्रभाव के कारण वक्र हो सकती थी । उसके बाद से वो छोटी अंडाकार कक्षा में यात्रा कर सकता था । सूर्य के तमाम चक्कर लगाते समय धूमकेतू अपना अधिकांश पदार्थ खो देता था और उससे वो धोरे- धीरे करके धुंधला पड जाता था । हैली- धूमकेतू भी इसी प्रकार धुंधला पड रहा है ।1882 में एक बहुत चमकीला धूमकेतू दिखाई पड़ा । वो शायद अंतरिक्ष में बहुत दूर से आया था ।
वैज्ञानिक 1882 से धूमकेतू के दुबारा आने का इंतजार कर रहे थे । इस बीच धूमकेतुओं के बारे में उनका ज्ञान बहुत बढ़ा था और वे नये-नवीन उपकरणों से उनकी जांच-परख करना चाहते थे । फिर 1973 में चेक खगोलशास्त्री ल्यूबिस कोहूटेक को पृथ्वी से बहुत दूर एक धूमकेतू दिखाई दिया । दूर से दिखने का मतलब था कि धूमकेतू बहुत बड़ा था और तभी वो पर्याप्त प्रकाश को परावर्तित कर पा रहा था ।
' धूमकेतू कोहूटेक ' या ' कोहूटेक के धूमकेतू ' दूर-दराज से आ रहा था जहां पर छोटे पिंडों की एक पट्टी थी । वो सूर्य के सबसे करीब 28 दिसम्बर 1973 को आया । खगोलशास्त्रिया को उसके बेहद चमकीले होने की उम्मीद थी । वो उतना चमकीला नहीं निकला पर उसका मनुष्यों ने स्काईलैब-उपग्रह से अंतरिक्ष में जाकर अध्ययन किया । जैसे-जैसे वो सूर्य के और पास आएगा उसकी और जांच-परख होगी ।
भविष्य में कभी जब कोई नया धूमकेतू आएगा तो शायद मनुष्य अंतरिक्ष में धूमकेतू तक एक रॉकेट भेज पाएंगे ।
फिर धूमकेतू से डरने और भयभीत होने की बजाए लोग उसे छू पाएंगे और पृथ्वी पर धूमकेतू के नमूने लाकर उनका अध्ययन कर सकेंगे ।
(अनुमति से साभार प्रकाशित)
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