सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' 28वीं पुण्यतिथि पर विशेष शेखर एक जीवनी का तीसरा खंड आज तक अप्रक...
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' 28वीं पुण्यतिथि पर विशेष
शेखर एक जीवनी का तीसरा खंड आज तक अप्रकाशित क्यों ?
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' एक मुर्धन्य साहित्यकार, एक जीवट क्रांतिकारी, एक यायावर और एक संवेदनशील मनुष्य थे। नयी कविता और आधुनिक साहित्य में प्रयोग के प्रणेता रहे अज्ञेय अपनी एक बड़ी ही तीक्ष्ण तंजात्मक कविता साँप में कहते हैं-
साँप
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना भी
तुम्हें नहीं आया
एक बात पूछें, उतर दोगे
फिर कैसे सीखा डंसना
विष कहाँ से पाया ?
हिन्दी, संस्कृत, उर्दू, फारसी और अंग्रेजी भाषाओं के उद्भट विद्वान अज्ञेय पर अपने कॉलेज के दिनों में अंग्रेजी कवियों में टेनिसन का तथा उपन्यासकारों में विक्टर ह्यूगो का विशेष प्रभाव पड़ा। लयवद्ध भाषा के कारण टेनिसन का प्रभाव अज्ञेय पर इतना अधिक था कि टेनिसन के अनुकरण में अंग्रेजी के ढ़ेरों कविताएँ लिखीं। ह्यूगो की रचना 'टॉयलर ऑफ दी सी' का अज्ञेय पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा।
अज्ञेय न सिर्फ एक सवंदनशील साहित्यकार थे अपितु एक देशभक्त क्रांतिकारी भी थे। दिल्ली षड़यंत्र केस में भगत सिंह के साथ अज्ञेय भी शामिल थे। अज्ञेय ने पांच साल की यंत्रणादायी जेल झेली। इसे हिन्दी के बहुत कम पाठक जानते है कि अज्ञेय का चंद्रशेखर आजाद के साथ निकट संबंध रहा और अज्ञेय आजाद के प्रशंसक भी रहे। अपने क्रांतिकारी जीवन पर अज्ञेय ने रघुवीर सहाय को एक साक्षात्कार भी दिये थे, जो इतिहास के साथ-साथ हिन्दी साहित्य की भी धरोहर है। उन्होंने साक्षात्कार में उम्मीद जताई थी कि 'शेखर एक जीवनी के तीसरे खंड़' में क्रांतिकारियों के अधिक स्पष्ट रूप सामने आएंगे। हिन्दी के पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि 'शेखर एक जीवनी के तीसरे खंड़' को अज्ञेय ने अपने जीवन काल में पूर्ण कर लिया था फिर भी यह आज तक अप्रकाशित क्यों है ?
अज्ञेय का यह उपन्यास 'शेखर एक जीवनी का तीसरा खंड़' का प्रकाशित होना नितांत आवश्यक प्रतीत होता है क्योंकि इसके पकाशित होने से क्रांतिकारी आंदोलन के कई नये आयाम सामने आ सकेंगे। वैसे क्रांतिकारी आंदोलन का सृजनात्मक रूप यशपाल के उपन्यास 'दादा कॉमरेड' में देखा जा सकता है।
अज्ञेय की साहित्यिक गतिविधियां तो सर्वविदित हैं परंतु उनकी क्रांतिकारी गतिविधियां पर पूर्ण रूप से प्रकाश नहीं डाला गया है। दिल्ली में जब हिमालयन टॉयलेटस फैक्ट्री के बहाने बम बनाने का कारखाना कायम हुआ तो उस फैक्ट्री में अज्ञेय बतौर वैज्ञानिक के रूप में सलाहाकार थे। 15 नवम्बर 1930 को देवराज और कमलकृष्ण के साथ अमृतसर में पिस्तौल की मरम्मत और कारतूस भरने का कारखाना से गिरफ्तार हुए तथा एक महीने लाहौर किले में फिर अमृतसर की हवालात में घोर यातना में रहे। आर्मस एक्ट के मूकदमें से हालांकि अज्ञोय रिहा हो गए परंतु 1931 में एक दूसरा मूकदमा दिल्ली में शुरू हुआ, जो 1933 तक चला। इसी केस में अज्ञेय घोर यातना और यंत्रणा को सहते दिल्ली जेल के कालकोठरी में बंद रहे। यही वह काल कोठरी थी जहां अज्ञेय छायावाद से मनोविाान, राजनीति, अर्थशास्त्र और कानून आदि विषयों का अघ्ययन किया तथा 'चिनता' 'विपथगा' की अनेक कहानियां और 'शेखर एक जीवनी' लिखे।
कुल मिलाकर यह तीन वर्ष की अवधि अज्ञेय के लिए घोर आत्ममंथन, शारीरिक यातना और स्वप्नभंग की पीड़ा की अवधि रही। 1934 के फरवरी में छूटे फिर लाहौर में दूसरे मूकदमें के अन्तर्गत नजरबंद किये गए। यहीं रहकर 'कोठरी की बात' और अपूर्ण 'चिन्ता' की रचना की और इसी अवधि में कहानियों का छपना शुरू हुआ।
रावी के पुल से छलांग मारने पर घुटने की टोपी उतरी जिसका दर्द ताउम्र उन्हें मौका पाकर तड़पाती रही। क्रांतिकारी जीवन के साथियों में जो लोग आदर्शच्युत हुए या जो टूट गये, उनके कारण घोर आत्मपीड़न का भाव जागा और एकाकीपन का अभ्यास अज्ञेय ने कुछ इस कदर किया `िक वह ताउम्र उनके साथ रहा, जिसे उन्होंने 'स्थायी वियोग' कहा। आहुति बनकर अज्ञेय प्रेम को 'यज्ञ की ज्वाला' के रूप में देखा।
1936 में जीविका के लिए संघर्षरत हुए और इसी अवधि में प्रभाकर माचवे, रामविलास शर्मा, प्रकाश चंद्र गुप्त, भरत भूषण अग्रवाल और नेमिचंद्र जैन से परिचित हुए। इसी अवधि में हिन्दी साहित्य के अनेकानेक आयामों और चक्रों से परिचित हुए तथा पत्रकारिता के आदर्श और व्यवहार के वैषम्य का भी साक्षात अनुभव प्राप्त किया। आगरा से निकलने वाली पत्रिका 'सैनिक' के 1936 में संपादक बनाए गए, कलकता से 'विशालभारत' निकाला, इलाहाबाद से 'प्रतीक' तथा नई दिल्ली से 'नया प्रतीक' के संपादक रहे। अंग्रेजी भाषा में 'वाक' के संपादक बने। देश-विदेश की यायावरी के बाद 1965 में 'दिनमान' सप्ताहिक पत्रिका के संस्थापक संपादक रहे। भूखी पीढ़ी आंदोलन को उन्होंने 'दिनमान' के माघ्यम से समर्थन दिया तथा बिहार का कुख्यात सूखा पर दिनमान में लिखे गए उनके लेख हिन्दी साहित्य में 'मील का पत्थर' साबित हुए। 1973-74 में जयप्रकाश नारायण द्वारा संचालित 'एव्रीमेनस विकली' के संपादक बने तथा 1977-80 में नवभारत टाइम्स के मुख्य संपादक रहे।
द्वितीय विश्वयुद्ध के चश्मदीद गवाह रहे अज्ञेय ने युद्ध की विभीषिका का साक्षात अनुभव उन्होंने अपनी कविता 'युद्ध' में लिखा है-
जो पुल बनाएंगे
वे अनिवार्यत
पीछे रह जाएंगे
सेनाएं हो जाएगी पार
मारे जाएंगे रावण
जयी होंगे राम
जो निर्माता रहे
इतिहास में
बंदर कहलाएँगे ।
अज्ञेय का निधन 4 अप्रैल 1987 को नई दिल्ली में हुआ था। उनकी स्मृति को मेरा नमन।
राजीव आनंद
प्रोफेसर कॉलोनी, न्यू बरगंडा
गिरिडीह-815301, झारखंड
संपर्क-9471765417
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