क्या अर्थ है हमारे होने का उपयोगी बनें या डूब मरें - डॉ. दीपक आचार्य 9413306077 dr.deepakaacharya@gmail.com हममें से हर किसी को दिन मे...
क्या अर्थ है हमारे होने का
उपयोगी बनें या डूब मरें
- डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
हममें से हर किसी को दिन में कम से कम रोजाना एक बार जागते और सोने के वक्त अपने आप से यह प्रश्न पूछना ही चाहिए कि हमारे होने का क्या अर्थ है। हमारी मौजूदगी सिर्फ खाने-पीने, मटरगश्ती करने, सोने, गप्पे हाँकने या टाईमपास करने के लिए ही है या हमारे और भी कुछ काम हैं।
हममें से अधिकांश लोग उपलब्धियों के मामले में वहीं के वहीं ठहरे हुए लगते हैं जहाँ बरसों पहले थे। सिर्फ दिन-महीने और साल बढ़ते रहने से आयु के कई पड़ाव जरूर पार कर चुके हैं। इसके बावजूद हमने खोया ही खोया है, पाया कुछ नहीं। समय भी तेजी से रीत गया और इतने वर्षों में हाथ भी कुछ नहीं आ पाया।
हमारा सब कुछ समय के साथ चला जाता रहा। और उन लोगों के हाथ भी क्या कुछ आ पाया जो हमारे साथ घण्टों गप्पे हाँकते हुए कभी किसी की झूठी तारीफ करने में पीछे नहीं रहे, कभी निन्दा और आलोचना में।
समय के साथ बहुत सारे संबंध बह चले, खूब सारे लोगों का साथ छूट गया और ढेरों ऎसे मिले जो हमारा उपयोग कर हमें भूल गए। और बहुत सारे हमारे देखते-देखते स्वर्ग सिधार गए। हम सब यहीं के यहीं रह गए। मूल प्रश्न यह है कि यहीं रह जाने के बाद भी हम क्या कुछ कर पाए हैं अथवा कर पा रहे हैं।
कई बार परिवेशीय चुनौतियों
ने हमारा उत्साह तोड़ दिया, कई मर्तबा अपने ही कहे जाने नालायकों और कमीनों ने पाले बदल दिए, सिद्धान्तों को स्वाहा कर डाला और संबंधों की बलि चढ़ा कर किसी के पालतु हो गए। ढेरों हैं जो समय के साथ फालतू हो गए।
हममें से हर एक के लिए यह गंभीर चिन्तन का विषय हो सकता है कि आखिर हम जिस तरह की जिन्दगी जी रहे हैं उसमें हम अपने लिए, अपने बंधुओं और भगिनियों तथा घर-कुटुम्ब वालों के लिए या फिर अपनी जन्मभूमि के लिए कितना कुछ कर पा रहे हैं।
प्रत्येक इंसान के साथ जुड़ा यह प्रश्न सीधे तौर पर हमारी उपयोगिता से जुड़ा हुआ है। यह दो तरफा है। एक हमारी वैयक्तिक उपयोगिता है, जिसमें हम समय का सदुपयोग हमारे अपने लिए किस प्रकार कर पाएं हैं, इस विषय को गहरे जाकर सोचना है।
दूसरी ओर हमारी समुदाय और अपनी जन्मभूमि के लिए क्या उपयोगिता रही है, इस बारे में विराट कैनवास सामने रखकर उदारतापूर्वक सोचने की जरूरत है।
वैयक्तिक धरातल पर सोचा जाए तो यह देखना होगा कि हमारे पुरखों से हम कितना आगे डग भर पाए हैं। बात ज्ञान, अनुभवों, आदर्शों और सिद्धान्तों की हो या फिर अपने विलक्षण कर्मयोग की, हर मामले में हमें पुरानी परंपराओं से कुछ डग आगे बढ़ना चाहिए अन्यथा हमें शालीनता के साथ यह स्वीकार करना ही चाहिए कि हम कुछ नहीं कर पाए हैं सिवाय टाईमपास के।
यही स्थिति हमारे सामाजिक एवं परिवेशीय सरोकारों की है। इस मामले में हममें से अधिकांश लोग फिसड्डी ही साबित होते हैं। इसका मूल कारण यही है कि हम भले ही विराट विश्व का अंग हों लेकिन हमारी सोच कुछ फीट की दीवारों और अपने कहे जाने वाले चंद चेहरों तक ही सिमटी हुई है और यही कारण है कि हमने अपने ‘मैं’ और अपने लोगों के चक्कर में समुदाय एवं मातृभूमि को गौण समझ लिया है और उनके प्रति उदासीनता ओढ़ रखी है।
अधिकांश लोगों की स्थिति पैसा कमाने की मशीन जैसी हो गई है जिसमें पैसा ही सब कुछ है और इसके लिए चाहे जो करना पड़े। हम सभी लोग पैसा ही पैसा चाहते हैं और इसके लिए कर्म का भाव त्यागे बैठे हैं।
कभी हम ईमानदारी से अपना मूल्यांकन करें तो पाएंगे कि हम अपने कर्मस्थलों से जितना पैसा ले रहे हैं, उसका आंशिक काम तक भी नहीं करते हैं। एक बार बाड़े में घुस क्या गए, अपनी थूथन से बाड़ों को कबाड़ों में तब्दील करने में कोई कसर बाकी नहीं रख छोड़ी है। बाढ़ खेत को खा रही है।
उपयोगिता के लिहाज से हम सभी अपना स्वस्थ और निरपेक्ष मूल्यांकन करें तो हमें यह जानकर शर्म आएगी कि हम बिना काम का पैसा ले रहे हैं। सिवाय हाजरी भरने का ही पैसा मिल रहा है।
खूब सारे क्षेत्र ऎसे हैं जहाँ काफी लोगों के बारे में अक्सर सुना जाता है कि ये लोग कोई काम नहीं करते, इनकी कोई उपयोगिता नहीं है, न संस्थानों के लिए, न समाज के लिए और न ही देश के लिए।
दिन भर धींगामस्ती, बिना बताए गायब हो जाने, दूसरे-तीसरे धंधों में फन आजमाने और पॉवर के दुरुपयोग में हम पीछे नहीं हैं। अपनी निर्धारित ड्यूटी के सिवा हमसे चाहे जो काम करा लो, श्रद्धा, भक्ति और प्रेम से करने लगते हैं। बस कुछ प्राप्ति का भरोसा होना चाहिए।
बावजूद इसके भारी भरकम पैसा उठा रहे हैं और मौज कर रहे हैं जैसे कि बिना काम किए मौज उड़ाने के लिए धन लुटाने का प्रावधान ही हो।
हर इंसान को अपनी उपयोगिता समझनी चाहिए। हम अपने कर्मस्थलों, क्षेत्र और समाज के लिए कितनी उपयोगिता दिखा पा रहे हैं, हमारी कितनी समर्पित एवं आत्मीय भागीदारी है, और लोग हमारी उपयोगिता के बारे में क्या टिप्पणियां करते हैं, इस विषय को ध्यान से सोचें तो सभी प्रकार से स्थितियां शर्मनाक और डूब मरने जैसी ही सामने आएंगी।
कई सारे लोगों के बारे में आम धारणा यही है कि ये नाकारा और अनुपयोगी लोग संस्थानों, क्षेत्र, समुदाय और देश के लिए भार ही हैं और इन्हीं की वजह से हमारा समाज और देश तरक्की नहीं कर पा रहा है क्योंकि बहुत सारा पैसा ऎसे निकम्मों, नालायकों और कामचोरों पर खर्च हो रहा है।
हम जहाँ कहीं हैं वहाँ सबसे पहली प्राथमिकता कर्म को देते हुए ईमानदारी से अपनी उपयोगिता का स्वस्थ मूल्यांकन करें और सुधार लाएं। अपनी उपयोगिता सिद्ध करें या डूब करें। इससे समाज और देश का भला ही होगा। आखिर कब तक धरती अपना बोझ सहन करती रहेगी।
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