निर्मल वर्मा हिमाचल के पहाड़ी छाया के प्रतीक निर्मल वर्मा की कहानियां अभिव्यक्ति और शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ हैं। हिन्दी कहानी में आधुनिक ...
निर्मल वर्मा
हिमाचल के पहाड़ी छाया के प्रतीक
निर्मल वर्मा की कहानियां अभिव्यक्ति और शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ हैं। हिन्दी कहानी में आधुनिक बोध लाने वाले कहानीकारों में निर्मल वर्मा का अग्रणी स्थान है। उन्होंने कहानी की प्रचलित कला में तो संशोधन किया ही, प्रत्यक्ष यथार्थ को भेदकर उसके भीतर पहुंचने का भी प्रयत्न किया है। हिन्दी के महान साहित्यकारों में से निर्मल वर्मा जैसे कुछ ही साहित्यकार ऐसे रहें हैं जिन्होंने अपने प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार पर भारतीय और पश्चिम की संस्कृतियों के अंतर्द्वन्द्व पर गहनता एवं व्यापकता से विचार किया है।
हिन्दी भाषा में आधुनिक सार्वभौमिक चेतना को शब्द देने वाले प्रख्यात साहित्यकार निर्मल वर्मा की सौ से अधिक कहानियां कई संग्रहों में प्रकाशित हुई है, जिनमें 'परिेंदे', 'कौवे' और काला पानी', बीच बहस में', 'धागे', डेढ़ इंच उपर', 'लंदन की रात', 'जलती झाड़ी' आदि प्रमुख हैं। 'तीन एकांत' उनका प्रसिद्ध नाटक है। 'शब्द और स्मृति, कला का जोखिम, ढलान से उतरते हुए' आदि उनकी साहित्य पर आलोचना की पुस्तकें है। 'धुंध से उठती धुंध' और 'चीड़ों पर चांदनी' उनके यात्रा वृतांत है, उन्होंने लेखन की इस विद्या को नये आयाम दिये। कहानियों और उपन्यासों के अलावा बेहतरीन यात्रा वृतांत लिखने वाले निर्मल वर्मा के संबंध में प्रसिद्ध कथाकार कमलेश्वर ने 25 अक्टूबर 2005 में उनके निधन पर गहरा दुख व्यक्त करते हुए कहा था, 'निर्मल वर्मा यूरोप में पूरब की आवाज की तरह रहे और उन्होंने हिन्दी साहित्य में आधुनिकता का एक नया आयाम जोड़ा।' उनके साथ 55 वर्षों के संबंधों को याद करते हुए कमलेश्वर आगे कहते हैं, 'वे अपने साथ पहाड़ों का बहुत ही खूबसूरत अनुभव लेकर आये थे, उनकी कहानियों ने पचास और साठ के दशक में हिन्दी साहित्य जगत में धूम मचा दी थी।'
निर्मल वर्मा को वर्ष 1959 से 1972 तक यूरोप में प्रवास करने का अवसर मिला था और इस दौरान उन्होंने लगभग समूचे यूरोप की यात्रा करके वहां की भिन्न-भिन्न संस्कृतियों का नजदीक से परिचय प्राप्त किया था। हालांकि हिन्दी भाषी लोगों में बहुत ही कम लोग यह जानते होंगे कि निर्मल वर्मा का यूरोप प्रवास पूर्व नियोजित नहीं था बल्कि हुआ यह था कि निर्मल वर्मा के बड़े भाई राम कुमार, जो प्रसिद्ध चित्रकार थे, और विख्यात चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन की संयुक्त चित्र प्रदर्शनी प्राग में आयोजित हुई थी। इस प्रदर्शनी में प्राग के ओरिएंटल इंस्टीट्यूट के प्रसिद्ध विद्वान डॉ. क्रासा ने राम कुमार से हुई मुलाकात के दौरान कहा था कि हमें एक ऐसे भारतीय की तलाश है, जो प्राग आकर पहले चेक भाषा सीखे और फिर समकालीन चेक रचनाओं का हिन्दी में अनुवाद का काम हाथ में ले। निर्मल वर्मा उन दिनों राज्यसभा में अनुवादक के पद से त्यागपत्र देकर एक विदेशी शब्दकोश पर काम कर रहे थे। बड़े भाई के माध्यम से उक्त प्रस्ताव मिलने पर वह शब्दकोश का काम बीच में छोड़कर अचानक प्राग चले गये। खुद निर्मल वर्मा मानते हैं कि ''उनके जीवन की ये 'जादुई किस्म की यात्राएं' किसी चमत्कार से कम नहीं है। प्रसिद्ध नाटककार ब्रेख्त द्वारा आइसलैंड चलने के प्रस्ताव को पहले उन्होंने गंभीरता से नहीं लिया। वे कहते हैं, 'भारत से यूरोप आना ही मुझे इतना असंभव नहीं लगा था जितना आइसलैंड जाने की कल्पना करना। मेरे लिए आइसलैंड की यात्रा 'आउट स्पेस' को छूने से कम चमत्कारपूर्ण नहीं थी।''
'उतरी रोशनियों की ओर' नामक स्मृतिखंड में संकलित चार यात्रा वृतांत निर्मल वर्मा द्वारा अपने आइसलैंडी मित्रों के साथ आइसलैंड की यात्रा के दौरान लिखी गई विस्तृत डायरी पर आधारित है। डायरी लिखने का सुझाव और आग्रह उनके यूरोपीय मित्रों का था। ये यात्रा वृतांत उनके संवेदनशील सूक्ष्म पर्यवेक्षण के साक्षी हैं। इन यात्रा वृतांतों में ऐसे बहुत से प्रसंग आते हैं जब उनका मन अनायास ही भारत और यूरोप की संस्कृतियों की तुलना करने लगता है। कहीं वह यूरोपीय संस्कृति की कुछ खूबियों को देखकर अभिभूत हो उठते है और उनका मन प्रश्न करने लगता है कि आखिर ऐसा अपनी भारतीय संस्कृति में भी क्यों नहीं है ? तो कहीं वह दोनों संस्कृतियों के बीच कुछ अप्रत्याशित समानताओं को देखकर सुखद आश्चर्य में पड़ जाते है।
'एक रात बर्लिन में' ब्रेख्त का नाटक देखने के बाद उनका ध्यान भाषा और प्रेम के संबंध में आइसलैंड और भारत की कुछेक सूक्ष्म समरूपताओं पर जाता है और वे तुरंत दोनों की तुलना में तन्मय हो जाते है। वे लिखते हैं, 'आइसलैंडी का दो चीजों के प्रति गहरा लगाव अदभुत है-बीयर और अपनी भाषा। अपनी भाषा के प्रति ललक और प्यार मैंने अपने देश में बंगालियों में और यूरोप में आइसलैंड निवासियों से अधिक और कहीं नहीं देखा। कुछ ऐसा संयोग रहा है कि भारत में मेरे सबसे स्नेही और आत्मीय मित्र बंगाली और यूरोप में आइसलैंडी रहे हैं-दोनों ही मंडलियों में घंटों गुजारने का अवसर मिला है और वे हमेशा आपस में अपनी भाषा में बातचीत करते हैं। मैंने कभी उनके बीच अपने को अकेला महसूस नहीं किया। नोबेल पुरूस्कार से सम्मानित आइसलैंडी लेखक लैम्सनेस को उनके आइसलैंडी मित्र और आम आइसलैंडी नागरिक जिस दोस्ताना अंदाज में याद करते हैं, ये मुझे हैरत की बात लगती है। आइसलैंड के अलावा कोई दूसरा देश नहीं देखा, जहां लोग इतने खुले, मुक्त और आत्मीय ढ़ंग से अपने सबसे महान लेखक के संबंध में बात करते हैं-आदर और स्नेह का प्रदर्शन भी एक मुक्त व्यंग्यभाव द्वारा किया जा सकता है-बिना बार-बार 'श्री' या 'जी' का इस्तेमाल किए-यह कोई उनसे सीखे।''
निर्मल वर्मा को कहीं न कहीं यह बात कचोटती जरूर है कि आखिर भारत के आमजन में इस तरह का सांस्कृतिक अनुराग क्यों नहीं है। भारतीय क्यों नहीं अपने महान लेखकों को मुक्त ह्दय से याद कर पाते है। यद्यपि निर्मल वर्मा इसके कारण से भलीभांति अवगत थे। मेरा तो मानना है कि 'भूख और संस्कृति प्रेम' एक साथ नहीं रह सकते। जिन्हें गेहूं पहले से नसीब है वही गुलाब की ओर ध्यान देता है। हालांकि हमारे 'एलिट वर्ग' में संस्कृति प्रेम तो है लेकिन आडंबरपूर्ण, खोखला और महज दिखावे के लिए है। ड्रांइग रूम की शोभा बढ़ाती एक से बढ़कर एक कलाकृतियां, महंगे पेंटिंग्स, खजुराहो-ताजमहल की यात्राएं, खुशवंत सिंह, चेतन भगत और शोभा डे आदि की पुस्तकों की चर्चा यहां भी एलिट वर्ग में देखी जा सकती है लेकिन निर्मल वर्मा जिस मुक्तह्दयता और आत्मीयता की बात करते है वह इस वर्ग में नहीं पायी जाती।
'भारत और यूरोप : प्रतिश्रुति के क्षेत्र' नामक निबंध में, जिसे निर्मल वर्मा हैंडिलवर्ग विश्वविद्यालय, जर्मनी में एक व्याख्यान के रूप में प्रस्तुत किया था, उपरोक्त सवालों पर उनका चिंतन स्पष्ट तौर पर सामने आता है। वे कहते हैं, ''भारतीय समाज की उदासीनता और निष्क्रियता, जिसको विवेकानंद इतना धिक्कारते थे, भारतीय समाज की पारंपरिक बुनावट में निर्मम औपनिवेशिक हस्तक्षेप का अनिवार्य परिणाम था।''
अपनी गंभीर, भावपूर्ण और अवसाद से भरी कहानियों के लिए प्रसिद्ध रहे निर्मल वर्मा का जन्म शिमला में 3 अप्रैल 1929 में हुआ था। अपनी पूर्णत निजी लेखन शैली और आधुनिकता बोध के कारण निर्मल वर्मा को हिन्दी कहानी के सबसे प्रतिष्ठित नामों में गिना जाता है। उनकी लेखन शैली सबसे अलग और पूरी तरह निजी थी। उन्हें भारत में 'साहित्य का शीर्ष सम्मान ज्ञानपीठ 1999 में दिया गया। अपने निधन के समय निर्मल वर्मा भारत सरकार द्वारा औपचारिक रूप से नोबेल पुरूस्कार के लिए नामित थे। भारत सरकार ने 2002 में साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में पदम भूषण से उन्हें सम्मानित किया था। 1998 में ब्रिटेन के प्रकाशक रीडर्स इंटरनेशनल द्वारा उनकी कहानियों का संग्रह 'द वर्ल्ड एल्सव्हेयर' प्रकाशित हुआ था। इसी वक्त बीबीसी द्वारा उनपर डाक्यूमेंट्री फिल्म भी प्रसारित हुआ था। निर्मल वर्मा की कहानी 'माया दर्पण' पर फिल्म बनी थी जिसे 1973 का सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फिल्म का पुरस्कार दिया गया था।
राजीव आनंद
प्रेाफेसर कॉलोनी, न्यू बरगंडा
गिरिडीह-815301, झारखंड
संपर्क-9471765417
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