भा रतीय परंपरा में जागरण और शयन तथा पारस्परिक अभिवादन के समय भगवान के नाम का स्मरण करने का विधान रहा है। घोर कलिकाल की वजह से इस परंपरा में...
भारतीय परंपरा में जागरण और शयन तथा पारस्परिक अभिवादन के समय भगवान के नाम का स्मरण करने का विधान रहा है। घोर कलिकाल की वजह से इस परंपरा में थोड़ी कमी आना स्वाभाविक ही है।
हम सभी लोग भगवान का नाम लेकर अभिवादनसूचक शब्दों का इस्तेमाल करते रहे हैं लेकिन इनके अर्थ और इस नामोच्चारण के पीछे छिपे रहस्य को भुला दिया करते हैं। इस वजह से भगवान के नामोच्चारण औपचारिकता मात्र रह गए हैं जहाँ वक्ता और श्रोता दोनों के लिए शब्दों के अर्थ या भावों का कोई मूल्य नहीं है।
हैरत और दुर्भाग्य की बात यह है कि जो लोग भगवान के नाम लेकर अभिवादन की परंपरा निभाते हैं उन लोगों का भगवदीय कर्म से कोई संबंध नहीं रह गया है। यह सिर्फ नाम लेवा अभिवादन से ज्यादा कुछ नहीं है।
इस मामले में हर तरफ महा पाखण्ड और आडम्बर पसरा हुुआ है। खूब सारे लोग ऎसे भगवदीय अभिवादनों का दिन-रात में सैकड़ों बार प्रयोग करते हैं लेकिन उनके व्यक्तित्व और व्यवहार को देखा जाए तो पता चलेगा कि इनका भगवान के कर्म से कोई रिश्ता नहीं है बल्कि यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि इन लोगों का पूरा जीवन आसुरी कर्म से भरा हुआ है और इस प्रकार के आसुरी कर्मों में ही दिन-रात रमे रहते हैं।
सिर्फ जिह्वा और होंठ ही हैं जिनसे भगवान का नाम निकलता है और वह भी भावहीन। आश्चर्य तो तब होता है जब ऎसे-ऎसे लोग भगवान के नाम पर अभिवादन करते हैं जिन्हें किसी भी दृष्टि से इंसान तक नहीं माना जा सकता।
कइयों में आसुरी गुण हैं तो कइयों में हिंसक जानवरों और उन्मादियों का स्वभाव। बहुत से लोग जयश्रीराम, राम-राम, जयरामजी की आदि का उच्चारण करते हुए एक-दूसरे का अभिवादन करते हैं।
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने असुरों के संहार और धर्म मर्यादाओं की स्थापना के लिए अवतार लिया था लेकिन उन्हीं के नाम से अभिवादन करने वाले क्या कुछ नहीं कर रहे हैं, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है।
उन्मुक्त, स्वेच्छाचारी और भोगविलासी जीवन जी रहे लोगों का राम से क्या लेना-देना। मर्यादाओं का चीरहरण करने वाले लोगों के मुँह से राम सुनना कितनी बड़ी और घोर विडम्बना ही है।
इस प्रकार के लोगों को राम का नाम लेते हुए शर्म तक नहीं आती जिनके सारे कर्म उन असुरों जैसे हैं जिनके खात्मे के लिए राम का अवतरण हुआ।
कुछ धर्मभीरू लोग यह तर्क जरूर दे सकते हैं कि राम का नाम लेने से उनमें सुधार आ जाएगा, लेकिन ऎसा वे पोंगापंथी और रूढ़िवादी लोग ही कह सकते हैं जिनके लिए कर्तव्य कर्म और समाज की सेवा-परोपकार से बढ़कर घण्टियां हिलाना और धर्म के नाम पर कर्मकाण्ड के आडम्बरों में रमे रहना ही भक्ति और धर्म है। अन्यथा धर्म के दस लक्षणों से इनका कोई वास्ता कभी नहीं होता।
जाति भेद रखने वाले, ऊँच-नीच को मानने वाले, गरीबों और जरूरतमन्दों के किसी काम न आने वाले लोग मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का नाम लेने का कोई अधिकार नहीं रखते।
इसी प्रकार जयश्रीकृष्ण कह कर अभिवादन करने वालों की भी कोई कमी नहीं है। श्रीकृष्ण ने ज्ञान, भक्ति और कर्मयोग पर चलने का उपदेश दिया, धर्म की स्थापना के लिए कार्य किया और हमारे ज्ञान चक्षुओं को खोलने के लिए गीता जैसे महान ग्रंथ को हम तक पहुंचाया। और हम हैं कि धर्म से कोई वास्ता न रखकर सिर्फ जयश्रीकृष्ण बोलकर ही अभिवादन करने मात्र को कृष्ण भक्ति समझ चुके हैं।
आश्चर्य तो तब होता है जब कर्मयोग से भागने वाले, भक्ति और ईश्वर के प्रति अनन्य श्रद्धा से कोसों दूर तथा अधर्म में रचे-बसे लोग जयश्रीकृष्ण कहते हुए अभिवादन करते हैं।
अपनी ड्यूटी से जी चुराने वाले, ड्यूटी टाईम से गायब रहने वाले, अपने जिम्मे के कामों टालने वाले, बहानेबाज, भ्रष्ट, बेईमान, कमीशनखोर और सज्जनों को प्रताड़ित कर उनका शोषण करने वाले लोग भी जयश्रीकृष्ण कहते हुए मुस्करा कर अभिवादन करते हैं तब लगता है कि इनका जयश्रीकृष्ण उच्चारण भगवान के साथ कितनी बड़ी मजाक है।
कई सारे लोग राधे-राधे और जयश्री राधे कहते हुए अभिवादन करते हैं। जबकि इन लोगों के दिल में न किसी के प्रति स्नेह, प्रेम या श्रद्धा होती है, न आत्मीय भाव। जिसमें प्रेम और सद्भावना न हो, उसके मुख से राधे-राधे सुनना भी कितना विचित्र ही लगता है।
बहुत बड़ा वर्ग है जो जय गुरु, जै गुरु आदि का उच्चारण करता हुआ अभिवादन में रमा रहता है। इनमें खूब लोग ऎसे होते हैं जो न गुरुओं के उपदेशों पर चलते हैं, न गुरु की बातों पर अमल करते हैं। सिर्फ जै गुरु या जय गुरु कहकर अभिवादन तक ही इनकी गुरुभक्ति सिमटी रहती है।
यह स्थिति सभी प्रकार के देवी-देवताओं और गुरुओं से जुड़े हुए अभिवादन सूचक शब्दों की है। शराबी, मांसाहारी, व्यभिचारी, दुराचारी, शोषक, कामचोर, भ्रष्ट, बेईमान, मुनाफाखोर, कमीशनबाज, ड्यूटी के प्रति उदासीन, पराये माल पर डाका डालने वाले, सज्जनों को परेशान करने वाले, हरामखोर, नालायक, इंसानियत से दूर रहने वाले, आसुरी कर्म में रमे रहने वाले लोग जब गुरु या देवी-देवता के नाम से अभिवादन करते हैं तब इन उच्चारणों का कोई अर्थ नहीं रह जाता, यह सिर्फ ध्वनि मात्र होते हैं।
अव्वल बात यही है कि ऎसे लोगों का क्या अधिकार है उन भगवदीय अभिवादन सूचक शब्दों के इस्तेमाल का, जो अपने भीतर महानतम दैवीय सामथ्र्य को साकार करने का सामथ्र्य रखते हैं। पर इस मामले में हममें से किसी को कभी शर्म नहीं आती।
हम कभी यह भी नहीं सोचते कि हम जिनका नाम लेने के आदी हैं उनके उपदेशों को भी तो जानें, समझें और जीवन में उतारें। हमारे कर्म तो आसुरी हैं, और नाम लेते हैं भगवान का। यह अपने आप में इंसान के दोहरे चरित्र को व्यक्त करता है।
इस मामले में हमारा मनुष्य जन्म तब तक सफल नहीं होगा जब तक कि हमारी वाणी और आचरण में समानता न आए। या तो अपने आप में सुधार लाएं या भगवान के नाम से अभिवादन के ढोंग को तिलांजलि दें। अजीबोगरीब विचित्रताएं एक साथ कभी नहीं चल सकती। यह मानवी आडम्बर के सिवा कुछ नहीं।
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- डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
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